इस देश के पचहत्तर साल पुराने हो चुके लोकतंत्र के समक्ष मौजूद सबसे गंभीर खतरे को रेखांकित करती हुई एक टिप्पणी बीती 15 मई को सुप्रीम कोर्ट की ओर से आई थी। पिछले साल महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे की अगुवाई वाली महाविकास अघाड़ी सरकार के गिरने में राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की भूमिका पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ के अध्यक्ष प्रधान न्यायाधीश डीवाइ चंद्रचूड़ ने साफ कहा था कि एक राज्यपाल ऐसा कोई काम नहीं कर सकता जिससे निर्वाचित सरकार गिर जाए। वे कह रहे थे, ‘’यह लोकतंत्र के लिए बहुत, बहुत गंभीर बात है।‘’
इस अहम सुनवाई को बमुश्किल महीना भर बीता है लेकिन तमिलनाडु के राज्यपाल आरएन रवि ने एक बार फिर इसके उलट कार्रवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट और अतीत में इस संबंध में दिए गए तमाम आदेशों की गंभीरता को उजागर कर दिया है। अप्रत्याशित और अभूतपूर्व ढंग से उन्होंने गुरुवार की शाम तमिलनाडु के एक भ्रष्टाचार आरोपित मंत्री सेंथिल बालाजी को बरखास्त करने का आदेश पारित कर डाला। बालाजी फिलहाल न्यायिक हिरासत में हैं।
राजनिवास से जो प्रेस विज्ञप्ति जारी हुई है, उसमें कहा गया कि संविधान को टूटने से बचाने के लिए मंत्री को बरखास्त किया जा रहा है। विडम्बना यह है कि ऐसा करना अपने आप में संविधान का उल्लंघन है। खबर आने के घंटे भर के भीतर इस संबंध में तमाम जानकारों की प्रतिकूल राय सामने आ गई और राजनीतिक गलियारों में हलचल मच गया। दिल्ली और चेन्नई के बीच फोन घनघनाए। आधी रात राज्यपाल का असंवैधानिक आदेश खटाई में पड़ गया। फिर भी इससे कुछ बदला नहीं है। तमिलनाडु में रवि के राज्यपाल बनने के बाद से केंद्र के हस्तक्षेपों का जो सिलसिला शुरू हुआ है, ताजा घटनाक्रम उसमें महज एक कड़ी भर है।
बिहार के रहने वाले पूर्व खुफिया अधिकारी रवि को जब नगालैंड से तमिलनाडु भेजा गया था, तभी कुछ नेताओं ने इस नियुक्ति को राजनीतिक करार दिया था। तमिलनाडु कांग्रेस ने इसे राज्य की स्वायत्तता और संघीय ढांचे का दमन करने वाली नियुक्ति बताया था। द्रमुक के नेताओं का कहना था कि यह एमके स्टालिन की सरकार को निशाना बनाने के लिए किया गया है। रवि ने इन तमाम आशंकाओं को बीते दो साल में सच साबित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी है।
कोरोना की दूसरी लहर के ठीक बाद सितम्बर 2021 में तमिलनाडु के राज्यपाल बनाए गए रवि ने सबसे पहला विवादास्पद काम यह किया कि राजीव गांधी के हत्यारे एजी पेररिवलन की रिहाई याचिका को सीधे राष्ट्रपति को भेज दिया। इस पर सुप्रीम कोर्ट ने उन्हें फटकार लगाई थी और कहा था कि ऐसे कदम देश के ‘संघीय ढांचे’ पर सीधा हमला हैं।
रवि इतने पर नहीं माने। सितम्बर 2021 से अप्रैल 2022 के बीच राज्य की विधानसभा ने जो 19 बिल पास किए थे, रवि ने उन्हें मंजूर करने से इनकार कर दिया। मई 2022 के अंत तक उनके पास ऐसे 21 बिल लंबित पड़े हुए थे जो विधानसभा से पास किए जा चुके थे।
जनवरी 2023 में रवि ने तमिलनाडु के लिए एक नया नाम तमिलागम सुझाया और कहा कि यह नाम उपयुक्त होगा। उनके इस बयान पर काफी बवाल मचा। स्वाभाविक था कि भारतीय जनता पार्टी ने उनके बयान का समर्थन किया, लेकिन आश्श्चर्यजनक रूप से अन्नाद्रमुक और सीपीएम सहित विपक्षी दल भी उनके समर्थन में उतर आए। पूरे राज्य में छात्रों ने इसके खिलाफ आंदोलन छेड़ दिया।
जनवरी में ही तमिलनाडु की विधानसभा में राज्यपाल के अभिभाषण में रवि को सरकार की ओर लिख कर दिया गया भाषण उन्होंने बदल डाला और उसमें से महिला सशक्तीकरण, सेकुलरिज्म, और बाबासाहेब आंबेडकर के कुछ उद्धरण काट दिए। इसके खिलाफ मुख्यमंत्री स्टालिन ने एक प्रस्ताव पारित किया कि स्पीकर राज्य विधानसभा के नियमों में नियम 17 को संशोधित करते हुए आदेश दें कि केवल राज्य सरकार द्वारा राज्यपाल को दिया भाषण ही रिकॉर्ड पर जाए, राज्यपाल द्वारा किए गए बदलावों को न लिया जाय। प्रस्ताव पारित हो गया। रवि इससे नाराज हो गए।
प्रस्ताव पर मुख्यमंत्री के भाषण के बीच में ही रवि विधानसभा से बाहर निकल गए, जबकि अभी राष्ट्रगान बाकी था।
यह सारी घटनाएं संयोग नहीं हैं। रवि जो करते हैं, उन कदमों में वाकई यकीन भी करते हैं। तेलंगाना स्थापना दिवस पर चेन्नई में हुए एक कार्यक्रम में उन्होंने अपनी मान्यता सामने रखी कि राज्य केवल प्रशासनिक इकाई हैं, उनका अपनी संस्कृति और भाषा जैसी पहचानों से कोई लेना-देना नहीं होना चाहिए। उन्होंने मलयाली, द्रविड़, बिहारी, आदि को राजनीतिक पहचानें बताते हुए भारत की एकता के लिए खतरा करार दिया था।
ये सारी बातें एक व्यक्ति के तौर पर उनके विचार बेशक हो सकती हैं, लेकिन एक राज्यपाल के रूप में अपनी मान्यताओं के आधार पर जो फैसले उन्होंने लिए हैं वे पूरी तरह असंवैधानिक हैं। यह संवैधानिकता का ही दबाव है कि एक असंवैधानिक फरमान सुनाने के तुरंत बाद ही राज्यपाल को उसे वापस लेना पड़ा। सवाल उठता है कि जब ऐसा ही करना था तो इस किस्म के फैसले लिए क्यों जाते हैं?
अतीत में ऐसे मामलों पर हुई बहसें बहुत साफ करती हैं कि आजादी के बाद से ही राज्यपालों की हद और भूमिका का सवाल संविधान में विवेकाधीन छोड़े रखा गया है। चूंकि सत्ता का विवेक सत्ता को कायम रखने में निहित होता है, इसलिए जो भी दल सत्ता में होता है वह संवैधानिक विवेक के बजाय सत्ता के विवेक के अधीन राज्यपालों का इस्तेमाल करता है।
राज्यपाल की संवैधानिक हद
महाराष्ट्र के मामले में पहली बार नहीं था कि शीर्ष अदालत ने राज्यपालों को उनकी भूमिका और सीमा याद दिलाई हो। न ही पहली बार (महाराष्ट्र में) किसी राज्यपाल ने किसी चुनी हुई सरकार को गिराने की हरकत की थी। आजादी के बाद सूची बनाई जाए तो ऐसे दर्जनों मामले मिलेंगे जहां राज्यपालों ने अपने अधिकार क्षेत्र का अतिक्रमण किया है। हर बार अदालतों से उन्हें फटकार झेलनी पड़ी है, उनके फैसले पलटे गए हैं। बाकायदा दो आयोग बनाए जा चुके हैं जिन्होंने इस विषय पर अपनी सिफारिश रखी है। इसके बावजूद यह प्रशासनिक बीमारी कायम है।
संविधान सभा में अपने प्रसिद्ध भाषण में बी. आर. आंबेडकर ने 2 जून 1949 को साफ कहा था कि ‘’संविधान के अंतर्गत ऐसा कोई भी कार्य नहीं है जिसे राज्यपाल खुद अंजाम दे सके’’ और ‘’उसके कार्यभार सीमित होते हैं’’। इसके बावजूद राज्यपालों द्वारा चुनी हुई सरकारों पर अपनी मनमर्जी चलाने के संबंध में प्रावधानों की वैधता कभी पर्याप्त स्पष्ट नहीं हुई। यह मसला हमेशा कानूनी और राजनीतिक पचड़े में फंसा रहा।
इसकी वजह यह थी कि हमारे संविधान निर्माताओं ने दूसरे संवैधानिक पदाधिकारियों की तरह राज्यपाल की शुचिता में भी अपनी आस्था जताई थी। संविधान सभा की बहस के दौरान एच.वी. कामथ ने बहुत मार्के का सवाल पूछा था कि सरकार के राजकाज में राज्यपाल के हस्तक्षेप न करने की क्या गारंटी है। इसके जवाब में पी.एस. देशमुख ने कहा था, ‘’गारंटी राज्यपाल का अपना विवेक है और उसे नियुक्त करने वाली इकाई का विवेक।‘’ कुल मिलाकर मामला विवेक पर आकर अटक गया।
भारत में आजादी के बाद का अनुभव दिखाता है कि शायद ही कुछ राज्यपालों ने इस विवेक का इस्तेमाल किया अन्यथा सरकार चाहे किसी भी दल की रही हो, केंद्र में सत्तारूढ़ दल ने अपने राजनीतिक हित में अपने एजेंट के तौर पर अपने द्वारा नियुक्त किए गए राज्यपालों का इस्तेमाल किया और राज्यपाल भी बराबर इस्तेमाल होते रहे। इस सिलसिले में सुरजीत सिंह बरनाला का उदाहरण अपवाद है, जो किसी भी आयोग या अदालत से कहीं बड़ी नजीर हो सकता है।
सन 1990 से 1991 तक महज साल भर के लिए बरनाला तमिलनाडु के राज्यपाल रहे। उस दौरान उनके उन्हें केंद्र से कहा गया कि वे अनुच्छेद 356(1) के तहत राज्य में राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश भेजें। बरनाला ने ऐसा करने से इनकार कर दिया। केंद्र ने दंड देते हुए उन्हें बिहार भेज दिया। विरोध में बरनाला ने इस्तीफा दे दिया था।
नैतिकता और विवेक के ऐसे उदाहरणों का सामान्य तौर से अभाव आजादी के समय से ही रहा है। संविधान सभा में 31 मई 1949 को उसके सदस्य बिस्वनाथ दास ने अपना कड़वा अनुभव सुनाते हुए कहा था कि उनके प्रांत के राज्यपाल कैसे उनकी पार्टी को तोड़ने की साजिश कर रहे थे, जब वे वहां के प्रधानमंत्री थे। गवर्नमेंट ऑफ इंडिया कानून, 1935 के बाद से औसतन ऐसे ही अनुभव रहे हैं जहां राजभवन निर्दिष्ट भूमिका से आगे बढ़कर काम करता रहा है और मुख्यमंत्रियों की स्वायत्तता में दखल देता रहा है।
अनुच्छेद 163(1) स्पष्ट करता है कि राज्यपाल सामान्य तौर से कैबिनेट के फैसलों से बंधा होता है। इस मामले में 1974 में शमशेर सिंह का सुप्रीम कोर्ट का फैसला अपवादी स्थितियों को परिभाषित करता है। 1982 में रामदास नाइक और 2004 में मध्य प्रदेश के फैसलों में सुप्रीम कोर्ट इसे दुहरा चुका है। राज्यपाल की अनुशंसा पर राष्ट्रपति शासन लगाए जाने से संबंधित अनुच्छेद 356 के दुरुपयोग के संबंध में 1994 का ऐतिहासिक फैसला एसआर बोम्मई के मामले में आया था। 2016 में अरुणाचल प्रदेश में सरकार बदले जाने के मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला नजीर बन चुका है और ताजा महाराष्ट्र के फैसले में अरुणाचल के तत्कालीन स्पीकर नबाम रेबिया का कई बार संदर्भ आया है। सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश मदन लोकुर ने इस मामले में स्पष्ट कहा था कि एक संसदीय लोकतंत्र के भीतर राज्यपाल का कार्यपालिका पर प्रभुत्व नहीं हो सकता, ऐसे में विधायिका पर उसके प्रभुत्व की बात ही अकल्पनीय है। राज्यपालों के अधिकार क्षेत्र पर पुंछी आयोग और सरकारिया आयोग की सिफारिशें भी नजीर हैं।
राज्यपालों की भूमिका से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों पर इतने फैसलों और सिफारिशों के बावजूद महाराष्ट्र के मामले में आया ताजा फैसला इस मायने में अलग माना जाना चाहिए क्योंकि जिस गति से 2014 के बाद केंद्र ने राज्यपालों का इस्तेमाल दूसरे दलों की प्रांतीय सरकारों को गिराने या अस्थिर करने में किया है, पहले ऐसा नहीं हुआ था। असहमत राज्य सरकारों में राज्यपाल के माध्यम से दखल देकर संवैधानिक विचारधारा का जिस कदर उल्लंघन 2014 के बाद किया गया है, वह पहले कभी-कभार ही होता था। जाहिर है, इस उल्लंघन की जड़ें लचीले संवैधानिक प्रावधानों में छुपी हैं, लेकिन केंद्र की सरकार का चरित्र और राजनीतिक विचारधारा भी संविधान के आड़े आती है।
राजनीतिक नीयत का सवाल
भारतीय जनता पार्टी की मातृ संस्था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आस्था हिंदुत्व की राजनीतिक विचारधारा में है। यह विचार एकरंगी है और संघीयता के खिलाफ है। यह सत्ता के विकेंद्रीकरण में विश्वास नहीं करता है। न ही केंद्र और राज्यों के बीच समतापूर्ण संबंधों को यह मानता है। यही वजह है कि तमिलनाडु से लेकर पश्चिम बंगाल, केरल, कर्नाटक, अरुणाचल, गोवा, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, उत्तराखंड आदि ऐसा कोई राज्य बमुश्किल ही बच रहा है जहां उसने चुनी हुई सरकारों के साथ छेड़खानी न की हो। बीते नौ वर्ष में ऐसे मामले लगातार बढ़े हैं। 2014 से पहले ऐसा कभी नहीं हुआ था कि जबरन सरकार गिराए जाने पर किसी मुख्यमंत्री को फांसी लगानी पड़ी हो, जैसा कलिखो पुल के साथ अरुणाचल में हुआ।
‘नबाम रेबिया’ का मुकदमा और भुला दी गई एक मौत
इसीलिए महाराष्ट्र के मामले में सुप्रीम कोर्ट का ताजा हस्तक्षेप और इसके महीने भर बाद तमिलनाडु का घटनाक्रम आने वाले दिनों में राजनीतिक घटनाक्रम के लिहाज से बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। बहुत संभव है कि लोकतंत्र के हक में सुप्रीम कोर्ट की सक्रियता को सरकार समझ भी रही हो क्योंकि फैसले के महज चौथे दिन केंद्रीय कानून मंत्री को बदला जाना संयोग नहीं हो सकता, हालांकि केंद्र सरकार सीपीएम के एक सांसद द्वारा पूछे गए सवाल के जवाब में संसद में स्पष्ट कह चुकी है कि वह सरकारिया आयोग की सिफारिश के आधार पर अनुच्छेद 155 में बदलाव करने की कोई मंशा नहीं रखती, जिसके अनुसार राज्यपालों की नियुक्ति राज्यों के मुख्यमंत्री से परामर्श के बाद किए जाने की बात है। यह साफ दिखाता है कि संविधान में मौजूद एक विवेकाधीन और उदार प्रावधान का दुरुपयोग करने की नीयत भाजपा सरकार की जस की तस है।
आगामी एक वर्ष में होने वाले लोकसभा चुनावों के मद्देनजर यह भी संयोग नहीं है, खासकर तब जबकि गैर-भाजपाई राज्य सरकारों की संख्या हर अगले चुनाव के साथ बढ़ती जा रही हो और दक्षिण में भाजपा की इकलौती कर्नाटक की सत्ता हाथ से जा चुकी है।
अतीत के विवाद
अतीत में राज्यपालों द्वारा संघीय ढांचे से छेड़छाड़ करने और अपनी संवैधानिक हदें लांघकर चुनी हुई सरकारों को गिराने के कुछ यादगार मामले नीचे दिए जा रहे हैं। तमिलनाडु की ताजा घटना के संदर्भ में इन्हें पढ़ा जाना चाहिए।
वर्ष: 1984
राज्य: आंध्र प्रदेश
राज्यपाल: राम लाल
अगस्त-सितंबर 1984 में आंध्र प्रदेश के राज्यपाल रामलाल ने मंत्री नदेंदला भास्कर राव को मुख्यमंत्री बना दिया था, जब मौजूदा मुख्यमंत्री डीएमके के एनटी रामाराव दिल की सर्जरी के लिए विदेश गए थे। इसके बाद पूरे राज्य में आंदोलन भड़क गया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को दबाव में एनटीआर को दोबारा मुख्यमंत्री बनाना पड़ा। अगले चुनाव में एनटीआर भारी बहुमत से जीत कर सत्ता में आए। इसके बाद 1985 में केंद्र ने कुमुदबेन जोशी को राज्यपाल बनाया। पांच साल के कार्यकाल में उन पर आरोप लगता रहा कि उन्होंने राजभवन को आंध्र प्रदेश कांग्रेस कमेटी के दफ्तर में तब्दील कर डाला है।
राज्य: सिक्किम
राज्यपाल: होमी तालेयारखान
सिक्किम के राज्यपाल होमी तालेयारखान ने मुख्यमंत्री नर बहादुर भंडारी की सरकार के खिलाफ केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार को 20 पन्ने की एक गोपनीय रिपोर्ट भेजी थी जिसमें राज्य सरकार पर कुशासन और कांग्रेस के खिलाफ होने का आरोप लगाया था। भंडारी ने उस वक्त दिल्ली जाकर राज्यपाल को हटाने की मांग की। इंदिरा गांधी की सरकार ने भंडारी की सरकार को बर्खास्त कर दिया था।
वर्ष: 1988
राज्य: कर्नाटक
राज्यपाल: पी वेंकटसुबैया
1988 में कर्नाटक के तत्कालीन राज्यपाल पी वेंकटसुबैया ने एसआर बोम्मई की सरकार को बर्खास्त कर दिया था। इसने कानूनी लड़ाई को जन्म दिया। इस मामले को 1994 में सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक बोम्मई फैसले के साथ सुलझाया गया था। बोम्मई सरकार के विधायक केआर मोलाकेरी के विद्रोह के बाद संकट में आ गई थी। मोलाकेरी ने 18 विधायकों के समर्थन का दावा किया। हालांकि बोम्मई ने बहुमत का दावा किया था, लेकिन उन्हें इसे साबित करने का अवसर नहीं दिया गया। राज्यपाल वेंकटसुबैया ने राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की थी जिसे राजीव गांधी सरकार ने स्वीकार कर लिया था।
वर्ष: 1996
राज्य: गुजरात
राज्यपाल: केपी सिंह
1996 में गुजरात के राज्यपाल केपी सिंह ने राष्ट्रपति शासन लगाने की सिफारिश की थी। उस समय भाजपा सत्ता में थी और केंद्र में एचडी देवगौड़ा के नेतृत्व में संयुक्त मोर्चा की सरकार थी। सुरेश मेहता सरकार के लिए संकट शंकरसिंह वाघेला और 40 विधायकों के विद्रोह के बाद शुरू हुआ था। मेहता की सरकार बच गई क्योंकि उन्होंने अपना बहुमत साबित कर दिया। सत्र में विधायकों के बीच संघर्ष हुआ था, जिसके बाद राज्यपाल ने राष्ट्रपति शासन की सिफारिश की थी।
वर्ष: 1998
राज्य: उत्तर प्रदेश
गवर्नर: रोमेश भंडारी
1998 में लोकसभा चुनाव के बीच जगदम्बिका पाल के नेतृत्व वाली 22 सदस्यीय लोकतांत्रिक कांग्रेस के समर्थन वापस लेने के बाद कल्याण सिंह के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार लड़खड़ा गई थी। राज्यपाल रोमेश भंडारी ने कल्याण सिंह सरकार को बर्खास्त कर पाल को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया और उन्हें मुख्यमंत्री पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई। कल्याण सिंह ने कानूनी लड़ाई लड़ी और कोर्ट ने उन्हें बहाल कर फ्लोर टेस्ट का आदेश दिया। सिंह ने आसानी से विश्वास मत हासिल कर लिया।
वर्ष: 2005
राज्य: बिहार
राज्यपाल: बूटा सिंह
बिहार में 2005 के विधानसभा चुनावों में कोई भी पार्टी या गठबंधन सरकार बनाने की स्थिति में नहीं था और राष्ट्रपति शासन लगा दिया गया था। जद(यू) और भाजपा वाले राजग ने दो महीने बाद 115 विधायकों के समर्थन का दावा किया क्योंकि उसने लोजपा के कुछ विधायकों और निर्दलीय विधायकों का समर्थन हासिल कर लिया था। हालांकि, तत्कालीन राज्यपाल बूटा सिंह ने विधानसभा भंग कर दी क्योंकि उन्हें डर था कि खरीद-फरोख्त हो सकती है। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा। शीर्ष अदालत ने बूटा सिंह को कड़ी फटकार लगाई, जिन्होंने बाद में इस्तीफा दे दिया। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि विधानसभा भंग करना असंवैधानिक था. यह भी कहा गया कि बूटा सिंह ने केंद्र को गुमराह किया था।
राज्य: झारखंड
राज्यपाल: सैयद सिब्ते रजी
झारखंड में विधानसभा चुनावों के बाद किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला, हालांकि एनडीए ने दावा किया कि उसके पास सरकार बनाने की पर्याप्त संख्या है, लेकिन झारखंड के राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने एनडीए के दावों को खारिज कर दिया और झारखंड मुक्ति मोर्चा के शिबू सोरेन को मुख्यमंत्री बनाया। सोरेन को नौ दिन बाद विश्वास मत का सामना किए बिना इस्तीफा देना पड़ा और भाजपा के अर्जुन मुंडा ने अगले मुख्यमंत्री के रूप में शपथ ली।
वर्ष: 2006
राज्य: उत्तर प्रदेश
राज्यपाल: टीवी राजेश्वर राव
मुलायम सिंह यादव ने तत्कालीन राज्यपाल टीवी राजेश्वर पर 2006 में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री रहते हुए उनकी सरकार को बर्खास्त करने की साजिश रचने का आरोप लगाया था।
वर्ष: 2010
राज्य: कर्नाटक
राज्यपाल: एचआर भारद्वाज
भारद्वाज पर 2010 में कर्नाटक की भाजपा सरकार को अस्थिर करने में मदद करने का आरोप था। उन्होंने आरोपों से इनकार किया था और उस संकट के लिए भाजपा को ही जिम्मेदार ठहराया था।
वर्ष: 2016
राज्य: उत्तराखंड
राज्यपाल: केके पॉल
हरीश रावत के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार मार्च 2016 में उत्तराखंड में नौ विधायकों के भाजपा में शामिल होने के बाद संकट में आ गई थी। इसके बाद बीजेपी ने सरकार बनाने का दावा पेश किया और तब राज्यपाल केके पॉल ने मुख्यमंत्री को 28 मार्च तक बहुमत साबित करने को कहा था, लेकिन विश्वास मत से एक दिन पहले कांग्रेस के नौ बागियों को अयोग्य घोषित कर दिया गया। केंद्र की एनडीए सरकार ने राज्यपाल की सिफारिश पर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया था। कांग्रेस इस मामले को हाईकोर्ट ले गई और कोर्ट ने रावत के पक्ष में फैसला सुनाया।
राज्य: अरुणाचल प्रदेश
राज्यपाल: ज्योति प्रसाद राजखोवा
अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल ज्योति प्रसाद राजखोवा पर संविधान का उल्लंघन करने का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट द्वारा राज्य में कांग्रेस सरकार को बहाल करने के बाद उन्हें बर्खास्त कर दिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने राजखोवा के सभी फैसलों को रद्द कर दिया था। पांच न्यायाधीशों की संविधान पीठ ने कहा था, ‘राज्यपाल को राजनीतिक दलों के भीतर किसी भी असहमति, कलह, वैमनस्य, या असंतोष से व्यक्तिगत रूप से दूर रहना चाहिए.’
राज्य: दिल्ली
लेफ्टिनेंट गवर्नर: नजीब जंग
करीब साढ़े तीन साल तक उपराज्यपाल नजीब जंग का दिल्ली की अरविंद केजरीवाल सरकार के साथ चला विवाद उनके इस्तीफे के साथ समाप्त हो गया। आम आदमी पार्टी की सरकार ने जंग पर केंद्र के इशारे पर दिल्ली सरकार के हितों के खिलाफ काम करने का आरोप लगाया था। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में कहा था कि दिल्ली सरकार के पास ठीक से काम करने के लिए कुछ शक्तियां होनी चाहिए।
वर्ष: 2017
राज्य: गोवा
राज्यपाल: मृदुला सिन्हा
गोवा में 2017 के विधानसभा चुनावों में किसी भी पार्टी को बहुमत नहीं मिला था। कांग्रेस 40 सदस्यीय सदन में 17 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। भाजपा ने 13 सीटों पर जीत दर्ज की थी, हालांकि राज्यपाल मृदुला सिन्हा ने भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया। भाजपा ने कुछ क्षेत्रीय दलों और निर्दलीय उम्मीदवारों के साथ चुनाव के बाद गठबंधन किया था। मनोहर पर्रिकर के नेतृत्व में भाजपा ने सरकार बनाई थी।
राज्य: मणिपुर
राज्यपाल: नजमा हेपतुल्ला
उसी वर्ष मणिपुर में विधानसभा चुनाव हुए। कांग्रेस 60 सदस्यीय सदन में 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। राज्यपाल नजमा हेपतुल्ला ने हालांकि भाजपा को समर्थन देने वाले विधायकों की सूची सौंपने के बाद उसे आमंत्रित किया।
वर्ष: 2018
राज्य: कर्नाटक
राज्यपाल: वजुभाई वाला
कर्नाटक विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। पार्टी 224 सदस्यीय सदन में बहुमत के आंकड़े से केवल आठ सीटें पीछे रह गईख् हालांकि कांग्रेस ने सदन में बहुमत हासिल करने के लिए जद (एस) के साथ चुनाव के बाद गठबंधन की घोषणा की, लेकिन राज्यपाल वजुभाई वाला ने भाजपा को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया और बहुमत साबित करने के लिए 15 दिन का समय दिया। इसके बाद कांग्रेस राज्यपाल के फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंची थी। अदालत ने येदियुरप्पा को बहुमत साबित करने के लिए कहा।
राज्य: जम्मू और कश्मीर
राज्यपाल: सत्यपाल मलिक
जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल सत्रूपाल मलिक ने विपक्षी दलों को सरकार बनाने का मौका नहीं दिया। उनका बहाना था कि राजभवन में फैक्स मशीन काम नहीं कर रही थी इसलिए उन्हें पत्र नहीं मिला। पीडीपी प्रमुख महबूबा मुफ्ती और पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के प्रमुख सज्जाद लोन ने कहा था कि उन्होंने ट्विटर और व्हाट्सएप के माध्यम से सरकार बनाने का दावा करते हुए अपने पत्र भेजे थे।
वर्ष: 2019
राज्य: महाराष्ट्र
राज्यपाल: भगत सिंह कोश्यारी
महाराष्ट्र में 2019 में हुए विधानसभा चुनाव में भाजपा-शिवसेना गठबंधन ने आसानी से बहुमत हासिल कर लिया, लेकिन मुख्यमंत्री की कुर्सी को लेकर मतभेद के कारण गठबंधन सरकार नहीं बना सका। राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी की सिफारिश पर राज्य को केंद्रीय शासन के अधीन रखा गया था। तब शिवसेना ने कांग्रेस और एनसीपी का साथ दिया था। हालांकि, इससे पहले कि तीनों दल दावा पेश करते, राज्यपाल कोश्यारी ने भाजपा नेता देवेंद्र फडणवीस को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई और राकांपा नेता अजित पवार को उपमुख्यमंत्री पद की शपथ दिलाई। सुबह पांच बजकर 47 मिनट पर राष्ट्रपति शासन हटा दिया गया और घंटों बाद शपथ ली गई। फ्लोर टेस्ट से पहले फडणवीस को बाद में इस्तीफा देना पड़ा और उद्धव ठाकरे ने कांग्रेस और एनसीपी के समर्थन से अगले सीएम के रूप में शपथ ली।
राज्य: पश्चिम बंगाल
राज्यपाल: जगदीप धनखड़
पश्चिम बंगाल के राज्यपाल जगदीप धनखड़ के 30 जुलाई, 2019 को पदभार संभालने के बाद से मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के साथ तनावपूर्ण संबंध रहे। राज्यपाल के पास विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों पर हस्ताक्षर करने में बहुत अधिक विवेकाधीन शक्तियां नहीं हैं, लेकिन धनखड़ ने कुछ कानूनों को मंजूरी देने से इनकार कर दिया। धनखड़ के पूर्ववर्ती केसरीनाथ त्रिपाठी के भी बनर्जी के साथ बड़े मतभेद थे।
राज्य: मेघालय
राज्यपाल: तथागत रॉय
मेघालय के राज्यपाल तथागत रॉय अपनी विचारधारा और ट्वीट के चलते विवादास्पद रहे हैं। उन पर आरोप लगता रहा है कि उन्होंने राजभवन में भाजपा सदस्य के रूप में काम किया। मार्च 2018 में त्रिपुरा विधानसभा चुनावों में भाजपा द्वारा सीपीआइ (एम) सरकार को गिराने के बाद लेनिन की एक प्रतिमा को राज्य में उपद्रवियों द्वारा ध्वस्त कर दिया गया था। तत्कालीन राज्यपाल रॉय ने ट्वीट किया था, ”लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई एक सरकार जो कर सकती है, उसका उलटा काम लोकतांत्रिक रूप से निर्वाचित दूसरी सरकार भी कर सकती है।‘’
वर्ष: 2020
राज्य: राजस्थान
राज्यपाल: कलराज मिश्र
राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और राज्यपाल के बीच विवाद उस समय खुलकर सामने आ गया था जब गहलोत ने मिश्र पर अपनी शक्तियों का दुरुपयोग करने का आरोप लगाया था। राज्यपाल ने बहुत कम समय में विश्वास मत की मांग करने के लिए मुख्यमंत्री पर पलटवार किया और वह भी तब जब उन्होंने बहुमत का दावा किया था। राज्यपाल मिश्र ने कांग्रेस के इन आरोपों के खिलाफ अपना बचाव किया कि वह ‘ऊपर से दबाव’ के कारण विधानसभा सत्र बुलाने की उनकी मांग की अवहेलना कर रहे हैं।
वर्ष: 2021
राज्य: पुडुचेरी
उपराज्यपाल: किरण बेदी
साढ़े चार साल तक मुख्यमंत्री वी नारायणसामी ने राज्यपाल किरण बेदी को हटाने के लिए अभियान चलाया, लेकिन जब ऐसा हुआ, तो यह ऐसे समय में था जब उनकी सरकार चार इस्तीफों के बाद अस्थिर दिख रही थी। कांग्रेस का किरण बेदी पर आरोप था कि वे उसकी सरकार के हर कदम को रोक रही हैं और उसके रास्ते में रोड़े अटका रही हैं। नारायणसामी ने दिल्ली जाकर राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से बेदी को उपराज्यपाल पद से हटाने का अनुरोध किया था। बेदी को पुडुचेरी के बाहर भी कृत्यों के लिए आलोचना का सामना करना पड़ा। वह आरएसएस द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में वे मुख्य अतिथि थीं, जहां छात्र बाबरी मस्जिद विध्वंस पर नाटक खेल रहे थे और उन्होंने इस पर कोई प्रतिक्रिया नहीं दी थी।
वर्ष: 2022
राज्य: केरल
राज्यपाल: आरिफ मोहम्मद खान
केरल में राज्य सरकार और राज्यपाल आरिफ मोहम्मद खान के बीच चल रहा टकराव लगातार सुर्खियों में है। केरल में राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच गंभीर असहमति का मुद्दा उच्च न्यायालय में गया, जिसने नौ कुलपतियों के इस्तीफे की मांग करने वाले चांसलर (राज्यपाल) के आदेश को चुनौती देने के लिए सरकार को एक विशेष बैठक की अनुमति दी। इसके बाद राज्य सरकार ने राज्यपाल को चांसलर पद से हटाने के लिए कानून लाने की बात कही थी।
राज्य: तमिलनाडु
राज्यपाल: आरएन रवि
2022 और 2023 में तमिलनाडु विधान सभा द्वारा पारित कई विधेयकों को राज्यपाल आर. एन. रवि ने या तो अत्यधिक देरी के बाद स्वीकार किया या पूरी तरह से विधानसभा में वापस कर दिया था। इस आचरण ने तमिलनाडु की विधानसभा को एक प्रस्ताव पारित करने के लिए प्रेरित किया, जिसमें भारत सरकार से विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राज्य के राज्यपालों के लिए समय सीमा निर्दिष्ट करने का आग्रह किया गया था।
वर्ष: 2023
राज्य: छत्तीसगढ़
राज्यपाल: अनुसुइया उइके
फिलहाल मणिपुर की राज्यपाल अनुसुइया उइके 23 फरवरी 2023 से पहले तक छत्तीसगढ़ की राज्यपाल थीं। वहां आदिवासियों के आरक्षण के मामले में वे विवाद में घिर गई थीं। उनका अचानक छत्तीसगढ़ से मणिपुर ट्रांसफर किया गया। छत्तीसगढ़ सरकार ने आरक्षण का कोटा बढ़ाकर 76 प्रतिशत कर दिया था। जब यह राज्यपाल उइके के पास दस्तखत के लिए भेजा गया तो उन्होंने ऐसा करने से इनकार कर दिया। उन्होंने राज्य सरकार से असेंबली का एक विशेष सत्र बुलाने को कहा था ताकि आदिवासियों का कोटा बढ़ाया जा सके। यह मामला भी आदिवासियों के आरक्षण से जुड़ा था, जिसमें उइके के खिलाफ एक याचिका 30 जनवरी को छत्तीसगढ़ के उच्च न्यायालय में राज्य सरकार द्वारा लगाई गई थी। याचिका में आरोप लगाया गया था कि विधानसभा के दोनों सदनों से कोटा बिल पास होने के बावजूद राज्यपाल का उस पर दस्तखत न करना संविधान का उल्लंघन है और राज्य में अस्थिरता को बढ़ावा दे रहा है।
राज्य: तमिलनाडु
राज्यपाल: आरएन रवि
राज्यपाल आरएन रवि ने भ्रष्टाचार के आरोप में जेल में बंद मंत्री सेंथिल बालाजी को बरखास्त करने का आदेश 29 जून 2024 को जारी किया।