कभी-कभी यूं होता है कि आप घर से निकलते हैं और सत्यार्थी आपको गली के नुक्कड़ पर नज़र आता है। आप शाम को कॉफी हाउस पहुंचते हैं और सत्यार्थी आपको काउंटर के करीब नज़र आता है, आप बहुत रात गए घर का रास्ता पकड़ते हैं और सत्यार्थी आपको किसी स्टॉल के बाहर नज़र आता है और फिर यूं होता है कि आप लिहाफ़ में घुसते हैं, आपको महसूस होता है कि सत्यार्थी आपके साथ है।
कभी आप सत्यार्थी के साथ ऐसा आदमी देखते हैं जो आपके लिए हर दर्जे का अहमक है और जिसका एक मिनट का साथ भी आपको गवारा नहीं, लेकिन आप देखते हैं कि सत्यार्थी इस अहमक शख़्स से घुल-मिल कर बातें कर रहा है। आप सोचते हैं कि सत्यार्थी को अपनी हैसियत तक का एहसास नहीं। कभी आप सत्यार्थी के साथ किसी ऐसे वीआइपी को बेतकल्लुफ़ी से बातें करते हुए देखते हैं जिसके पास दो घड़ी बैठने को आपका मन तरसता है और कभी यूं होता है कि सत्यार्थी नज़र नहीं आता। महीनों नज़र नहीं आता। आप कह नहीं सकते कि सत्यार्थी शहर में है या शहर में नहीं है। शहर से बाहर है, तो कहां है?
सत्यार्थी को पाना जितना आसान है उतना ही मुश्किल भी है।

उर्दू अदब के क़ारी (पाठक) ने सत्यार्थी को आसानी से पाया है, लेकिन मैं समझता हूं कि उर्दू अदब के क़ारी ने भी सत्यार्थी को अब तक नहीं पाया है। एक लचर, घिसी-पिटी कहानी को पाया है जो सत्यार्थी को पहना दी गई है। एक घटिया कहानी मैंने भी सत्यार्थी को पहनाई थी। पुरुषार्थी, जो कराची के “सात रंग” में छपी थी। इस लचर घिसी-पिटी कहानी को गढ़ने वाले उर्दू के बहुत से कहानीकार और बहुत से शायर हैं और सत्यार्थी है कि एक बेपनाह बेपरवाही से अब तक उस लचर घिसी-पिटी कहानी को पहने हुए है।
जब “अदब-ए-लतीफ़” (एक साहित्यिक पत्रिका) को नया रंग-रूप देने की तैयारियां शुरू हुईं, उस वक्त सत्यार्थी मेरे मन में था। सत्यार्थी ने पिछले दो-तीन बरस में कई कहानियां लिखी हैं। चंद बेपनाह कहानियां सुनने का मुझे इत्तेफ़ाक भी हुआ है- “ये कुर्बतें ये दूरियां”, ”गोमती के पास” और “मंटो” (मंटो इतनी तेज़ कहानी है कि सुनने वाला अंदर-बाहर से हिल जाता है)। सत्यार्थी को लिखने का जुनून है लेकिन छपने की रत्ती भर ख्वाहिश नहीं।
सत्यार्थी से मुलाकात हुई और मैंने नए “अदब-ए-लतीफ़” के बारे में कहा। सत्यार्थी ने सहयोग का वादा तो कर लिया, लेकिन फिर यूं हुआ कि आप ऐसे गायब हुए कि जिससे पूछूं यही कहे, देखा नहीं। और फिर सुरेंद्र प्रकाश, जो दाएं हाथ की उंगलियों से कब्र में से मुर्दे बाहर निकाल लाता है, मेरी मदद को आया-“सत्यार्थी यह इतवार हमारे साथ गुज़ारेंगे”।
सत्यार्थी के खिचड़ी बाल चुपड़े और संवरे हुए थे और कंधों से ज़रा ऊपर तक झूल रहे थे। माथा दमक रहा था और पुरानी और मैली ऐनक से ढकी हुई आंखें हमेशा की तरह उदास थीं। करीब-करीब सफ़ेद घनी मूंछों और घनी दाढ़ी में छिपी हुई गुलाबी होठों की हल्की-सी झलक दिखाई दे रही थी। सत्यार्थी ने अचकन की तर्ज़ का घुटनों तक लंबा रासलेक का करीम का कोट पहना हुआ था जिसके सारे बटन खुले हुए थे। कोट के नीचे खद्दर का सफ़ेद कुर्ता था जिसके सारे बटन खुले हुए थे। कुर्ते के नीचे बनियान न थी, गोरा बदन था जो नज़र आ रहा था। उन्होंने खद्दर का पाजामा पहना हुआ था। कोट, कुर्ता और पाजामा कोई चीज आयरन नहीं हुई थी और इत्तेफ़ाक से उजली थी। मोज़ों से अनभिज्ञ पैरों में ब्राउन जूता था जिसके फ़ीते खुले हुए थे (ग़ालिबन सत्यार्थी अंडरवेयर क़िस्म की चीज़ों के आदी नहीं हैं। एक ज़माना हुआ, सत्यार्थी ने मुझसे कहा था- “मैं अंडर गेम खेलना नहीं जानता!”)।
सुरेंद्र के घर से मद्रास कैफ़े की तरफ़ बढ़ते हुए मैंने एक बात नोट की कि सत्यार्थी कदम उठाते नहीं, उनके कदम सड़क की छाती पर घिसटते हैं। मद्रास कैफ़े अजमल खान रोड पर है (अजमल खान रोड को हम पंजाबी लोग अनारकली कहते हैं- लाहौर से हमारा इश्क ज्यों का त्यों है)।
हम दाएं-बाएं फैली हुई तीनमंज़िला इमारत के बीच मद्रास कैफे के लॉन में बैठ गए। टीन की फोल्डिंग, कुर्सियां और सफ़ेद वज़नी पत्थर की चमकनी और ठंडी सतह वाली मेज़, सर पर मधु मालती और अंगूरी बेलें और इधर-उधर बैठे हुए मद्रासी। हमने नाश्ते के लिए इडली-सांभर मंगवाना चाहा लेकिन हम देर से पहुंचे थे और इडली खत्म हो चुकी थी। हमने सांभर मंगवाया। अरहर की दाल का तेज़-ओ-तूंद सांभर, उरद की दाल का हरी मिर्च और अदरक मिला वड़ा और नारियल की चटनी।
और फिर सुरेंद्र ने अपना ख़ास जुमला फेंका- “हो जाए फिर गुफ़्तगू!”
सुरेंद्र के इस जुमले पर मुझे हमेशा अज़ीज़ उल हक़ (पाकिस्तान का नौजवान नाक़िद) याद आ जाता है जो आजकल लाहौर की महफिलों से दूर कनाडा में बैठा हुआ है। वह भी बात शुरू करने से पहले कहा करता था- हो जाए कुछ!
यूं हमने सत्यार्थी को घेरे में लिया।

मैंने कहा- “सत्यार्थी साहब क़िस्सा ये है कि आपकी शख्सियत पर एक लफ़्ज़ का पहरा है- फ्रॉड! हर वो शख्स जिसे उर्दू अफ़साने से ज़रा भी दिलचस्पी है आपको फ्रॉड की हैसियत से जानता है। मुझे याद है चंद साल पहले अरदन रोड पर पंजाबी अदब की महफ़िल में कृष्ण चंदर ने आपको फ्रॉड कहा था जब मैंने पढ़ना शुरू किया था। यह बात मेरे ज़हन में पहले से मौजूद थी लेकिन इधर चंद बरसों में ढंग से पढ़ने के बाद और अच्छी तरह जानने के बाद इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि यह फ्रॉड वाला किस्सा बकवास है। इन चंद बरसों में मेरी बहुत से अदीबों से मुलाकात हुई है। मैंने बहुत से अदीबों की रचनाएं पढ़ी हैं और उनकी ज़िंदगी के बारे में पढ़ा है, मेरा ख्याल है कि बहुत से फ्रॉड उर्दू अदब में मौजूद हैं लेकिन आपके बारे में अब मुझे ऐसा महसूस नहीं होता। मैं चाहता हूं आज आप इस सिलसिले में तफ़सील से बात करें।”
मैंने सत्यार्थी की तरफ़ देखा। पुरानी और मैली ऐनक के पीछे उनकी उदास आंखें कुछ और उदास हो गईं थीं। वह काफ़ी संजीदा नज़र आ रहे थे, लेकिन वह हैरान नहीं थे। शायद इसलिए कि वह हमें अच्छी तरह जानते हैं कि यह लोग अनप्रिडिक्टेबल हैं और वैसे भी उनके लिए ऐसी बात का जवाब देने का यह पहला मौका था। उन्होंने धीमे-धीमे अपनी बारीक आवाज़ में कहना शुरू किया (मंटो ने घनी दाढ़ी और घनी मूंछों के जाल में से निकलती हुई इस आवाज़ के बारे में कहा था जैसे घोसले में चिड़िया चहचहा रही हो)।
“पहली बात यह कि कृष्ण चंदर ने मुझे पंजाबी अदब की महफ़िल में फ्रॉड नहीं कहा था, महाबोर कहा था और इसका तहरीरी सबूत मौजूद है। यह कृष्ण चंदर का एक फ्रॉड था जिसके बारे में आगे चल कर कहूंगा। फ्रॉड मुझे पहली बार मंटो ने कहा था और बड़ी मोहब्बत से कहा था। यह उन दिनों की बात है जब मैं बेदी के यहां ठहरा हुआ था। उन दिनों “साक़ी” में मेरा अफ़साना “किंग पोश” छपा था और उन्हीं दिनों मंटो का “खुशियां”। मैंने मंटो को पहला खत लिखा था और उसे मुबारकबाद पेश की थी। मैंने लिखा था, काश मैं “खुशियां” होता! फिर मुझे मंटो का खत मिला था। पहले और आखिरी खत में मंटो ने लिखा था कि वह “हुमायूं” में मेरे मज़मून (लोकगीतों के बारे में) पढ़ता रहा है और उसकी ख्वाहिश है कि वह मेरी नज़्म बन कर मेरे साथ नगरी-नगरी यात्रा करे।
मेरी हैसियत एक मुसाफ़िर की रही है, मैं इसी लिबास में नगरी-नगरी घूमा हूं, अनगिनत लोगों से मिला हूं। उन लोगों से भी जो दुनियावी तालीम से कोसों दूर हैं और उनसे भी जो पढ़-लिख कर बहुत बड़ी सामाजिक हैसियत हासिल कर चुके हैं, लेकिन मेरी यात्रा में किसी की हैसियत के कोई मानी नहीं हैं। जब मैं दिल्ली पहुंचा तो मैं मंटो से मिलने अंडर हिल रोड पर ऑल इंडिया रेडियो के दफ़्तर में चला गया। मैं और मंटो बातें कर रहे थे कि एक साहब, आडवाणी, जो मंटो के बॉस थे, आ धमके। आडवाणी ने मुझे देखते ही अंग्रेज़ी में कहा- सत्यार्थी तुम मुझसे मिलने आए हो? मैंने कहा नहीं, मैं मंटो से मिलने आया हूं। आडवाणी ने फिर ज़रा ज़ोर देकर और मंटो को घूरते हुए मुझसे कहा- नहीं, तुम मुझसे मिलने आए हो। अब मैंने कहा वैसे आप कौन साहब हैं? आडवाणी ने कहा- आडवाणी! मैंने कहा- अच्छा मिस्टर आडवाणी, मैं मंटो से फ़ारिग़ होकर आपसे मिलने आऊंगा।
श्री आडवाणी एक ब्यूरोक्रेट थे और मंटो उनका मुलाज़िम। हालांकि मैं आडवाणी को पहले से जानता था, लेकिन मेरी फ़क़ीराना ज़िंदगी में एक ब्यूरोक्रेट की कहां गुज़र। मेरे सामने तो मंटो बैठा था- एक कहानीकार, लेकिन मंटो की ट्रैजेडी यह थी कि वह कहानीकार के अलावा एक ब्यूरोक्रेट का मुलाज़िम था। यहां एक बात और सुनिए, उन दिनों मेरे लोकगीतों के संकलन के बारे में बातचीत हो रही थी और इसके कॉपीराइट के लिए मुझे बारह सौ रुपये पेश किये जा रहे थे। यह सब बातें मंटो के सामने हो रही थीं। मैं कॉपीराइट देने के खिलाफ था। यहां यह बात भी नोट करने की है कि उन दिनों बारह सौ रुपये एक मानी रखते थे। मैं कहता था कि कॉपीराइट देने का मुझे कोई हक़ नहीं है, कॉपीराइट तो भारत माता के पास है। गीत मेरे नहीं हैं, हां, मैंने घूम-घूम कर इकट्ठे किए हैं और उन्हें मानी दिए हैं। मंटो के घर में मैंने यह बात कही थी, उसी वक्त मंटो ने कहा था कि सत्यार्थी तुम बहुत बड़े फ्रॉड हो। दरअसल मेरा रवैया इन सब लोगों की समझ से परे था। कॉपीराइट देने के मेरे इंकार पर यह साले सब चिढ़ गए थे एक तरह से। हो सकता है मुझे मंटो से उसके हीनताबोध ने फ्रॉड कहलवाया हो, लेकिन मैं अभी यही समझता हूं कि मंटो ने प्यार से ही कहा था। मैं मंटो को हमेशा प्यार करता रहा हूं और अब भी मंटो मुझे बहुत याद आता है, लेकिन अब इसे क्या कहा जाए। उस ज़माने में जुमले चल जाया करते थे। मंटो का जुमला चल गया और उसे कांधा देने वाले हीनता के मारे सारे अदीब थे जो छोटी-छोटी नौकरियों के चक्कर में छोटी-मोटी शोहरातों के चक्कर में क़दम-क़दम पर समझौते के शिकार हो जाते हैं।
एक और वाक़या सुनिए चंद साल बाद मेरी किताब “मैं हूं खानाबदोश” छपी और मैं पहली बार पतरस से मिलने गया। यह मुलाकात राशिद ने अरेंज की थी। इससे पहले पतरस से मेरी कभी मुलाकात नहीं हुई थी क्योंकि मैं रेडियो की नौकरी के चक्कर से बाहर था। पतरस से मुलाकात हुई। पतरस अपनी कुर्सी पर बैठा हुआ था। बीच में मेज़ थी और पतरस के सामने मैं बैठा हुआ था और राशिद। मुझे पहली बार महसूस हुआ कि नौकरियों के आदाब इस बुरी तरह आदमियों को घायल करते हैं।
उस कमरे में उस वक्त राशिद की हैसियत बिल्कुल मामूली थी। मैंने पतरस को अपनी किताब “मैं हूं खानाबदोश” दी जिसके शुरू में टैगोर के साथ मेरी तस्वीर छपी हुई थी। यह बात अपने आप में बहुत मुतास्सिर करने वाली थी। चाहे मुत्तसिर होने वाला रेडियो का सबसे बड़ा अफ़सर ही क्यों ना हो। मैंने राशिद को देखा और पतरस से कहा, ऐसा महसूस होता है कि मैं रेडियो का डायरेक्टर जनरल हूं और आप हैं देवेंद्र सत्यार्थी।
अब मेरा यह जुमला ना चल सका क्योंकि मैं नौकरियां नहीं दिला सकता था, लेकिन पतरस का यह जुमला चल गया जो उन्होंने इस मुलाकात में टैगोर के साथ मेरी तस्वीर देखकर कहा था- खिजाब से पहले और खिजाब के बाद। मेरी कहानी “नए देवता” में मंटो पर ये चोट है कि मंटो जो बज़ाहिर बहुत बड़ा इंकलाबी जहां है रेडियो की नौकरी हासिल करने पर बहुत खुश है, न सिर्फ खुश है बल्कि इस खुशी में शराब की दावत भी देता है। रेडियो की नौकरी उस जमाने की सबसे बड़ी लानत थी। इस नौकरी ने बहुत से अदीबों के किरदार को डांवाडोल किया था। फ्रॉड उसके लिए चल गया कि ग़म-ए-रोजगार और ग़म-ए-शोहरत के मारे अदीब मेरा नगरी-नगरी घूमने, लोकगीत इकट्ठे करने और मेरे पहनावा और हर बड़े-छोटे से मेरी बातचीत का ढंग, सब बातों को अपनी तसल्ली के लिए ढोंग समझ बैठे। टैगोर के साथ मेरी तस्वीर उन्हें मेरी शरारत लगी और टैगोर और गांधीजी के मेरे नाम खत और अमृता शेरगिल से मेरी मुलाकात। यह लोग बहुत छोटे थे, किरदार के छोटे थे और जिन लोगों के साथ मुझे चलना था वह अभी नहीं आए थे।“

सत्यार्थी की मधुर आवाज़ की नदी कभी सुकून से, कभी तेज़ी से बह रही थी और इस नदी में “हुमायूं” के कातिब अब्दुल अज़ीज़ से लेकर “हुमायूं” के मुदीर हामिद अली खान और उस ज़माने के और बहुत से लोगों को बहते देखा। नदी के पार उतरते देखा और नदी में डूबते देखा। वो लोग भी डूबे जो अनाड़ी थे और वो लोग भी डूबे जो तैरना जानते थे।
महमूद हाशमी ने कहा “सत्यार्थी साहब, इस ज़माने के तमाम अदीबों की तखलीकात हमारे सामने है। मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि उस जमाने के अदीबों में ज़हानत थी, जैसे मंटो। कुछ लोग औसत ज़हानत के थे, लेकिन एक बड़ी तादाद ऐसे अदीबों की थी जो अहमक तो नहीं थे लेकिन ज़हीन भी नहीं थे। फिर भी उस जमाने में हर शख्स का नाम चमका। ये अजीबोगरीब बात है। मेरा ख्याल है, उस जमाने में लोग अफसानानिगारी के अलावा ‘अंडरहैंड गेम्स’ भी खेलते थे। लिखते कम थे या लिखते घटिया थे, लेकिन शोहरत पाने के लिए उनकी चालाकी का कोई जवाब नहीं। इस सिलसिले में आप कुछ कहें।”
सत्यार्थी ने कहा “आपका ख्याल सही है। उस जमाने में हर शख्स चालाक बनने के चक्कर में था, राजेंद्र सिंह बेदी को छोड़कर।“
महमूद ने फिर कहा, “सत्यार्थी साहब, आपने उर्दू कहानी का हर दौर देखा है, हर शख्स को समझा है। आपको किसी एक नाम से दिलचस्पी नहीं रखनी चाहिए।“
सत्यार्थी चंद लम्हे खामोश रहे और फिर उन्होंने कहा- “अब आप कहलवाना चाहते हैं तो ठीक है। उस जमाने में बहुत अच्छे अफ़साने लिखे गए और अच्छे खासे लोग पैदा हुए, लेकिन ये बात सच्ची है कि वह दौर चालाकियों का दौर था। उन्हीं दिनों एशिया मैगजीन में मेरा एक मजमून छपा। एशिया मैगजीन बहुत बड़ी चीज थी। आपको ताज्जुब होगा और मुझे भी उस वक्त ताज्जुब हुआ था। उन दिनों कृष्ण चंदर ने मुझे खत लिखा था कि एशिया मैगजीन के साथ कुछ उनका सिलसिला भी हो जाए। अज्ञेय ने भी उन दिनों मुझे इस सिलसिले के बारे में कहा था और मैंने अज्ञेय और एशिया मैगजीन की संपादक श्रीमती अमर सेन की मुलाकात अरेंज की थी। अब अज्ञेय बैनुल अक्वामी शख्सियत बन बैठा है और आप जानते हैं कि पुरोहित की हैसियत पुरोहित की सी ही रहती है। राजेंद्र सिंह बेदी के पहले मजमुआ “दाना ओ दाम” का पेशलफ्ज़ हंसराज रामनगरी ने लिखा है लेकिन यह पेशलफ्ज़ हकीकत में बेदी ने खुद लिखा थ। बेदी की जबान के बारे में एक दिलचस्प बात सुनिए।
बेदी के अफसाने “अदबे लतीफ़”, “साक़ी”, “अदबी दुनिया” में छपा करते थे लेकिन “हुमायूं” में नहीं छपते थे। एक बार मैंने हामिद अली खान से बेदी के अफसानों के बारे में कहा तो उन्होंने कहा कि बेदी की ज़बान बहुत घटिया है। मैंने कहा कि ज़बान दुरुस्त की जा सकती है। हामिद अली खान, “हुमायूं” के मुदीर ने कहा कि बेदी का इज़हार भी घटिया है। बेदी को डाकखाना की नौकरी छोड़ने पर मैंने भी मजबूर किया था। बेदी ने नौकरी छोड़ दी और अब बहुत काम करने थे। एक काम फ़ैज़ की दावत करना था जिसके लिए बेदी ने तीन सौ रुपये का बजट बनाया था। कमरे को सजाना, कबाड़ी बाजार से बेंत की कुर्सियां खरीद कर उन पर रंग करवाना। उन दिनों ऐसे काम करना बहुत जरूरी हो गया था।
काफी अरसे बाद “साक़ी” के मुदीर (संपादक) शाहिद अहमद देहलवी ने मेरी एक किताब छापनी चाही, कहा कि बेदी ने “कोखजली” के चार सौ रुपये लिए हैं और कृष्ण ने “शिकस्त” के छह सौ रुपये। मैंने कहा कि शाहिद साहब, सात समंदर होते हैं और हफ्ते के सात ही दिन, इस तरह का मुआमला हो जाए। शाहिद साहब ने उसी वक्त सात सौ रुपये का बियरर चेक काट दिया और हमने पहली बार रेडियो खरीदा, कमरे की शक्ल की कालीन खरीदी और बेंत की कुर्सियां और बेदी से कहा कि ये कुर्सियां इस बाजार से नहीं खरीदी गई हैं। कई साल बाद शाहिद साहब से कराची में मुलाकात हुई तो मैंने कहा कि शाहिद साहब आपके सात सौ रुपये का ऋणी हूं। मेरी किताब अब तक नहीं छपी है। बेदी ने अपनी किताब “कोखजली” और कृष्ण चंदर ने “शिकस्त” कहीं और से छपवा ली।“
देवेंद्र सत्यार्थी माज़ी, माज़ी करीब और हाल, तीनों ज़बानों में बेतकल्लुफी से घूम रहे थे।
“साहिर लुधियानवी से मेरी बेतकल्लुफी की वजह ये नहीं थी कि मुझे उसकी शायरी पसंद थी, उसकी वजह ये थी कि हम दोनों अमृता प्रीतम पर मरते थे। चौधरी नज़ीर ने अख्तर औरीनवी के कहानी के मजमुए “मंजर और पसमंजर” के कापीराइट पांच सौ रुपये में खरीद लिए थे और मैंने गुस्से में एक कहानी “अगले तूफान नूह तक” लिखी थी और चौधरी नज़ीर को बहुत रात गए सड़क के किनारे लैंप पोस्ट की मद्धम रोशनी में सुनाई थी, इस ख़ौफ़ के साथ कि अभी चौधरी नज़ीर मुझे घूंसा जड़ देगा।
मंटो ने मुझे कहा था कि किस तरह उसने कृष्ण चंदर की महबूबा के कपड़े उतरवाकर उसे वापस भेज दिया था (इस वाक़ये का पूरा जिक्र नज़ीर चौधरी की इदारत में लाहौर से निकलने वाला जरीदा “सवेरा” में शाया नसीर अनवर के मजमून मौज सराब में मौजूद है)।“
महमूद हाशमी ने पूछा : “क्या उस ज़माने में कृष्ण चंदर ने कोई लड़की भगाई थी?“
“मैंने सुना था लेकिन मैं यक़ीन से कुछ नहीं कह सकता“, सत्यार्थी ने जवाब दिया।
मैंने कहा : “शमीना खातून से लेकर सलमा सिद्दीकी तक कृष्ण चंदर का किरदार डांवाडोल रहा है।“
सत्यार्थी बोले, “दरअसल कृष्ण चंदर शुरू से अब तक अफ़सानानिगारी हो या ज़िंदगी, एक कारोबारी आदमी रहा है। कृष्ण लिटिल टैलेंट का आदमी है। ज़िंदगी और अदब के हर महाज़ पर कृष्ण को कामयाबी इसलिए मिली है कि कृष्ण ने हर जगह समझौता किया है। जंग हो या बंगाल की फतह, फ़सादात हों या आज़ाद हिंदुस्तान, इस शख्स का रवैया हमेशा कारोबारी रहा है। कृष्ण चंदर के बारे में इतना संजीदा होने की जरूरत नहीं। कृष्ण चंदर ने मुझे कहा था- ऐ महाबोर! अपने सुख मुझे दे दो! मेरे नज़दीक इसके मानी ये हैं कि अमली ज़िंदगी गुज़ारने के बावजूद कृष्ण चंदर को अब तक सुख नहीं मिला और एक मुसाफ़िर के सुखों की ऐसी ख्वाहिश है।“
महमूद हाशमी ने पूछा, “सत्यार्थी साहब, मेरे ख्याल से कृष्ण चंदर कई अफसानों में आपसे मुतास्सिर हैं।“
सत्यार्थी ने ज़रा दम लेकर कहा, “यह बात मैं करते हुए झिझकता हूं लेकिन जबकि आपने ऐसा महसूस किया है मैं भी कह सकता हूं, “ज़िंदगी के मोड़ पर”, “गर्जन की एक शाम” और “पानी का दरख़्त” नाम की कहानियों में कृष्ण चंदर मेरी तहरीर से मुतास्सिर हैं। यहां से इस बात से हटकर एक और बात- “ग्रहण” कहानी में जो लोकगीत शामिल है, वो मैंने बेदी को दिया था।“
मैंने पूछा “क्या आप किसी दौर की अपनी किसी तहरीर पर शर्मिंदा है? इस्मत चुगताई तो शर्मिंदा हैं” (भोपाल कॉन्फ्रेंस में इस्मत चुगताई अपनी कई कहानियों पर शर्मिंदा हुई थीं और उन्होंने उन कहानियों को रद्द किया)।
“नहीं“!
मैंने पूछा, “उपेंद्रनाथ अश्क का क्या रोल रहा है?”
“उपेंद्रनाथ अश्क भी कारोबारी हैं और कृष्ण चंदर की कार्बन कॉपी।“
‘’अश्क हिंदी में कहते और कहलवाते हैं कि उर्दू में उनका दर्जा मंटो और बेदी के बराबर है, यह कहां तक सही है?’’
“यह गलत है। अश्क को उर्दू में इस तरह से कोई नहीं जानता।“
“अश्क कहते और कहलवाते हैं कि एक ही थीम पर लिखी गई उनकी कहानी “उबाल” मंटो की कहानी “ब्लाउज” से बेहतर है।“
“उबाल बहुत मामूली कहानी है और ब्लाउज के साथ इसका जिक्र महज प्रोपेगेंडा है।“
मैंने पूछा- “जी, सन 1936 से 1955 तक के उन अफसानों के नाम लीजिए जो आपके नजदीक बड़े अफ़साने हैं” (मैंने पचपन की कैद इसलिए लगाई थी कि मंटो की मौत के साथ एक दौर खत्म हो गया)।
सत्यार्थी ने कहा, “नया कानून और टोबा टेक सिंह, यह अफसाने एक बड़े अदीब के बड़े सफर की कहानी हैं और इब्तिदा और इंतहा। “हमारी गली”, “दो फर्लांग लंबी सड़क”, “दस मिनट बारिश”, “तिल” (इस कहानी पर इस्मत शर्मिंदा है और इसे रद्द कर चुकी हैं), “आखिरी कोशिश” और “गडरिया”। “गडरिया” उर्दू के चंद बड़े अफसानों में एक है और चंद साल पहले मैंने इस अफसाने के बारे में कृष्ण से कहा था तो वह खामोश रहे थे कि उन्होंने यह अफसाना नहीं पढ़ा है।“
बानी ने पूछा “नए लोगों के बारे में आपकी क्या राय है?“
सत्यार्थी ने कहा, “मैं नए लोगों का कायल हूं। नए लोगों ने मौसीक़ी, तस्वीरकशी और अदब की सभी हदें तोड़ दी हैं। नए लोगों के यहां बड़ी वुसअत है। मैं खुद अपने आप को एक मुल्क का शहरी नहीं समझता, ये सिर्फ इत्तेफाक है कि मैं हिंदुस्तान का शहरी हूं और यहां से मेरी वफादारी वाबस्ता है, लेकिन मैं नए लोगों की तरह ये महसूस करता हूं कि मेरा काम बड़ा है, मुल्क की सरहदों से बड़ा। We don’t write in a particular language, we write in gesture. नए लोगों के यहां कमर्शियल चक्कर नहीं है और इसकी मुझे खुशी है और मेरी ये दुआ है कि नए लोगों में कोई कृष्ण चंदर पैदा ना हो।“
थोड़ी देर बाद नरेंद्र से विदा लेकर जब हम सुरेन्द्र के घर की तरफ़ बढ़ रहे थे, सत्यार्थी हमें गुरुद्वारा रोड के एक कबाड़ी की दुकान पर नज़र आए।
[यह रेखा-चित्रीय साक्षात्कार “सुर्ख-ओ-सियाह” के “देवेंद्र सत्यार्थी के साथ एक दिन” (पृ. 390- 400) नामक लेख से लिप्यांतरित किया गया है। इसका सह-अनुवाद भावुक और विष्णु प्रभाकर ने किया है। भावुक इतिहास विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पीएचडी के छात्र हैं। विष्णु प्रभाकर हिंदी विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में पीएचडी के छात्र हैं।]