मंगलेश डबराल के अभाव में बीते तीन साल और संस्कृति से जुड़े कुछ विलंबित लेकिन जरूरी सवाल
byवे ‘नुकीली चीजों’ की सांस्कृतिक काट जानते थे लेकिन उनका सारा संस्कृतिबोध धरा का धरा रह गया क्योंकि न तो उन्होंने पिता की टॉर्च जलायी न बाहर वालों ने आग मांगी। वे बस देखते रहे और रीत गए। शायद कभी कोई सुधी आलोचक मंगलेश जी के रचनाकर्म में छुपी उस चिड़िया को जिंदा तलाशने की कोशिश कर पाए, जिसका नाम संस्कृति है और जिसके बसने की जगह इस समाज की सामूहिक स्मृति है।