बॉलीवुड का दादा, गरीबों का दाता


बात कलकत्ता 1968 की है. उस साल की सड़कों पर जिस सबसे दुस्साहसिक नक्सली गौर की तलाश पुलिस को थी वो अपने साथियों के साथ एक बन्द गली में घिर गया था. सामने थे उतने ही बहादुर जोरबगान पुलिस स्टेशन के इंस्पेक्टर तारापद साहा. गौर ने अपने साथियों से पूछा कितने बम बचे हैं. जवाब मिला एक. उसने इंस्पेक्टर को निशाना बनाकर बम चला दिया लेकिन वो फटा नहीं. हाँ, अफरातफरी में इतना वक़्त ज़रूर मिल गया कि नक्सलियों का वह गिरोह बगल के मोहल्ले बेनियाटोला की तरफ भाग गया जो नक्सलियों का मजबूत गढ़ था और जहाँ पुलिस, यहाँ तक कि तारापद साहा भी जाने की हिम्मत नहीं करते थे.

उस दिन अगर वह बम फट गया होता तो इंस्पेक्टर साहा का मरना तय था और गौरांग भी पुलिस की हत्या के कारण नहीं बच पाता. तब बॉलीवुड उन यादगार दृश्यों से महरूम हो जाता जो शायद उसे ही करना था और जिसके लिए उसे तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार पाना था. कलकत्ता की सड़कों से निकले इस लड़के को जैसे करोड़ों लोगों के दिलों पर अपने डांस से राज करते हुए इतिहास बनाना था, वो भी नहीं हो पाता.

लेकिन यह सब कुछ आसानी से नहीं हुआ. उसे जान बचाने के लिए माँ-बाप ने एक रिश्तेदार के यहाँ मुंबई भेज दिया. उसे अपनी पहचान छुपाने के लिए अपना नाम भी गौरांग से मिथुन रखना पड़ा.

पत्रकार राम कमल मुखर्जी की किताब Mithun Chakraborty: The Dada of Bollywood के इस वर्णन से आप मिथुन के वास्तविक जीवन की सिनेमाई कहानी का अंदाज़ा लगा सकते हैं.

किताब रोचक है, इसे खुद पढ़ना चाहिए, इसलिए सिर्फ़ कुछ तथ्यों पर बात करते हैं.

अस्सी के दशक में जब सामाजिक और राजनीतिक दायरे में समाजवादी अवधारणा खतरे में पड़ने लगी और व्यवस्था से नाराज़ हीरो अपनी शरीरिक ताक़त से समाज विरोधी लोगों से लड़ता था, तब ऐसे में मिथुन के रूप में एक ऐसा नायक आया जो सिर्फ़ एक्शन से ही नहीं डांस से भी (डिस्को डांसर, डांस डांस) बड़े पहुँच वाले लोगों का मुक़ाबला करता था (मिथुन की डिस्को डांसर सौ करोड़ कमाने वाली पहली भारतीय फिल्म थी, जो शोले से कहीं ज़्यादा था).

यह नायक सामान्य पारिवारिक पृष्ठभूमि से आता था. वह संयुक्त परिवार का एक खुद्दार और ज़िम्मेदार युवा था (प्यार झुकता नहीं, घर एक मन्दिर, प्यार का मन्दिर, परिवार), जिसकी फिल्मों के नामों से भी उसकी गरीबों के प्रति पक्षधरता ऐलानिया घोषित रहती थी (गलियों का बादशाह, गरीबों का दाता, कसम पैदा करने वाले की).

अस्सी के दशक को फिल्मों के विद्वान कला, संगीत और कंटेंट के लिहाज से सबसे बुरा दौर बताते हैं, जो सही भी है, लेकिन इसकी वजह शायद फिल्मों से ज़्यादा समाज और राजनीति में हो रहे बदलाव और भविष्य की सामूहिक अनिश्चितता थी. जब समाज में शोर होगा तो मन और चित्त शांत नहीं होगा. संगीत भी लाउड होगा.

ऐसे भी समझिए कि मिथुन की लोकप्रियता उस दौर से कम होने लगी जब अर्थव्यवस्था के खुलने से सामाजिक ढांचा बदलने लगा. मध्यवर्ग में शामिल होने के सपने के साथ लोगों का शहरों में पलायन होने लगा. बहुत सारे लोगों की पहली पीढ़ी कॉलेज जाने लगी. सामाजिक अन्याय से लड़ने के बजाय लोगों में निजी सुख-सुविधा की सेफ लाइफ की इच्छा जगने लगी. वर्गीय हितों के आंदोलनों में भीड़ कम होने लगी.

इस नये तबके को एकांत और शांति चाहिए थी. वो पुरानी सामाजिक और पारिवारिक पकड़ से भी आज़ाद होना चाहता था. वो पलायनवादी हो रहा था. समाज और राजनीति की गंदगी के लिए वो नेताओं को दोष देकर, अपने को इस सब झंझटों से दूर रखना चाहता था.

आमिर खान और जूही चावला की ‘क़यामत से क़यामत तक’ (1988) ने इस बदलाव को पकड़ लिया. वो कल्ट बन गयी. इस परिघटना पर गौतम चिंतामणि की Qayamat Se Qayamat Tak: The Film that revived Indian Cinema एक शानदार किताब है.

उसके बाद आई ‘मैंने प्यार किया’ (1989), ‘फूल और कांटे’ (1991) चली तो खूब लेकिन उस दौर की राजनीतिक उथल-पुथल, बाबरी मस्जिद विध्वंस, सांप्रदायिक हिंसा का कोई सुराग भी इन फिल्मों में नहीं दिखता. पलायनवादी लोगों के लिए पलायनवादी फिल्में बनने लगीं. इसी तबके ने सबसे पहले सिलिकॉन वैली की काल्पनिक कहानियों पर भरोसा करना शुरू किया. पीठ पर बैग टांगे ‘राहुल’ की तरह दुनिया घूमने के लालच के झांसे में यही सबसे पहले आया. जनसंहारों को विकास के शोर में यही नकारता रहा.

सनद रहे, मिथुन का फैन इस अपराध में सम्मिलित नहीं था. उसके सपने ठेठ देसी और कस्बाई रहे. मिथुन की फिल्मों से आप उस दौर के राजनीतिक माहौल खासकर आर्थिक विसमता को गायब नहीं पा सकते.  तो जो लोग मिथुन को ऐसी फिल्मों के लिए बी ग्रेड फिल्मों का नायक कहकर खारिज करते रहे होंगे उनकी राजनीतिक दृष्टि क्या होगी, समझा जा सकता है.

तो वो जो गाँवों और कस्बों से मध्यवर्गीय सपने ले कर महानगरों में गए और ढांचागत हिंसा वाली दुनिया ने जिन्हें नकार दिया, उनमें सामाजिक बदलाव की इच्छा बची रही. वो मिथुन के फैन बने रहे. रोमांटिक पलायनवादी दर्शकों से इतर उनके लिए इन बड़े महानगरों में सस्ते सिनेमाहॉल उनके सपनों और संघर्षों को पर्दे पर मिथुन के मार्फत दिखाते रहे, जिसमें ‘झोपड़पट्टी जिंदाबाद’ (प्यार का मन्दिर, 1988) जैसे गाने उसे अपनेपन का एहसास कराते थे. तो इस तरह मिथुन गरीब कमज़ोर लोगों के नायक बन गये, जिसमें हर मजहब और जाति के कमज़ोर लोग अपना अक्स देखते थे. मिथुन शायद एक मात्र हीरो होंगे जिनकी अपनी कैडर बेस्ड फॉलोइंग है.

इस किताब को पढ़ने के बाद मैंने तीन अलग-अलग राज्यों के मित्रों से मिथुन फेनोमेना पर बात की. कोटा, राजस्थान के साथी विवेक भटनागर ने बताया कि उनके यहाँ आज भी कुछ लोग हैं जो उनकी तरह हेयर कट रखते हैं और गोल गले की टी शर्ट और सफेद जूते पहनते हैं. मध्यप्रदेश के भोपाल के पास के परेश नागर ने बताया कि उनके बचपन में एक नाई की दुकान मिथुन के पोस्टरों से सजी रहती थी जो आज भी उनके फैन हैं. झारखंड के चाईबासा के आदिवासी साथी दीनबंधु जी ने बताया कि बचपन में किसी फिल्म में मिथुन आदिवासी जैसे दिखे थे जो हाथी पाले था (मैं और मेरा हाथी, 1981) इसलिए वो बचपन से ही उन्हें अपने बीच के लगते हैं इसलिए आज भी वो उधर काफी पॉपुलर हैं.

जो समीक्षक मिथुन को गरीब निर्माताओं का अमिताभ कहते हैं वो शायद इस तथ्य को भूल जाते हैं कि अमिताभ की जो ऐंग्री यंग मैन की इमेज बनी थी वो उनकी अपनी नहीं थी. उसे सलीम-जावेद ने गढ़ा था. सबसे बेहतर निर्देशक उनसे अभिनय कराते थे. उनकी फिल्मों में बेहतरीन चरित्र अभिनेता और टॉप की अदाकाराएँ होती थीं. मसलन आप ‘सिलसिला’ की कल्पना रेखा के बिना नहीं कर सकते. लेकिन मिथुन किसी भी पटकथा लेखक की उपज नहीं हैं. वो सेल्फ मेड हैं. यानी अगर अमिताभ पटकथा लेखकों के ऐंग्री यंग मैन थे तो मिथुन ऐंग्री यंग लोगों के नायक थे.

किसी अभिनेता की शादी ने शायद ही फिल्म इंडस्ट्री को इतना प्रभावित किया हो जितना मिथुन और योगिता बाली की शादी ने किया था. इसका फायदा बॉलीवुड को हुआ. योगिता बाली किशोर कुमार की पत्नी थीं और जब मिथुन ने उनसे शादी की तो नाराज़ किशोर कुमार ने मिथुन को अपनी आवाज़ देने से इनकार कर दिया. इससे दो नये शानदार गायकों को अवसर मिला- मोहम्मद अज़ीज़ और शब्बीर कुमार.

नब्बे के उत्तरार्ध से मिथुन ने फिल्मों का एक बिजनेस मॉडल तैयार कर लिया, जहाँ कम बजट की फिल्में हर महीने आती थीं. उनका फैन बेस बचा रहा. वो खुद भी कहते हैं कि ये फिल्में वो उनके लिए ही बनाते थे. इन फिल्मों के पोस्टर गांवों क़स्बों में आपने देखे होंगे. एक दशक बाद यह बन्द हो गया.

मिथुन का यह फैन बेस बाद में भोजपुरी फिल्मों में चला गया. दक्षिण भारतीय फिल्मों के हिंदी डब संस्करणों के आने के बाद वो उधर भी बंट गया. इन दोनों तरह की फिल्मों के नायक अन्याय के खिलाफ़ लड़ते दिखते हैं, लेकिन शायद उनमें वर्गीय एंगल नहीं हो. यह फैन बेस अब फासीवादी राजनीति का भी समर्थक है. समाजवाद और फासीवाद दोनों का बेस तो सर्वहारा ही होता है!

मिथुन ने अस्सी के उत्तरार्ध और नब्बे के शुरुआती दिनों में अपनी फिल्मों से इस बेस को फासीवादी दिशा में जाने से कैसे रोक रखा था, यह एक शोध का अलग विषय है.



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