फलस्तीन उसी तरह अरबों का निवास स्थान है जिस तरह इंग्लैण्ड अंग्रेजों का या फ्रांस फ्रांसीसियों का। यह गलत व अमानवीय होगा कि यहूदियों को अरबों पर बैठा दिया जाय। निश्चय ही मानवता के खिलाफ यह अपराध होगा कि अरबों के गौरव को घटाकर फलस्तीन के किसी भाग या पूरे को यहूदियों को उनके गृहराष्ट्र के रूप में दे दिया जाए।
महात्मा गांधी
नब्बे की दहाई की शुरुआत में हमारा सामना एक नई दुनिया से होता है। यह दुनिया है सोवियत संघ के बिखर जाने के बाद बेलगाम हो गए अमरीकी साम्राज्यवाद की। यह दुनिया उन पूंजीवादी लोगों के सपनों के पूरा हो जाने की दुनिया है जिन्होंने 1929-30 की महामंदी के बाद अपनाई गई जॉन मेनार्ड कीन्स की आर्थिक नीतियों से छुटकारा पाने के लिए एक लम्बा इन्तजार किया था। यह दुनिया फ्रांसिस फूकोयामा की इस घोषणा से शुरू होती है कि कार्ल मार्क्स द्वारा घोषित इतिहास के द्वंद्वात्मक विकास की अवधारणा का अंत हो गया है और पूंजीवाद ही वह अन्तिम व्यवस्था है जिसे दुनिया ने सिर झुकाकर तसलीम कर लिया है। इस घोषणा के बाद दुनिया भर की तमाम सरकारों ने इस बात के लिए राहत की सांस ली कि उनको अब किसी भी तरह के कल्याणकारी राज्य का मुखौटा नहीं ओढ़ना पड़ेगा और इस तरह हुई बचत से उन पर दौलत की बारिश होने लगेगी।
इस दौर में विश्व-पूंजीवाद, जिसका नेतृत्व अमरीका कर रहा है उसके बेलगाम होने के पीछे एक कारण यह भी था कि इस दशक तक आते-आते गुटनिरपेक्ष आन्दोलन दम तोड़ चुका था और तीसरी दुनिया के शोषण के खिलाफ़ अन्तरराष्ट्रीय मंच पर निर्भीकता से आवाज बुलन्द करने वाले नेताओं की पीढ़ी या तो खत्म हो चुकी थी या उन्हें खत्म कर दिया गया। इस दौर के साम्राज्यवाद को मीडिया नामक एक नया हथियार हासिल हो गया था जिसकी मारक क्षमता आज तक बने किसी भी घातक हथियार से ज्यादा थी। उसने इसके माध्यम से पूरी दुनिया की सूचना के प्रसार पर नियंत्रण हासिल कर लिया। इस नए और ताकतवर हथियार के जरिये पूंजीवाद ने दुनिया के किसी भी हिस्से में होने वाले जुल्म तथा जुल्म के खिलाफ लड़ी जाने वाली लड़ाइयों की सूचना को उसी हिस्से तक सीमित किए जाने का हुनर सीख लिया।
इस तरह वह वास्तविक अथवा गढ़ी गई किसी सूचना को मिनटों में पूरी दुनिया में फैलाने में समर्थ हो गया। अब मीडिया रोजाना लोगों की सोच का एजेन्डा तय करने लगा। तथाकथित सोशल मीडिया ने अपने बनाए मुद्दों में नवयुवकों को उलझाकर उनका साम्प्रदायिकीकरण करना शुरू किया और नब्बे के दशक से जारी इस प्रचार अभियान के शिकार लोगों को पूरी तरह संवेदनहीन बना दिया। अब लोग दुनिया के किसी भी कोने में होने वाले जुल्म पर या तो मौन साध लेते अथवा जालिम के पक्ष में अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करने लगते। तथाकथित उदारीकरण के इस दौर ने एक नए तरह के मध्यम वर्ग को जन्म दिया जो घोर साम्प्रदायिक, जातिवादी होने के साथ-साथ गरीब विरोधी, पिछड़ा विरोधी और महिला विरोधी सोच का वाहक बना।
यही कारण है कि जून 2014 में इजरायल के तीन युवक गायब होने और उनका शव बरामद होने के बाद इजरायल जब गाजा क्षेत्र की पूरी की पूरी आबादी को ‘किलिंग-जोन’ तथा अपने हथियारों के परीक्षण स्थल में बदल देता है, तब उस पर भारत में वह प्रतिक्रिया नहीं होती जो इन्दिरा गांधी और नेहरू के दौर में होती थी।

मेरे कई ऐसे परिचित हैं जो भारत में होने वाली किसी भी आतंकवादी घटना पर सरकार को दोष देते हैं। इस बारे में वे इजरायली सरकार का उदाहरण देते हुए कहते हैं कि देखो, वह कैसे आतंकवादियों का मुंहतोड़ जवाब देता है। आतंकवाद की किसी भी घटना के बाद उसके रॉकेट फलस्तीनी अरबों के शिविरों पर बरस पड़ते हैं और मामूली सी घटना होने पर ही उसके बुलडोजर फलस्तीनी बस्तियों को तहस-नहस कर डालते हैं। वे कहते हैं कि भारत को अगर आतंकवाद से निबटना है तो इजरायल से सबक सीखना होगा। मैं उनकी बात पर मुस्कुरा भर देता हूं क्योंकि मैं जानता हूं उनकी इस सोच के पीछे एक सुनियोजित प्रचार है और वे इसका शिकार हैं। वरना, आतंकवाद को समाप्त करने का इजरायली तरीका अगर इतना ही कारगर होता तो आज अपने जन्म के 74 साल बाद भी वह इस समस्या से जूझ नहीं रहा होता।
यहूदी राष्ट्र का जन्म
आज मध्य-पूर्व में पहले की तुलना में हिंसा की घटनाएं ज्यादा हो रही हैं। ज्यादा नौजवान आत्मघाती तरीकों को अपनाने लगे हैं। इजरायल द्वारा फलस्तीनी शरणार्थी शिविरों पर रॉकेट हमला करने व बुलडोजरों द्वारा अरब बस्तियों को नष्ट करने ने हालात को बदतर बना दिया है। यही वजह है कि फलस्तीनी बच्चे इजरायली टैंकों से अब डरते नहीं, बल्कि खाली हाथ पत्थरों से बेखौफ मुकाबला करते नजर आते हैं। उनका यह बेखौफपन उन पर निरन्तर हो रहे अत्याचार का नतीजा है जो वे अपने जन्म से ही झेलते आए हैं।
कल्पना कीजिए उस परिवार की जिसको कुछ दबंगों ने उनके अपने घर से निकालकर तपते हुए रेगिस्तान में भटकने के लिए छोड़ दिया हो और उनके घर पर वे कब्जा करके बैठ गए हों। उनके इस कब्जे के पीछे तर्क यह दिया जाता है कि कई हजार साल पहले उनके पुरखे और धर्म प्रवर्तक यहां रहते थे जिन्हें यहां से निकाल दिया गया था, इसलिए उनका इस क्षेत्र पर कब्जे का अधिकार बनता है। इस तर्क को इस तरह से समझें कि जैसे चीन, थाईलैंड और जापान के बौद्ध, भारत पर यह कहकर जबरदस्ती कब्जा कर लें कि उनके पुरखे या धर्म प्रवर्तक महात्मा गौतम बुद्ध सदियों पहले यहां रहते थे जिन्हें बलपूर्वक निकाल दिया गया था, इस कारण उनका भारत पर कब्जा करने या अलग देश बनाने का अधिकार बनता है। क्या उनके इस तर्क को मानते हुए उनकी मांग पूरी करने दी जा सकती है? आपका जवाब होगा- नहीं। लेकिन अरबों की धरती पर इजरायल का जन्म इसी तर्क को फैलाकर किया गया है।

जिस तरह हिन्दू और हिन्दुत्ववादी दोनों अलग बातें हैं, इसी तरह यहूदी और यहूदीवादी दोनों अलग बातें हैं। हिन्दू या यहूदी सामान्य रूप से एक धर्म के मानने वालों का परिचय देते हैं, लेकिन हिन्दुत्ववादी या यहूदीवादी दूसरे समुदाय, नस्ल और धर्म के मानने वालों के प्रति घृणा की भावना का प्रचार करते हैं। यहूदी पहले से अरब, रूस, जर्मनी और विश्व के अनेक भागों में रहते आए हैं। उनके लिए किसी देश का निर्माण करना ऐसे बहुत से भूक्षेत्रों में किया जा सकता था जो निर्जन थे। आस्ट्रेलिया को मिसाल के तौर पर पेश किया जा सकता है, लेकिन अरब के किसी बसे-बसाए क्षेत्र के निवासियों को खदेड़ कर अपने लिए घर बनाना एक सोची-समझी साजिश का नतीजा था। यहूदीवादियों ने इस क्षेत्र पर कब्जे की योजना काफी पहले से बना रखी थी।
इजरायल के जन्म का इतिहास यह है कि ऑस्ट्रिया-हंगरी में रहने वाले यहूदी पत्रकार थियोडोर हर्ज़ल ने 1896 में एक परचा ‘यहूदी राष्ट्र’ नाम से प्रकाशित किया और इसकी स्थापना के लिए ‘जियोनिस्ट आर्गेनाइजेशन’ का गठन किया। इसके एक साल बाद ही उन्होंने स्विट्जरलैन्ड के बासेल नामक स्थान पर संगठन की पहली कांग्रेस 29 अगस्त से 31 अगस्त 1897 में आयोजित की जिसकी अध्यक्षता उन्होंने स्वयं की। इस कांग्रेस में यहूदी राष्ट्र बनाने का विचार पेश किया गया।
यहूदी राष्ट्र के निर्माण को अमल में लाने के लिए सन 1901 में ‘यहूदी कोष’ तथा 1921 में ‘फलस्तीनी कोष’ बनाया गया। इस कोष के जरिये अरब सामंतों से जमीनें खरीदी जाने लगीं तथा जमीनें हथियाने के अन्य तरीके भी इस्तेमाल किए जाने लगे। 1929 में ‘यहूदी एजेन्सी’ का संविधान हस्ताक्षरित हुआ और उसकी धारा 3(डी) में कहा गया कि खरीदी गई जमीनें यहूदी सम्पत्ति के रूप में हस्तगत होंगी और इस पर ‘यहूदी राष्ट्रीय कोष’ का मालिकाना अधिकार होगा। इसी संविधान की धारा 3(ई) में कहा गया कि इस जमीन पर यहूदी मजदूर ही काम पर लगाए जाएंगे। उस समय कोष से उधार लेने वालों को एक शपथपत्र पर हस्ताक्षर करने होते थे जिसमें यह लिखा रहता कि वह इस जमीन पर खुद काम करेगा और अगर मजदूर रखने भी पड़े तो वह यहूदी होने चाहिए। किसी भी क्षेत्र से वहां के मूल निवासियों को खदेड़ने का तरीका यह होता है कि उनके रोजगार खत्म कर दिए जाएं। यही तरीका फलस्तीनी अरबों के साथ अपनाया गया।
रोजगार के अवसर खत्म होने से अरबों का व्यापक पैमाने पर पलायन शुरू हुआ। अरब मजदूर इस शोषण के खिलाफ अपनी आवाज न उठा पाएं इसलिए यहूदी ट्रेड यूनियनों ने अपने यहां अरब मजदूरों को सदस्य बनाने से इंकार कर दिया। इतना ही नहीं, यहूदी महिलाओं को निर्देश दिए गए कि वह कोई भी सामान अरबों से नहीं खरीदें। अगर कोई यहूदी गृहिणी किसी अरब से टमाटर खरीद लेती तो उन टमाटरों पर मिट्टी का तेल डाल दिया जाता और अन्डे खरीदने पर उन्हें डन्डा मारकर तोड़ दिया जाता।
इजरायली सरकार बनने के बाद तो बाकायदा कानून बनाकर अरबों को उनकी जमीनों से बेदखल किया गया। अरब किसानों को बटाई या पट्टे पर जमीन देने पर पाबन्दी लगा दी गई। इस बारे में इजरायल से प्रकाशित अखबार ‘हारेत्ज़’ ने लिखा कि कृषि मंत्री ने धमकी दी कि जो यहूदी जमीन मालिक अरबों को पट्टे पर जमीन देगा उसकी जलापूर्ति बंद कर दी जाएगी और जमीन जब्त कर ली जाएगी। अत्याचार का विरोध करने पर अरबों को सामूहिक दण्ड दिया जाता। इसके लिए फसल तैयार हो जाने पर वहां से शहर जाने वाली किसी खास सड़क पर उसे ढोने की इजाजत बंद कर दी जाती अथवा उस नगर में दो माह के लिए गोश्त की बिक्री पर पाबंदी लगा दी जाती। अरबों को अपना घर छोड़ने के लिए मजबूर करने के लिए बाकायदा रेडियो से धमकियां प्रसारित की जातीं जिनमें कहा जाता- अगर तुमने घर नहीं छोड़ा तो ‘डायर यासीन’ जैसा अंजाम होगा। जेरेको जाने वाली सड़क अभी भी खुली हुई है, जब तक जिंदा हो यरूशलम से भाग जाओ।

1968 के बाद हजारों फलस्तीनी अरबों को उनके घरों से जबरन निकाल बाहर किया गया। इस बार यह काम चुन-चुन कर किया गया। इसमें ज्यादातर बुद्धिजीवियों और प्रभावशाली व्यक्तियों को जो पूर्व शासन के सदस्य थे उन्हें निकाला गया। इजरायली अधिकारी आधी रात को अचानक किसी व्यक्ति के घर पहुंच जाते और उसे थोड़ा बहुत सामान बांधने के लिए आधा या एक घन्टे का समय दिया जाता। इस बीच यह ध्यान रखा जाता कि उसे या उस परिवार के किसी सदस्य का बाहर किसी से सम्पर्क न हो पाए। ऐसे सभी व्यक्तियों को जोर्डन नदी के तट पर ले जाया जाता और घूंसों और गोलियों की मदद से नदी पार करने के लिए मजबूर किया जाता। इनमें अधिकतर फलस्तीनी राष्ट्र के नेतृत्वकर्त्ता, नगरों के मेयर, वकील, अध्यापक, इंजीनियर, पत्रकार आदि बुद्धिजीवी होते। उन पर अधिकारिक रूप से कोई आरोप नहीं लगाया जाता ताकि वह अपना बचाव न कर पाएं।
सन् 1919 में फलस्तीन में 57 हजार यहूदी व 5 लाख 33 हजार अरब रहते थे। इस नीति के द्वारा आबादी के इस अनुपात को बदल दिया गया।
बाल्फोर घोषणा
ब्रिटिश कैबिनेट ने 31 अक्टूबर 1917 को एक मीटिंग करके फलस्तीन के स्थान पर यहूदी राष्ट्र बनाने का फैसला किया। इस फैसले को ब्रिटेन के विदेश सचिव आर्थर जेम्स बाल्फोर ने 2 नवम्बर 1917 को एक पत्र द्वारा ब्रिटिश यहूदी समुदाय के नेता वाल्टर रॉथ्सचाइल्ड को ‘जियोनिस्ट फ़ेडरेशन ऑफ ग्रेट ब्रिटेन एण्ड आयरलैण्ड’ तक पहुंचाने के लिए लिखा। यह घोषणा ‘बाल्फोर घोषणा’ कहलायी।
इस बाल्फोर घोषणा द्वारा ब्रिटेन ने यहूदी राष्ट्रभूमि कायम करने के इरादे का ऐलान किया तथा इसे कार्यरूप देने के लिए 2 जुलाई 1922 को फलस्तीन को दो प्रशासकीय भागों में बांट दिया गया- एक हिस्सा यहूदियों व दूसरा फलस्तीनी अरबों का। यहूदियों के हिस्से में उनकी आबादी के अनुपात में कुल भाग का 22 प्रतिशत आया। 29 नवम्बर 1947 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने फलस्तीन को दो राज्यों, फलस्तीन व इजरायल में बांटने का प्रस्ताव पास कर दिया, जो पहले ब्रिटिश शासनादेश था। इस प्रस्ताव के द्वारा यहूदी राज्य का क्षेत्रफल 14,100 वर्ग किलोमीटर और फलस्तीनियों का 11,100 वर्ग किलोमीटर रखा गया जो आबादी के अनुपात से गलत था, लेकिन यह प्रस्ताव कार्यान्वित होने से पहले ही यहूदीवादी आतंकवादी संगठनों ने अरबों पर हमले शुरू कर दिए।

दिसम्बर 1947 में सशस्त्र मुठभेड़ें पूरे फलस्तीन में फैल गईं। उस समय फलस्तीन में तीन यहूदीवादी आतंकवादी संगठन काम कर रहे थे- डेविड बेन गुरियन के नेतृत्व में यहूदी एजेन्सी ‘हगानाह’, नथान मल्लिन मोर के नेतृत्व में ‘द लेही’ या ‘स्टर्न गेंग’ व मेनाचिम बेगिन के नेतृत्व में ‘इरगुन’। यह वह दौर था जब अरब जनता आतंकवाद शब्द से परिचित नहीं हो पाई थी। जब यहूदीवादियों ने पूरे क्षेत्र में आतंकवादी हमले शुरू किए तब अरबों ने जाना कि आतंकवाद शब्द के क्या मायने होते हैं।
अरब सेना के शिल्पी और बाद में उसके कमान्डर बने ब्रिटिश जनरल जॉन बैगट ग्लब ने अपने संस्मरण में यहूदीवादी आतंकवादी संगठन ‘हगानाह’ के अधिकारी और एक ब्रिटिश सैन्य अधिकारी के बीच की वार्ता का जिक्र किया है। ब्रिटिश अधिकारी के यह पूछने पर कि इस नए बनने वाले यहूदी देश में यहूदियों और अरबों की आबादी आधी-आधी होगी तब जो कठिनाइयां आएंगी उनसे कैसे निबटोगे? इस पर ‘हगानाह’ के अधिकारी का जवाब था कि कुछ योजनाबद्ध जनसंहार के द्वारा कठिनाइयों पर काबू पा लिया जाएगा। यही हुआ भी।
अरबों का रोजगार खत्म करने के अलावा उन पर आतंकवादी हमले शुरू कर दिए गए। 31 जनवरी 1947 को बल्द अल शेख हत्याकांड, 13 दिसम्बर 1947 को याहिदा गांव हत्याकांड, 18 दिसम्बर 1947 को खिसास गांव हत्याकांड, 19 दिसम्बर 1947 को काजाज गांव हत्याकांड अंजाम दिया गया। यह सिलसिला 1948 में भी जारी रहा। 4 जनवरी 1948 को जाफा गांव पर हमला करके 22 फलस्तीनियों की हत्या कर दी गई। अगले ही दिन 5 जनवरी 1948 को यरूशलम के सेमी रामीस होटल को बम से उड़ा दिया गया जिसमें दो दर्जन से ज्यादा अरबों की जान गई। 9 अप्रेल 1948 को यासीन डायर गांव हत्याकांड अंजाम दिया गया जिसमें 254 औरतों, बच्चों और वृद्धों की निर्ममता से हत्या कर दी गई। 14 अप्रैल 1948 को नासर अलदीन गांव हत्याकांड, 15 मई 1948 को तान्तुरा गांव हत्याकांड, 21 मई 1948 को बेईत दरास गांव हत्याकांड, 11 जुलाई 1948 को दाहमाश मस्जिद हत्याकांड, 29 अक्टूबर 1948 को दाबायमा गांव हत्याकांड, 26 अक्टूबर 1948 को हाला गांव हत्याकांड, 7 फरवरी 1951 को शराफत गांव हत्याकांड, 15 अक्टूबर 1951 को किब्या गांव हत्याकांड, 29 अक्टूबर 1951 को कफर कासिम गांव हत्याकांड, 5 अप्रैल 1956 को गाजा नगर हत्याकांड, 3 नवम्बर 1956 को खान यूनुस नगर हत्याकांड अंजाम दिए गए।
22 जुलाई 1966 को यरूशलम के किंग डेविड होटल को बम से उड़ा दिया गया जिसमें 92 लोग मारे गए। इन सिलसिलेवार हत्याकांडों में हजारों महिलाओं, बूढ़ों और मासूम बच्चों की निर्ममता से इसलिए हत्या कर दी गई ताकि फलस्तीनी अरब भयभीत होकर अपने घरों से पलायन कर जाएं। इस तरह 7 लाख 26 हजार फलस्तीनी अरब अपने घरों से निकाल दिए गए। वह जिनका अपना देश था, पड़ोसी देशों में शरणार्थियों के रूप में रहने पर मजबूर कर दिए गए थे। मामला इतने पर ही खत्म नहीं हुआ था।
1967 के छह दिन के युद्ध में तपते हुए रेगिस्तान में पनाह लिए हुए फलस्तीनी अरबों को इजरायल द्वारा अमरीकी व ब्रिटिश मदद से वहां से भी खदेड़ दिया गया। ये आतंकवादी कार्रवाइयां सोची-समझी योजना के अन्तर्गत की गई थीं जिन्हें बाद में यहूदीवादी नेताओं ने स्वीकार किया। इरगुन नामक यहूदीवादी आतंकवादी संगठन के प्रमुख मेनाचिम बेगिन ने इस बारे में बड़ी ढिठाई से कहा कि बिना ‘डायर यासीन गांव हत्याकांड’ के इजरायल की स्थापना नहीं हुई होती।
इजरायल दुनिया में पहला ऐसा देश है जिसने आतंकवाद को सरकारी तौर पर अपनाया। इसके लिए आतंकवादी कारनामों को देश के अन्दर व बाहर अंजाम देने के लिए बाकायदा संगठन बनाए गए और उन्हें हत्या करने की इजाजत दी गई। ऐसे कारनामों के लिए ‘मोसाद’ नामक इजरायली खुफिया संगठन की स्थापना की गई जो विदेशों में ऐसी ही कार्रवाइयों की योजनाएं बनाता है। अरब देशों में तोड़फोड़़ करना व अरब नेताओं, फौजी अधिकारियों की हत्याएं करने के लिए यह संगठन बाकायदा इजरायली प्रधानमंत्री की देखरेख में काम करता है और उन्हीं के लिए जवाबदेह रहता है। दूसरी एजेन्सी ‘शबाक’ है। यह फलस्तीन की आजादी के लिए संघर्ष करने वालों को गिरफ्तार करके उनसे पूछताछ करने और इजरायली सरकार की अत्याचारी नीति का विरोध करने वालों की हत्याएं करने का काम अंजाम देती है। तीसरा संगठन ‘मताम’ है। यह तमाम प्रगतिशील लोगों पर नजर रखता है और उनकी कतारों में दलाल घुसाने का काम करता है। कभी किसी आतंकवादी घटना को अंजाम देने के लिए विशेष इकाई का भी गठन किया जाता है, जैसे ‘यूनिट 100’, यूनिट 101 अथवा यूनिट 131। इन इकाइयों का काम अरब देशभक्तों की हत्या करना है।
1970 में इजरायली सरकार ने संसद में एक बिल पारित किया जिसका नाम ‘यहूदियों के खिलाफ अपराधों का बिल’ रखा गया। इस बिल के तहत इजरायली सरकार अपने विरोधियों को विदेशों में भी दण्डित करने का अधिकार हासिल कर लेती है। इसी बिल के तहत 7 जुलाई 1972 को फलस्तीन की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले जनप्रिय नेता ग़ज़ान कानाफ़ानी की कार में बम रखकर हत्या कर दी गई। उसी साल 4 अक्टूबर की रात को प्रगतिशील अरबी साहित्य की बिक्री करने वाली पेरिस की एक पुस्तक की दुकान को बम से उड़ा दिया गया। इस घटना के लगभग दस दिनों बाद फलस्तीन की आजादी के लिए लड़ने वाले कवि अब्दुल जुयेतर की हत्या कर दी गई। 8 दिसम्बर 1972 को फ्रांस में रह रहे फलस्तीनी मुक्ति संगठन के प्रतिनिधि मुहम्मद हमशारी को मार डाला गया। एक महीने बाद ही एक दूसरे नेता हुसेन आद अलचारी को सायप्रस की राजधानी निकोसिया में मार डाला गया। फरवरी 1973 को यूसुफ कामिल को रोम में मार डाला गया।
चूंकि दुनिया भर के मीडिया पर यहूदीवादी मालिकान का कब्जा है इसलिए फलस्तीनी आतंकी कार्रवाइयों का खूब बढ़ा-चढ़ा कर प्रचार किया जाता है जबकि फलस्तीनी शरणार्थी शिविरों पर की जाने वाली इजरायली आतंकवादी कार्रवाइयों को आत्मरक्षा में उठाया हुआ कदम बताया जाता है। इजरायली सरकार ने अपने जन्म के बाद से अब तक दो लाख से ज्यादा फलस्तीनी अरबों की हत्या की है तथा बीसियों लाख फलस्तीनी अरबों को उनके घरों से बेदखल करके पड़ोसी देशों के तपते हुए रेगिस्तानों में रहने पर मजबूर कर दिया है। इजरायल का अब तक का रिकॉर्ड रहा है कि उसने कभी भी किसी देश की मुक्ति के आन्दोलन के पक्ष में न तो आवाज उठाई है और न ही कभी मदद की है। इसके विपरीत यह आजादी की लड़ाई लड़ रहे लोगों के खिलाफ काम करता रहा है। लैटिन अमरीका से लेकर नेपाल तक, दक्षिण अफ्रीका से लेकर वियतनाम तक इजरायल हमलावरों के साथ खड़ा रहा है। आज भी गाजा में उसका जुल्म जारी है।
हमास: आतंकवाद की पैदाइश
इस अत्याचार का परिणाम फलस्तीनी आतंकवाद के रूप में निकलना ही था। जब अन्याय और अत्याचार को समाप्त करने के लिए किए जाने वाले सारे शांतिपूर्ण प्रयासों को कुचल दिया गया तब अपने घरों से उजाड़ दिए गए फलस्तीनी अरबों के सामने इजरायली सरकार के जुल्मों का मुकाबला करने के लिए आतंकवाद ही एकमात्र रास्ता बचा। फलस्तीनी आतंकवादी बने नहीं, बल्कि उन्हें मजबूर किया गया कि वे ऐसा रास्ता अपनाएं। धीरे-धीरे एक के बाद एक, फलस्तीन की आजादी के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों ने आतंकवाद का रास्ता अपना लिया और इजरायली सरकार की आतंकवादी कार्रवाइयों का जवाब आतंकवाद से देने लगे।
वर्ष 2006 में फलस्तीन में हुए असेम्बली के चुनाव में हमास को भारी जीत हासिल हुई थी लेकिन लोकतांत्रिक प्रक्रिया के तहत हुई जीत को अमरीका-इजरायल यह कहकर मानने से इंकार कर दिया कि अगर फलस्तीनी जनता गलत फैसले लेती है तो वे उसे मानने को मजबूर नहीं हैं। चुनाव के बाद से ही अमरीका, इजरायल व पश्चिमी देशों को फलस्तीनी जनता का यह फ़ैसला नागवार गुजरा और उन्होंने फलस्तीन पर आर्थिक पाबन्दियां लगा दीं। इजरायल को करों के रूप में जो 55 मिलियन डॉलर का राजस्व भुगतान फलस्तीनी सरकार को करना था जिससे वहां एक लाख 65 हजार कर्मचारियों का वेतन दिया जाना था उसे न सिर्फ उसने रोक लिया बल्कि गाजा पट्टी पर हवाई हमले करके वहां के आधारभूत ढांचे को ही तहस-नहस कर दिया।
इजरायल का सबसे पहला निशाना पानी व बिजली के संयंत्र बने। गा़जा पट्टी दुनिया का सबसे दरिद्र इलाक़ा है जहां बेरोजगारी की दर 80 प्रतिशत है। भयंकर गर्मी में बिजली-पानी की किल्लत ने वहां 15 लाख फलस्तीनियों का जीवन नर्क में बदल दिया है। वहां मौजूद एकमात्र बिजलीघर को हवाई हमले से इजरायल ने उड़ा दिया और तेल-गैस व अन्य रोजमर्रा इस्तेमाल होने वाली चीजों को गाजा में दाखिल होने से रोक दिया गया है। गाजा में दाखिल होने और बाहर जाने वाले सारे चौराहों पर चूंकि इजरायल का कब्जा है इसलिए उन्हें बंद करके इस पूरे इलाके को ऐसी जेल में तबदील कर दिया गया है जहां खाना भी मयस्सर नहीं है। यह सब खुद को सभ्य कहलाने वाले देशों और उनकी अंतरराष्ट्रीय पंचायत संयुक्त राष्ट्र संघ की नाक के नीचे हो रहा है। अत्याचार इतने पर ही खत्म नहीं हुआ, बल्कि पूरी गाजा पट्टी को इजरायल ने हथियारों की परीक्षण-स्थली में बदल दिया। 2008-09 में ऑप्रेशन कास्टलीड के नाम से इजरायल ने गाजा पर फॉस्फोरस बमों की बारिश कर दी थी और उसके बाद ही इजरायल को हथियारों के बड़े ऑर्डर हासिल हुए थे।

इजरायल द्वारा किए जा रहे इस अत्याचार के खिलाफ महात्मा गांधी के पोते अरुण गांधी ने जनवरी 2008 में अमरीकी अखबार न्यूजवीक/वॉशिंगटन पोस्ट में एक लेख ‘ऑन फेथ’ शीर्षक से लिखा जिसमें उन्होंने इजरायल द्वारा फलस्तीनियों पर की जा रही हिंसक कार्रवाइयों के संदर्भ में लिखा कि इजरायल व यहूदी हिंसा की संस्कृति को बढ़ावा देने वाले हैं। उनकी इस प्रतिक्रिया के विरोध में अमरीका के यहूदीवादियों ने दबाव बनाकर अरुण गांधी को ‘एम.के. गांधी इन्स्टीट्यूट ऑफ नॉन वायलेन्स’ जो यूनिवर्सिटी ऑफ रोचेस्टर से सम्बंधित है उसके डायरेक्टर पद से हटवा दिया। बाद में उन्होंने कहा कि उनका आशय यहूदी लोगों से नहीं, बल्कि इजरायली सरकार से था।
आज हमास एक बार फिर चर्चा में है लेकिन यह जानना जरूरी है कि हमास की स्थापना में इजरायल का हाथ रहा है। हमास की स्थापना में इजरायल का हाथ उसी तरह रहा है जिस तरह अफगानिस्तान में तालिबान की स्थापना में अमरीकी राष्ट्रपति रोनाल्ड रीगन का रहा है।
इजरायल ने वामपंथी व धर्मनिरपेक्ष विचारों वाले संगठन फलस्तीन लिब्रेशन फ्रन्ट (पी.एल.ओ.) में फूट डालने व उसे कमजोर करने के लिए हमास को प्रोत्साहित किया था। हमास का पूरा नाम है हरकत-अल-मुकावामात-अल इस्लामिया यानि इस्लामिक रेजिस्टेन्स मूवमेन्ट। यह मिस्र के मुस्लिम ब्रदरहुड संगठन का विस्तार है। मुस्लिम ब्रदरहुड 1950 से ही गाजा में शेख अहमद यासीन के नेतृत्व में धर्मार्थ मिशन चलाता रहा है जिसे इजरायल ने इस काम की स्वीकृति दे रखी थी। अस्सी के दशक में सऊदी अरब ने आर्थिक मदद देकर फलस्तीन में मदरसे, अस्पताल और इसी तरह की समाज सेवा की तंजीमें खड़ी करवाईं। इन तंजीमों के जरिये फलस्तीनियों में मजहबी जुनून को पैदा किया ताकि सेकुलर पी.एल.ओ. को कमजोर करके उनकी एकजुटता को तोड़ा जा सके।
इजरायली जेल में 12 साल की सजा काट रहे शेख अहमद यासीन को इजरायल ने रिहा कर दिया और 1987 में उन्होंने हमास की स्थापना की। इजरायल ने पी.एल.ओ. को इस बात की इजाजत नहीं दी कि वह फलस्तीनी जनता में सियासी मीटिंग या किसी भी तरह के मीडिया का इस्तेमाल कर सके लेकिन इस रेडिकल इस्लामिक ग्रुपों को रैलियां निकालने, पर्चे-पोस्टर निकालने, यहां तक कि अपने इलाकों में रेडियो स्टेशन कायम करने की खुली छूट दी गई। शेख अहमद यासीन को यहूदियों के खिलाफ नफरत भरे पर्चे निकालने व इजरायल को ताकत के बल पर नेस्तनाबूत करने की इजाजत दी गई जबकि मुबारक अवाद नामक ईसाई अरब जो विरोध के गांधीवादी तरीकों में यक़ीन रखते थे और फलस्तीनियों व यहूदियों की दोस्ती के पक्षधर थे उन्हें 1988 में इजरायल ने देशनिकाला दे दिया।
अमरीका व इजरायल को पता था कि दुनिया भर के धार्मिक व साम्प्रदायिक संगठनों की ही तरह रेडिकल इस्लामिक ग्रुप भी पूंजीवादी व्यवस्था के लिए कोई खतरा नहीं होते हैं इसलिए उन्हें बढ़ावा देने में कोई हर्ज नहीं है, लेकिन हालात ऐसे बन गए कि जिस हमास को फलस्तीनियों की एकजुटता को तोड़ने के लिए कायम किया गया था वही इजरायल के लिए खतरा बन गया।
हमास के हाथ से निकल जाने के बाद अमरीका व इजरायल ने पी.एल.ओ. के सबसे बड़े घटक ‘फतह’ में फूट डालने और उसके नेताओं को भ्रष्ट करने की कोशिशें शुरू कर दीं। इसके लिए जरूरी था कि पहले यासर अराफात को रास्ते से हटाया जाय। अमरीका ने जिस तरह सोवियत संघ में गोर्बाचोव व येल्तसिन के रूप में अपने आदमी तलाशे थे वैसे ही फलस्तीन में महमूद अब्बास की शक्ल में उन्हें एक नेता मिल गया, लेकिन महमूद अब्बास को फतह की कमान सौंपने के लिए यासर अराफात का रास्ते से हटाया जाना जरूरी था। इजरायली खुफिया एजेंसी मोसाद की तमाम कोशिशों के बावजूद यासर अराफात को कत्ल नहीं किया जा सका था। इस बीच हमास के संस्थापक अस्सीसाला शेख अहमद यासीन जो फालिज का शिकार थे और व्हीलचेयर पर इधर से उधर ले जाए जाते थे उन्हें मस्जिद में नमाज के दौरान रॉकेट से हमला करके इजरायल सरकार ने कत्ल करवा दिया। इसके बाद हमास के दूसरे नेता खालिद मशाल को भी इसी तरीके से मार दिया गया। एक बुजुर्ग व अपाहिज शख्स के बुजदिलाना कत्ल के कारण इजरायल को पूरी दुनिया में बदनामी का सामना करना पड़ा, इसलिए यासर अराफात को कत्ल करने के लिए उसने दूसरा रास्ता निकाला।

इजरायल ने फतह में काम कर रहे अपने एजेन्टों के जरिये यासर अराफात को धीमा जहर दिलवा दिया और उनकी मौत के बाद फतह की कमान महमूद अब्बास ने सम्भाल ली। इजरायल और अमरीका फतह के नेताओं को भ्रष्ट करने में कामयाब तो जरूर हो गए लेकिन इसी वजह से फतह फलस्तीनियों में अलोकप्रिय हो गई और इसका खमियाजा उसे 2006 में असेम्बली के चुनाव में शर्मनाक हार के रूप में उठाना पड़ा। हमास को 132 की असेम्बली में 74 सीटें हासिल हुईं। चुनाव में फतह के बुरी तरह हार जाने ने अमरीका व इजरायल के सारे किए-कराए पर पानी फेर दिया। इधर अपनी हार से बौखलाये फतह ने हमास के कार्यकर्ताओं पर हमले शुरू कर दिए। उधर इजरायल ने धमकी दी कि वह अपनी पुरानी नीति, जिसके तहत फलस्तीनी नेताओं की हत्या की जाती थी, उस पर से पाबन्दी हटा लेगा और उसका अगला निशाना फलस्तीनी प्रधानमंत्री इस्माईल हानियां होंगे।
फलस्तीन में गृहयुद्ध छिड़ जाने से अरब देशों ने पहल करके मक्का में दोनों गुटों में समझौता करा दिया। मक्का समझौते से बौखलाये अमरीका ने दूसरा दांव खेला और महमूद अब्बास पर जोर डाला कि वह अपने सुरक्षा गार्ड मुहम्मद देहलान को राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बना ले। देहलान वह व्यक्ति है जो पहले फलस्तानी जनविद्रोह के समय पांच साल इजरायली जेलों में रह आया था जहां उसे पालतू बना लिया गया था। वह तब से ही अमेरिकी खुफिया एजेंसी सीआइए के लिए काम कर रहा है और गा़जा पट्टी पर इजरायली सीमा के निकट सीआइए के अन्तर्गत 20000 फतह के सुरक्षागार्डों को नियंत्रित करता है।
उधर इजरायली सेना ने मई में फलस्तीनी शिक्षा मंत्री नासिर अल शईर तथा नेशनल असेम्बली के स्पीकर अब्दुल अजीज दाईक सहित 33 हमास पदाधिकारियों को फलस्तीनी सीमा में घुसकर गिरफ्तार कर लिया और इजरायल ले जाकर जेलों में बंद कर दिया। सभ्य दुनिया में इस तरह का पहला मामला है जिसमें किसी देश का पूरा मंत्रिमण्डल किसी पड़ोसी देश द्वारा गिरफ़्तार करके अपने देश ले जाया गया हो। इराकी तेल को चुराकर उकसावे वाली कार्रवाई करने वाले कुवैत के खिलाफ सद्दाम द्वारा कार्यवाही करने पर इराक पर अमरीका ने हमला कर दिया था तथा पश्चिमी मीडिया ने उसे एक सम्प्रभु राष्ट्र के खिलाफ कार्रवाई के रूप में प्रचारित किया था, लेकिन किसी देश की जनता द्वारा चुना गया पूरा मंत्रिमण्डल ही गिरफ्तार करके ले जाया जाए और काफ़ी समय तक रिहा नहीं किए जाने पर भी मीडिया ने जिस तरह चुप्पी साधे रखी, वह उसकी वफादारी की पहचान है।
मई के तीसरे सप्ताह में इजरायल ने हमास के वरिष्ठ नेता खलील अल हईया के मकान पर विमानों से हमला कर दिया और उनके परिवार के छह सदस्यों सहित चालीस लोगों की हत्या कर दी। हमास तब भी खामोश रहा, लेकिन जब इजरायल ने प्रधानमंत्री इस्माईल हानिया के घर के निकट जेट विमानों से हमला कर दिया तब उसने जवाबी कार्रवाई में इजरायली शहरों पर राकेटों की बौछार कर दी। मजबूरन इजरायल को अपने सीमावर्ती शहरों को खाली कराना पड़ा।
हमास जब इजरायल से युद्धरत था, उसी दौरान महमूद अब्बास द्वारा बनाए गए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार मुहम्मद देहलान ने भी हमास पर हमले शुरू कर दिए। याद रहे कि अमरीका ने अब्बास के वफा़दार सुरक्षागार्डों के लिए जो 84 मिलियन डॉलर मंजूर किए थे उनमें से 40 मिलियन डॉलर अब्बास के चार हजार सुरक्षागार्डों के सैन्य प्रशिक्षण के लिए उपलब्ध करा दिए। हमास और फतह की इस लड़ाई के बीच अमरीका फतह को पैसा और हथियार दोनों मुहैया करा रहा था। इतना ही नहीं, अमरीकी वित्तीय मद्द से पांच सौ फतह के लड़ाकों को मिस्र में सैन्य प्रशिक्षण दिया गया था। उन्हें इसी दौरान फलस्तीनी सीमा में दाखिल करा दिया गया। लेबनान पर हमले के बाद अमरीका और इजरायल को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा था। सन 1967 में छह दिन के युद्ध में जिस इजरायल ने कई अरब देशों के हमले को नाकामयाब करके उनकी काफी जमीन पर कब्जा कर लिया था, उस देश को एक छोटे से ग्रुप हिज्बुल्ला ने चौंतीस दिन तक लड़ाई में कड़ी टक्कर दी तथा युद्धविराम के लिए मजबूर कर दिया।
इस लड़ाई में हिज्बुल्ला के नेता नसरुल्ला अरब राष्ट्रवाद के मजबूत नेता के रूप में उभरे। उन्होंने सद्दाम हुसैन व यासिर अराफात के बाद खाली हुई जगह को भरा था। इस घटना के बाद जहां अरब जनता एक नए आत्मविश्वास से भर उठी थी वहीं अमरीका व इजरायल ने इस अरब एकता को तोड़ने की नई कोशिशें शुरू कर दी थीं। उस समय इजरायल द्वारा जारी हमले में जहां 26 इजरायली मरे वहीं 600 फलस्तीनियों को भी अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। यह सिलसिला अभी रुका नहीं है।
अमरीका की ही तरह इजरायल भी जिनेवा कन्वेन्शन, संयुक्त राष्ट्र संघ और सभ्य दुनिया के नियमों की अवहेलना करता रहा है। अपने लोगों पर हिटलर द्वारा किए गए अत्याचार से भी उसने सबक नहीं लिया है। हां, उसने हिटलर की हिंसा की संस्कृति को जरूर अपना लिया है। भारत की सरकार अगर यह सोच रही है कि इजरायल से दोस्ती करके देश को कुछ लाभ हासिल होगा तो यह खुद को झूठा दिलासा देना होगा। अमरीका कभी किसी का वफादार या मित्र नहीं रहा है इसकी मिसाल पाकिस्तान के रूप में बिल्कुल पड़ोस में मौजूद है। इजरायल अरब देशों में अमरीका की एक चौकी से ज्यादा कुछ नहीं है, जो अमरीका के नक्शेकदम पर ही चलता आया है।
भारत का पक्ष
महात्मा गांधी ने इजरायल बनने से पहले यहूदीवादियों द्वारा चलाए जा रहे आन्दोलन पर अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए अपने अखबार ‘हरिजन’ के 11 नवम्बर 1938 के सम्पादकीय में लिखा था:
मेरी सारी हमदर्दी यहूदियों के साथ है क्योंकि वे लम्बे समय से अमानवीय व्यवहार व पीड़ा का शिकार रहे हैं, परन्तु उनके प्रति मेरी हमदर्दी न्याय के प्रति मेरी आंखों पर पट्टी नहीं बांध सकती। गृहराष्ट्र की यहूदियों की पुकार मुझे ज्यादा प्रभावित नही करती। बाइबिल में इसके लिए किया गया अनुमोदन व उससे यहूदियों का चिपकाव और अपने गृहराष्ट्र में लौटने की अभिलाषा के मौजूद होने के बावजूद वे दूसरे लोगों की तरह यह क्यों नहीं चाहते कि जिस देश में उनका जन्म हुआ है और जहां वे अपनी जीविका पा रहे हैं, उस देश को ही अपना गृहराष्ट्र मान लें।
महात्मा गांधी धर्म के नाम पर बनने वाले यहूदी राष्ट्र के सख्त खिलाफ थे। जियोनवादियों के तमाम प्रयासों के बाद भी उन्होंने अपना मत नहीं बदला। नेहरू और इन्दिरा गांधी ने इजरायल को कभी भी मुंह नहीं लगाया। समाजवादी और जनसंघी इजरायल के हमेशा समर्थक रहे हैं। जयप्रकाश नारायण तो 1958 में ही तेल अवीव पहुंचकर इजरायली प्रधानमंत्री बेन गुरियन से मिले थे। उनके ही साथी मोरारजी देसाई भारत के पहले प्रधानमंत्री थे जिन्होंने जनता पार्टी के शासन में इजरायली प्रधानमंत्री मोशे दयान को दिल्ली आने का निमंत्रण दिया और उनसे मुलाकात की। मुलाकात के दौरान मोशे दयान ने मोरारजी देसाई से निवेदन किया कि भारत, इजरायल से पूर्ण राजनीतिक सम्बंध बनाए। इस पर मोरारजी ने कहा कि इस तरह का सम्बंध इस समय मुमकिन नहीं है क्योंकि इस समय भारत में मुस्लिम और गैर-मुस्लिम लोगों में इजरायल-विरोधी भावना है इसलिए इस पर बाद में विचार किया जाएगा। तब मोशे दयान ने निवेदन किया कि इजरायल का जो कॉन्सुलेट ऑफिस मुम्बई में है उसे दिल्ली स्थानांतरित कर दिया जाय अथवा दूसरा दिल्ली में खोलने की इजाजत दी जाय। इस पर मोरारजी देसाई ने मजबूरी जताई और कहा कि अगर यह मुलाकात सार्वजनिक हो गई तो उनकी प्रधानमंत्री की कुर्सी भी जा सकती है।

भारत से इजरायल की निकटता का बहुत बड़ा कारण यहां साम्प्रदायिक शक्तियों का उभरना है। इसके अलावा, भारत से इजरायल की निकटता में हथियार दलालों की प्रमुख भूमिका है। इन हथियार दलालों की घुसपैठ सत्ता के गलियारों तक काफी गहरी है। याद करें, जब अरब नागरिक और हथियार दलाल अदनान खाशोगी भारत आता था तो उसकी दावत में आरएसएस के नानाजी देशमुख से लेकर नायब इमाम मौलाना बुखारी तक शामिल होते थे।
ताजा हमला
हमास हो या इजरायल, किसी भी ऐसी हिंसक कार्रवाई का समर्थन नहीं किया जा सकता जिसका शिकार बेगुनाह जनता बनती हो, लेकिन हमास के इतने बड़े हमले की योजना की भनक न तो सीआइए, न मोसाद और न ही एमआइ-5 को लग पाई इस पर विश्वास करना आसान नहीं है। यह हो ही नहीं सकता कि इन खुफिया एजेंसियों के एजेन्ट हमास और फतह में न हों, फिर इसके पीछे क्या छुपा हो सकता है?
क्या बेन्जामिन नेतन्याहू के खिलाफ चल रहे आन्दोलन को रोकने, उससे ध्यान भटकाने के लिए उनके द्वारा खुद ही इसको उकसाया तो नहीं गया है? क्या इस कार्रवाई के लिए हमास को इस तरह तो प्रोत्साहित नहीं किया गया है कि हमास के नेतृत्व को इसकी भनक नहीं लग पाई हो? क्या बेन्जामिन नेतन्याहू ने अपने लक्ष्यों को हासिल करने के लिए आपातकाल की स्थिति खुद ही तो पैदा नहीं की?
ये ऐसे सवाल हैं जिनका जवाब तलाशा जाना चाहिए। हमास द्वारा की गई इतनी बड़ी कार्रवाई का दुनिया की सबसे दक्ष जासूसी एजेन्सियों को पता नहीं चल पाया इस पर विश्वास नहीं किया जा सकता।
संदर्भ : वी एम प्रीमाकोव द्वारा लिखित व पीपीएच द्वारा प्रकाशित पुस्तक ‘मध्यपूर्व में टकराव: तथ्य और विश्लेषण’
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