डबल इंजन सरकार का मतलब विकास की दोगुनी रफ्तार- बीते दस साल में भारतीय जनता पार्टी इसी जुमले के सहारे राज्यों के चुनाव जीतती आई है। जमीनी हकीकत यह है कि डबल इंजन हो चाहे सिंगल इंजन, कुछ मामूली से मामूली काम ऐसे हैं जो किसी के वश में नहीं होते। जैसे, सिंचाई के लिए नदी पर एक छोटा सा पक्का बांध बनाना। पांच ट्रिलियन डॉलर की आकांक्षी इस अर्थव्यवस्था में यह बात सुनने में जितनी हास्यास्पद लगती है, उतनी ही शर्मनाक है। दो सांसद, दो विधायक, केंद्र और राज्य की डबल भाजपा सरकार, आवंटित करोड़ों रुपये, दर्जनों मीडिया रिपोर्टें, सबने मिलकर दम लगा लिया लेकिन दस साल में एक अदद बांध नहीं बन सका।
आजाद भारत के लोकतंत्र की नाकामियों की फेहरिस्त को थोड़ा लंबा खींचें, तो कह सकते हैं कि अब तक की तमाम सरकारें मिलकर एक नदी पर एक छोटा ही सही, लेकिन पक्का बांध नहीं बना सकीं। यह कहानी उत्तर प्रदेश में बरेली जिले और पीलीभीत लोकसभा में पड़ने वाले बहेड़ी की है, जिनका संसद में प्रतिनिधित्व भाजपा के दो बड़े नेता संतोष गंगवार और वरुण गांधी करते हैं। इस कहानी को कई बार लिखा जा चुका है, सुनाया जा चुका है और जितनी बार यह कहानी लिखी गई है उतनी ही बार किसानों ने अपने हाथों और जेब से अपने लिए कच्चा बांध बनाया है।
इस साल जब यह कहानी हम लिख रहे हैं, तब बरेली के किसान दोबारा कच्चा बांध बनाने के लिए चंदा जुटा रहे हैं क्योंकि इस सीजन में उनके बनाए बांध को 19 नवंबर को साजिशन तोड़ दिया गया था। आदतन, जांच जारी है।
बरेली की बहेड़ी तहसील के खमरिया गांव में बहगुल नदी पर किसान 2016 से कच्चा बांध बनाते आ रहे हैं। इस साल बांध बनाने का किसानों का यह छठवां प्रयास है। एक पूर्व विधायक और किसान कल्याण समिति के अध्यक्ष जयदीप सिंह बरार इनके नेता और प्रेरणा हैं। राज्य सरकार 1989 तक यह कच्चा बांध खुद बनाती थी। उसके बाद से उसने पल्ला झाड़ लिया। अब हर साल ये किसान सात-आठ लाख का चंदा जुटाकर कच्चा बांध बनाते हैं, जिसमें बरार की निजी पेंशन भी लगती है। हर साल बांध बनता है और सिंचाई विभाग उसे काट देता है। इस बार नवंबर में यह बांध किसने तोड़ा, इसकी जांच पुलिस कर रही है।
विडम्बना यह है कि सरकारी कागजात में यह इलाका पर्याप्त सिंचित दिखाया जाता है। इससे भी बड़ी विडम्बना यह है कि यह इलाका उस बरेली मंडल में आता है जो इस साल उत्तर प्रदेश सरकार की विकास रैंकिंग में अव्वल स्थान पर रहा है जबकि यहां बांध निर्माण एवं सिंचाई की दो परियोजनाएं वर्षों से लंबित पड़ी हैं। ऐसा नहीं कि सरकार को इस इलाके की सुध नहीं है, लेकिन मामला सुध से आगे कभी नहीं बढ़ पाया।
सौ साल पहले यहां एक बांध था
खमरिया गांव में स्थित बल्ली बांध के इतिहास की जड़ें 19वीं शताब्दी तक जाती हैं। कृषि कार्य के उद्देश्य से सबसे पहले इस क्षेत्र के जमीदारों ने कच्चे बांध का निर्माण शुरू किया था। ग्रामीणों की स्मृति के अनुसार 1905 में पहली बार ब्रिटिश हुकूमत ने बांध निर्माण का काम अपने हाथ में लिया। अंग्रेजों ने यहां एक पक्के बांध का निर्माण करवाया।
उत्तर प्रदेश के सिंचाई विभाग की मानें, तो अंग्रेजों द्वारा 1919 में पक्के बांध का निर्माण करवाया गया था। 1905 हो या 1919, मोटे तौर से यह तथ्य तो स्थापित है कि सौ साल पहले यहां एक पक्का बांध था जिसे अंग्रेजों ने बनवाया था। इसी बांध के सहारे इस क्षेत्र में सिंचाई के लिए आधारभूत ढांचे का विकास हुआ। 1926 में आई एक भीषण बाढ़ को इस बांध के ढहने का कारण बताया जाता है। इस तथ्य पर ग्रामीण और सिंचाई विभाग दोनों सहमत हैं। उस पक्के बांध के अवशेष यहां आज भी मौजूद हैं।
अंग्रेजों के बनवाए बांध के अवशेष
अंग्रेजों के बनाए पक्के बांध के ढहने के बाद किसानों को सिंचाई की सुविधा कच्चे बांध से उपलब्ध कराई जाती रही। आजादी के बाद उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा यह जिम्मेदारी संभाल ली गई। 1989 के बाद सरकार ने कच्चे बांध का निर्माण कराना बंद कर दिया। किसानों को सिंचाई के लिए उनके हाल पर छोड़ दिया गया। डीजल खरीदकर इंजन से फसलों की सिंचाई करने के अलावा किसानों के पास अब और कोई विकल्प नहीं बचा। क्षेत्र का भूजल स्तर लगातार नीचे गिरता गया। खेती में लगातार बढ़ती लागत एवं फसलों की अपर्याप्त सिंचाई के चलते किसानों की परेशानी भी लगातार बढ़ती चली गई।
सिंचाई के लिए बांध से पानी न मिले, तो इंजन से पानी लगाना पड़ता है। एक बीघा खेत में पानी लगाने में चार लीटर डीजल खर्च हो जाता है। स्थिति यह है कि डीजल इस समय 90 रुपये प्रति लीटर चल रहा है, ऐसे में सिंचाई की लागत बहुत ज्यादा बढ़ चुकी है।
1989 से अब तक
ढकिया ठाकुरान गांव के किसान कृष्ण पाल सिंह बताते हैं, ‘’हमें शासन की तरफ से ट्यूबवेल, मोटर पम्प की सुविधा भी नहीं मिली। सरकार के कागजों में यह सारा क्षेत्र सिंचित क्षेत्र के रूप में दर्ज है। भले ही हमारे पास एक स्थाई बांध न हो, भले ही हमारी नहरें साल भर सूखी रहती हों, हमारे पास सिंचाई करने के लिए एक बूंद जल न हो, लेकिन हम सिंचित क्षेत्र में आते हैं।‘’
गहराते जल संकट और कृषि संकट से निपटने के लिए एक छोटे आकार के पक्के बांध (रेगुलेटर) के निर्माण की मांग यहां जोर पकड़ने लगी। इस मांग पर किसान संगठित हुए। बरसों के नाकाम इंतजार के बाद 2016 में किसानों ने खुद कच्चा बांध बनाने का फैसला किया। इस काम की पहल की वायुसेना के सेवानिवृत्त पायलट, पूर्व विधायक और समाजसेवी जयदीप सिंह बरार ने, जिनके नेतृत्व में किसानों ने किसान कल्याण समिति का गठन किया।
कनकपुरी गांव के किसान वेद प्रकाश बताते हैं, “किसान कल्याण समिति के तत्वावधान में किसानों ने पक्के रेगुलेटर के निर्माण की मांग को उठाया। साइकिल यात्रा एवं धरना प्रदर्शन भी किए गए। प्रशासनिक अधिकारियों, निर्वाचित जन-प्रतिनिधियों को आवेदन और ज्ञापन सौंपे जाते रहे। आश्वासन पर आश्वासन मिलते रहे, बस बांध ही नहीं मिला। नेता लोग बांध बनवाने का आश्वासन देकर वोट लेते रहे पर हमें पक्का बांध नहीं मिला। आज क्षेत्र के सभी किसान खुद को नेताओं से ठगा हुआ महसूस करते हैं।“
पिछले सात वर्षों से किसान खुद ही कच्चा बांध बनाते आ रहे हैं। किसान क्षेत्र में घूम-घूम कर चंदा इकट्ठा करते हैं, फिर सामूहिक श्रम से बांध बनाते हैं। कांवर क्षेत्र से दो बार के विधायक और एक बार एमएलसी रहे जयदीप सिंह बरार अपनी पेंशन का पैसा कच्चे बांध के निर्माण में देते हैं।
कृष्ण पाल सिंह कहते हैं, “सिंचाई विभाग को सिर्फ पक्के रेगुलेटर का निर्माण कराना है। उसके लिए जमीन पहले से उपलब्ध है, सिंचाई के लिए हमारे पास सिंचाई नेटवर्क भी मौजूद है- नहरे हैं, गूले हैं, नाले हैं। विभाग को सिर्फ बांध बनाना है, लेकिन विडंबना है कि पहले से मौजूद आधारभूत ढांचे का इस्तेमाल भी सिंचाई विभाग नहीं कर पा रहा है।‘’
पक्के रेगुलेटर के निर्माण पर रूहेलखण्ड नहर खंड के अधिशासी अभियंता मुकेश कुमार बताते हैं, “खमरिया के कच्चे बांध को पक्के रेगुलेटर के रूप में विकसित किए जाने हेतु 2019 में मुख्य अभियंता सिंचाई विभाग की समिति द्वारा परियोजना अनुमोदित की गई थी। इस परियोजना की लागत धनराशि 57.46 करोड़ रुपये थी। नाबार्ड द्वारा परियोजना का वित्तपोषण किया जाना था। यह परियोजना उच्चतम बाढ़ स्तर 183.500 मीटर के आधार पर गणना कर तैयार की गई थी। 18 एवं 19 अक्टूबर 2021 को आई बाढ़ के दौरान उच्चतम बाढ़ स्तर 185.20 मीटर दर्ज हुआ। ऐसे में उस परियोजना के आधार पर रेगुलेटर का कार्य संभव नहीं हो सका। अतः यह परियोजना रद्द कर दी गई।‘’
दिलचस्प है कि 2019 में स्वीकृत परियोजना के बारे में सिंचाई विभाग को 2021 में जाकर यह पता लग सका कि बांध का निर्माण नहीं किया जा सकता क्योंकि दो साल बाद उच्चतम बाढ़ का स्तर बढ़ चुका था और बांध बनाने की लागत बढ़ गई थी। अक्टूबर 2021 की बाढ़ के बाद से अभी तक राज्य का सिंचाई विभाग यह फैसला नहीं कर पाया है कि बांध बनाना उपयुक्त है या पम्प नहर।
इस मामले पर पीलीभीत के सांसद वरुण गांधी बताते हैं कि कई बार वे शासन को चिट्ठी लिख चुके हैं। वे कहते हैं, ‘’मैंने कच्चे बांध के निर्माण के दौरान किसानों को आर्थिक सहयोग दिया है। मैंने मुख्यमंत्री जी से भी बात की है, किसानों के साथ संघर्ष भी किया है। बांध परियोजना की स्वीकृति होगी कि नहीं यह सरकार की प्राथमिकता पर निर्भर करता है।‘’
बरेली के सांसद संतोष गंगवार ईमानदारी से स्वीकार करते हैं कि उन्हें इस मसले के बारे में कुछ नहीं पता। गंगवार कहते हैं, ‘’मुझे इस परियोजना की प्रगति के बारे में पूरी जानकारी नहीं है, मैं लखनऊ से जानकारी लूंगा।‘’
एक बांध, सौ काम
बहगुल पश्चिमी नदी पर आजादी के बाद से लगातार कागजों पर निर्माणाधीन बल्ली/खमरिया का यह बांध कितना महत्वपूर्ण है, यह उसके भूगोल और उसके प्रभाव क्षेत्र से समझा जा सकता है।
बहगुल पश्चिमी नदी पर बल्ली/खमरिया में हर साल किसानों द्वारा बनाया जाने वाला कच्चा बांध बरेली और रामपुर जिले के सीमावर्ती क्षेत्र में पड़ता है। इस बांध से बरेली जिले की मीरगंज और बहेड़ी तहसील के 90 से अधिक गांवों में सिंचाई का पानी जाता है। इसके अलावा रामपुर जिले की बिलासपुर तहसील के आठ-दस गांवों के किसानों को भी इस कच्चे बांध से सिंचाई का पानी मिलता है।
इसके अलावा, इस बांध से बहेड़ी तहसील के सीमावर्ती 25 गांवों और बिलासपुर तहसील के सीमावर्ती 25 गांवों में भूजल स्तर बढ़कर 10 फुट तक आ जाता है। इसी बांध की वजह से हैन्डपम्प साल भर पानी दे पाते हैं।
इस बांध से दो नहरें निकलती हैं। एक 15 किलोमीटर लंबी नहर से बहेड़ी और मीरगंज तहसील के 30 गांवों तक पानी पहुंचता है। दूसरी नहर 35 किलोमीटर लंबी है जिसमें इस बांध का 60 फीसदी पानी छोड़ा जाता है। यह नहर आगे कुल्ली नदी पर स्थित बांध से भी पानी लेती है। इस नहर के माध्यम से मीरगंज तहसील के 70 से भी अधिक गांवों तक पानी पहुंचाया जाता है।
जयदीप सिंह बरार बताते हैं कि कभी इस नहर के माध्यम से दिल्ली-लखनऊ राष्ट्रीय राजमार्ग से लगते हुए गांव धनेटा तक पानी पहुंचाया जाता था। वर्तमान में कई गांवों में नहरों का नेटवर्क क्षत-विक्षत हुआ है, कुछ गांवों में नहरों की चोरी हो गई, कई जगह नहर पर अतिक्रमण कर लिया गया।
यह खमरिया/बल्ली बांध और उससे जुड़ी नहरों के नेटवर्क का व्यापक विस्तार ही है जिसके चलते यहां पम्प नहर कारगर नहीं है, बल्कि पक्के बांध की ही जरूरत है। समस्या यह है कि पम्प नहर के निर्माण और स्थापना की लागत पक्के बांध की तुलना में कम होने के चलते सिंचाई विभाग पम्प नहर के प्रस्ताव पर भी विचार कर रहा है। इसके उलट, क्षेत्र के किसान छोटे आकार का पक्का बांध ही चाहते हैं।
कमेटी दर कमेटी
पिछले साल 30 सितंबर को मुख्य अभियंता (शारदा) द्वारा खमरिया में पक्के रेगुलेटर के स्थान पर पम्प नहर के निर्माण का अनुरोध किया गया था। इसके बाद 24 अप्रैल 2023 को प्रमुख अभियंता एवं विभागाध्यक्ष, सिंचाई एवं जल-संसाधन विभाग ने चार सदस्यीय उच्चस्तरीय समिति का गठन किया। इस समिति ने 26 मई 2023 को खमरिया में बांधस्थल का निरीक्षण किया था।
इस उच्चस्तरीय समिति ने 12 अक्टूबर 2023 को फिर से एक चार सदस्यीय टीम बना दी। इस दूसरी समिति को यह बताना है कि खमरिया में पक्के रेगुलेटर का निर्माण कराना सही रहेगा या बार्ज पर पम्प (पम्प नहर) का निर्माण किया जाना ज्यादा सही रहेगा। कच्चा बांध 19 नवंबर को तोड़े जाने के तीन दिन बाद 22 नवंबर को इस दूसरी समिति ने बांधस्थल का निरीक्षण किया था।
निरीक्षण दल में ओपी पाठक (मुख्य अभियंता स्तर -1 यांत्रिक, पूर्वी क्षेत्र सिंचाई एवं जल संसाधन विभाग), एके सिंह (मुख्य अभियंता, शारदा सहायक), हिमांशु कुमार अधीक्षण (अभियंता, बाढ़ कार्य मंडल बरेली) एवं अनिल कुमार निरंजन (अधीक्षण अभियंता, केंद्रीय परिकल्प निदेशालय) शामिल थे।
इस समिति के निरीक्षण में क्या नतीजा निकला, इस पर सस्पेंस कायम है। इस समिति को बनाने वाली पहली समिति की रिपोर्ट भी लंबित है। बरार कहते हैं- ‘’जिस काम को टालना तो उसके लिए समिति बना दो। ये सरकार के पुराने हथकंडे हैं। किसी काम को लंबित रखना हो तो कमेटी बना दो। एक कमेटी की रिपोर्ट आने के बाद दूसरी कमेटी बना दो, फिर तीसरी कमेटी बना दो। यही चलता रहता है। कमेटियां बनती रहती हैं और मूल कार्य रुका रहता है।‘’
पम्प नहर बनाम रेगुलेटर
किसानों और संघर्षरत स्थानीय किसान समिति से बात कर के समझ आता है कि हर लिहाज से यहां रेगुलेटर यानी छोटा और पक्का बांध ही सिंचाई के लिए उपयुक्त है। दिक्कत यह है कि जो बात किसानों को आसानी से समझ में आ रही है, उसे प्रशासन बरसों से नहीं समझ पा रहा।
पम्प नहर और पक्के बांध के फर्क को जयदीप सिंह बरार विस्तार से समझाते हैं, ‘’पम्प नहर से बड़े स्तर पर दोनों नहरों में जलापूर्ति नहीं की जा सकती। पम्प नहर लंबे समय तक चलने वाला स्थायी समाधान नहीं है। पम्प नहर सिस्टम की स्थापना में आने वाली लागत पक्के बांध की तुलना में बेशक कम है, लेकिन उसके रखरखाव का खर्चा काफी ज्यादा होता है। पम्प नहर बिजली से संचालित होती है। बिजली बिल, पम्प रिप्लेसमेंट, रखरखाव संबंधी खर्चे होते ही रहेंगे जबकि बांध पर सिर्फ एक बार पैसा खर्च करके काफी लंबे समय तक उसका निर्बाध उपयोग सुनिश्चित किया जा सकता है।‘’
बरार के अनुसार पम्प नहर से सिर्फ बल्ली नहर को ही पानी दिया जा सकेगा। कुल्ली नहर को पानी नहीं पहुंच पाएगा जबकि किसान फिलहाल कच्चे बांध से 60 प्रतिशत पानी कुल्ली नहर में छोड़ते हैं जो आगे मीरगंज के एक बड़े क्षेत्र में सिंचाई में काम आता है। इसके उलट, पम्प नहर से केवल 30 गांवों को ही पानी मिल सकेगा। उनका कहना है कि पक्के रेगुलेटर से 90 गांवों को आराम से पानी पहुंचाया जा सकेगा।
ढकिया ठाकुरान के किसान सोमपाल सिंह का कहना है कि पक्का बांध बनने से क्षेत्र के 140 गांव खुशहाल हो जाएंगे। वे बताते हैं, ‘’मेरे पास पांच एकड़ जमीन है। गन्ना, गेहूं और धान की खेती करता हूं। हमारे क्षेत्र में भूजल स्तर काफी नीचे है, इसलिए बोरिंग से सिंचाई करने में लागत बहुत अधिक बढ़ जाती है। बांध से भूजल स्तर भी ऊपर आ जाता है और सिंचाई के लिए पर्याप्त जल भी मिल जाता है।‘’
कनकपुरी के किसान रघुवीर सिंह कहते हैं, ‘’हमारे क्षेत्र की मुख्य फसल गन्ना है। फसल में पानी लगाने के लिए महंगा डीजल खरीदना पड़ता है, बहुत खर्चा हो जाता है। यदि फसल को चार पानी की जरूरत हो तो हम दो पानी ही दे पाते हैं। हमारी पैदावार घट जाती है। पक्का बांध यदि बन जाएगा तो हमें 12 महीने पानी मिलेगा। अभी तो कच्चे बांध से सात महीने ही पानी मिलता है।‘’
किसान कल्याण समिति के सदस्य वेदप्रकाश कहते हैं, “बांध परियोजना की लागत बढ़ जाने की बात कहकर सिंचाई विभाग पक्के रेगुलेटर के निर्माण में देरी कर रहा है। 90-100 गांवों में सिंचाई और क्षेत्र के जल प्रबंधन को सुनिश्चित करने के लिए 100-150 करोड़ रुपये खर्च क्यों नहीं किए जा सकते? यह सब नीयत और प्राथमिकताओं की बात है।“
बरार पक्के बांध का एक और आयाम गिनवाते हैं, ‘’छोटे आकार के रेगुलेटर (बांध) का निर्माण पर्यावरणीय लिहाज से भी अनुकूल है। हमारे पर्यावरण विशेषज्ञ भी बड़े बांधों के निर्माण के स्थान पर छोटे बांधों के निर्माण की सलाह देते हैं। जहां पानी जमीन से मिलता है वहां अधिक जैव-विविधता होती है, बांध बनने से यह परिधि और बड़ी हो जाती है जिससे जैव-विविधता बढ़ती है। इसके अलावा प्रवासी मछलियों के लिए अब बांधों में फिश लैडर की व्यवस्था की जाती है, जिसकी सहायता से मछलियां ऊपर की ओर चढ़कर बांध को पार कर जाती हैं।‘’
पानी है तो खाद नहीं
खमरिया/बल्ली में एक पक्के बांध पर किसानों का रोना अकेला नहीं है। सिंचाई परियोजनाओं की बात की जाए, तो बांध एवं नहर आधारित परियोजनाएं देश भर में दम तोड़ रही हैं। सिंचाई से संबंधित जो नहर परियोजनाएं संचालित हैं उनसे भी सभी लक्षित किसानों को पानी नहीं मिल पा रहा है। नहरों में पानी पहुंच ही नहीं पाता है। सिंचाई के लिए किसानों को पर्याप्त बिजली भी नहीं मिल रही है। किसानों को महंगा डीजल खरीदकर सिंचाई के लिए मजबूर किया जा रहा है।
पश्चिमी उत्तर प्रदेश में मध्य गंगा नहर-2 परियोजना की कहानी भी ऐसी ही है। वित्तीय वर्ष 2007-08 में स्वीकृत हुई इस परियोजना से सभी लक्षित किसानों को आज तक सिंचाई का लाभ नहीं मिल पाया है। इस मामले में 11 वर्षों से अधर में लटकी बरेली की रामगंगा बैराज परियोजना इस बात का सबूत है कि सरकारें अपनी फाइलों में झूठ बोलती हैं।
रामगंगा बैराज परियोजना की शुरुआत बाढ़ खंड बरेली, बाढ़ खंड बदायूं, बरेली सिंचाई निर्माण खंड एवं बदायूं सिंचाई निर्माण खंड के संयुक्त प्रयासों से हुई थी। 2011 में 332 करोड़ रुपये की लागत वाली इस परियोजना की लागत बढ़कर आज 2100 करोड़ रुपये पहुंच चुकी है। परियोजना का उद्देश्य क्षेत्र में बाढ़ नियंत्रण, रामगंगा बैराज को पर्यटन स्थल के रूप विकसित करना और 37,153 हेक्टेयर कृषि भूमि को सिंचित करना था।
आज 11 साल बीतने के बाद परियोजना की स्थति यह है कि अभी तक परियोजना में अधिग्रहीत होने वाली भूमि का अधिग्रहण भी पूरा नहीं हो सका है। बजट के अभाव में यह परियोजना अधर में लटकी हुई है जबकि मार्च में जारी उत्तर प्रदेश की विकास रैंकिंग में जिन पैमानों पर बरेली मंडल को प्रथम स्थान दिया गया था, उनमें एक कृषि क्षेत्र में निवेश भी शामिल था।
सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण तो फिर भी भारी लागत वाली चीजें हैं, हकीकत यह है कि उत्तर प्रदेश के किसानों को इस सीजन में पर्याप्त खाद और डीएपी भी नहीं मिल रही है। बरेली जिले में गेहूं की बोआई का समय है लेकिन किसानों को खाद नहीं मिल रही है। सरकारी गोदाम खाली पड़े हैं। जहां थोड़ी-बहुत खाद है भी, वहां लंबी लाइन लग रही है और घंटों इंतजार करने के बाद किसानों को खाली हाथ लौटना पड़ रहा है।
इस जमीनी सच्चाई के उलट, सरकारी बाबू भरपूर खाद उपलब्ध होने का दावा कर रहे हैं। सूबे के कृषि मंत्री सूर्य प्रताप शाही 23 नवंबर को रबी गोष्ठी में हिस्सा लेने बरेली आए थे। वहां उन्होंने भरपूर मात्रा में खाद उपलब्ध होने का दावा किसानों से किया था और इस बात को साफ झुठला दिया था कि कहीं भी किसानों को लाइन लगानी पड़ रही है। एक अखबार की रिपोर्ट की मानें तो उसकी पड़ताल में छह सहकारी समितियों के गोदाम खाली मिले। एक समिति पर खाद थी, लेकिन वहां किसानों की लंबी कतार लगी हुई थी।
खाद-पानी के अभाव में कोई किसान क्या खेती करेगा? आश्चर्य नहीं कि या तो वह खेती छोड़ देगा या कर्ज लेकर अपनी जान फंसाएगा। उत्तर प्रदेश के तराई से पहली बार बड़ी संख्या में आ रही किसानों की खुदकुशी की खबरें बताती हैं कि यहां कृषि संकट वाकई गंभीर है। इस साल फरवरी से नंबर के बीच सात किसानों ने कर्ज और दूसरे कारणों से अपनी जान दे दी है।
बदायूं, पीलीभीत, बरेली, शाहजहांपुर में किसान कर्ज और घाटे के चलते आत्महत्या कर रहे हैं। सरकारी अफसरों का भ्रष्टाचार भी किसानों को खुदकुशी के लिए मजबूरी कर रहा है। यहां जून की एक घटना योगी आदित्यनाथ की सरकार के रामराज पर गंभीर सवाल खड़ा करती है, जब बदायूं की सदर तहसील में एक बुजुर्ग किसान ने भ्रष्टाचार के चलते जहर खाकर अपनी जान दे दी थी। उसके छोड़े सुसाइड नोट में दो राजस्व अधिकारियों पर रिश्वत लेकर उसकी जमीन किसी और के नाम कर देने का आरोप था। इसी तरह बिल्सी तहसील के गांव सिरासौल पट्टी सीताराम में भी एक किसान ने लेखपाल के उत्पीड़न से तंग आकर आत्महत्या कर ली थी।
कृषि संकट के बड़े कारण
तराई यानी रूहेलखंड से ऐसी खबरें हाल तक सुनने को नहीं मिलती थीं। आज उत्तर प्रदेश का ऐसा कोई जिला नहीं है जहां किसान खुदकुशी न कर रहा हो। इसके बावजूद कुछ किसानों ने हार नहीं मानी है। चंदे से चौदह दिन में सौ मीटर का बांध बना देने वाला उत्तर प्रदेश का किसान तभी तक बांध बना रहा है जब तक उसके सब्र का बांध टूटा नहीं है।
तराई के बड़े किसान नेता वीएम सिंह किसानों की इस दुर्दशा को वैश्विक नीतियों से जोड़ कर समझाते हैं। उनका मानना है कि विश्व व्यापार संगठन और विश्व बैंक के दबाव में सरकार भारतीय अर्थव्यवस्था में कृषि क्षेत्र की भागीदारी को लगातार कम करने की ओर आगे बढ़ रही है। कृषि में सार्वजनिक व्यय लगातार घट रहा है। ऐसी नीतियों के कारण खेती घाटे का सौदा बन चुकी है।
राष्ट्रीय किसान मजदूर संगठन के राष्ट्रीय समन्वयक वीएम सिंह सवाल उठाते हैं, ‘’ऐसे में 140 करोड़ की आबादी की खाद्यान्न आवश्यकताएं कैसे पूरी हो सकेंगी? क्या भारत की भूखी आबादी को विश्व व्यापार संगठन खाद्यान्न देगा? हमारे देश में 80 करोड़ की आबादी को फ्री राशन वितरित किया जा रहा है। इसका मतलब साफ है कि भारत की 80 करोड़ आबादी मुख्यधारा से बाहर है, गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन कर रही है। किसानों को लगातार हतोत्साहित किया जाएगा तो अन्न कहां से आएगा? कृषि क्षेत्र में सार्वजनिक व्यय को कम करते हुए क्या सरकार खाद्यान्न संकट को आमंत्रित नहीं कर रही है?’’
हाल में संपन्न हुए पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के तुरंत बाद केंद्र सरकार ने मुफ्त अनाज 80 करोड़ लोगों को देने की अवधि को बढ़ा दिया। सरकार इस पर अपनी पीठ थपथपा रही है, लेकिन सिंह की मानें तो वास्तव में यह सरकार की गलत नीतियों का अक्स है जिसका सीधा असर अन्नदाता पर पड़ रहा है।
फिलहाल बरेली के किसानों के सामने असल सवाल यह है कब तक अपनी जेब से पैसा और श्रम लगाकर वह काम करते रहा जाए जो काम वास्तव में सरकार का है। किसान नेता डॉ. सुनीलम इस पर कहते हैं, ‘’ये मसले चुनाव या सरकारों के बदलने से हल नहीं होने वाले। इनके लिए लोगों को आंदोलन करना होगा। सड़क पर आना होगा। किसान आंदोलन को यह देश अभी भूला नहीं है। वैसा ही एक और आंदोलन समय की मांग है।‘’