मिलान कुन्देरा के निधन पर सोचते हुए मेरा मन कुछ दूसरे धीर-गंभीर चेक दार्शनिकों की ओर चला गया। जाहिर तौर से उनमें वाक्लाव हावेल भी हैं, जिन्हें सोवियत रूस की दुर्भेद्य दीवार को भेदने का श्रेय जाता है। उस उपलब्धि को किसी भी तरह कमतर किए बगैर इस बात की ओर संकेत किए जाने की जरूरत है कि हावेल और उनके कम्युनिस्ट विरोधी मित्र अपने संघर्ष के अंतिम वर्षों में एक ‘थकी-हारी’ तानाशाही से दो-चार थे।
लव ऐंड गार्बेज (1986) के लिए प्रतिष्ठित बागी चेक लेखक इवान क्लीमा के शब्दों में: ‘’एक मजबूत तानाशाही और एक थकी हुई के बीच थोड़ा फर्क होता है। अस्सी के दशक के अंत तक हमारे यहां की तानाशाही थक चुकी थी। वे लोग हत्याएं नहीं कर रहे थे और उनकी पूरी कोशिश रहती थी कि लोगों को गिरफ्तार न किया जाय। ऐसे तानाशाही माहौल में आप अपनी आजादी को तलाश सकते हैं। बेशक आप धनी नहीं हो सकते थे, हंगरी के अलावा कहीं और की यात्रा पर नहीं जा सकते थे, पर आप लिख जरूर सकते थे।‘’
वास्तव में देखा जाय, तो हावेल और उनके साथियों ने प्रतिरोध का अपना किला जिस जमीन पर खड़ा किया, उसकी बुनियाद बड़ी कठिनाई और दर्द सह कर अलेक्सांद्र डुबचेक ने रखी थी- वह शख्स, जिसने ‘मानवीय चेहरे वाले समाजवाद’ का विचार सबसे पहले दिया।
वह डुबचेक और उनके करीबी समर्थक ही थे जिन्होंने अपने उसूलों और धैर्य से निर्मित विरोध के माध्यम से यह भरोसा दिलाया था कि मॉस्को के आतंक का मुकाबला करना मुमकिन है। इस प्रक्रिया में उन्हें असाधारण कष्ट झेलने पड़े, हालांकि जैसी पहचान उन्हें मिलनी चाहिए थी वह नहीं मिली। इसकी वजहें भी समझ में आती हैं। असल वजह तो यही थी कि राजनीतिक और आर्थिक पुनर्संरचना के बारे में डुबचेक के विचारों से पश्चिम को डर लगता था। उनके विचार अमेरिकी और पश्चिमी योरोपीय उम्मीदों पर खरा नहीं उतरते थे।
इस संदर्भ में देखें, तो असहमतों को कुचलने के लिहाज से रूस वाकई लोकतांत्रिक था। मॉस्को को इस बात का ‘श्रेय’ जरूर जाता है कि अपने प्रभुत्व में आने वाले देशों के लोगों के प्रति वह जितना कठोर था, उतना ही सख्त वह अपने लोगों के लिए भी हो सकता था।
अपने मामूली-से जीवन में मैं बहुत से कलाकारों को जानने का दावा तो नहीं कर सकता, लेकिन जिनसे भी मिला हूं, उनमें रूसी फिल्मकार अलेक्सांद्र अस्कोल्दोव से ज्यादा रहस्यमय मुझे कोई नहीं लगा। साठ के दशक के अंत में अस्कोल्दोव ने एक फिल्म का निर्देशन किया था, जिसका नाम था ‘कमिसार’। फिल्म को बने बीस साल बीत गए लेकिन दुनिया इसे नहीं देख पाई। यह न सिर्फ इस फिल्म के लिए, बल्कि कला और एक समूचे राष्ट्र के लिहाज से त्रासदी है। मुझे याद है, वह 1989 में 10 से 24 जनवरी के बीच का पखवाड़ा था जब दिल्ली के सिरी फोर्ट परिसर में आयोजित इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया (आइएफएफआइ) के कुछेक आकर्षणों में यह फिल्म भी थी।
‘कमिसार’ एक भयावह फिल्म है, लेकिन संघर्ष के भीतर अकसर पाई जाने वाली सुंदरता और भलाई के साथ इसने कोई समझौता नहीं किया है। इसकी भयावहता का सबब यह है कि फिल्म आधुनिक रूस के एक खास तौर से कठिन दौर पर केंद्रित है। ब्लैक एंड वाइट में शूट की गई यह फिल्म एक उपन्यास पर आधारित है जिसकी पृष्ठभूमि रूस का गृहयुद्ध है। फिल्म एक लंबे सीक्वेंस के साथ खुलती है, जहां एक कमिसार वाविलोवा की कमान में लाल सेना की टुकडि़यां श्वेत गार्डों से छीने गए एक छोटे-से दक्षिणी शहर में प्रवेश कर रही हैं। फौजी टुकडि़यां थोड़ा सुस्ताने के लिए स्थिर होती हैं। इस बीच कमांडर को किसी और के हाथ में टुकडि़यों का नेतृत्व सौंपना पड़ जाता है क्योंकि वह पेट से थी। यह तय पाया जाता है कि एक स्थानीय यहूदी टीनकार के घर में उसका प्रसव कराया जाए। उस यहूदी की एक खूबसूरत पत्नी और कई बच्चे थे। एक सिपाही का जीवन जीने की आदी वाविलोवा को इस नए परिवेश में खुद को ढालने में शुरुआती दिक्कत आती है, लेकिन अपने मेजबानों की दयालुता और मां बनने के बाद उसके लिए चीजें आसान हो जाती हैं।
कुछ समय बाद श्वेता गार्डों का नए सिरे से हमला होता है। लाल सेना की कतारों को शहर छोड़ने पर मजबूर कर दिया जाता है। वाविलोवा इस नई स्थिति में दर्दनाक द्वंद्व से दो-चार होती है। वह अब मां है, सिपाही भी है, नागरिक है और सबसे बढ़कर एक दृष्टा है जो नए दौर के सपने देख रही है, अपने देश और अपने लोगों का नया इतिहास बनता हुआ देख रही है। क्या वह यहीं रह जाए जहां है या अच्छे दिनों का इंतजार करे, या फिर अपने बच्चे को उस परिवार की देखरेख के सुपुर्द कर युद्ध के मैदान में लौट जाए?
फिल्म की स्क्रीनिंग से पहले दर्शकों के बीच अस्कोल्दोव को बुलाया गया था। उनका चेहरा आज भी मेरे जेहन में है। उस पर बारह बजे हुए थे। बार-बार कुछ कहने को आमंत्रित किए जाने के बावजूद अस्कोल्दोव एक शब्द भी कहने से इनकार करते रहे। इस पर सबसे ज्यादा वहां जुटे प्रतिनिधियों और आलोचकों को हैरत हुई। कुछ तो इस बात पर नाराज भी हुए थे। अस्कोल्दोव की निगाहें अपने ठीक सामने बैठे पुरुषों और स्त्रियों पर जमी हुई थीं। उनके चेहरे पर कोई भाव नहीं था और उनकी देह अहिल्या की शापित शिला की तरह वहीं जम गई थी।
जाहिर है, इस अनपेक्षित व्यवहार पर तमाम अटकलबाजियां हुईं- हो सकता है शायद लंबे समय तक जबरन चुप कराए जाने के कारण उनकी आवाज ही जाती रही हो; या फिर वे ऐसा मानते हों कि एक कलाकार के काम को बोलना चाहिए, उसे अपनी ओर से कोई बयान या भाषण देने की जरूरत नहीं होनी चाहिए! चाहे जो हो, इतना जरूर कहूंगा कि बरसों बरस फिल्म महोत्सवों में आते-जाते हुए मैंने इस रूसी निर्देशक से ज्यादा रहस्यमय किसी दूसरे कलाकार को शायद ही देखा होगा।
‘कमिसार’ को दर्शकों से बरसों तक वंचित रख कर दरअसल अस्कोल्दोव को दंडित किया गया था। यह फिल्म 1966-67 में बनी थी, लेकिन 25 दिसंबर, 1987 से पहले इसका प्रदर्शन कभी नहीं हो सका। तकरीबन एक आध्यात्मिक अनुभव जैसी इस फिल्म को 1988 में बर्लिन महोत्सव में प्रतिष्ठित स्पेशल जूरी से नवाजा गया। एक शख्स, जिसके सबसे अच्छे साल हवा में ये पूछते हुए ही गुजर गए कि उसने ऐसी क्या गलती कर दी थी कि उसे एक कोने में छोड़ कर भुला दिया गया, उसके लिए यह छोटी सी राहत भर थी। हवाओं ने आखिरकार अपना रुख बदला था। इतिहास फिर से लिखा जा रहा था।