नए दौर के नकली नायक: डॉ. रघुराम राजन

हर दुनिया में और हर दौर में कुछ ऐसे नायक पैदा होते हैं जो नकली होते हैं। इनका पता समय रहते नहीं लगता। समय बीत जाने के बाद इनकी गांठें खुलती हैं। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। कोरोना महामारी के बाद आज जो नई दुनिया हम अपनी आंखों के आगे बनती देख रहे हैं, उसने भी कुछ नए नायक पैदा किए हैं। ये नायक एकबारगी जनता की बात करते दिखते हैं, लेकिन उनकी प्रेरणाएं और मंशाएं अपने कहे से उलट होती हैं। ऐसे ही व्यक्तियों के ऊपर नए साल में हम ‘नए दौर के नकली नायक’ नाम से एक श्रृंखला शुरू कर रहे हैं। पहली कड़ी मशहूर अर्थशास्त्री डॉ. रघुराम राजन के ऊपर मुशर्रफ अली की कलम से

फलस्तीन-इजरायल विवाद : एक अंतहीन त्रासदी

हमास के ताजा हमले और उसके बदले में की जा रही कार्रवाई बताती है कि आतंकवाद को समाप्त करने का इजरायली तरीका अगर इतना ही कारगर होता, तो आज अपने जन्म के 74 साल बाद भी वह इस समस्या से जूझ नहीं रहा होता। ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्‍य में इजरायल-फलस्‍तीन संघर्ष पर रोशनी डाल रहे हैं मुशर्रफ़ अली

‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ के द्वेषी कैसे अंग्रेजों के वैचारिक वारिस हुए?

नई संसद में संविधान की जिस प्रति को लेकर सांसद गए, उसकी प्रस्‍तावना से ‘समाजवाद’ और ‘सेकुलर’ नदारद था। जवाब मांगा गया, तो कानून मंत्री ने सपाट कह दिया कि मूल प्रस्‍तावना तो ऐसी ही थी। अगले ही दिन एक सत्‍ताधारी सांसद ने अपने संसदीय आचार से ‘सेकुलरिज्‍म’ की मूल भावना को ही अपमानित कर डाला। भाजपा के बाकी सांसद उसकी गालियों पर हंसते रहे। इन दोनों संवैधानिक मूल्‍यों से घृणा की वैचारिक जड़ें आखिर कहां हैं? इतिहास के पन्‍नों से मुशर्रफ अली की पड़ताल

भारत का ‘लेफ्ट’ और एजाज़ अहमद की तकलीफ

बीते 89 वर्ष में आरएसएस ने आखिर ऐसी कौन सी रणनीति अपनाई कि उसके राजनीतिक मोर्चे भाजपा ने 2014 में भारत की केन्द्रीय सत्ता पर कब्‍जा कर लिया? जबकि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी जिसकी विधिवत स्थापना आरएसएस के साथ ही 1925 में हुई थी और आजादी के बाद जो दूसरी सबसे बड़ी पार्टी थी, अपने दो प्रदेश भी गंवा बैठी? ऐसा कैसे मुमकिन हुआ? इतिहासकार एजाज़ अहमद और एंतोनियो ग्राम्‍शी से सबक लेते हुए इस प्रासंगिक सवाल पर रोशनी डाल रहे हैं मुशर्रफ़ अली