युद्ध ही शांति है : पचहत्तर साल पहले छपे शब्दों के आईने में 2025 की निरंकुश सत्ताओं का अक्स

1984 by George Orwell
1984 by George Orwell
सर्वसत्तावाद, अंधराष्‍ट्रवाद, स्‍वतंत्रता पर बंदिशों, निरंकुशता और एक पार्टी के एकाधिकारी राज का संदर्भ जब-जब आता है, 1949 में प्रकाशित जॉर्ज ऑरवेल के उपन्‍यास 1984 की सहज याद हो आती है। पचहत्तर वर्ष बाद यह उपन्‍यास अपने लेखनकाल के मुकाबले कहीं ज्‍यादा प्रासंगिक हो चुका है, इतना कि आए दिन कोई न कोई नेता, अदालत या असहमत इसको उद्धृत करता है। ऑरवेल ने 1984 में अपने काल्‍पनिक किरदार इमानुएल गोल्‍डस्‍टीन की एक काल्‍पनिक पुस्‍तक ‘द थ्‍योरी ऐंड प्रैक्टिस ऑफ ओलिगार्चल कलेक्टिविज्‍म’ के तीसरे अध्याय में युद्ध पर सर्वसत्तावादी पार्टी के नजरिये से विचार किया था। निरंकुश सत्ताओं को समझने के लिए प्रस्‍तुत युद्धविषयक तकरीर को वर्तमान संदर्भों में पढ़ा जाना चाहिए

दुनिया भर के देश निरंतर युद्ध लड़ते रहते हैं। कोई आंतरिक तो कोई बाहरी। ऐसा बीते कई साल से चला आ रहा है। आज के युद्ध बीसवीं सदी के आरंभिक दशकों जैसे खतरनाक और एक-दूसरे को मिटा देने के जज्‍बे वाले नहीं रह गये हैं। अब युद्ध सीमित लक्ष्‍यों के लिए लड़ा जाता है ऐसे दो प्रतिद्वंद्वियों के बीच, जिनके पास एक-दूसरे को मिटा देने की न तो ताकत है, न उनके पास लड़ने की कोई ठोस भौतिक वजह है और न ही उनके बीच कोई खालिस विचारधारात्‍मक मतभेद हैं।

इसका मतलब यह नहीं है कि युद्ध के प्रति व्‍याप्‍त सामान्‍य रवैया या युद्ध खुद अपने आप में कम खूंखार और ज्‍यादा उदार हो गया है। इसके उलट, सभी देशों में युद्ध का उन्‍माद लगातार बना रहता है और एक तरह से सार्वभौमिक हो चुका है। अब बलात्‍कार, लूट, बच्‍चों की हत्‍या, समूची आबादी को गुलामों में तब्‍दील कर देना, कैदियों से प्रतिशोध- जो उन्‍हें उबाल देने या जिंदा दफन कर देने की हद तक चला जाता है- जैसे कृत्‍यों को सामान्‍य माना जाता है। खासकर जब ये काम दुश्‍मन के बजाय खुद अपना पक्ष करे, तो उसे सराहनीय माना जाता है।

भौतिक स्‍तर पर जंग में सीधे तौर पर काफी कम संख्‍या में लोग लिप्‍त होते हैं। वे ज्‍यादातर उच्‍च प्रशिक्षित व्‍यक्ति होते हैं। इसीलिए ऐसे युद्धों में मौतें भी कम होती हैं। आम तौर पर होने वाले संघर्ष या झड़पें अज्ञात मोर्चों पर घटती हैं जिनके बारे में एक औसत आदमी केवल अंदाजा लगा सकता है। आबादी वाले इलाकों में युद्ध का सीधा सा मतलब होता है उपभोक्‍ता सामग्री का निरंतर अभाव।

युद्ध की प्रकृति बुनियादी रूप से बदल चुकी है। इसे बल्कि बेहतर तरीके से ऐसे कहें कि जिन कारणों से युद्ध लड़े जाते थे, उनकी प्राथमिकता सूची अहमियत के लिहाज से बदल चुकी है। आरंभिक बीसवीं सदी में हुए महान युद्धों के पीछे जो छुपी हुई मंशाएं थीं वे अब खुलकर सतह पर आ चुकी हैं और उन्‍हें सचेत रूप से मान्‍यता दी जाती है और उन पर अमल किया जाता है।



मौजूदा युद्ध की प्रकृति को समझने के लिए- चूंकि भले ही कुछ वर्षों पर लड़ने वाले जोड़े बदल जाते हैं लेकिन युद्ध वैसा ही चलता रहता है- सबसे पहले इस बात का अहसास होना जरूरी है कि इनका निर्णायक होना अब नामुमकिन है। आज दुनिया में कमोबेश बराबर की महाशक्तियां हैं और इनकी स्‍वाभाविक रक्षापंक्ति बहुत सशक्‍त है।

सभी विवादित क्षेत्रों में बहुमूल्‍य खनिज हैं। इनमें सबसे अहम हालांकि इन इलाकों में मौजूद सस्‍ते श्रमबल का अकूत भंडार है। ज्‍यादा से ज्‍यादा हथियार बनाने, ज्‍यादा से ज्‍यादा इलाके कब्‍जाने, और ज्‍यादा श्रमबल पर नियंत्रण करने, फिर और ज्‍यादा हथियार बनाने, फिर नये इलाके कब्‍जाने के दुष्‍चक्र में सस्‍ते श्रमबल को कोयले या तेल की तरह झोंका जाता रहता है। ध्‍यान देने वाली बात यह है कि लड़ाइयां कभी भी विवादित क्षेत्रों की सीमाओं से पार नहीं जाती हैं। युद्ध छेड़ने का उद्देश्‍य हमेशा ही अगला युद्ध छेड़ने के लिए बेहतर स्थिति में कायम रहना होता है। इस तरह गुलाम आबादी लगातार चलने वाली जंग की गति को अपने श्रम से बढ़ाने में काम आती है। उनका वजूद अगर न भी रहे तो दुनिया में समाजों के ढांचे और इन समाजों के कायम रहने की प्रक्रियाओं पर अनिवार्यत: कोई अंतर नहीं प़ड़ेगा।  

आधुनिक युद्धकला का प्राथमिक लक्ष्‍य सामान्‍य जीवन स्‍तर को ऊंचा उठाए बगैर मशीनी उत्‍पादों का इस्‍तेमाल करना है। उन्‍नीसवीं सदी के अंत से ही औद्योगिक समाज में यह सवाल बना हुआ है कि उपभोक्‍ता माल के अतिरिक्‍त उत्‍पादन का क्‍या किया जाय। आज की तारीख में जब थोड़े से लोगों के पास ही खाने को पर्याप्‍त भोजन है, यह समस्‍या अपने आप में उतनी अहम नहीं होनी चाहिए और होती भी नहीं, यदि विनाश की कृत्रिम प्रक्रियाएं अस्तित्‍व में न होतीं।

आज की दुनिया 1914 के पहले वाली दुनिया के मुकाबले एक भूखी, नंगी और जर्जर जगह है। उस समय के लोगों की भविष्‍य को लेकर कल्‍पना से तुलना करें तो यह दुनिया और बदतर नजर आएगी। बीसवीं सदी के आरंभ में तकरीबन हर साक्षर व्‍यक्ति की चेतना में भविष्‍य के समाज की परिकल्‍पना ऐसी थी जो समृद्ध हो, जहां आराम हो, जो व्‍यवस्थित और सक्षम हो- कांच, स्‍टील और झक्‍क सफेद कंक्रीट से दमकती हुई एक दुनिया जिसको कोई रोग नहीं लग पाएगा। विज्ञान और प्रौद्योगिकी अद्भुत गति से विकसित हो रहे थे और स्‍वाभाविक रूप से यह माना जा रहा था कि यह विकास चलता ही रहेगा। ऐसा नहीं हो सका। इसकी आंशिक वजह युद्धों और क्रांतियों के एक लंबे सिलसिले से उपजी मुफलिसी रही। दूसरी वजह यह थी कि विज्ञान और तकनीकी तरक्‍की दरअसल वैचारिक अनुभव का मामला होती है और बंद खांचों वाले अनुशासित समाजों में विचार टिक नहीं पाया। कुल मिलाकर आज की दुनिया पचास साल पहले के मुकाबले ज्‍यादा आदिम है।

कुछ पिछड़े क्षेत्रों में तरक्‍की हुई और किसी न किसी रूप में युद्धकला व पुलिसिया जासूसी से सम्‍बंधित तमाम किस्‍म के उपकरण ईजाद कर लिए गए, लेकिन आविष्‍कार और प्रयोग मोटे तौर पर बंद हो गए। पचास के दशक में हुए परमाणु युद्ध के विध्‍वंस से पैदा नुकसान की भरपाई आज तक नहीं की जा सकी। इसके बावजूद मशीन में अंतर्निहित खतरे तो आज भी मौजूद हैं ही। पहली बार जब मशीन का ईजाद हुआ था, उस वक्‍त से ही तमाम सोचने-समझने वाले लोगों को यह समझ आ गया था कि अब मनुष्‍य को कठिन परिश्रम करने की जरूरत नहीं पड़ेगी और नतीजतन काफी हद तक श्रम से जुड़ी इंसानी गैर-बराबरी की जरूरत भी नहीं रह जाएगी। मशीनों का इस्‍तेमाल यदि वाकई इन उद्देश्‍यों के लिए किया जाता तो भूख, कठिन परिश्रम, गंदगी, निरक्षरता और रोगों को कुछ ही पीढि़यों में मात दी जा सकती थी। वास्‍तव में इन उद्देश्‍यों के हित सचेत रूप से लगाए बगैर भी एक स्‍वचालित प्रक्रिया में मशीनों ने उन्‍नीसवीं सदी के अंत से लेकर बीसवीं सदी के आरंभ के बीच कोई पचास साल की अवधि में औसत आदमी के जीवन स्‍तर को ऊंचा उठाया। मशीनों ने ऐसी धन-दौलत पैदा की, जिसे न चाहते हुए भी लोगों में वितरित करना पड़ गया।


Oligarchical collectivism: The Oceanian social-class pyramid in George Orwell's 1984.
1984 में वर्णित बिग ब्रदर की सत्ता वाले समाज का वर्गीय चित्रण (विकिपिडिया)

इसके साथ ही हालांकि यह भी साफ हो रहा था कि धन-दौलत में चौतरफा इजाफा ऊंच-नीच वाले इस समाज के विनाश का खतरा पैदा कर रहा है- कुछ अर्थों में यह विनाश ही था। एक ऐसी दुनिया जहां हर किसी को कम घंटे काम करना पड़े, बाथरूम और फ्रिज वाले घर में रहने को मिले, उसके पास मोटरकार हो या एरोप्‍लेन तक हो, वहां तो सबसे बुनियादी और जाहिर किस्‍म की गैर-बराबरी अपने आप ही खत्‍म हो जाएगी। एक बार यदि जीने का यही पैमाना बन गया तब तो पैसे के मामले में कोई भेदभाव ही नहीं बचेगा। बेशक एक ऐसे समाज की कल्‍पना करना मुमकिन था जहां धन-दौलत का बंटवारा लोगों में बराबर हो- निजी चीजों और विलासिता के संदर्भ में- लेकिन सत्‍ता केवल एक विशेषाधिकार प्राप्‍त वर्ग के हाथों में केंद्रित हो। व्‍यवहार में हालांकि ऐसा समाज स्थिर नहीं रह सकता है। अगर सभी सुरक्षा और विलासिता का बराबर आनंद लेने लगे तो मनुष्‍यों की बड़ी संख्‍या जो अब तक गरीबी के कारण दिमागी रूप से सुन्‍न रहते आयी थी वह पढ़-लिख के अपने बारे में सोचने लगेगी। एक बार ऐसा हो गया तब आज नहीं तो कल लोगों को इस बात का अहसास हो ही जाएगा कि मुट्ठी भर विशेषाधिकार प्राप्‍त सत्‍ताधारी वर्ग का वहां कोई काम नहीं है। फिर वे उसे उखाड़ फेंकेंगे।

इसीलिए लंबी दौड़ में ऊंच-नीच वाला समाज कायम रखना केवल गरीबी और अज्ञान के आधार पर ही संभव है। बीसवीं सदी की शुरुआत में कुछ चिंतकों ने खेतिहर समाज वाले अतीत में लौटने के बारे में भी सोचा था लेकिन यह व्‍यावहारिक समाधान नहीं है। यह विचार मशीनीकरण की उस चलन के विरोध में है जो पूरी दुनिया को अपनी गिरफ्त में ले चुका है और ज्‍यादा अहम बात यह है कि ऐसा कोई भी देश जो औद्योगिक रूप से पिछड़ा होता है वो सैन्‍य मामलों में भी कमजोर रहता है इसलिए उसके मुकाबले ज्‍यादा विकसित प्रतिद्वंद्वियों द्वारा उस पर अपना वर्चस्‍व गांठना बड़ा आसान हो जाता है, चाहे सीधे या परोक्ष रूप से।

यह समाधान भी संतोषजनक नहीं है कि माल के उत्‍पादन को नियंत्रित रखते हुए जनता को गरीबी में रखा जाय। पूंजीवाद के आखिरी चरण में 1920 से 1940 के बीच यह काम बड़े पैमाने पर हुआ था। कई देशों की अर्थव्‍यवस्‍था को गतिरोध में जाने दिया गया, जमीनों पर खेती रोक दी गयी, पूंजी पैदा करने वाले उपकरणों में इजाफा नहीं किया गया, बड़ी आबादी को काम से महरूम रखा गया और सरकारी इमदाद के सहारे अधमरा छोड़ दिया गया। इससे भी हालांकि सैन्‍य स्‍तर पर कमजोरी आनी तय थी और चूंकि यह व्‍यवस्‍था अनावश्‍यक किस्‍म का अभाव पैदा कर रही थी तो उसका विरोध भी अपरिहार्य था। समस्‍या यह थी कि कैसे उद्योगों के पहिये को थामे बगैर इस दुनिया की वास्‍तविक धन-दौलत को बढ़ने से रोका जाय। माल पैदा होना था, लेकिन बांटा नहीं जाना था। व्‍यवहार में इसे हासिल करने का एक ही तरीका था- निरंतर युद्ध।

युद्ध का बुनियादी काम विनाश करना होता है- जरूरी नहीं कि इंसानी जान का खात्‍मा बल्कि उसके श्रम से बनाये गए माल का विनाश। युद्ध उन चीजों को टुकड़े-टुकड़े नष्‍ट कर देने, अंतरिक्ष में उछाल देने या समुंदर की गहराइयों में डुबो देने का कारोबार है जो चीजें जनता की जिंदगी को अन्‍यथा आरामदेह बना सकती हैं और इसके रास्‍ते लंबी दूरी में जनता को समझदार बना सकती हैं।

युद्धक हथियारों को यदि नष्‍ट न भी किया जाय, तो उनका निर्माण ही अपने आप में- बिना कुछ उपभोग के लायक उत्‍पादित किये बगैर- जनता के श्रम को खर्च करने का एक सहज तरीका है। सैद्धांतिक रूप से कह सकते हैं कि युद्ध इसलिए किये जाते हैं ताकि जिंदा रहने लायक जनता की न्‍यूनतम जरूरत पूरी करने के बाद बच रहे अतिरिक्‍त को खर्च किया जा सके। व्‍यावहारिक रूप से जनता की जरूरतों को कम कर के ही आंका जाता है, जिसका नतीजा यह होता है कि जिंदगी के लिए जरूरी आधी चीजों का हमेशा अभाव बना रहता है। इसे फायदेमंद माना जाता है। यह बाकायदा एक नीति है कि अपने कृपापात्र समूहों को भी हमेशा संकट के मुहाने पर बनाये रखो, चूंकि औसतन अभाव की स्थिति छोटे-छोटे लाभों की अहमियत को बढ़ा देती है और इस तरह एक समूह व दूसरे समूह के बीच के अंतर को बड़ा कर देती है।

युद्ध अनिवार्यत: चीजों को नष्‍ट तो करता है, लेकिन इसे हासिल करने के लिए मनोवैज्ञानिक रूप से स्‍वीकार्य तरीकों का इस्‍तेमाल करता है। वैसे दुनिया भर के बेशी श्रम को नष्‍ट करना सैद्धांतिक रूप से तो बहुत आसान काम है। उसके लिए मंदिर और पिरामिड बनवाये जा सकते हैं, गड़्ढे खोदे और भरे जा सकते हैं, यहां तक कि भारी मात्रा में माल का उत्‍पादन करने के बाद उसे फूंका जा सकता है। इसमें दिक्‍कत यह है कि उच्‍चताक्रम वाले समाज के लिए आर्थिक आधार तो बन जाता है, लेकिन भावनात्‍मक आधार नहीं बन पाता। इसमें भी मामला जनता की भावना का उतना नहीं है क्‍योंकि उसका रुख तब तक मायने नहीं रखता जब तक वह उन्‍हें काम में खपाये रखा जाय।

असल सवाल सत्‍ता के घटकों व समर्थकों यानी मतदाताओं के मनोबल को कायम रखने का है। वैसे तो पार्टी के सबसे दीनहीन सदस्‍य से भी सक्षम, उद्यमी और एक निश्चित दायरे में समझदार होने की अपेक्षा की जाती है लेकिन ये भी जरूरी है कि वह एक ऐसा भक्‍त और उन्‍मादी हो जो भय, नफरत, चाटुकारिता और जीत की सनक से संचालित होता हो। दूसरे शब्‍दों में कहें तो यह जरूरी है कि उसकी मानसिकता युद्ध की स्थिति के अनुकूल हो। इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि युद्ध चल रहा है या नहीं और चूंकि युद्ध में मुकम्‍मल जीत संभव नहीं है, इसलिए यह भी मायने नहीं रखता कि युद्ध अच्‍छा चल रहा है या बुरा।

कुल मिलाकर जरूरत इस बात की है कि युद्ध की स्थिति लगातार बनी रहे। पार्टी हमेशा चाहती है कि उसके सदस्‍यों की समझदारी खंडित रहे। युद्ध के माहौल में इस स्थिति को आसानी से हासिल किया जा सकता है। अब तो यह स्थिति सार्वभौमिक हो चुकी है।

पार्टी के भीतर ओहदे के मामले में जितना ऊपर जाएं, यह खंडित बुद्धिमत्‍ता और ज्‍यादा स्‍पष्‍ट मिलती जाती है। पार्टी के भीतरी हलके में युद्धोन्‍माद और दुश्‍मन के प्रति नफरत सबसे सशक्‍त होती है। पार्टी में किसी ओहदेदार कार्यवाहक के लिए यह अकसर जरूरी होता है कि उस पद के नाते वह जाने कि युद्ध से जुड़ी कौन सी सूचना सच नहीं है। उसे यह भी पता हो सकता है कि समूची जंग ही नकली है और ऐसा कुछ नहीं चल रहा है या फिर अगर जंग हो भी रही है तो घोषित उद्देश्‍यों से इतर दूसरी वजहों से।


India has the greatest threat of misinformation/disinformation
नकली सूचनाओं का सबसे बड़ा जोखिम भारत को है

पार्टी के भीतरी हलके के सभी सदस्‍य तकरीबन आस्‍था के किसी विषय की तरह आसन्‍न जीत पर विश्‍वास करते हैं। इसे हासिल करने के लिए या तो धीरे-धीरे ज्‍यादा से ज्‍यादा भूक्षेत्र को कब्‍जाना होता है ताकि प्रचुर मात्रा में ताकत इकट्ठा हो जाय या फिर किसी ऐसे नये हथियार की खोज की जानी होती है जिसकी काट किसी के पास न हो। नये हथियारों की तलाश तो लगातार चलती रहती है, कभी रुकती नहीं। यह उन कुछेक बची-खुची गतिविधियों में है जहां कोई खोजी या चिंतनशील मस्तिष्‍क पनाह पा सकता है वरना वर्तमान जगत में विज्ञान, जैसा कि हम पहले से जानते आए हैं, अस्तित्‍व में नहीं रह गया है। तकनीकी तरक्‍की भी यहां तभी होती है जब उसके उत्‍पाद किसी न किसी रूप में इंसान की आजादी को संकुचित करने के काम में लाये जा सकें। तमाम उपयोगी कलाओं के मामले में दुनिया या तो गतिरोध का शिकार हो चुकी है या पीछे जा रही है। खेतों की जुताई अब भी बैलों से हो रही है और मशीनें किताब लिख रही हैं, लेकिन व्‍यापक महत्‍व के विषयों में- मतलब मोटे तौर पर युद्ध और गुप्‍तचरी के मामले- अब भी प्रयोगसिद्ध विधि को प्रोत्‍साहित किया जाता है या कम से कम बरदाश्‍त किया जाता है।

समकालीन सत्‍ताओं के दो लक्ष्‍य हैं- भूक्षेत्र को हड़पना और हमेशा के लिए स्‍वतंत्र सोच की गुंजाइश को खत्‍म कर देना। इसीलिए पार्टी के सामने अभी दो महान समस्‍याएं हैं जिससे वो जूझ रही है। एक है इसका पता लगाना कि सामने वाला आदमी क्‍या सोच रहा है और ऐसा उसकी इच्‍छा के विरुद्ध जा के करना। दूसरा है कैसे सैकड़ों लाखों लोगों को कुछ सेकंड के भीतर बिना किसी पूर्व चेतावनी के खत्‍म कर देना। जितना भी वैज्ञानिक शोध चल रहा है, सबका विषय यही दोनों समस्‍याएं हैं। आज का वैज्ञानिक या तो एक मनोवैज्ञानिक और एक जांच अधिकारी का मिश्रण है जिसका काम बहुत सूक्ष्‍मता के साथ चेहरे के हावभाव, मुद्राओं, आवाज के उतार-चढ़ाव के अर्थ का अध्‍ययन करना है; या फिर आज का वैज्ञानिक एक रसायनशास्‍त्री, भौतिकविज्ञानी या जीवविज्ञानी है जिसका काम केवल अपने विषय की उन विशिष्‍ट प्रासंगिक शाखाओं तक सीमित है जिनका सम्‍बंध जान लेने से है। कुछ का सम्‍बंध केवल भविष्‍य के युद्धों के लिए सैन्‍यतंत्र का विकास करना है। कुछ और विशेषज्ञ बड़े-बड़े रॉकेट बम, ज्‍यादा ताकतवर विस्‍फोटक और अभेद्यतम सुरक्षा कवच बनाने में लगे हुए हैं। कुछ वैज्ञानिक नयी जानलेवा गैसों की खोज कर रहे हैं या ऐसे घुलनशील जहर जिन्‍हें इतनी मात्रा में पैदा किया जा सके कि समूचे महाद्वीप की वनस्‍पतियों को ही नष्‍ट करने में सक्षम हों या फिर ऐसे विषाणुओं की प्रजाति पर काम कर रहे हैं जिनके खिलाफ कोई प्रतिरक्षी काम न कर सके। कुछ जानकार ऐसे वाहनों के उत्‍पादन की कोशिश कर रहे हैं जो किसी पनडुब्‍बी की तरह जमीन के नीचे अपना रास्‍ता बना सकें या फिर एक ऐसा हवाई जहाज जो पानी के जहाज की तरह अपने बेस से स्‍वतंत्र हो। कुछ और वैज्ञानिक हैं जो दूर की कौड़ी खोज लाने में जुटे हैं, मसलन अंतरिक्ष में हजारों किलोमीटर दूर लटके लेंसों के माध्‍यम से सूरज की रोशनी को फोकस करना या धरती के केंद्र में मौजूद गर्मी का दोहन कर के नकली भूकम्‍प और ज्‍वार पैदा करना।

इनमें से कोई भी परियोजना अपनी परिणति के करीब भी नहीं पहुंचने पाती है, लिहाजा किसी भी महाशक्ति को दूसरे पर बढ़त नहीं मिल पाती है। सभी महाशक्तियां अब भी बम बनाती हैं और उनका भंडारण सही मौके के लिए करती हैं जिसके बारे में सभी को विश्‍वास है कि वो दिन आज नहीं तो कल आएगा। इस बीच युद्ध की कला कोई बीते पचास-साठ साल से वैसी ही बनी हुई है। पहले के मुकाबले हेलिकॉप्‍टरों का इस्‍तेमाल अब ज्‍यादा होने लगा है, बमवर्षक विमानों की जगह स्‍वचालित प्रक्षेपास्‍त्रों ने ले ली है और कमजोर युद्धक पोतों की जगह अब कभी न डूबने वाले अकल्‍पनीय जलमहल बनाये जाने लगे हैं। इनके अलावा मामूली बदलाव ही हुए हैं। टैंक, पनडुब्‍बी, तारपीडो, मशीनगन, यहां तक कि रायफल और हथगोले आज भी इस्‍तेमाल किये जाते हैं। प्रेस में दिखाये जाने वाले अंतहीन कत्‍लेआम के बावजूद पिछले जमाने की जंगों का कभी दुहराव नहीं हुआ जिनमें हफ्तों के भीतर हजारों या लाखों लोग मार दिये जाते थे।

सभी महाशक्तियों में से कोई भी ऐसी चालबाजी की हिमाकत नहीं करता जिसमें गंभीर पराजय का जोखिम हो। कोई बड़ा अभियान जब शुरू किया जाता है तो वह आम तौर से मित्रराष्‍ट्र के खिलाफ अचानक किया गया हमला होता है। महाशक्तियां जिस रणनीति पर चल रही हैं या जिस पर चलने का खुद दिखावा करती हैं, सब एक ही है। कुल मिलाकर यह रणनीति युद्ध, सौदेबाजी और सही मौके पर किये गए छल के माध्‍यम से ज्‍यादा से ज्‍यादा सैन्‍य बेस पर कब्‍जा करने की है ताकि एक या दूसरे प्रतिद्वंद्वी को घेरा जा सके, उसके बाद उसके साथ मित्रता की संधि पर हस्‍ताक्षर किये जाएं और अगले उतने बरस तक उसके साथ अमन चैन कायम रखा जाय जब तक कि संदेह की सुई घूमना बंद न हो जाय। इस अवधि में बम से लदे रॉकेटों को रणनीतिक स्‍थलों पर तैनात किया जाता है। अंत में एक साथ इन्‍हें दागा जाता है जिसका विनाशक प्रभाव इतना व्‍यापक होता है कि दूसरे पक्ष की ओर से जवाबी हमला असंभव हो जाय। इसके बाद बची हुई शक्तियों के साथ मित्रता संधि की जाती है ताकि अगले हमले की तैयारी शुरू की जा सके।

इसी के आलोक में वह तथ्‍य छुपा है जिसे खुलकर कभी कहा नहीं जाता लेकिन अच्‍छे से समझा जाता है और उस पर अमल किया जाता है: वो यह, कि महाशक्तियों के भीतर लोगों का जीवन-स्‍तर बहुत कुछ एक जैसा ही है। हर कहीं वही पिरामिड वाला सामाजिक ढांचा है, देवतुल्‍य नेताओं की एक ही तरीके से भक्ति की जाती है, सभी की अर्थव्‍यवस्‍था निरंतर युद्धों के लिए और युद्धों के द्वारा संचालित होती है।

इसका आशय यह निकलता है कि महादेश आपस में एक दूसरे पर केवल कब्‍जा ही करने में अक्षम नहीं हैं बल्कि ऐसा कर भी लेंगे तो कोई लाभ नहीं होगा। इसके बजाय जब तक वे संघर्ष में रहेंगे, एक दूसरे को सहारा देते रहेंगे जैसे मकई की फसल के तीन गट्ठर आपस में एक-दूसरे को जमीन पर टिकाए रखते हैं। और हमेशा की तरह महाशक्तियों के सत्‍ताधारी समूह अपने कृत्‍यों के प्रति एक ही वक्‍त में आगाह भी रहते हैं और गाफिल भी। उनकी जिंदगियां दुनिया को जीतने के लिए समर्पित होती हैं लेकिन वे यह भी जानते हैं कि जंग को अनंत तक लगातार चलना चाहिए और इसमें किसी की मुकम्‍मल जीत-हार नहीं होनी चाहिए क्‍योंकि यह जरूरी है। जीत-हार का चूंकि कोई खतरा ही नहीं है लिहाजा यह तथ्‍य वास्‍तविकता से इंकार करने की संभावना को पैदा करता है।

यहां पर पहले कही गयी एक बात को दुहराना जरूरी है, कि अनवरत चलते रहने के कारण ही युद्ध ने बुनियादी रूप से अपना चरित्र बदल लिया है। बीते जमाने में कोई युद्ध एक न एक दिन अपने अंजाम को पहुंचता ही था। किसी की जीत होती थी और कोई हारता था। अतीत में युद्ध एक ऐसा प्रमुख उपकरण था जिसके माध्‍यम से इंसानी समाज को भौतिक वास्‍तविकता से आगाह कराया जाता था। हर युग में हर शासक ने अपने अनुयायियों के ऊपर इस दुनिया की गलत छवि को थोपने की कोशिश की है, लेकिन वे कभी किसी ऐसी गलतफहमी को बढ़ावा नहीं देते थे जो सैन्‍य क्षमता को कमजोर करने का माद्दा रखती हो। हार के खिलाफ एहतियात को तब गंभीरता से लिया जाता था जब हार का मतलब आजादी का छिन जाना होता या फिर ऐसा ही कोई परिणाम जिसकी अपेक्षा न की गयी रही हो।

आप भौतिक तथ्‍यों की उपेक्षा नहीं कर सकते। दर्शन में, धर्म में, नीतिशास्‍त्र या राजनीति में दो और दो मिलकर भले पांच हो सकते हैं लेकिन एक बंदूक या एरोप्‍लेन का निर्माण करते वक्‍त दो और दो मिलाकर चार ही बनते हैं। आज नहीं तो कल अक्षम देशों पर कब्‍जा होना ही है और दक्षता के लिए संघर्ष हमेशा गलतफहमियों को दूर करने के काम आता है। दक्ष बनने के लिए अतीत से सबक लेना जरूरी है यानी मोटे तौर पर यह जानना कि बीते हुए कल में क्‍या घटा था। वैसे तो अखबार और इतिहास की किताबें हमेशा से पक्षपाती और एकरंगी रही हैं फिर भी आज की तारीख में जैसा मिथ्‍याकरण किया जा रहा है वह पिछले जमाने में असंभव था। लिहाजा मानसिक स्‍वास्‍थ्‍य को दुरुस्‍त रखने के लिए युद्ध एक पक्‍का इलाज है और जहां तक सत्‍ताधारी तबकों का सवाल है उनके लिए तो युद्ध हर मर्ज की दवाई है। युद्ध में जीत या हार हो सकती है लेकिन कोई भी सत्‍ताधारी वर्ग पूरी तरह से गैर-जिम्‍मेदार साबित नहीं किया जा सकता।

युद्ध जब शब्‍दश: अनवरत हो जाते हैं, तो खतरनाक नहीं रह जाते। युद्ध जब अनवरत चलते हैं तो सैन्‍य अनिवार्यता नाम की चीज नहीं बचती। तकनीकी तरक्‍की ठप हो सकती है और सर्वाधिक प्रत्‍यक्ष तथ्‍यों से भी इंकार किया जा सकता है। हमने पहले देखा है कि कथित वैज्ञानिक अनुसंधान अब भी युद्ध की सेवा में लगे हुए हैं लेकिन अनिवार्यत: वे एक तरह का दिवास्‍वप्‍न ही हैं इसलिए इच्छित परिणाम हासिल करने में उनकी विफलता बहुत अहम नहीं है। लिहाजा दक्षता, वो भी सैन्‍य दक्षता की अब खास जरूरत नहीं रह गयी है। चूंकि प्रत्‍येक महादेश अपने आप में अजेय है, इसलिए प्रत्‍येक अपने आप में एक स्‍वायत्‍त ब्रह्माण्‍ड के जैसा है जिनके भीतर किसी भी तरह की वैचारिक विकृति को बड़ी सहूलियत से अंजाम दिया जा सकता है।

आदमी को यथार्थ या वास्‍तविकता का दबाव रोजमर्रा की जरूरतों के संदर्भ में ही महसूस होता है- मसलन रोटी, कपड़ा और मकान से जुड़ी जरूरतें और खुद को जहर निगलने या ऊपरी माले की खिड़की से कूद जाने के आवेग से बचाने की जरूरत। जिंदगी और मौत के बीच, दैहिक सुख और पीड़ा के बीच अब भी एक फर्क बचा हुआ है, लेकिन जो है कुल उतना ही है। बाहरी जगत और अतीत से कटा हुआ इस दुनिया का एक नागरिक अंतरिक्ष में लटके मनुष्‍य की तरह है जिसके पास यह जानने का कोई तरीका नहीं है कि ऊपर और नीचे की दिशाएं कौन सी हैं। ऐसे राज्‍य का शासक निरंकुश होता है, उतना निरंकुश जितना फरोआ या सीजर भी नहीं हो सके। उसे बस दो काम करने होते हैं। एक, अपनी प्रजा को भारी संख्‍या में भुखमरी से मरने से बचाना और दूसरा, सैन्‍य तकनीक के मामले में अपने प्रतिद्वंद्वियों के बराबर निचले स्‍तर पर खुद को टिकाए रखना। एक बार ये दोनों न्‍यूनतम हासिल हो जाते हैं तो वह यथार्थ को जैसे चाहे तोड़-मरोड़ सकता है।


युद्ध जैसा दिखने वाला पाखंड

पिछले युद्धों के पैमाने पर अगर हम आज आकलन करें, तो कह सकते हैं कि आज लड़े जा रहे युद्ध महज पाखंड हैं। जैसे दो जुगाली करने वाले पशुओं के बीच की भिड़ंत, जिनके सींग कुछ इस कोण पर फंसा दिए गए हैं कि वे एक-दूसरे को नुकसान नहीं पहुंचा सकते।

यह भले अवास्‍तविक हो लेकिन निरर्थक नहीं होता। यह उपभोग के सामानों का सरप्‍लस हजम कर जाता है और उच्‍चताक्रम की बुनियाद पर खड़े एक समाज को वैसा ही कायम रखने के लिए जैसी मानसिकता की जरूरत होती है उसके लिए एक माहौल मुहैया कराता है। इस लिहाज से युद्ध एक विशुद्ध आंतरिक मसला है।

अतीत में सभी देशों के सत्‍ताधारी समूह भले ही आपसी हितों को समझते हुए युद्ध की विनाशकारी विभीषिका को सीमित रखते थे लेकिन एक-दूसरे के खिलाफ लड़ते जरूर थे और जीतने वाला हमेशा हारे हुए को लूटता था। हमारे समय में कोई भी किसी के खिलाफ नहीं लड़ रहा। वास्‍तव में हर देश का सत्‍ताधारी वर्ग अपनी ही जनता के खिलाफ युद्ध छेड़े हुए है। इस युद्ध का लक्ष्‍य भूक्षेत्रों को जीतना या हार जाने से रोकना नहीं है, बल्कि अपने-अपने समाजों के ढांचे को जस का तस बनाए रखना है। इसीलिए एक शब्‍द के रूप में ‘युद्ध’ खुद में भ्रामक हो चुका है।

यह कहना कहीं बेहतर होगा कि युद्ध की निरंतरता ने युद्धों को समाप्‍त कर दिया है। नवपाषाण युग से लेकर बीसवीं सदी के आरंभ तक मनुष्‍य के ऊपर युद्ध का जैसा दबाव बना रहा वह गायब हो चुका है और उसकी जगह किसी और चीज ने ले ली है। अगर दुनिया के राष्‍ट्र एक-दूसरे से लड़ने के बजाय अपनी-अपनी सीमाओं के भीतर हमेशा के लिए शांति से रहने का परस्‍पर फैसला कर लें, तब भी कुल प्रभाव वही रहेगा। वैसी स्थिति में भी सभी अपने तईं स्‍वायत्‍त ब्रह्माण्‍ड बने रहेंगे और हमेशा के लिए बाहरी खतरे का असर खत्‍म हो जाएगा। यानी अगर कभी स्‍थायी शांति जैसी चीज हो पाती, तो वह स्‍थायी युद्ध के जैसी ही होती।


(राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित 1984 के अभिषेक श्रीवास्तव द्वारा किए अनुवाद से साभार)


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