पूरे पचास साल: मौलिकता की बहसों के बीच फैलता एक सिनेमा का लोक-जीवन
सांभा के ‘पूरे पचास हजार’ और गब्बर के ‘पचास-पचास कोस दूर’ वाले अतिपरिचित संवादों से कल्ट बन चुकी ‘शोले’ को आए इस स्वतंत्रता दिवस पर पूरे पचास साल हो रहे हैं। मनोरंजन का एक लोकरंजक उत्पाद कैसे लोक को घेरता है तो घेरता ही चला जाता है, ‘शोले’ यदि इसका जीवंत उदाहरण है तो इसकी वजह उसकी राजनीतिक पृष्ठभूमि है। यह फिल्म इमरजेंसी के बीचोबीच आई थी- एकदम चरम दिनों में, महज डेढ़ महीने में। आज भले घोषित इमरजेंसी नहीं है, लेकिन स्थितियां कुछ कम भी नहीं हैं और अन्याय व जुल्म के खिलाफ ‘शोले’ निरंकुशता के आकाश में अटल सूरज की तरह चमक रही है। ‘शोले’ की पृष्ठभूमि और प्रासंगिकता पर चर्चा कर रहे हैं श्रीप्रकाश