न्गुगी वा थ्योंगो : जिन्हें नोबेल मिलना भारत की मुक्तिकामी आवाजों को शायद बचा ले जाता!
byमहान अफ्रीकी लेखक और मुक्तिकामी राजनीति के हस्ताक्षर न्गुगी वा थ्योंगो का 28 मई को निधन हो गया। वैश्विक स्तर पर उनके निधन की ठीकठाक चर्चा हुई है लेकिन भारत में और खासकर हिंदी जगत में एक परिचित किस्म का सन्नाटा है- बावजूद इसके कि न्गुगी पहली बार 1996 में और दूसरी बार 2018 में न सिर्फ भारत आए, बल्कि बीते तीन दशक में उनके लिखे साहित्य का हिंदी में विपुल अनुवाद भी हुआ। भारत की राजनीति और समाज से जबरदस्त समानताएं होने के बावजूद अफ्रीकी जनता के नवउदारवाद-विरोधी संघर्ष को हिंदी के व्यापक पाठक समाज ने यदि तवज्जो नहीं दी, तो क्या उसकी वजह न्गुगी को नोबेल न मिल पाना है? अगर उन्हें नोबेल मिल जाता, तब क्या तस्वीर कुछ और होती? न्गुगी की दूसरी भारत यात्रा के संस्मरणों को टटोलते हुए इस काल्पनिक सवाल के बहाने अभिषेक श्रीवास्तव का स्मृति-लेख