…जिनके दामन पर ऑस्कर से आसक्ति एक धब्बे की तरह चिपक गई!

Portrait of Satyajit Ray by Rishiraj Sahoo in 1997
Portrait of Satyajit Ray by Rishiraj Sahoo in 1997
भारत के कुछ फिल्‍मकारों और सिनेमा-दर्शकों के एक वर्ग को अगर किसी एक व्‍यक्ति ने ऑस्‍कर पुरस्‍कारों के बारे में भ्रमित किया कि इस पुरस्‍कार को पाना पुनर्जन्‍म होने के जैसा है, तो वह सत्‍यजित राय थे। ऑस्‍कर से उनकी आसक्ति ऐसी रही कि अपने देश में मिले ढेर सारे प्‍यार, सराहना और सम्‍मानों के बारे में कहने को उनके पास कभी खास शब्‍द नहीं थे। विद्यार्थी चटर्जी की टिप्‍पणी

तेईस अप्रैल, 1992 को एक शख्‍स की मौत हुई। तीखे नैन-नक्‍श, करीने से झाड़े गए भरे-पूरे काले बालों और चौड़े कंधों वाला एक लंबा आदमी, जिसने कला की कई विधाओं को छुआ और जिसे भी छुआ, उसे निखार कर सोना बना डाला। सत्‍यजित राय से पहले कला और सौंदर्य के सरोकारों के साथ न्‍याय करने वाला आधुनिक हिंदुस्‍तानी भले एकाध रहा हो, पर उनके बाद कोई नहीं हुआ। जब उनका इंतकाल हुआ, पूरे भारत ने मातम मनाया। बंगालियों को तो लगा कि जैसे उनके पुनर्जागरण का आखिरी स्‍तंभ ही ढह गया।  

उस मनहूस दिन को याद करते हुए उपन्‍यासकार अमिताव घोष ने लिखा था, ‘’सत्‍यजित राय के निधन का दिन जैसा था, कोलकाता ने वैसा दिन अपने जीवन में कभी नहीं देखा था। जब यह खबर फैलने लगी, तो पूरे शहर के ऊपर चुप्‍पी का एक मस्‍तूल खिंचता उतरा आया। अगली सुबह हजारों लोग भीषण गर्मी में उनकी शवयात्रा में शामिल हुए। शाम को जब उनकी पार्थिव देह को शवदाह गृह ले जाया जा रहा था, कोलकाता की सड़कों पर लोग कतारों में मौन खड़े थे। कुछ ने हाथ में तख्तियां ले रखी थीं जिन पर उनके लिए लिखा था- ‘’द किंग’’। समूचा शहर अव्‍यक्‍त अवसाद में डूब गया था। हर कोई समझ रहा था कि दौर का अंत हुआ है। और उसके साथ ही कला में कोलकाता का परचम उखड़ चुका है। उनकी मौत ने शहर को यतीम बना दिया। शहर का राजा जा चुका था। उसकी गद्दी पर बैठने वाला अब कोई नहीं था।‘’

फिल्‍मकार सत्‍यजित राय के बारे में इसके सिवाय और कोई राय नहीं बनती कि वे जिस बिरादरी से आते थे उसमें वे महानतम थे। फिर भी, उनकी सिनेमाई श्रेष्‍ठता से मुतमईन होने के लिए जरूरी नहीं कि उस हरेक चीज को सराहा जाए जिसे उन्‍होंने रचा या सोचा। इन्‍हीं में से एक बात थी उनका ताउम्र ‘हॉलीवुड’ के प्रति आभारी होना और उसकी तरफदारी करना, जो उनके अप्रतिम रिकॉर्ड पर एक धब्‍बे के जैसा रह गया।



हॉलीवुड ने 1992 में उन्‍हें जब लाइफटाइम अचीवमेंट के लिए ऑस्‍कर पुरस्‍कार से नवाजा, तब राय सफर करने की शारीरिक स्थिति में नहीं थे। यह पुरस्‍कार उन्‍हें अस्‍पताल के बिस्‍तर पर लेटे-लेटे ही लेना पड़ा। उस वक्‍त उन्‍होंने कहा था कि ऑस्‍कर पाना उनकी जिंदगी का महानतम पल है- या ऐसा ही कुछ। ऑस्‍कर जैसी एक संदेहास्‍पद अमेरिकी ईजाद पर राय ने जैसी प्रशंसा बरसाई थी, या कहें उसे जिस ढंग से वैधता प्रदान की थी, यह बात बहुत से लोगों को गहरे निराश कर गई थी।

एक उस्‍ताद जिसे कॉन, बर्लि‍न और वेनिस जैसे प्रतिष्ठित महोत्‍सवों के शीर्ष पुरस्‍कारों से नवाजा जा चुका था, वह ऑस्‍कर को इतना ज्‍यादा महत्‍व कैसे दे सकता था? कुछ लोगों ने एक मरते हुए आदमी के बिगड़ते हुए दिमागी तवाजुन से जोड़ कर इसे देखा। वजह चाहे जा रही हो, चाहे जैसे भी इस हरकत को देखा गया हो, लेकिन हकीकत यह थी कि तमाम सिनेप्रेमी राय की इस सराहना से ठंडे पड़ गए थे।

यहीं पर गोवा में 2012 में मीरा नायर की ऑस्‍कर के बारे में कही बात याद आ जाती है, ‘’मुझे समझ नहीं आता कि भारत ऑस्‍कर की ओर क्‍यों देखता रहता है…।‘’ राय के भक्‍तों को यह बयान कुफ्र जान पड़ सकता है पर सच्‍चाई आज भी यही है कि भारत के कुछ फिल्‍मकारों और सिनेमा के दर्शकों को अगर किसी एक व्‍यक्ति ने ऑस्‍कर के बारे में भ्रमित किया है कि यह पुरस्‍कार पाना पुनर्जन्‍म होने के जैसा है, तो वह सत्‍यजित राय हैं जिनके लिए अन्‍यथा सभी की अपार श्रद्धा है।


  • मीरा नायर, द टेलीग्राफ, कोलकाता, 1 दिसंबर 2012

कमजोरियां हर किसी में होती हैं। राय की भी एक कमजोरी थी- अमेरिकी सिनेमा जैसा कुछ भी दिखने वाली चीज के प्रति उनका अबाध उत्‍साह, जो कभी-कभार एक बीमारी की तरह दिखने लगता था। यह बीमारी खासकर तीस और चालीस के दशक के अमेरिकी सिनेमा को लेकर उनके भीतर थी। वे बार-बार लिखते और बोलते थे कि कैसे इस किस्‍म के सिनेमा को देखकर ही वे बड़े हुए।

यह भी सच है कि एकाध मौकों पर उन्‍होंने इतालवी नवयथार्थवाद के सामने अपना सिर नवाया, खासकर वित्‍तोरियो दी सीका के काम के आगे, या फिर तब जब महान फ्रेंच फिल्‍मकार ज्‍यां हुनवाख कलकत्‍ते में द रिवर शूट कर रहे थे और राय उनके करीब हुआ करते थे। इसके बावजूद विश्‍व सिनेमा के राय के खजाने में सबसे ज्‍यादा सराहना हॉलीवुड के खाते में ही जाती दिखती थी।

इस संदर्भ में बहुत से लोगों के मन में यह आशंका भी पैदा हुई है कि इस शिद्दत से हॉलीवुड की राय द्वारा की गई पैरोकारी के पीछे कहीं उन्‍हें मिले ऑस्‍कर का लेना-देना तो नहीं, जिसके लिए एकेडमी ऑफ मोशन पिक्‍चर आर्ट्स एंड साइंस को राजी करने में मार्टिन स्‍कॉर्सीज और उनके साथियों को बहुत मशक्‍कत करनी पड़ी थी। ऐसा कहना अपु त्रयी सहित अन्‍य शाहकारों के रचयिता के प्रति लोगों की सराहना को कम कर के आंकना नहीं है बल्कि एक आम धारणा को सामने लाना है।



आखिरकार, हॉलीवुड ने लगातार खुद को एक ‘राजनीतिक’ जगह के रूप में साबित किया है जो अपने पसंद के लोगों के हक में एजेंडा चलाता है और उन्‍हीं के बारे में बोलता है जिनका रुझान ‘अंकल ऑस्‍कर’ की ओर होता है।

देश में मिले सम्‍मानों की बात करें, तो भारत ने इस शख्‍स के प्रति अपने सारे सम्‍मान उदारता के साथ लुटा दिए। सबसे बड़ा नागरिक सम्‍मान भारत रत्‍न उन्‍हें मिला। फिर, किसी भारतीय फिल्‍मकार को दिया जाना वाला सबसे बड़ा सम्‍मान दादासाहब फाल्‍के पुरस्‍कार से राय को नवाजा गया। राय को अपने हाथ से भारत रत्‍न देने के लिए खुद भारत की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी कोलकाता तक गईं। कोई भी कल्‍पना कर सकता है कि सत्‍यजित राय इन सम्‍मानों को पाकर कितने खुश हुए होंगे, लेकिन नहीं। अपने देश में मिले इतने ढेर सारे प्‍यार, सराहना और सम्‍मान के बारे में कहने को उनके पास खास शब्‍द नहीं थे। उनके दिमाग में तो बस ऑस्‍कर घूम रहा था।

कैसी दयनीय स्थिति है! फिर भी, उनके बचाव में इतना तो कहा ही जा सकता है कि यह आदमी मरते दम तक हॉलीवुड का प्रशंसक बना रहा।


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