Ideas

gayatri chakravorty spivak

JNU विवाद : दक्षिणपंथ की मिट्टी में दफन हो रहा पहचान का कफन

by

JNU में कुछ अच्‍छा हो या बुरा, सब कुछ विवाद का विषय बन जाता है। पिछले कुछेक साल से यह रोग इस विश्‍व-प्रसिद्ध युनिवर्सिटी को लग चुका है। कहां तो गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक के यहां आने और उनके दिए व्‍याख्‍यान पर बात होनी चाहिए थी, और कहां एक छात्र की प्रतिवाद में उठी उंगली खबर बन गई। पाले बंट गए। गाली-गलौज शुरू हो गई। बौद्धिक विमर्श की परंपरा वाला एक परिसर आखिर इस पतन तक कैसे पहुंचा? ताजा विवाद के अधूरे पहलुओं पर प्रकाश डाल रहे हैं अतुल उपाध्‍याय

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के राजकाज के पांच वैश्विक सिद्धांत: AI पर UN की अंतरिम रिपोर्ट

by

तेलंगाना में कल्‍याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों की पहचान में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के इस्‍तेमाल के कारण दस लाख से ज्‍यादा लोग यानी हजारों परिवार भोजन से वंचित रह गए और करीब डेढ़ लाख नए आवेदन खारिज कर दिए गए। सरकारों के राजकाज में AI के प्रयोग का जोखिम अब साफ दिखने लगा है। ऐसे में संयुक्‍त राष्‍ट्र की एक उच्‍चाधिकार प्राप्‍त समिति ने पिछले महीने AI के वैश्विक राजकाज के पांच सिद्धांत अपनी अंतरिम रिपोर्ट में सामने रखे हैं। प्रोजेक्‍ट सिंडिकेट के विशेष सहयोग से इयान ब्रेमर और अन्‍य की रिपोर्ट

Bombard the Media: 1992 के बाद बौद्धिक हस्तक्षेप के संकट पर आनंदस्वरूप वर्मा से बातचीत

by

महज तीस साल पहले की बात है जब दो पत्रकारों की पहल पर दिल्‍ली से पांच दर्जन लेखक, पत्रकार और बुद्धिजीवी ट्रेन पकड़ कर प्रतिरोध मार्च निकालने लखनऊ निकल लिए थे। यह 6 दिसंबर, 1992 के ठीक दो हफ्ते बाद हुआ था। सारे अखबारों ने इस प्रतिरोध और सभा की न केवल कवरेज की थी, पूर्व सूचना भी छापी थी। तब देश भर में प्रदर्शन हुए थे। आज ऐसा बौद्धिक दखल नदारद है। क्‍या हुआ है इन तीन दशकों में? दिल्‍ली से लखनऊ गए जत्‍थे के संयोजक वरिष्‍ठ पत्रकार आनंदस्‍वरूप वर्मा से फॉलो-अप स्‍टोरीज के लिए अभिषेक श्रीवास्‍तव की बातचीत

नए दौर के नकली नायक: डॉ. रघुराम राजन

by

हर दुनिया में और हर दौर में कुछ ऐसे नायक पैदा होते हैं जो नकली होते हैं। इनका पता समय रहते नहीं लगता। समय बीत जाने के बाद इनकी गांठें खुलती हैं। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। कोरोना महामारी के बाद आज जो नई दुनिया हम अपनी आंखों के आगे बनती देख रहे हैं, उसने भी कुछ नए नायक पैदा किए हैं। ये नायक एकबारगी जनता की बात करते दिखते हैं, लेकिन उनकी प्रेरणाएं और मंशाएं अपने कहे से उलट होती हैं। ऐसे ही व्यक्तियों के ऊपर नए साल में हम ‘नए दौर के नकली नायक’ नाम से एक श्रृंखला शुरू कर रहे हैं। पहली कड़ी मशहूर अर्थशास्त्री डॉ. रघुराम राजन के ऊपर मुशर्रफ अली की कलम से

‘बुराई को रोजमर्रा की मामूली चीज बना दिया गया है और चेतावनी का वक्त जा चुका है’!

by

अपने निबंध संग्रह ‘आज़ादी’ के फ्रेंच अनुवाद के लिए अरुंधति रॉय द्वारा 2023 यूरोपियन एस्से प्राइज़ फ़ॉर लाइफ़टाइम एचीवमेंट स्वीकार करते समय लौज़ान, स्विट्ज़रलैंड में दिए गए भाषण के प्रासंगिक अंश। अनुवाद रेयाज़ुल हक़ ने किया है।

ऐतिहासिक ‘सभ्यताएं’ हिंसा, जोर-जबर, और औरतों के दमन पर टिकी थीं!

by

लेखिका एवं शोधकर्ता साशा सवानोविच ने डेविड वेनग्रो की किताब ‘द डॉन ऑफ एवरीथिंग: ए न्यू हिस्ट्री ऑफ ह्यूमैनिटी’ को लेकर उनसे बातचीत की है। इस चर्चा में अपनी किताब के निष्कर्षों का हवाला देते हुए वेनग्रो ‘सभ्यता’ की यूरोप केंद्रित समझदारी की पड़ताल और पर्दाफाश करते हैं और इस बात की ओर इशारा करते हैं कि कैसे पुरातत्व एवं नृतत्व की मदद से आज समाजों को आकार दिया जा सकता है। अनुवाद अतुल उपाध्याय का है

भारत का ‘लेफ्ट’ और एजाज़ अहमद की तकलीफ

by

बीते 89 वर्ष में आरएसएस ने आखिर ऐसी कौन सी रणनीति अपनाई कि उसके राजनीतिक मोर्चे भाजपा ने 2014 में भारत की केन्द्रीय सत्ता पर कब्‍जा कर लिया? जबकि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी जिसकी विधिवत स्थापना आरएसएस के साथ ही 1925 में हुई थी और आजादी के बाद जो दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी, अपने दो प्रदेश भी गंवा बैठी? ऐसा कैसे मुमकिन हुआ? इतिहासकार एजाज़ अहमद और एंतोनियो ग्राम्‍शी से सबक लेते हुए इस प्रासंगिक सवाल पर रोशनी डाल रहे हैं मुशर्रफ़ अली

आर्थिक बदलाव कैसे धार्मिक-जातीय दंगे में बदल जाते हैं?

by

ऊपरी तौर से देखने पर भले लगे कि समाज में होने वाली हिंसा, टकरावों, संघर्षों, आंदोलनों और दंगों के पीछे राजनीतिक पार्टियों की सत्तालोलुपता और धार्मिक कट्टरपंथियों की महत्वाकांक्षा की भूमिका है, लेकिन मामला कुछ और ही होता है। डेढ़ सौ साल का आधुनिक इतिहास इसकी गवाही देता है। हिंसा और दंगे के आर्थिक इतिहास को खंगाल रहे हैं अरुण सिंह

भारत का पत्रकार मानवाधिकार कार्यकर्ता कैसे बना?

by

इस प्रेस स्‍वतंत्रता दिवस पर युनेस्‍को की थीम में एक अदृश्‍य सबक छुपा है, कि अब समुदाय, पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता के बीच अंतर बरतने का वक्‍त जा चुका