NRC : खेल, जो खिलवाड़ बन गया


एनआरसी एक खेल था! पर कभी खेल, खिलाड़ी के हाथ से निकल भी जाता है! खिलाड़ी खुद खेल का सामान बन जाता है।

यह मकड़जाल असम के लिए एक डरावना ख्वाब साबित हुआ है। सैकड़ों जानें गईं। लाखों लोग अपना काम धंधा छोड़कर महीनों अपने भारतीय होने का सबूत जुटाते रहे। टैक्सपेयर्स का करोड़ों रुपया इस कवायद में फूंकने के बाद अब जो कागज हासिल हुआ है, कोई नहीं जानता कि उसका क्या किया जाए।

वह सारे खिलाड़ियों के गले की हड्डी बन गया है, जिसे न उगला जा सकता है, न निगला! वे लोग जिन्होंने इस जिन्न को बोतल से बाहर निकाला था पछता रहे हैं, कि इसे न ही छेड़ा होता तो बेहतर था।

एनआरसी ने असम को जिस तरह उलझाया है, उसे समझने के बाद लगता है इंसानी जिंदगी के सामने ये तमाम सवाल बेमानी हैं कि कौन पहले रहने आया और कौन बाद मे। जी चाहता है इन तमाम सवालों को दफन कर के आगे बढ़ा जाए!

पर क्या सचमुच इस सवाल से बचा जा सकता है! कल रात जब मैं एनआरसी के विचार के खिलाफ अपना मन बना चुका था, तब अचानक दुर्गा प्रतिमाओं के विसर्जन जुलूस ने मुझे हाथ पकड़ कर वहां ले जाकर खड़ा कर दिया जहां से यह विचार शुरू हुआ होगा।

कल रात गुवाहाटी की सड़कों पर विसर्जन के लिए ले जायी जा रही दुर्गा प्रतिमाओं का एक लंबा जुलूस था। हजारों लोग सड़कों पर थे। हर प्रतिमा के पीछे उस मोहल्ले के लोगों का समूह था। तेज रोशनी थी। डीजे का कानफोड़ू संगीत था जिस पर पंजाबी, भोजपुरी और हिंदी फिल्मों के गीत बज रहे थे, जिनमें कई सेक्सी और दोहरे अर्थ वाले भी थे। इन गीतों पर लड़के शर्ट उतारकर बेहूदा मुद्राओं में नाच और हुड़दंग के बीच की कोई चीज कर रहे थे। यह सेलिब्रेशन की संस्कृति थी, जो 31 दिसंबर, होली और दुर्गा प्रतिमा के विसर्जन के बीच के तमाम फर्क मिटा देना चाहती थी। वहां अगर कोई चीज नहीं थी, तो वह थी असम के गीत, उसका बिहू नृत्य और मधुर असमिया संगीत!

असमियों का यह असम बंगाल था, बिहार था, उत्तर प्रदेश था, बस असम नहीं था! ग्लोबलाइजेशन की आंधी में कोई संस्कृति अपने कौमार्य को बचा पाए यह एक अव्यवहारिक और रोमांटिक जिद है, पर अपनी भाषा-संस्कृति से प्यार करने वाले के लिए यह स्वीकार कर पाना इतना आसान भी तो नहीं!

यह तब और भी मुश्किल हो जाता है जब बिहू के मोहक हस्त-संचालन की जगह कोई ‘बाबूजी जरा धीरे चलो’ पर कोई बेहूदा ढंग से कमर मटकाए।

अपनी ज़मीन और संसाधनों को पराये लोगों के साथ बांटने का डर वह अकेली वजह नहीं है जिसकी वजह से कोई अपनी ज़मीन पर बाहरी लोगों का विरोध करता है। अपनी भाषा, अपनी कलाएं, अपनी संस्कृति को बचाए रखने का मोह भी कभी किसी आंदोलन की वजह बन सकता है।

क्या ऐसे ही किसी फूहड़ नाच गान या जुलूस से उपजी वितृष्णा ने पहली बार किसी असमिया के मन में उस आंदोलन के बीज बोये होंगे जो बड़ा होकर एनआरसी नाम का विषवृक्ष बना!

मैं दुआ करता हूं मेरे किसी देशवासी पर कभी ये एनआरसी नाम की मुसीबत न आये, पर मैं ये भी चाहता हूं कि मेरा प्यारा बिहू भी बचा रहे। मैं जानता हूं यह दोनों ख्वाहिशें एक साथ पूरी नहीं हो सकतीं, फिर भी…!

खुदाया ज़िंदगी आसान क्यों नहीं होती!

सिंध की शायरा रेहाना रूही कहती हैं-

मैं ये भी चाहती हूं, तेरा घर बसा रहे / और ये भी चाहती हूं के तू अपने घर ना जाए…

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एनआरसी के चक्रव्यूह में घुसने से पहले किसी खिलाड़ी ने यह नहीं सोचा कि इसमें से निकलेंगे कैसे? शुरुआती खिलाड़ियों का अंदाजा कि असम में लाखों बांग्लादेशी घुसपैठिये हैं, यदि सही भी था, तो उनकी पहचान करने की जिद करने पहले यह सोचना चाहिए था कि पहचान करने के बाद हम उनका करेंगे क्या?

अब जबकि हमारे पास 19 लाख लोग ऐसे हैं जो खुद को भारत का नागरिक साबित नहीं कर पाए हैं तो किसी को समझ नहीं आ रहा कि इनका क्या किया जाए! हमने असम बॉर्डर पुलिस के डीजीपी से जब यह सवाल किया तो उन्होंने हँस कर कहा- वे हमारे जंवाई बनेंगे और हम उन्हें बिठाकर खिलाएंगे। उनकी हंसी के पीछे जो बेबसी है उसमें पूरा असम शामिल है।

व्यवस्थाओं का आलम यह है कि फिलहाल सिर्फ एक डिटेंशन सेंटर बन रहा है जिसमें सिर्फ तीन हज़ार लोग रह सकते हैं। गोलपाड़ा में बन रहे इस डिटेंशन सेंटर को हम लोग देखने गए। वहां तैनात पुलिस हाउसिंग बोर्ड के इंजीनियर कहते हैं- “फिलहाल हमें सिर्फ एक डिटेंशन सेंटर बनाने को कहा गया था, सो हम बना रहे हैं। हमने 10 और डिटेंशन सेंटर का प्रस्ताव भेजा था, मगर सरकार ने बजट की कमी बताकर टाल दिया। इस अकेले सेंटर में 46 करोड़ रुपए लग रहे हैं और इसे पूरा होने में 6 माह से भी अधिक समय लग सकता है।”

यदि एक डिटेंशन सेंटर में तीन हज़ार लोग रह सकते हैं तो अंदाजा लगाइए कि 19 लाख लोगों की चौथाई संख्या भी यदि अंतिम रूप से स्टेटलेस रह गई, तो कितने डिटेंशन सेंटर लगेंगे, कितने करोड़ रुपए और कितना समय चाहिए होगा। एनआरसी के खिलाड़ियों को राजनीति से अधिक सामान्य गणित सीखने की आवश्यकता थी। फिर सेंटर बनाना ही तो काफी नहीं! इन लोगों को बैठा कर खिलाना भी होगा।

गोलपाड़ा के डिटेंशन सेंटर में बच्चों के लिए स्कूल, डिटेंड लोगों के लिए खाने पीने की मेस, रीक्रिएशन हॉल जैसी तमाम सुविधाएं जुटाई जा रही हैं। इन्हें आम कैदियों की तरह नहीं रखा जा सकता, न ही इनसे कोई काम कराया जा सकता है। कोई नहीं जानता इनका खाना खर्चा कौन देगा। असम सरकार यह बोझ उठाना नहीं चाहती, फिर इन लोगों का क्या किया जाएगा?

हम असम के सबसे बड़े मुस्लिम नेता बदरुद्दीन अजमल से मिले। उनका कहना था कि ये बांग्लादेश से आए घुसपैठिये हैं, तो भारत सरकार शेख हसीना से बात क्यों नहीं करती। “उन्हें उनके नागरिक लौटाना तो दूर, भारत सरकार उल्टे उन्हें आश्वासन देती है कि एनआरसी हमारा मामला है, आपको परेशान होने की जरूरत नहीं है। जब लौटा नहीं सकते, गोली नहीं मार सकते तो फिर इनकी पहचान ही क्यों की! क्यों पूरे असम को हलकान किया? क्यों तमाम गरीब गुरबे अपना काम धंधा छोड़कर, अपने भारतीय होने के सबूत जुटाते रहे!”

इन सवालों के जवाब किसी के पास नहीं हैं। एनआरसी ऑपरेशन टेबल पर लेटे उस मरीज के समान हो गई है जिसका पेट किसी नीम हकीम ने बीमारी पता लगाने के नाम पर काट दिया है, पर न तो उसे बीमारी का इलाज मालूम है और न ही पेट को वापस सिलना!

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3

एनआरसी की प्रक्रिया सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में हुई। वह रोबोटिक ढंग से निष्पक्ष थी। वह सिर्फ कागज़ देखती थी। कागज़ कैसे बना इससे उसे मतलब नहीं था। लोगों को उनका वंशवृक्ष बनाने को कहा जाता था, फिर कंप्यूटर उसका मिलान उनके भाई-बहन, रिश्तेदारों द्वारा दिए गए वंशवृक्ष से करता था। कंप्यूटर स्पेलिंग मिस्टेक या नामों की गफ़लत बर्दाश्त नहीं करते थे, इसकी वजह से बहुत सी उलझने हुईं। कई लोग ऐसे थे जिन्हें अपने रिश्तेदारों के घर के नाम ही पता थे। उन्होंने रामलाल को रामू काका लिख दिया। कंप्यूटर ने रिजल्ट को मिसमैच बताकर दोनों लोगों को एनआरसी से बाहर कर दिया।

सबसे ज्यादा परेशानी बूढ़ी औरतों की वंश परंपरा को लेकर हुई। इन औरतों को अपने पिता के साथ संबंध साबित करना होता था। न तो इनके पास कोई बर्थ सर्टिफिकेट था, न मैरिज सर्टिफिकेट, न ही प्रॉपर्टी का कोई दस्तावेज, जो साबित करता कि यह अपने ही पिता की बेटी है।

वरिष्ठ पत्रकार मृणाल तालुकदार कहते हैं- “आप ही सोचिए, आपके गांव शहर में कितनी बूढ़ी औरतें हैं जिनके पास ऐसा कोई कागज है जो साबित करे कि वह फलां की बेटी है। ससुराल आकर जो औरत ज़िंदगी भर रामू की बहू, कल्लू की अम्मा के नाम से ही जानी गई, वह अपने बाप की बेटी होना तो क्या अपना नाम भी साबित नहीं कर सकती।”

कागजों की दुनिया अभी भारत के लिए नई है! भारत को पेपरलेस बनाने की जिद करने वाले नेताओं को कोई बताए कि देश में करोड़ों लोग ऐसे हैं जिनके पास किसी किस्म का कोई कागज नहीं है। उनके नाम पर कोई जमीन नहीं है। वे कभी स्कूल नहीं गए। बर्थ सर्टिफिकेट के नाम पर उनकी मां ने उन्हें बस इतना बताया था कि उस रात बहुत बारिश हुई थी। देशभर में एनआरसी लागू करने के विचार का समर्थन करने से पहले आपको किसी गांव-देहात जाकर कागज की बात कर लेना चाहिए।

एनआरसी असम का दुखता फोड़ा है! ज`रा सा हाथ लगाते मवाद बहने लगता है। एक ऑटो ड्राइवर कहता था- “उन लोगों से कागज कैसे मांगियेगा, जिनकी झोपड़ियां हर साल नदी की बाढ़ में अचानक बह जाती हैं।”

हम गोलपाड़ा के जिस डिटेंशन सेंटर को देखने गए थे उसके बाहर एक चाय की गुमटी थी। उस चाय वाले का नाम लिस्ट में आ गया था मगर उसकी पत्नी का नाम लिस्ट में नहीं था। भविष्य के बारे में पूछने पर उसने भर्राई आवाज़ में कहा- कर्जा करूंगा, सब बेच दूंगा, उसका नाम तो जुड़वाना ही पड़ेगा न।

असम में करीब दो लाख लोग ऐसे हैं जिन्होंने एनआरसी का आवेदन ही नहीं भरा! ये गांव देहात के आदिवासी हैं। इन्हें पता ही नहीं कि नागरिकता भी कोई चीज होती है। ये अपने देश के नागरिक बनने से पहले ही विदेशी हो गए। इनके बच्चे कल जब बड़े होकर शहरों में आएंगे तो उनके साथ क्या सलूक होगा कोई नहीं जानता।

असम में बांग्लादेशियों और भारत के दूसरे राज्यों से लोगों का आना कोई नई बात नहीं है। यहां की उपजाऊ जमीन और उसके मुकाबले कम जनसंख्या होने की वजह से आजादी के पहले से बाहरी लोग यहां काम के लिए आते रहे। इनमें हिंदू, मुसलमान दोनों ही थे। कुछ खुद आते थे,  कुछ को असमिया लोग काम के लिए लेकर आते थे।

1971 में जब बांग्लादेश बना तो बड़ी संख्या में हिंदू भी आए। अब तक सबका मानना था कि घुसपैठियों में मुसलमान ज्यादा हैं और हिंदू कम, पर एनआरसी के नतीजे उल्टे निकले। 19 लाख बाहरी लोगों की सूची में सिर्फ छह लाख मुसलमान हैं और 11 लाख हिंदू। इस उलटफेर में सबको चौंका दिया।

कुछ लोगों का मानना है हिंदू मुसलमान आए तो बराबर तादाद में थे लेकिन हिंदू कागजों के मामले में लापरवाह हैं। उन्हें लगा हिंदू होने के नाते इस देश में उनसे कोई सवाल नहीं किया जाएगा, जबकि मुसलमान डरे हुए थे इसलिए वे यहां आते ही अपने कागज बनवाते थे।

रिटायर्ड पुलिस अधिकारी ए.के. सोहरिया कहते हैं- “हमने एक बार कुछ बांग्लादेशी पकड़े जो सिर्फ दो दिन पहले सीमा पार करके आए थे। उनके पास ड्राइविंग लाइसेंस, पैन कार्ड समेत तमाम दस्तावेज मिले। इसका मतलब कागज तैयार करने वाले गिरोह असम में लगातार काम करते रहे हैं।”

घुसपैठियों ने अपनी वंशावली या लिगेसी साबित करने का भी तोड़ निकाल लिया। इन लोगों ने गांव में बाप खरीद लिए। सुदूर गांव में हजार-दो हजार लेकर कोई भी आदमी लिख कर दे देता था कि फलां मेरा बेटा है। इसके लिए गांव के मुखिया जिसे यहां गांव-बूढा कहा जाता है, की गवाही भी लगती थी। पर वे भी बिकाऊ थे।

सोहरिया कहते हैं- “हमने एक केस में संदेह होने पर गांव-बूढ़े को बुलाया जिसने एक बाप बेटे को प्रमाण पत्र दिया था। उससे पूछा गया तुम संदेही को कब से जानते हो, तो उसने कहा मैं इसे बचपन से जानता हूं। संदेही की उम्र थी 46 साल और गांव बूढ़े की उम्र थी 32 साल।”

असम में बांग्लादेशी मुसलमानों का एक बड़ा वोट बैंक है जिनके नेता इन्हें एनआरसी का डर दिखाकर वोट वसूलते रहे हैं। असुरक्षा से उपजी तैयारियों ने कई ऐसे लोगों की ज़ेब में भी नागरिकता का सर्टिफिकेट डाल दिया है जो सचमुच घुसपैठिये थे। मुस्लिम सांसद नेता बदरुद्दीन अजमल से जब हमने एनआरसी के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि वे इस प्रक्रिया से पूरी तरह संतुष्ट हैं, भारत सरकार को चाहिए कि बचे हुए लोगों को गोली मार दे।

राजनीति की थोड़ी समझ रखने वाला भी बता सकता है कि इस आत्मविश्वास के पीछे वो ग्यारह लाख हिंदू हैं,जो छह लाख मुसलमानों के साथ लिस्ट के बाहर हैं।

पचास साल पहले इस आंदोलन को शुरू करने वाले आसू के नेताओं को क्या पता था कि भाषा से शुरू हुआ यह झगड़ा धर्म तक पहुंच जाएगा।

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4

कानून कहता है, यदि आपको किसी पर शक है तो उसकी पहचान कीजिए और अदालत में साबित कीजिए कि वह अपराधी है। यानी बर्डन आफ प्रूफ आरोप लगाने वाले पर होता है। मगर एनआरसी एक उल्टा कानून है। यह ऐसा ही है जैसे चोर को पकड़ने के लिए पूरे शहर से कह दिया जाए कि आप साबित करें कि आप चोर नहीं साहूकार हैं।

असम में भी होना तो यह चाहिए था कि पुलिस अवैध घुसपैठियों की पहचान करती और उन पर कार्रवाई करती, मगर हो उल्टा गया। करोड़ो बेगुनाह भारतवासी खुद को भारत मां का बेटा साबित करने के लिए गांव-गांव कागज इकट्ठे कर रहे हैं। अपने मां-बाप से अपना संबंध साबित कर रहे हैं।

कोई अनाथालय में पला बच्चा सवाल कर सकता है कि मैं मां बाप कहां से लाऊं? क्या उसे भी अवैध घुसपैठिया मान लिया जाएगा?

एनआरसी ने जो तबाही मचाई है, उसे देख कर मन मे सवाल आता है- क्या अवैध नागरिकों की समस्या इतनी बड़ी थी कि इस ब्रह्मास्त्र का उपयोग करना पड़ा, जिसने दुश्मन के साथ तमाम बेगुनाहों को भी जला दिया!

कहीं ऐसा तो नहीं कि असम के लोग, एक्टिविस्ट, सरकार, सियासी पार्टियां और सबसे ज्यादा सुप्रीम कोर्ट बेवजह भावुक हो गये! सवा सौ करोड़ के देश में आखिरी तौर पर जो लाख-दो लाख सचमुच के घुसपैठिये मिल भी गए तो क्या यह खतरा देश के लिए इतना बड़ा था जिसके लिए पंद्रह सौ करोड़ रूपया खर्च हुआ, 42 हजार कर्मचारी लगातार 4 साल तक लाखों कागजात जांचते रहे। इन चार साल में असम आर्थिक तौर पर कितना पीछे चला गया इसकी कीमत भी इन घुसपैठियों की पहचान करने की कीमत में जोड़ी जानी चाहिए। और ध्यान रहे कि ये घुसपैठिये दुश्मन के जासूस नहीं, रोजगार की तलाश में आए गरीब गुरबा हैं। रोटी की तलाश में इंसान हजारों वर्षों से एक जगह से दूसरी जगह आता जाता रहा है।

लोगों की मुश्किलों और देश के आर्थिक नुकसान के अलावा इस काम को संविधान की दृष्टि से देखने की भी जरूरत है! क्या यह काम सुप्रीम कोर्ट का था? ऐसी क्या परिस्थितियां थीं कि कार्यपालिका का काम न्यायपालिका को अपने हाथ में लेना पड़ा?

बहुत से लोग एनआरसी के लिए भाजपा को जिम्मेदार ठहरा रहे हैं। यह सच है कि भाजपा भी दूसरे खिलाड़ियों की तरह एनआरसी के नतीजों का इस्तेमाल अपनी राजनीति को आगे बढ़ाने में कर रही है, लेकिन यह खेल भाजपा ने शुरू नहीं किया था। यह सिर्फ संयोग है कि एनआरसी का नतीजा तब आया है जब भाजपा की सरकार है।

एनआरसी का पहला पूर्वज 1951 की जनगणना का दस्तावेज है जिसे बनाने का जिम्मा एक पारसी इंडियन सिविल सर्विसेज ऑफिसर आर.बी. बगाईवाला के जिम्मे था। बगाईवाला वे पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस समस्या को पहचाना और संबंधित सूचनाएं इकट्ठी करने का काम शुरू किया। उन्होंने जनगणना फॉर्म में खासतौर पर असम के लिए कुछ नई जानकारीयां मांगी – जैसे जन्म स्थान, क्या आप असम में विस्थापित होकर आए हैं, आदि! आज भी कई लोग नागरिकता के सवाल को हल करने के लिए 1951 के इस दस्तावेज को आधार बनने की मांग करते हैं।

एनआरसी की राह पर चलने वाले दूसरे नायक थे चुनाव आयोग के अधिकारी एस. एल. सगथ्या। 1979 के एक उपचुनाव में उन्होंने एक अधिकारिक बयान दिया कि असम की मतदाता सूची में कई लोग ऐसे भी शामिल हो गए हैं जो भारत के नागरिक नहीं हैं। और इस तरह असम को घुसपैठियों के लिए एक नया शब्द मिला ‘डी-वोटर’ यानी ‘डाउटफुल वोटर’ ! किसी को डी वोटर डिक्लेअर करने का कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था। आज भी कई लोग डी वोटर के फंदे से नहीं निकल पाए हैं।

इस चुनाव अधिकारी के बयान को आधार बनाकर ऑल इंडिया आसाम स्टूडेंट यूनियन (आसू) ने वह मशहूर असम आंदोलन शुरू किया जिसने 1985 में देश को असम समझौता दिया और असम को एक ऐसी सरकार भी, जो कॉलेज हॉस्टल से चुनी गई थी। असम समझौते की शर्त के मुताबिक 1971 से पहले जो असम में आ गया उसे असम का नागरिक मानना तय हुआ।

वरिष्ठ पत्रकार मृणाल तालुकदार, जो उस समय खुद ‘आसू’ के नेता थे, कहते हैं- “हम लोग बेवकूफ थे। अपने 1000 लड़कों को मरवाने के बाद, कई हजार छात्रों की पढ़ाई और कैरियर बर्बाद करने के बाद आखिर हमने उल्टा वह कर लिया जिसका हम विरोध कर रहे थे। पूरे भारत में आजादी के बाद आने वाले लोग घुसपैठिये कहलाए मगर असम में अगर कोई 1970 में भी आया हो तो हमने उसे कानूनन भारतीय नागरिक मान लिया। हम लोग भावुक थे, अपने असम को बाहरी लोगों से बचाना चाहते थे पर किसी को नहीं पता था कि ये होगा कैसे।”

वे कहते हैं, “यही वजह रही कि इसके बाद लगभग 15 साल तक कोई खास काम नहीं हुआ जबकि इस बीच दो बार असम गण परिषद की सरकार रही और एक बार कांग्रेस की। हम जिन्हें बाहरी कहते थे वह कांग्रेस का वोट बैंक था। कांग्रेस ने मामले को ठंडे बस्ते में डाले रखा।”

एनआरसी के मौजूदा तरीके के आविष्कार का श्रेय एक आईएएस ऑफिसर जी.के. पिल्लई को जाता है। 1999 में इस अधिकारी ने यह उल्टा तरीका सुझाया। उसने कहा बजाय घुसपैठियों की पहचान करने के पूरी जनता से कहा जाए कि वह अपनी नागरिकता साबित करे। एनआरसी धीरे-धीरे इस राह पर आगे बढ़ता रहा पर इसे इसके मुकाम तक जिन लोगों ने पहुंचाया वे थे याचिकाकर्ता आईआईटी के रिटायर्ड प्रोफेसर प्रदीप भुइयां, उनके साथी एनजीओ कार्यकर्ता अभिजीत शर्मा और चीफ जस्टिस रंजन गोगोई!

प्रदीप भुइयां ने 2008 में अदालत में एक याचिका दायर की कि एनआरसी का काम जल्द खत्म होना चाहिए। प्रदीप भुइयां ने बहुत सारा पैसा और समय इस काम में लगाया। उनकी मेहनत रंग लाई और चीफ जस्टिस रंजन गोगोई की अगुवाई में एनआरसी का काम शुरू हुआ। इस तरह मौजूदा एनआरसी के लिए यदि किसी एक व्यक्ति को श्रेय दिया जा सकता है तो वह चीफ जस्टिस रंजन गोगोई हैं।

2010 में एक पायलट प्रोजेक्ट हुआ। 2014 में इसे सुप्रीम कोर्ट ने इसे अपने हाथ में लिया और 2019 तक अंतिम परिणाम आया, जो कहता है कि 19 लाख लोग अपनी नागरिकता अभी तक साबित नहीं कर पाए हैं। इन्हें अपनी नागरिकता सिद्ध करने के लिए एक फॉरेन ट्रिब्यूनल में अपना पक्ष रखने जाना होगा

इस समय कुल 100 फॉरेन ट्रिब्यूनल काम कर रहे हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि जल्दी ही यह संख्या 1000 तक बढ़ा दी जाएगी। यदि एक ट्रिब्यूनल 1 दिन में 5 मामलों की सुनवाई करे तो साल में औसतन 200 कार्यदिवसों में 19 लाख मामले सुनने के लिए कितना समय लगेगा, इस पर भी विचार होना चाहिए।

फॉरेन ट्रिब्यूनल को सीमित मात्रा में न्यायिक अधिकार हैं। ट्रिब्यूनल का सदस्य आमतौर पर एक रिटायर्ड जज, सरकारी अधिकारी या कम से कम 7 साल के अनुभव का कोई वकील होता है। वह मामले की सुनवाई कर अपनी अनुशंसा शासन को भेजता है। सरकार ने 12 लोगों की एक स्टेट कमेटी बनाई है जो फॉरेन ट्रिब्यूनल की अनुशंसा के आधार पर अंतिम फैसला लेती है। यदि यहां मामला नागरिक के पक्ष में नहीं जाता तो वह हाईकोर्ट और उसके बाद सुप्रीम कोर्ट तक जा सकता है। इसके बाद ही कोई व्यक्ति अंतिम तौर पर विदेशी नागरिक घोषित होगा।
फॉरेन ट्रिब्यूनल के सदस्य को दफ्तर, सिक्योरिटी गार्ड, स्टेनो, सरकारी गाड़ी, चपरासी जैसी तमाम सुविधाओं के अलावा 85 हज़ार रुपये महीना तनख्वाह दी जाती है।

यह सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि एक हज़ार ट्रिब्यूनल जब काम करेंगे तो सरकार पर कितना आर्थिक बोझ आएगा। फिलहाल एनआरसी के नाम पर एक भी व्यक्ति को जेल या डिटेंशन सेंटर में डाला नहीं गया है। डी वोटर या घुसपैठ के नाम पर बॉर्डर पुलिस ने फिलहाल कुल 1037 लोगों को असम की जेलों में बने डिटेंशन सेंटर में बंद रखा है जिनमें से 300 को जल्द रिहा कर दिया जाएगा। बचे हुए 700 लोग ही इतने बरसों के बवाल का कुल हासिल हैं।

मृणाल तालुकदार कहते हैं- “अब असम धीरे धीरे इस बात को समझने लगा है कि एनआरसी एक रोमांटिक इल्यूज़न था। एक ख्वाब जिसे देखते हुए जमीनी हकीकतों को भुला दिया गया था। अब आम असमिया आदमी व्यावहारिक समाधान निकालने पर जोर दे रहा है। जैसे कि सरकार लोगों को वर्क परमिट देकर मामला रफा-दफा कर दे।”

पर फिर उन खिलाड़ियों का क्या होगा जिन्हें एनआरसी से अभी और नए खेल खेलने हैं? ऑल असम स्टूडेंट यूनियन का कहना है कि इस एनआरसी को खारिज कर नागरिकता की कट ऑफ डेट 1971 के बजाय 1951 की जाना चाहिए। पूरी कवायद दोबारा शुरू होना चाहिए। इस विवाद को बनाए रखना आसू के जिंदा रहने की शर्त है। भाजपा को 11 लाख हिंदुओं की चिंता है जिन्होंने पूरा खेल बिगाड़ दिया है। इसलिए वह चाहती है कि धर्म के आधार पर नागरिकता दे दी जाए। वह यह भी देख रही है की असम के इस प्रयोग को हिंदुत्व की राजनीति को आगे बढ़ाने के लिए किस तरह इस्तेमाल किया जा सकता है?

संभव है वह जल्दी ही एक नया कानून आईएनआरसी लेकर आए। मुसलमान नेता पूरे देश के मुसलमानों को बता रहे हैं कि देशभर में एनआरसी लागू होने वाला है, अगर बचना चाहते हैं तो हमारे साथ रहिये।

मृणाल तालुकदार कहते हैं- “एनआरसी एक खेल है जिसमें हर खिलाड़ी को फायदा मिल रहा है- सियासी पार्टियां, सरकारी अधिकारी, पुलिस और हां, मीडिया भी।”

नुकसान में अगर कोई है तो वह है असम! और हां वह भारत भी, जिसे बचाने के नाम पर यह बवाल शुरू हुआ है…!


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