यूक्रेन और रूस की जंग को डेढ़ साल होने को आ रहा है। किसी युद्ध में मारे गए और घायल लोगों का हिसाब तो हो सकता है, लेकिन युद्ध से सीधे तौर पर प्रभावित कितने जिंदा लोग दर-दर भटकने को मजबूर होते हैं उसकी कहानियां दबी-छुपी रह जाती हैं। यूक्रेन से अपनी पढ़ाई बीच में छोड़ कर लौटे बिहार के राहुल उन हजार से ज्यादा मेडिकल छात्रों में एक हैं, जो महीनों से दिल्ली के होटलों में रह के नेशनल मेडिकल काउंसिल, विदेश मंत्रालय और अफसरों के चक्कर काट रहे हैं। सरकारी उपेक्षा से तंग आकर इन छात्रों ने प्रोटेस्ट का रास्ता अपना लिया है।
इन छात्रों के लिए सबसे ज्यादा उदासी की बात यह है कि भारत में लोग विदेशी कॉलेजों से मेडिकल की पढ़ाई करने वालों को ठीक नजर से नहीं देखते। इसके कारण इन छात्रों की समस्या को न तो मीडिया में व्यापक स्वर मिल पाता है, न ही समाज में कोई समर्थन। राहुल इस बात को कहते हुए बताते हैं कि कुल तीस से पैंतीस लाख के आसपास का पूरा खर्च पढ़ाई में आता है और हर छात्र के सिर पर लोन है। सरकारी सलाह यह दी जा रही है कि ये छात्र वहां की पढ़ाई को बीच में ही छोड़ दें और प्राइवेट कॉलेजों में एडमिशन ले लें।
आम धारणा के उलट हकीकत यह है कि विदेश से मेडिकल की स्नातक पढ़ाई करने वाले यानी फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट (एफएमजी) अकसर उन परिवारों के बच्चे होते हैं जो भारत में मेडिकल की फीस भरने में सक्षम नहीं होते। देश के मोटे तौर पर एक लाख के आसपास मेडिकल की सीटें हैं। मेडिकल की स्नातक प्रवेश परीक्षा नीट का 2022 का आंकड़ा कहता है कि अकेले अनारक्षित या ईडब्ल्यूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) में पास होने वाले अभ्यर्थियों की संख्या 8 लाख 81 हजार 402 थी। इतनी भारी संख्या के पीछे कटऑफ अंकों का गणित है जिसके अनुसार सरकार 14 से 16 प्रतिशत अंक लाने वाले को भी देश में या बाहर डॉक्टरी की डिग्री के योग्य मानती है। कुल 720 अंकों की इस परीक्षा में 110 के आसपास अंक लाने वाला भी पास हो जाता है। 2022 में यह कटऑफ 117 था। जाहिर है, देश भर के सारे कॉलेज मिलकर भी इन लाखों छात्रों को खपा नहीं पाते। लिहाजा इन्हें बाहर पढ़ने जाना पड़ता है।
यही छात्र जब यूक्रेन संकट के दौरान सत्र के बीच भारत लौटकर आए तो इन्होंने अपनी बाकी की पढ़ाई भारत में करवाने की मांग सरकार से की। एक अभिभावक संघ ने इस सिलसिले में मुकदमा भी किया है। गाजियाबाद में रहने वाले एडमिशन एडवाइजर नामक एजेंसी के मालिक रवि कौल बताते हैं कि उन्होंने जब प्रधानमंत्री को इस संबंध में चिट्ठी लिखी, तो उनसे एक अधिकारी ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता। उसका कहना था कि अगर बाहर से आए बच्चों को यहां के कॉलेजों में खपाया गया तो जो लाखों बच्चे बाहर नहीं जा सके और दोबारा परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं, वे बगावत पर उतर आएंगे और मेडिकल क्षेत्र में भारी संकट पैदा हो जाएगा।
और अंत में प्रोटेस्ट…
बीती 18 जुलाई को इन छात्रों ने दिल्ली के द्वारका स्थित नेशनल मेडिकल काउंसिल के गेट पर प्रदर्शन किया। प्रदर्शन भी इतना सभ्य और शांतिपूर्ण, कि राष्ट्रवादी सरकार से उम्मीद थी कि इनकी बातों को सुन लेगी। छात्रों ने राष्ट्रगान गाया, ‘भारत माता की जय’ और ‘वंदे मातरम’ के नारे लगाए, फिर भीतर अफसरों से मिलने गए।
बैठक से लौट कर राहुल ने बताया कि कोई नतीजा नहीं निकला- ‘’वे लोग किसी और देश में ट्रांसफर के लिए मानने को तैयार नहीं हैं। कह रहे हैं कि कीव में भारतीय दूतावास की ओर से उनके पास कोई औपचारिक संदेश नहीं आया है।‘’
छात्रों की योजना थी कि 18 से 21 जुलाई तक लगातार चार दिन प्रोटेस्ट करेंगे, लेकिन 21 जुलाई को उन्होंने कोई प्रोटेस्ट नहीं किया। कुछ छात्र 22 जुलाई को जंतर-मंतर पर बड़े प्रदर्शन के लिए पुलिस की अनुमति मांगने में व्यस्त थे। राहुल ने फोन पर बताया, ‘’क्या फायदा रोज रोज वही सब करने से? कोई सुन नहीं रहा है।‘’
विदेश मंत्रालय के एक सचिव से छात्रों की दो दिन पहले भेंट हुई थी। राहुल बताते हैं कि सबकी राय प्राइवेट कॉलेजों के पक्ष में ही है और सरकार की भर्ती नीति यहां के हिसाब से नहीं, विदेश के हिसाब से बनती है। वे पूछते हैं, ‘’आप ही बताइए, अगर आपको दिल्ली में मकान बनवाना है तो आप एस्टिमेट बिहार के हिसाब से तो नहीं लेंगे न? यहां सरकार भारत के छात्रों की जरूरत के हिसाब से पॉलिसी बनाने के बजाय विदेश के हिसाब से पॉलिसी बनाती है ताकि प्रइवेट कॉलेजों को फायदा हो।‘’
आपदा में अवसर खोजती कंसल्टेंट एजेंसी
यूक्रेन संकट का सीधा लाभ उन कंसल्टेंट एजेंसियों को मिला है जो विदेश में छात्रों को भेजती हैं। इन एजेंसियों ने यूक्रेन संकट से प्रभावित छात्रों के लिए एक ‘मोबिलिटी प्रोग्राम’ शुरू किया है जिसके तहत उनकी बाकी की पढ़ाई जॉर्जिया, आर्मेनिया, अजरबैजान, कजाकिस्तान, ताजिकिस्तान, किर्गिस्तान और उज्बेकिस्तान में करवाई जाएगी। कुछ छात्र इसमें फंस भी गए हैं।
खारकीव में पढ़ने वाले प्रवासी छात्रों पर तकरीबन एकाधिकार रखने वाली ऐसी ही एक एजेंसी ‘बॉब ट्रेड’ ने यूक्रेन युद्ध से हुए वित्तीय नुकसान की भरपाई के लिए ग्रेटर नोएडा में एक अस्पताल तक खोल लिया है जहां वह एफएमजी को ट्रेनिंग के लिए आमंत्रित कर रही है।
गाजियाबाद के वैशाली में रहने वाले रवि कौल एक ऐसे एडमिशन सलाहकार हैं जो लगातार विदेश से लौटे छात्रों के हक में संघर्ष कर रहे हैं। वे कहते हैं कि बाकी कंसल्टेंट यूक्रेन की ‘आपदा में अवसर’ तलाश रहे हैं लेकिन वे लगातार बच्चों के कैरियर की सुरक्षा के लिए प्रधानमंत्री और विदेशों में भारतीय दूतावासों को चिट्ठियां लिख के सरकार की उदासीनता का परदाफाश कर रहे हैं।
प्रदर्शन कर रहे छात्रों को चूंकि कानूनी मामलों की बहुत जानकारी नहीं होती, तो वे भी सलाह-मशविरे के लिए अपने ‘कौल अंकल’ पर ही भरोसा करते हैं। ज्यादातर पत्राचार और प्रतिवेदन रवि कौल के माध्यम से ही ये छात्र सरकारी अफसरों को भेजते हैं।
बातचीत के दौरान रवि कौल 12 अक्टूबर 2022 को ताजिकिस्तान में भारत के दूतावास से जारी एक एडवायजरी दिखाते हैं, जो वहां मेडिकल पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेने वाले भारतीय छात्रों के हित में है। वे रेखांकित कर के दिखाते हैं कि एडवायजरी के दूसरे ही पैरा में लिखा है, ‘’नीचे दी गई सूचना के पूरी तरह से सही होने का दावा दूतावास नहीं करता।‘ वे पूछते हैं, ‘फिर इसका क्या मतलब है? एम्बेसी को ही पता नहीं कि क्या सलाह छात्रों को देनी है।‘
रवि कौल कहते हैं, ‘एफएमजी के संकट के पीछे एक तो इस देश की परीक्षा नीति है यानी राष्ट्रीय टेस्टिंग एजेंसी (एनटीए) और राष्ट्रीय परीक्षा बोर्ड (एनबीई)। दूसरे, ये कंसल्टेंट हैं जो शुरू से लेकर अंत तक बच्चों और उनके माता-पिता को फंसाए रखते हैं।‘
पिछले साल 7 जुलाई को उन्होंने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को एक लंबा पत्र लिखा था। इसमें उन्होंने विदेश पढ़ने वाले भारतीय छात्रों के प्रति आम धारणा को चुनौती देते हुए विनम्रता के साथ बताया था कि ऐसे बच्चे ज्यादातर निम्न मध्यवर्गीय परिवारों से होते हैं। इस पत्र में वे एनएमसी के अधिनियमों की भाषा का सवाल उठाते हैं। खासकी यूक्रेन से लौटे छात्रों के संबंध में उन्होंने प्रधानमंत्री को लिखा था कि कंसल्टेंट और एजेंट एनएमसी के अधिनियमों और शर्तों की अपनी व्याख्या कर के छात्रों को भटकाने का काम करते हैं। प्रधानमंत्री, स्वास्थ्य मंत्री और विदेश मंत्री को लिखी दर्जनों चिट्ठियों में कौल ने एफएमजीएल नियमन की धारा 4(बी) की एकाधिक व्याख्याओं और दुरुपयोग के बारे में बार-बार सवाल उठाए हैं और छात्रों के कल्याण की सिफारिश की है।
11.07.2023-LETTER-PM-ON-FMGL-2021-CLARIFICATIONवे इस बात से दुखी हैं कि उनकी आरटीआइ और पत्रों का जवाब नहीं आता, फिर भी वे लगे हुए हैं। उनकी एक आरटीआइ का जवाब 11 महीने बाद आया जिसमें सूचना देने की अक्षमता जाहिर की गई। कोविड के बाद से अपने घर में ही दफ्तर बना चुके रवि कौल लगातार मेडिकल छात्रों के संपर्क में बने हुए हैं। वे कहते हैं, ‘मैं यह सब इसलिए कर रहा हूं क्योंकि ये बच्चे मेरे अपने हैं।‘
बीस हजार छात्रों का भविष्य अनिश्चित
यूक्रेन का युद्ध थमने का नाम नहीं ले रहा और विदेश में मेडिकल पढ़ रहे छात्रों का मसला लगातार गहराता जा रहा है। कंसल्टेंट और एजेंटों ने जिन बच्चों को मोबिलिटी के नाम पर यूक्रेन से जॉर्जिया भेज दिया है, उनके नाम अब तक उनकी युनिवर्सिटी की सूची में नहीं आए हैं। उनका पूरा एक साल खतरे में पड़ गया है लेकिन कंसल्टेंट प्रति विषय उनसे भारी रकम लेकर उनका साल बचाने का प्रलोभन दे रहे हैं।
सबसे बड़ी विडम्बना यही है कि पूरे प्रसंग में इन कंसल्टेंटों की भूमिका पर रवि कौल के अलावा भारत में कोई बात नहीं कर रहा और पैसे कमाने की लालच में हर अगला छात्र खुद कंसल्टेंट बन जा रहा है।
दिल्ली की वंशिका एमबीबीएस के आखिरी वर्ष में हैं और जंग के कारण खारकीव की जगह यूक्रेन के इवानो शहर में पढ़ रही हैं जहां उनके विश्वविद्यालय ने किराये पर एक परिसर ले रखा है। अगर सब कुछ सही रहा तो वे मई में भारत वापस आ जाएंगी। इसके बाद उनकी लड़ाई इस सिस्टम से बहुत लंबी होनी है। हो सकता है वह रूस-यूक्रेन के दुस्वप्न से भी भयावह निकले। विदेश में पढ़े छात्रों की इस समस्या को भी समझना जरूरी है।
विदेश से मेडिकल में स्नातक कर के लौटे छात्रों को भारत में एक स्क्रीनिंग टेस्ट देना पड़ता है। इसके बाद ही वे इ्ंटर्नशिप और मेडिकल काउंसिलों में पंजीकरण के योग्य हो पाते हैं। यह परीक्षा एनबीई करवाता है। जाहिर है, जब वे पंजीकरण के लिए काउंसिल में जाते हैं तो उनके कागजात परीक्षण के लिए एनबीए के पास भेजे जाते हैं। वहां से जब उन्हें पास बताया जाता है, तभी उनका पंजीकरण हो सकता है।
अगले सत्र से एनबीई की जगह नई परीक्षा एजेंसी प्रभाव में आ चुकी होगी और पंजीकरण के लिए स्क्रीनिंग टेस्ट की जगह दो चरणों का एग्जिट टेस्ट (नेक्स्ट) लागू हो चुका होगा। एनएमसी के नए नियमों के अनुसार इन दो चरणों के नेक्स्ट टेस्ट को अगर बचे हुए तीन साल में नहीं निकाला गया तो पूरे दस साल की पढ़ाई का कोई मोल नहीं रह जाएगा। भारत के करीब बीस हजार विदेशी ग्रेजुएट इस खतरे से 2024 से दो-चार होंगे। देश में यह संख्या लाखों में होनी है।
फिलहाल, प्रदर्शनरत मेडिकल छात्रों ने विदेश मंत्रालय में पश्चिम के सचिव संजय वर्मा, यूरेशिया प्रभाग की उपसचिव वीणा प्रभा तिर्की, केंद्रीय स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्री मनसुख मंडाविया, राज्यसभा सांसद सुब्रमण्यन स्वामी और विदेश मंत्री एस. जयशंकर को पत्र भेजे हैं। ये सारी चिट्ठियां एक साथ 19 जुलाई को भेजी गई हैं। इन सभी का मजमून एक है और सबका विषय समान है:
‘’हम यूक्रेन में 2021 में एमबीबीएस ज्वाइन करने वाले छात्र हैं, हमें अपने वजूद को बचाए रखने के लिए आपके समर्थन की दरकार है।‘’
पूरा पत्र नीचे पढ़ा जा सकता है।
19.07.2023-Dr.-S-Jaishankar-External-Affairs-Minister1