उत्तराखंड की सुरंग से लीबिया की डूबी नाव तक मरते मजदूर सरकारों के लिए मायने क्यों नहीं रखते!

देश भर में सीवर में घुट कर मरते सफाईकर्मी हों, मेडिटेरेनियन सागर में नाव डूबने से मरते प्रवासी श्रमिक हों या फिर उत्‍तराखंड की चारधाम परियोजना के चलते सुरंग में दो हफ्ते से फंसे 41 मजदूर, ये सभी घटनाएं एक ही बात की ओर इशारा करती हैं कि सरकारों और कारोबारियों के मुनाफे की राह में कामगारों की जान का कोई अर्थ नहीं है। मजदूर किसी की प्राथमिकता में कहीं नहीं हैं। मजदूरों की सुरक्षा की उपेक्षा पर अरुण सिंह

नोटबंदी 2.0 : काला धन वापस आएगा, लेकिन सफेद हो कर!

बैंकों की हालत फिर खस्ता हो चुकी है। इसको बचाने के लिए सरकार द्वारा बैंकों का आपसी विलय करना भी काम नहीं आया क्योंकि उद्योगपतियों ने नोटबंदी के बाद लिए गए कर्ज की वापसी की ही नहीं, जो कि उनकी फितरत है

आर्थिक बदलाव कैसे धार्मिक-जातीय दंगे में बदल जाते हैं?

ऊपरी तौर से देखने पर भले लगे कि समाज में होने वाली हिंसा, टकरावों, संघर्षों, आंदोलनों और दंगों के पीछे राजनीतिक पार्टियों की सत्तालोलुपता और धार्मिक कट्टरपंथियों की महत्वाकांक्षा की भूमिका है, लेकिन मामला कुछ और ही होता है। डेढ़ सौ साल का आधुनिक इतिहास इसकी गवाही देता है। हिंसा और दंगे के आर्थिक इतिहास को खंगाल रहे हैं अरुण सिंह