संघ ने तारिक फ़तह को श्रद्धांजलि क्यों दी?


पाकिस्तानी मूल के कनेडियन लेखक तारिक फ़तह का 24 अप्रैल 2023 को 73 वर्ष की आयु में बीमारी के कारण देहांत हो गया। यह पहले पाकिस्तानी मुस्लिम लेखक हैं जिन्हें आरएसएस ने श्रद्धांजलि दी है। तारिक फ़तह में ऐसी क्या विशेषता रही है कि इनको आरएसएस इतना महत्व दे रहा है?

भारत में अंग्रेजी राज की बुनियाद भारतवासियों के आपसी झगड़ों ने डाली। छोटे-छोटे राजघरानों के स्वामित्व में बंटा भारत उसकी कमज़ोरी बना। उनमें जारी आपसी युद्धों ने ईस्ट इन्डिया कम्पनी के लिए कमाई के नए रास्ते खोल दिए। इन युद्धों में लड़ने के लिए सैनिकों की आपूर्ति का काम कम्पनी ने पकड़ लिया और वह इस काम के लिए भारतवासियों को भर्ती करने लगी। यह भाड़े के सैनिक युद्ध में लिप्त दोनों पक्षों को पैसा लेकर आपूर्ति कर दिए जाते और तब वह एक-दूसरे के खि़लाफ़ ही लड़ते। अंग्रेज़ों की कम्पनी दोनो पक्षों से कमाती। किसी देश पर कब्ज़ा करने के लिए उस देश के लोगों को आपस में एक दूसरे का दुश्मन बनाकर उन्हें लड़ा दो और फिर चैन से उस देश के संसाधनों को लूटो, यह अंग्रेज़ों की नीति बन गई। ‘फ़ूट डालो और राज करो’ की नीति की कामयाबी ने पश्चिम के साम्राज्यवादी देशों को इस नीति का मुरीद बना दिया। यही नीति भारत के दक्षिणपंथी शासक वर्ग को विरासत में मिली और उसने अंग्रेज़ों के भारत से जाने के बाद इसे भारत में जारी रखा।

अंग्रेज़ों ने फ़ूट डालने की इसी नीति के तहत अपने सामंती वफ़ादारों के माध्यम से जाते-जाते भारत के दो टुकड़े करा दिए। बंटवारा इस तरह किया गया कि इससे हिंसा भड़क उठी और इसकी आग में दोनों तरफ़ के लाखों लोग झुलस गए। साम्प्रदायिक हिंसा में बच गए परिवार या उनके सदस्य हिंसा फ़ैलाने वालों की आगामी राजनीति का आधार बन गए। सत्ता पाने के लिए अब दोनों तरफ़ उनका इस्तेमाल होने लगा।

दक्षिणपंथ के लिए जनविरोधी पूंजीवादी आर्थिक नीतियां लागू करने के लिए फ़ूट एक कामयाब हथियार बन गया। इस हथियार को हम दुनिया भर में लागू होता देख रहे हैं। दूसरे देशों के बाज़ार पर कब्ज़ा करने के लिए फ़ूट के इस हथियार को हम 20वीं शताब्दी में हुए दो महायुद्धों में इस्तेमाल होते देखते हैं। इसी हथियार के बल पर हिटलर ने जर्मनी की सत्ता पर कब्ज़ा किया। भारत में 1991 से लागू की गई नई आर्थिक नीति के पीछे भी इसी हथियार का इस्तेमाल आज तक किया जा रहा है। मन्दिर-मस्जिद विवाद, जनता में परस्पर नफ़रत पैदा करके आर्थिक लक्ष्य हासिल करने के लिए ही शुरू किया गया और आज़ादी के बाद जो राष्ट्रीयकरण के माध्यम से जनसम्पत्ति खड़ी की गई थी उसका पूंजीपतियों को हस्तांतरण किए जाना भी इसी नीति का विस्तार है। आर्थिक लक्ष्य हासिल करने के लिए राजसत्ता की जरूरत पड़ती है और राजसत्ता हासिल करने के लिए संसदीय प्रणाली में वोटों को हासिल करना पड़ता है। वोट या तो जनकल्याणकारी नीतियों से मिल सकते हैं, लेकिन जनकल्याणकारी नीतियों में कटौती करने के बावजूद वोट हासिल करना है तो मुक्त बाज़ार की आर्थिक नीतियों के पक्षधरों के पास एक ही रास्ता बचता है कि वह जनता में नफ़रत के बीज बोकर फ़ूट की फसल उगाएं और तब इस आधार पर वोट हासिल करें। नफ़रत के बीज बोना फिर उनसे फ़ूट की फसल उगाना इस सूचना क्रांति के दौर में एक कला बन गई है। मीडिया के साधनों के प्रसार ने इसको आसान और उसकी गति को तीव्रता प्रदान कर दी है। इस मामले में सोशल-मीडिया एक नए संहारक-साधन के रुप में सामने आया है। जिस तरह कृषि क्षेत्र में कान्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग की शुरुआत हुई है उसी तरह समाज में नफ़रत की खेती भी कान्ट्रैक्ट के माध्यम से की जाने लगी है।

जनता के असंतोष को दूसरी दिशा में मोड़ने अथवा चुनाव में वोट हासिल करने के लिए इस तरह के कान्ट्रैक्ट आजकल इसके विशेषज्ञों को दिए जाते हैं। जिस तरह खेती में आधुनिक मशीनों और यंत्रों का इस्तेमाल किया जाता है वैसे ही इस नफ़रत की खेती के विशेषज्ञों की मदद के लिए मीडिया का इस्तेमाल होता है।

पाकिस्तानी मूल के कनाडियन नागरिक तारिक फतह का आरम्भिक जीवन एक प्रगतिशील व्यक्ति का रहा और धर्म को राजनीति से अलग करने की वकालत करने के कारण उन्हें धर्मनिर्पेक्ष माना गया लेकिन धार्मिक कट्टरता का विरोध करते-करते उनकी यह समझ बनी कि अगर इस छवि को ब्रांड बना दिया जाए तो इसे बाज़ार में बेचा जा सकता है। जैसे ही अपनी इस छवि को उन्होंने बेचना शुरू किया तो उन्हें लगा कि अगर सभी धर्मों की पुनरुत्थानवादी छवि के खिलाफ़ आवाज़ उठाई तो उनका ब्रांड बाज़ार में बिक नही पाएगा। तब उन्होंने केवल अपने धर्म इस्लाम के खिलाफ़ बोलना शुरू किया और इस तरह नफ़रत की कान्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग की शुरुआत हुई।

जिन्हें इस तरह की फसल की जरूरत थी उन्होंने उनसे सम्पर्क साधना शुरू किया। आप देखेंगे कि भारत में 2014 के लोकसभा चुनाव के समय उनके कार्यक्रम भारतीय चैनलों पर नज़र आने लगे। 2017 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव के समय जी़ न्यूज़ ने उनकी सेवा ली। 11 फ़रवरी 2017 से 8 मार्च 2017 तक की अवधि में यूपी विधानसभा चुनाव के लिए मतदान हुआ तब चुनाव प्रचार की शुरुआत के साथ ही 7 जनवरी 2017 को तारिक फतह के जी न्यूज़ पर फ़तह का फ़तवा नाम से सीरियल की पहली कड़ी की शुरुआत हुई जिसका पटाक्षेप चुनाव की समाप्ति के बाद 6 मई 2017 को दिखाई गई अन्तिम कड़ी के रूप में हुआ। फ़तह का फ़तवा नामक सीरियल में 17 कड़ियां दिखाई गईं जिनमें चर्चा निम्न मुद्दों पर केन्द्रित रखी गई। पहली कड़ी इस्लामिक आतंकवाद से शुरू हुई। इसके बाद इस्लाम में पर्दा प्रथा, काफ़िर, भारत में तीन तलाक़, मुस्लिम उलेमा व मौलानाओं का मुस्लिम समाज पर दबाव, उलेमाओं और मौलानाओं के दबाव पर मुस्लिम महिलाओं से चर्चा, इस्लाम में अभिव्यक्ति की आज़ादी और रेख्ता पर असहिष्णुता, बुरके की आड़ में वोटों की धोखाधड़ी, इस्लामिक हज सब्सिडी, मुसलमानों में जाति व्यवस्था, तीन तलाक़ पर फ़िर से बहस, निकाह हलाला, इस्लाम में गोद लेना, निकाह मुताह, इस्लामिक बैंकिंग एण्ड फ़ाईनेंस जिहाद- यह वह कड़ियां थीं जो चुनाव के बीच दिखाई गईं।

आप देखेंगे कि ‘फ़तह का फ़तवा’ नामक इन 17 कड़ियों में मुसलमानों की जो आर्थिक व राजनीतिक समस्याएं हैं उनसे परहेज़ रखा गया तथा दूसरे धर्मो में जो कुप्रथाएं, अंधविश्वास, अवैज्ञानिक मान्यताएं, रूढ़ियां हैं उन पर पूरी तरह मौन साधा गया। जी न्यूज़ द्वारा विधानसभा चुनाव के दौरान चलाई गई इस चर्चा के द्वारा मुसलमानों का दानवीकरण तथा बतौर खलनायक उनका समाज में चित्रण किया गया। यह मुस्लिम के प्रति नफ़रत फ़ैलाने और हिन्दू-मुस्लिम में फ़ूट डालकर हिन्दुओं का वोट हासिल करने के मकसद से एक कान्ट्रैक्ट के तहत किया गया। इस टीवी कार्यक्रम को पहले एशियन पेंट ने प्रायोजित किया लेकिन जब मुस्लिम समाज की ओर से इसका विरोध आया तो वह पीछे हट गया और तब प्रायोजित करने की ज़िम्मेदारी मोदी सरकार के लिए प्रचार करने वाले स्वामी रामदेव ने सम्भाल ली। चुनाव-परिणाम आने के बाद तारिक फ़तह भारतीय समाज में नफ़रत के बीज बोकर वापस कनाडा प्रस्थान कर गए। 2019 के लोकसभा चुनाव से पहले भी इसी तरह उनका भारत में प्रवेश हुआ।

तारिक फतह कोई अकेले विशेषज्ञ नहीं हैं जो नफ़रत की खेती करने का ठेका लेते हैं। इनके अलावा भी अनेक लोग हैं जो इस काम में लगे हुए हैं। उन्हीं से प्रेरणा पाकर पाकिस्तान से निकलकर बाहर शरण लिए हुए ताहिर गोरा और आरिफ़ अजाकिया जैसे लोगों ने भी ऐसे ही कान्ट्रैक्ट लेने शुरू किये। ऐसे ही लोगों में अमरीकन, जो हिन्दू बन गए हैं, डेविड फ्राले उर्फ़ वामदेव शास्त्री हैं जिन्हें मोदी सरकार ने 2015 में पद्मविभूषण से नवाज़ा। इसी तरह फ्रांसीसी राजनीतिक लेखक व पत्रकार फ्रांकोईस गोटियर जो 1971 से भारत में हैं, बेल्जियम के नागरिक कोनराड एल्स्ट, भारतीय मूल के ब्रिटिश पत्रकार तुफ़ैल अहमद हैं जो इजरायली सेना के सतर्कता विभाग में कार्यरत कर्मचारियों द्वारा स्थापित मिडिल ईस्ट मीडिया रिसर्च इन्स्टीटयूट वाशिंगटन डीसी में काम करते हैं। यह संस्था मुसलमानों का दानवीकरण करने का काम मीडिया द्वारा करती है।

यह सारे लोग भारतीय समाज में नफ़रत के बीज बोकर उनके बीच फ़ूट डालने के काम में लगातार लगे हुए हैं। आप देखेंगे कि भारतवासियों की जो मूल समस्याएं हैं इनकी कलम कभी भी उस दिशा में नही उठती। यह अपने लेखन से यह दिखाने की कोशिश करते हैं कि वह हिन्दुओं के सच्चे हितैशी हैं लेकिन आप इनके द्वारा लिखा हुआ एक भी लेख खोज कर नहीं ला सकते जिसमें इन्होंने भारतवासियों की मूल समस्याओं पर लिखा हो। यह केवल नफ़रत की ठेका खेती करते हैं ताकि पूंजीपतियों के आर्थिक हितों की पूर्ति हो सके।



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