‘समाजवादी’ और ‘पंथनिरपेक्ष’ के द्वेषी कैसे अंग्रेजों के वैचारिक वारिस हुए?

नई संसद में संविधान की जिस प्रति को लेकर सांसद गए, उसकी प्रस्‍तावना से ‘समाजवाद’ और ‘सेकुलर’ नदारद था। जवाब मांगा गया, तो कानून मंत्री ने सपाट कह दिया कि मूल प्रस्‍तावना तो ऐसी ही थी। अगले ही दिन एक सत्‍ताधारी सांसद ने अपने संसदीय आचार से ‘सेकुलरिज्‍म’ की मूल भावना को ही अपमानित कर डाला। भाजपा के बाकी सांसद उसकी गालियों पर हंसते रहे। इन दोनों संवैधानिक मूल्‍यों से घृणा की वैचारिक जड़ें आखिर कहां हैं? इतिहास के पन्‍नों से मुशर्रफ अली की पड़ताल

संसद के विशेष सत्र के दौरान नए संसद भवन में प्रवेश के दिन संविधान की जो प्रति सांसदों को बांटी गईं, उनमें ‘सोशलिस्‍ट’ यानी समाजवादी और ‘सेकुलर’ यानी पंथनिरपेक्ष शब्‍द गायब था। विपक्ष के नेता अधीर रंजन चौधरी ने यह मुद्दा लोकसभा में उठाने की कोशिश की थी, लेकिन उनका कहना था कि उन्‍हें मौका ही नहीं दिया गया। भारतीय जनता पार्टी क ओर से इस आपत्ति पर आधिकारिक जवाब यह आया कि सरकार ने संविधान की प्रस्‍तावना की मूल प्रति को बांटा है जिसमें समाजवाद और पंथनिरपेक्ष शब्‍द नहीं थे। दिलचस्‍प यह है कि बांटी गई संविधान की प्रति में बाकी सारे संशोधन शामिल थे जो 1950 के बाद से किए गए, केवल यही दो शब्‍द गायब थे।

‘सेकुलर’ और ‘समाजवादी’ को लेकर शुरू से ही भाजपा और राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ को आपत्ति रही है। आपत्ति तो एक बात है, पर आचरण से ही बहुत कुछ स्‍पष्‍ट है। संसद के विशेष सत्र के आखिरी दिन भाजपा के सांसद रमेश बिधूड़ी ने बसपा के सांसद दानिश अली के खिलाफ सदन में जैसे अपशब्‍द कहे, उसने चार दिन तक नीरस चले संसद सत्र को वाकई ‘विशेष’ बना दिया। अब तो स्थिति यहां तक आ चुकी है कि कुछ दूसरे वैचारिक दायरे के लोग भी समाजवाद पर आपत्ति जताने लगे हैं। मसलन, एक पूर्व पत्रकार और ओबीसी-दलित प्रचारक दिलीप मंडल ने ‘समाजवाद’ को संविधान से हटाने की मांग कर दी है।

इन दो बुनियादी संवैधानिक मूल्‍यों से भाजपा और संघ प्रभृति संगठनों व व्‍यक्तियों की दिक्‍कत के मूल में चाहे जो कारण हों, लेकिन अतीत के आलोक में यह समझना जरूरी है कि इनकी आपत्तियों की वैचारिक जड़ें कहां हैं।

नेहरू की ‘समाजवादी’ पक्षधरता के दुश्‍मन अंग्रेज थे

कहा जाता है कि भारत के बंटवारे का कारण जिन्नाह का धर्म-आधारित द्विराष्ट्रवाद का सिद्धांत था, जिस पर हिंदू-मुस्लिम दोनों तरफ़ के साम्प्रदायिक नेतृत्व की सहमति थी। हकीकत यह है कि इसको उकसाने के पीछे अंग्रेजों का हाथ था। बिना अंग्रेजों की सहमति के बंटवारा मुमकिन नहीं था। इस बात के दस्तावेजी सबूत मौजूद हैं कि वायसराय लिनलिथगो मुस्लिम लीग के नेताओं को बंटवारे के लिए प्रोत्साहित करता रहा। अपनी इस बात को उसने सर जफ़रुल्ला के माध्यम से मोहम्मद अली जिन्नाह तक पहुंचाया और इसी के नतीजे में 23 मार्च 1940 को मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान बनने का प्रस्ताव पास हुआ।

ब्रिटिश सेना के उच्चाधिकारियों में दो तरह के लोग थे। एक वे जो बंटवारा नहीं चाहते थे और दूसरे वे जो बंटवारे को ब्रिटिश भूराजनीति के हित में जरूरी समझते थे। 11 मई 1946 को फील्ड मार्शल सर क्लाउड ऑचिन्लेक ने एक गोपनीय पत्र ब्रिटिश संसद को लिखा जिसमें कहा गया कि अगर हम भारत का बंटवारा करके पाकिस्तान को कॉमनवेल्थ में शामिल कर लेंगे तो वह आर्थिक और सैन्‍य रूप से कमजोर राज्य होने के कारण हिंद महासागर में ब्रिटिश हितों की रक्षा नहीं कर पाएगा। दूसरी ओर एक मजबूत और स्वतंत्र भारत ब्रिटेन से अलग होकर सोवियत संघ के खेमे में जा सकता है, इसलिए एक संयुक्त भारत कॉमनवेल्थ में शामिल होकर ब्रिटिश हितों की रक्षा कर सकता है और तब ब्रिटिश सेना स्वतंत्र रूप से हिंद महासागर और भारत के वायुक्षेत्र में विचरण कर सकती है। ब्रिटेन ने इस क्षेत्र की रक्षा के लिए जो भारतीय सेना तैयार की है, बंटवारे से वह बंट जाएगी। हमारे हित मलेशिया से लेकर आस्ट्रेलिया तक हैं जिनकी रक्षा के लिए हमको भारतीय बंदरगाह की जरूरत पड़ेगी।

ऑचिन्लेक की इस राय से जनरल जेन ने असहमति जताते हुए कहा कि आपका आकलन गलत है। ब्रिटिश सेना में एक समूह ऐसा था जो यह मानता था कि बंटवारा किया जाए क्योंकि कांग्रेस पर वे विश्वास नहीं कर सकते। नेहरू की ‘समाजवादी’ पक्षधरता और साम्राज्यवाद विरोधी नजरिया उनको परेशान करता रहेगा। तभी लेफ्टि‍नेंट जनरल सर फ्रांसिस टकर का इस बारे में बयान आया कि हमको उत्तरी अफ्रीका से लेकर इस्लामी अरब के रेगिस्तान, फारस, अफगानिस्तान, हिमालय और उत्तरी भारत के मुस्लिम राज्य तक एक इस्लामिक पट्टी का निर्माण करना चाहिए जो इस्लामिक विचारधारा और ब्रिटिश विज्ञान से लैस हो। इसका मकसद मध्य-पूर्व में मौजूद अपने तेल हितों को पूरा करने के साथ साथ सोवियत संघ की विचारधारा को भारत आने से रोकना था।

12 मई 1947 को लंदन में ब्रिटेन के उच्च सैन्य व नागरिक अधिकारियों की एक बैठक आरएएफ मार्शल लॉर्ड  टेड्डर की अध्यक्षता में हुई। उसमें भारत-पाक बंटवारे का मेमोरेंडम तैयार हुआ। बैठक में मौजूद सभी चीफ ऑफ स्टाफ इस बात पर सहमत थे कि भारत-पाक बंटवारा ब्रिटिश हितों के अनुरूप होगा और उन्‍हें यह सुनिश्चित करना चाहिए कि कराची बंदरगाह और पाकिस्तान का वायुक्षेत्र उनके इस्तेमाल में रहे तथा बनने वाला मुस्लिम राज्य भविष्य में ब्रिटेन के लिए सैनिकों की आपूर्ति जारी रखे। अगर पाकिस्तान को कॉमनवेल्थ में शामिल किया गया तो यह ब्रिटेन के लिए लाभदायक रहेगा। इससे पूर्व मोहम्मद अली जिन्नाह कह चुके थे कि अलग हुआ पाकिस्तान कॉमनवेल्थ की सदस्यता चाहेगा और उसकी सदस्यता को ब्रिटेन नजरअंदाज नहीं कर सकता क्योंकि सभी मुसलमान ब्रिटिश सरकार के शुरू से ही वफादार रहे हैं और उन्‍होंने दोनों विश्वयुद्धों में बड़ी तादाद में सैनिकों की आपूर्ति की है। मुस्लिम लीग का कोई भी नेता अंग्रेजों के खिलाफ किसी तहरीक में जेल में बंद नहीं हुआ है।

12 मई 1947 को तैयार किए गए इस मेमोरेंडम को ब्रिटेन के प्रधानमंत्री लार्ड ऐटली को भेज दिया गया और इसके बाद ही 3 जून 1947 को वायसराय लार्ड माउंटबेटन ने बटवारे की घोषणा कर दी। उन्होंने जून 1948 तक सत्ता हस्तांतरण की संभावना जताई, लेकिन प्रधानमंत्री ऐटली ने 1947 के अगस्त माह के मध्य तक सत्ता सौंपने की बात कही। पाकिस्तान को दो हिस्सों में बांटने की मंजूरी के पीछे भी अंग्रेजों का स्वार्थ था क्योंकि बंटवारे के इस नक्शे से उनके हाथ दो बंदरगाह आ रहे थे- एक पूर्वी और दूसरा पश्चिमी पाकिस्तान का बन्दरगाह। इस तरह भारत-पाक बंटवारा अंग्रेजों की एक सोची-समझी योजना का हिस्सा था।

साम्‍प्रदायिक अफवाहों और दंगों के जनक भी अंग्रेज थे

इस बंटवारे के नतीजे में जो पंजाब में जो कत्लेआम हुआ उस पर तथ्यों की रौशनी मैं गौर करते हैं। यूं तो इस विषय पर अनेक अध्ययन और किताबें मौजूद हैं, लेकिन हम दंगों के बीच मौजूद भगत सिंह के साथी और नौजवान भारत सभा के संस्थापक सदस्यों में से एक कामरेड धनवंतरी की रिपोर्ट जो ‘‘ब्लीडिंग पंजाब वार्न्‍स’’ शीर्षक से सितम्बर 1947 में प्रकाशित हुई और जिसकी भूमिका और एक अध्याय पीसी जोशी ने लिखा है, उससे तथ्य लेंगे।  


कामरेड धनवंतरी जम्मू-कश्मीर में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक थे और उन्होंने अपने जीवन के 17 साल, जिनमें से सात साल कालापानी की सजा के थे, जेल में गुजारे। अंग्रेजों और उनके मददगारों ने किस तरह बंटवारे के बाद साम्प्रदायिक दंगों को भड़काया इस पर विस्तार से जानने और उनके चेहरे पहचानने के लिए कामरेड धनवंतरी की 1947 की रिपोर्ट को पढ़ना जरूरी है।


रिपोर्ट की भूमिका में कामरेड पी.सी. जोशी ने लिखा, ‘प्रधानमंत्री नेहरू ने हम सबसे सरगर्म अपील की है कि हम साम्प्रदायिक दंगों की उस लहर से, जिसने हमारे देश को अपने चंगुल में ले रखा है, लड़ने के लिए बाहर आएं। हमें इस बात का स्पष्ट ज्ञान होना चाहिए कि हमारे देश का दुश्मन कौन है जिसने पंजाब को इस अभूतपूर्व त्रासदी में फांसा। हमें इस तरह की गतिविधियों पर जोर देना चाहिए जो इस दुश्मन को नेस्तनाबूत कर सके। हमारी लोकप्रिय सरकार को इस समय सभी तरह की मदद की जरूरत है। कामरेड धनवंतरी की पंजाब की कहानी हमें एक शक्तिशाली हथियार देती है। यह साजिशकर्ताओं के असली चेहरों को बेनकाब करती है। यह दिखाती है कि हमारा मुकाबला किसी सामान्य साम्प्रदायिक दंगे से नहीं है बल्कि देशी व विदेशी ताकतें एक बड़ी साजिश के द्वारा हमारी आजादी को भ्रातघाती खून में डुबाकर हमारी सरकार को कमजोर, राष्ट्रनिर्माण के कार्य को ध्वस्त और हमारे राष्ट्रीय आंदोलन को छिन्न-भिन्न करना चाहती हैं। अगर हम सिर्फ़ पंजाब से सबक लें, तो हम जनता की ओर से शांति प्रतिरोध खड़ा करके साम्राज्यवाद और उनके एजेन्टों के साम्प्रदायिक हमलों के खिलाफ आन्दोलन खड़ा कर सकते हैं। आज देश एक बड़े खतरे से दोचार है। हमें स्पष्ट रूप से यह समझना होगा कि महात्मा गांधी का हिन्दू-मुस्लिम एकता पर जो अमर विश्वास और नेहरू का उससे मुकाबला करने का व्यक्तिगत हौसला है उसके बल पर हमारी भूमिका साम्प्रदायिक सद्भाव क़ायम करने की होगी ताकि लोकतांत्रिक विकास के लक्ष्य को हासिल किया जा सके। कामरेड धनवंतरी ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि, ‘‘पंजाब में जो हुआ उसे दंगा नहीं कहा जा सकता बल्कि यह पश्चिमी पंजाब में सिख और हिन्दुओं तथा पूर्वी पंजाब में मुस्लिमों के रूप में दोनों तरफ के अल्पसंख्यकों का जनसंहार है। यह कलकत्ता और नौआखाली की तरह का साम्प्रदायिक दंगा नहीं है बल्कि वर्तमान में जो हत्याकांड, लूट और बलात्कार देखे गए हैं वह विभिन्न साम्प्रदायिक पार्टियों के आधुनिक हथियारों से पूरी तरह सज्जित प्रशिक्षित तूफानी हमलावर दस्तों द्वारा दोनों ओर के अल्पसंख्यकों के खिलाफ की गई जघन्य कार्यवाहियां हैं।

जैसे ही ब्रिटिश प्रधानमंत्री लार्ड ऐटली ने भारत-पाक बंटवारे की घोषणा की पंजाब के गवर्नर सर इवान मेरीडिथ जेनकिन ने संयुक्त पंजाब के प्रधानमंत्री सर मलिक खि़जर हयात तवाना को इस्तीफा देने को कहा। इसके पीछे सीधी सी योजना थी कि मुस्लिम लीग ऐसे में सरकार बनाने की कोशिश करेगी जिससे हिन्दुओं और सिखों का गुस्सा भड़क उठेगा जिसके नतीजे में साम्प्रदायिक दंगे भड़क उठेंगे। ऐसा ही हुआ। यह कोई अचानक घटी घटना नहीं थी कि सबसे पहले पंजाब के लाहौर में दंगा भड़का, बल्कि अफवाह फैलाकर भड़काया गया। सरकार धारा 93 का इस्तेमाल करके दंगा रोक सकती थी, लेकिन अंग्रेजों ने ऐसा न करके दंगे को उकसाया। दंगे सबसे पहले पंजाब के उन पांच जिलों लाहौर, मुलतान, रावलपिंडी, अमृतसर व जालन्धर में बहुत ही योजनाबद्ध व तेजी से फैले जहां ब्रिटिश सिविलियन बतौर डिप्टी कमिशनर तैनात थे। मैं कुछ मिसालें देना चाहूंगा कि किस तरह गवर्नर जेनकिन के शासन में दंगों को खुली छूट दी गई। मैं अमृतसर से 30 मील की दूरी पर लाहौर में मौजूद था लेकिन मेरे पास यह खबर नहीं पहुंची कि अमृतसर के चौक परागदास में किसी सिख ने मुसलमान की हत्या कर दी है जबकि यह खबर वहां से काफ़ी दूर रावलपिंडी पहुंच गई थी। उस समय अखबार और न्यूज एजेन्सियों पर सेन्सर लगा हुआ था तब इतनी जल्दी खबर किस तरह फैली जिसने मुस्लिमों को भड़का दिया और उन्होंने पश्चिमी पंजाब में हिन्दुओं और सिखों पर हमला कर दिया, इस बात को सिर्फ गवर्नर जेनकिन ही बता सकता था। दूसरा उदाहरण- कुछ हिन्दू और सिख नेता जब पंजाब के मुख्य सचिव अंग्रेज नौकरशाह मेक्डोनाल्ड से मिले और उसे रावलपिंडी में दंगों के शिकार हिन्दू और सिखों के दुखों के बारे में बताया और उनकी मदद की अपील की, तब वह बोला कि ‘वह लोग जल्द ही अपना दुख भूल जाएंगे जब यह सुनेंगे कि पूर्वी और मध्य पंजाब में रावलपिंडी का बदला ले लिया गया है।

रावलपिंडी जब दंगों की आग में झुलस रहा था तब कांग्रेस के नेता अंग्रेज डिप्टी कमिश्नर के पास मदद के लिए गए और उससे दंगा रोकने की अपील की, जिस पर वह बोला कि ‘तुम सरदार पटेल और नेहरू के पास जाओ, इस समय उनकी सरकार है। तुम लोग तो अंग्रेजों को निकालना चाहते थे, तब तुम मदद के लिए हमारे पास क्यों आए हो?’ दंगों का पहला चक्र पश्चिमी पंजाब में अंग्रेजों ने अफवाह फैलाकर शुरू कराया तथा उसको जारी रखने के लिए अंग्रेजों के वफादार राजा-नवाबों ने दंगाई दस्तों को प्रशिक्षण दिया व आधुनिक हथियारों और वाहनों की आपूर्ति की। यह राजा-नवाब बढ़ती हुई लोकतंत्र की हवा से खौफजदा थे। इन्हें लगता था कि इससे इनके अधिकारों और सुविधाओं में कटौती होगी इसलिए वे दंगों के शिकार जनसमूहों की मदद करके उनको उकसाकर न केवल अपना जनाधार बढ़ाना चाहते थे बल्कि नई सरकार के सामने बाधाएं खड़ी करना चाहते थे।’’ (2)

अंग्रेजों और उनके मददगारों ने किस तरह बंटवारे के बाद साम्प्रदायिक दंगों को भड़काया इस पर विस्तार से जानने और उनके चेहरे पहचानने के लिए कामरेड धनवंतरी की 1947 की रिपोर्ट को पढ़ना जरूरी है। रिपोर्ट में दर्जनों उदाहरण दिए गए हैं कि अंग्रेजों और उनके भारतीय एजेन्टों ने किस तरह अफवाहें फैलाकर दंगे भड़काए। रिपोर्ट नीचे मौजूद है।

ब्लीडिंग पंजाब वार्न्‍स, सितम्बर 1947

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‘समाजवाद’ से दुश्‍मनी की सैद्धांतिकी

नई बनी सरकार के सामने उस समय की पहली जरूरत साम्प्रदायिक दंगों को शांत करा के अमन कायम करना व दंगो से जख्‍मी लोगों के दिलों पर मरहम रखकर उनको बसाना व उनके रोजगार का इन्तिजाम करना था। इसके साथ ही इन दंगों का लाभ उठाकर पीड़ित शरणार्थियों में द्वेष को हवा देकर अपना जनाधार बढ़ा रहे संगठनों, राजनैतिक पार्टियों पर नियंत्रण रखना भी था। कांग्रेसी सरकार को विरासत में चूंकि पिछड़ी कृषि, जर्जर औद्योगिक ढांचा और अल्प विदेशी मुद्रा भंडार मिला था इसलिए उसके सामने भोजन से लेकर रोजगार तक की अनेक ज्वलंत समस्याएं मुंह बाये खड़ी थीं, लेकिन नई बनी सरकार का केन्द्रीय नेतृत्व बिना समय गंवाए राष्ट्रनिर्माण के इस काम में जुट गया। उस दौर में भारत में धार्मिक राष्ट्र चाहने वाली कई ताकतें मौजूद थीं। उनमें से इस्लामी राष्ट्र चाहने वाली ताकतों को अंग्रेजों की मदद से उनका इस्लामी राष्ट्र मिल गया था। अब वे ताकतें जो हिन्दू राष्ट्र चाहती थीं अपनी कोशिश में लगी हुई थीं। धार्मिक राष्ट्र के लिए दूसरे धर्म के मानने वालों से नफरत और द्वेष जरूरी है, जो बंटवारे के फलस्वरूप हुए दंगों ने पैदा कर दिया था, लेकिन महात्मा गांधी, नेहरू और कम्युनिस्ट पार्टी इस नफरत और द्वेष को मिटाने में जी जान से लगे हुए थे। बंगाल के नौआखाली में हुए भयंकर दंगे को शांत करने महात्मा गांधी वहां पंहुच चुके थे और उन्होंने अपने प्रभाव से वहां एक बड़ा दंगा होने से रोक दिया था। वह ताकतें जो हिन्दू राष्ट्र चाहती थीं वह इस बात का पहले से अनुमान लगा चुकी थीं कि उनके धार्मिक राष्ट्र बनाने की राह में सबसे बड़ी रुकावट महात्मा गांधी हैं, इसलिए उनको रास्ते से हटाने का वे कई बार असफल प्रयास कर चुकी थीं। 30 जनवरी 1948 को वह इसमें कामयाब हो गईं जब नाथूराम गोडसे नामक व्यक्ति ने 78 साल के उस निहत्थे बुजुर्ग को बिड़ला हाउस में कायरतापूर्वक गोली मार दी जो उनकी राह में रुकावट था। इस घटना ने राष्ट्र निर्माण के काम में जुटी सरकार के सामने एक और संकट खड़ा कर दिया, लेकिन उसने अपना काम रोका नहीं।

आजादी से पहले भारत में केवल दो उद्योग थे- एक जूट और दूसरे कपड़े का। हम चूंकि ब्रिटिश सामान के आयात पर निर्भर थे इसलिए देश को आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक आधारभूत ढांचे की जरूरत थी जिस पर देश के औद्योगिक व कृषि ढांचे की नींव रखी जाए। उसके लिए सबसे पहले ऊर्जा की जरुरत थी। ऊर्जा में बिजली, जो कोयले, पानी और परमाणु तकनीक से हासिल होनी थी उसके लिए खनन और जलविद्युत के लिए बांध मशीनरी, सीमेंट, लोहा आदि वस्तुओं की आपूर्ति की योजना बनाने की जिम्मेदारी केन्द्रीय योजना आयोग को दी गई और उसके उपयोग की प्राथमिकताएं तय की गईं। जैसे बांध, पुल और मशीनरी के लिए लोहे और सीमेंट को सर्वोच्च प्राथमिकता पर रखा गया। किसी सेठ की कोठी, कार और अन्य निजी वाहन, आदि पर व्यय होने वाली धातु, सीमेंट आदि सामान का कोटा तय किया गया और उसे बाद की प्राथकिताओं में शामिल किया गया, लेकिन जैसे ही सरकार ने ऐसा किया तो ऐसी अर्थव्यवस्था के विरोधियों ने इस व्यवस्था को कोटा-परमिट राज कहकर बदनाम करना शुरू कर दिया। ऐसा कहने वालों में चक्रवर्ती राजगोपालाचारी उर्फ राजाजी और उनके साथी थे। यह लोग चाहते थे कि भारत अपना स्वतंत्र आत्मनिर्भर आर्थिक विकास न करे बल्कि पाकिस्तान की तरह ही विदेशी वस्तुओं के आयात पर निर्भर हो जाए। इस तरह यह अप्रत्यक्ष रूप से विदेशी पूंजीपतियों को लाभ पहुंचाना चाह रहे थे और अनेक समस्याओं से जूझ रही तत्कालीन सरकार को तंग व परेशान करने में लगे थे।

उस समय विदेशी मुद्रा के स्रोत चूंकि सीमित थे इसलिए उसकी मितव्ययिता भी सरकार की प्राथमिकता में शामिल थी। इसके लिए विदेशी वस्तुओं की निर्भरता को न्यूनतम पर लाने का प्रयास किया गया और भोग-विलास की आयातित वस्तुओं को हतोत्साहित करने के लिए उन पर भारी सीमा शुल्क लगाया गया। अगर किसी अमीर को अपनी पत्नी या परिवार के लिए श्रृंगार या अन्य विलासिता की विदेशी वस्तुएं मंगानी भी हों तो उसे ज्‍यादा सीमा शुल्क अदा करना पड़ता था। अधिक सीमा शुल्क लगाने का नतीजा यह निकला कि जहां सरकार की आय में वृद्धि हुई वहीं देसी उत्पादन और वस्तुओं की खपत बढ़ गई और इससे देसी उद्योग और रोजगार में बढ़ोतरी होने लगी।

तब से अब तक वह लोग जो इस केन्द्रीय स्तर पर सरकारी हस्तक्षेपकारी आर्थिक नीति के विरोधी थे एक तर्क बहुत देते हैं कि कारों, मोटरसाइकिलों, स्कूटरों तथा अन्य उपभोक्‍ता वस्तुओं के तब गिने-चुने मॉडल उपलब्ध थे। आज की तरह चुनने की आजादी नही थी। वे यह नहीं बताते कि हमारे पास विदेशी मुद्रा के सीमित स्रोत थे और उनका इस्तेमाल औद्योगिक ढांचे के निर्माण में आ रही बहुत जरूरी सामग्री को आयात करने पर होना था। इसके अलावा, लोहा हमें बांधों, पुलों, मशीनरी आदि के लिए ज्‍यादा जरूरी था। वाहनों तथा अन्य उपभोक्‍ता सामानों के मॉडल हमारी प्राथमिकता में शामिल नहीं थे। तब यह सोचा गया कि जब अर्थव्यवस्था का आधारभूत ढांचा तैयार हो जाएगा जिस पर उद्योगों का जाल बिछ जाएगा तब अपने आप वाहनों के नए मॉडल तैयार हो जाएंगे।

देश उथल-पुथल और सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक कशमकश से ग़ुजर रहा था। वस्तुओं की कमी थी। ऐसी स्थिति का लाभ उठाने के लिए कालाबाजारिये, जमाखोर, मुनाफाखोर सक्रिय हो गए थे। उनके काले कारनामों पर नियंत्रण करने के लिए जांच का एक तंत्र विकसित करना जरूरी था, जो समय-समय पर छापामारी करके उनको नियंत्रित कर सके और इस तरह जनता को उनके द्वारा पैदा की गई उपभोक्‍ता वस्तुओं की कमी के संकट से छुटकारा दिला सके लेकिन इस व्यवस्था को भी इंस्पेक्टर राज कहकर बदनाम किया गया और आज तक किया जाता है जबकि पूंजीपति आज जबर्दस्त निगरानी यानि इन्स्पेक्टर राज की व्यवस्था लागू किए हुए हैं। दुकानों, डिपार्टमेंटल स्टोरों, शॉपिंग मॉलों, फैक्टरियों में जनता और अपने कर्मचारियों पर नजर रखने के लिए क्लोज सर्किट टी.वी. कैमरे लगाए गए हैं। कारखानों से निकलने वाले कर्मचारियों की कड़ी तलाशी ली जाती है। शॉपिंग मॉल से एक सुई भी बिना गेट पर खड़े गार्ड की जानकारी के बाहर नही ले जा सकते, लेकिन इस पूंजीवादी ‘इंस्पेक्टर राज’ की कभी आलोचना या चर्चा नहीं होती।



पूंजीवाद और उसके मुक्त बाजारवादी अर्थशास्त्री सरकार द्वारा केन्द्रीय स्तर पर की जाने वाली प्लानिंग के सख्‍त विरोधी हैं। सरकार द्वारा इस तरह की प्लानिंग चूंकि सबसे पहले 1917 की रूसी क्रांति के बाद सोवियत संघ में अपनाई गई, इसलिए उस प्लानिंग के खिलाफ ऑस्ट्रियन स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफेसर फ्रेडरिक अगस्त वॉन हायेक ने ‘द रोड टू सर्फ़डम’ यानि ग़ुलामी का मार्ग नाम से 1944 में किताब ही लिख दी। इसमें बताया गया कि जो देश केन्द्रीय स्तर पर प्लानिंग करके अर्थव्यवस्था चलाते हैं वे अपने देश को ग़ुलामी के मार्ग पर डाल देते हैं। असल में पूंजीवाद चाहता है कि केन्द्रीय स्तर पर योजना बनाकर जो बजट जनता के कल्याण और सार्वजनिक उद्योगों के विकास पर खर्च होता है वह उस पर खर्च होना चाहिए। पूंजीवाद चाहता है कि सरकार बजट की धनराशि उसको आवंटित कर दे ताकि वह अपनी मर्जी से उसका उपयोग कर सके, लेकिन कोटा-परमिट और इंस्पेक्टर राज की तरह ही पूंजीवाद का यह तर्क भी खोखला है क्योंकि पूंजीवाद अपना हर काम एक योजना के तहत ही करता है। आपको बीमा कम्पनियां अपने अनेक प्लान समझाती मिलेंगी। मोबाइल कम्पनियों के प्लान तो आप रोज ही देखते हैं। म्यूचुल फंड कम्पनियां, स्टारर्ट-अप कम्पनियां यानि निजी क्षेत्र जो सरकार द्वारा की जाने वाली प्लानिंग का सख्‍त विरोधी है वह अपना एक कदम भी बिना प्लानिंग के नहीं चल सकता। रियल स्टेट कम्पनियां अपने प्लान प्रकाशित करती रहती हैं, लेकिन हायेक ने सरकार द्वारा की जाने वाली प्लानिंग के खि़लाफ किताब लिख दी और पूंजीवादी अर्थशास्त्री बाइबिल की तरह उसे पढ़े जा रहे हैं। मार्च 1944 के बाद से 2020 तक उस किताब की साढ़े बाईस लाख प्रतियां बिक चुकी हैं। आज संविधान से ‘समाजवाद’ को हटाने की पैरवी करने वाले हायेक के ही वंशज हैं।   

पूंजीवाद सब लील गया

वियतनाम युद्ध के समय अमरीकी विदेश मंत्री जॉन फास्टर डलेस का मशहूर कथन है कि मित्र देशों से बात करने के लिए हमारे पास विदेश मंत्रालय है और अमित्र देशों से सीआइए। भारत ने चूंकि सोवियत संघ की प्लांड इकोनॉमी वाला मॉडल अपनाया था इसलिए हम अमरीका के अमित्र देशों में शामिल थे और हमसे सीआइए द्वारा बात की जा रही थी। कहा जाता है कि हमारे परमाणु कार्यक्रम को क्षति पंहुचाने के लिए 24 जनवरी 1966 को एयर इन्डिया के उस जहाज को गिरा दिया गया जिसमें हमारे परमाणु वैज्ञानिक होमी जहांगीर भाभा यात्रा कर रहे थे। 1960 के दशक में भारत को दो अनचाहे (1962 व 1965 के) युद्धों में उलझा दिया जाता है। उस पर 1965-66 में पड़े सूखे के कारण हालात और खराब हो जाते हैं और तब हमको तीसरी पंचवर्षीय योजना बीच में रोक देनी पड़ती है।

1970 का दशक आता है, तो एक तरफ हमें बांग्‍लादेश युद्ध में उलझना पड़ता है वहीं जार्ज फर्नांडीज के नेतृत्व में 1974 की रेल हड़ताल जो सरकार को अस्थिर करने के लिए की गई थी उससे जूझना पड़ता है। दूसरी तरफ गुजरात नवनिर्माण व बिहार में जे.पी. आन्दोलन की शुरुआत भी इसी दशक में होती है। इसी दशक में प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी का चुनाव इलाहाबाद हाइकोर्ट के जज जगमोहन सिन्हा ने अवैध घोषित करके उन पर छह साल के लिए चुनाव लड़ने पर पाबंदी लगा दी जिसके बाद आपातकाल लगा। 1980 का दशक आया, तो इस दशक में कश्मीर, पंजाब और उत्तर-पूर्व में पृथकतावादी आन्दोलन शुरू होते हैं। इसी दशक में पूरे देश में साम्प्रदायिक दंगे उन औद्योगिक शहरों में होते हैं जो विदेशी मुद्रा लाने के केन्द्र थे। 1985 में विश्व हिन्दू परिषद के नेता अशोक सिंघल के नेतृत्व में रामजन्मभूमि रथयात्रा की शुरुआत होती है। इसी दशक में प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी की हत्या करके प्लांड इकोनॉमी का पक्षधर सबसे मजबूत स्तम्भ गिरा दिया जाता है। 1990 के दशक की शुरुआत राजीव गांधी की हत्या से होती है और इस तरह प्लांड इकोनॉमी का अन्तिम स्तम्भ भी गिरा दिया जाता है। इसके बाद ही प्लांड इकोनॉमी के विरोधी और मार्केट इकोनॉमी के समर्थकों ने भारत की राजसत्ता सम्भाल ली और तभी से प्लांड इकोनॉमी को मार्केट इकोनॉमी में बदलने का काम कभी धीमा तो कभी तेज गति से जारी है। जनता का ध्यान इस परिवर्तन और उसके दुष्‍परिणामों से हटाए रखने के लिए इसके समानांतर मन्दिर-मस्जिद और हिन्दू-मुस्लिम विवाद चलाया जा रहा है। यह सब एक सोची-समझी रणनीति का हिस्सा है।

इन दोनों समानांतर रणनीतियों के मूल में ‘समाजवाद’ और ‘सेकुलरिज्‍म’ का विरोध ही है।  

किसी देश की अर्थव्यवस्था और राजनीति पर कब्‍जा करने के लिए अमरीका ने ब्रेटनवुड की महाजन संस्थाओं के अलावा बहुत ही होशियारी से एक दीर्घकालीन योजना के तहत लैटिन अमरीकी देश चिली की तर्ज पर एक नीति और अपनाई कि उस देश से शिक्षा अथवा प्रशिक्षण के लिए अमरीका आने वाले लोगों का ब्रेनवॉश करके उन्हें मुक्तबाजारवादी बनाना शुरू कर दिया। भारत से अमरीका आने वाले लोगों के साथ भी यही किया गया। उसके इस बौद्धिक जाल में अमीरों के बच्चे तो अपने वर्ग चरित्र के कारण आसानी से फंसते गए, लेकिन जो मध्यम या निम्न मध्यम वर्ग के मेघावी छात्र थे वे वहां की सुविधाओं और चमक-दमक का शिकार होकर फंस गए। इस तरह आप देखेंगे कि इन बीते 75 वर्षों में वहां से आने वाले ‘शिकागो बॉय’ भारत की अर्थव्यवस्था के सर्वोच्च पदों, उच्च शिक्षण संस्थाओं पर काबिज हो गए। मीडिया ने इनको ब्रांड बनाना शुरू किया तथा राष्ट्रीय-अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर इनको पुरस्कृत व सम्मानित किया जाने लगा। इसका नतीजा यह निकला कि आज आप तलाश करेंगे कि कोई प्लांड इकोनॉमी समर्थक अर्थशास्त्री या कोई नौकरशाह मिल जाए, तो आपको निराशा हाथ लगेगी। अब कोई महालनोबीस या नेहरू समर्थक बाहर तो छोड़िए, कांग्रेस में भी ढूंढे से नहीं मिलेगा।

इसका नतीजा यह निकला कि सरकार के चहेते पूंजीपति विश्व के सबसे अमीर व्यक्तियों की सूची में ऊपरी पायदान पर जा बैठे। उनके पास इतना इफ़रात पैसा आ गया कि एक को अपने चार सदस्यों के परिवार के लिए 10 हजार करोड़ रुपये की अपनी भारत में बनी कोठी से संतोष नहीं हुआ तो उसने पहले इंग्लैंड के बकिंघमशायर में 49 कमरों का 300 एकड़ का महल खरीदा और बाद में दुबई में 600 करोड़ रुपये की कोठी खरीद ली। इस बीच भारत में अपनी जीविका चलाने में असमर्थ दिहाड़ी मजदूरों की आत्महत्या दर में लगातार वृद्धि होती गई।


स्रोत और संदर्भ

1.    ब्लीडिंग पंजाब वार्न्‍स, कामरेड धनवंतरी की रिपोर्ट 1947

2.    पंजाब का बंटवारा, प्रोफेसर इश्तियाक अहमद

3.    नेहरू युग में संस्थाओं का निर्माण, लेखक सुरेश पुरोहित


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