दिसंबर 2019 में जब पूरी दुनिया नए साल की दहलीज पर उम्मीद से खड़ी थी, चीन में एक नया वायरस चुपचाप फैल रहा था। बहुत संभावना थी कि वुहान के जिंदा जानवरों के बाजार में वह पशुओं से इंसानों में संक्रमित हुआ हो। बहुत जल्द कोविड-19 की महामारी के सामने पूरी दुनिया अचानक ठिठक गई, अर्थव्यवस्थाओं के पल्ले गिर गए और अरबों लोगों को जबरन अप्रत्याशित लॉकडाउन लगाकर कैद कर दिया गया। हमें इस आसन्न जोखिम के बारे में पहले से चेताया गया था, फिर भी उसकी उपेक्षा की गई या लापरवाही बरती गई। आज पांच साल बाद भी हम उसके असर से जूझ रहे हैं।
आखिर हमने उस महामारी से क्या सीखा? अव्वल तो उस महामारी ने दुनिया की अर्थव्यवस्था के ढांचे में बुनियादी गड़बडि़यों को उजागर कर दिया। आपस में इतना कस के जुड़ी हुई इस दुनिया में वह वायरस महज कुछ हफ्तों में चौतरफा फैल गया और सरकारें छोटी अवधि के आर्थिक लक्ष्यों में ही फंसी रहीं। उसे रोकने या थामने के लिए जो कुछ भी किया जाना अनिवार्य था, उससे सरकारें संकोच करती रहीं। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने बेशक चेतावनियां जारी कीं, लेकिन उसके पास न तो अधिकार थे और न ही संसाधन कि वह कोई निर्णायक कार्रवाई कर पाता। जब अस्पतालों में भीड़ बढ़ने लगी, तो यह साफ-साफ दिखने लगा कि पूरी दुनिया में कोई भी स्वास्थ्य सेवा प्रणाली नहीं है जो इस वायरस का मुकाबला कर सके।
इसके अलावा, देशों के बीच में और देशों के भीतर मौजूद गैर-बराबरी लॉकडाउन के दौरान उपजे सामाजिक तनाव में ईंधन का काम कर गई। उसने वर्ग और लैंगिकता के टकरावों को और तीखा कर दिया। साथ ही वैश्विक दक्षिण और उत्तर के देशों के बीच भी टकराव बढ़ गए। जब महामारी का टीका आया, तो अमीर देशों ने उसकी जमाखोरी कर ली जबकि गरीब देशों के अरबों लोगों को उसके लिए महीनों, यहां तक कि वर्षों इंतजार करना पड़ा।
यह ‘’वैक्सीन राष्ट्रवाद’’ रणनीतिक के साथ-साथ नैतिक नाकामी भी था। जल्द ही वायरस के नए संस्करण पैदा हो गए। इससे महामारी लंबी खिंच गई। दुनिया की बहाली और खतरे में पड़ गई। महामारी ने संस्थाओं में लोगों के भरोसे की कमी को न सिर्फ उजागर किया, बल्कि उस अविश्वास को और बढ़ाने का काम किया। महामारी पर सरकारों की प्रतिक्रिया के प्रति कुसूचना और दुष्प्रचार अभियानों ने लोगों में आक्रोश पैदा किया। सोशल डिस्टैंसिंग (दो गज दूरी) और मास्क जैसे सहज उपाय बहुत जल्द गहरे विभाजनकारी राजनीतिक मसलों में तब्दील हो गए।
महामारी ने कुछ ऐसे सवालों को सतह पर ला दिया जो अर्थव्यवस्था के रोजमर्रा के नीरस संचालन के लिहाज से काफी दूर के जान पड़ सकते हैं। मसलन, क्या हमें किसी समाज की अर्थव्यवस्था को उस समाज से स्वायत्त और स्वतंत्र मानना चाहिए? क्या वैश्विक संस्थाओं के बगैर भी एक वैश्विक अर्थव्यवस्था हो सकती है?
एक सरसरे पल में ऐसा भी लगा था कि कोविड शायद नींद से जगाने का एक कारण बन सके और अंतत: ज्यादा आर्थिक एकजुटताएं पैदा कर पाए। जब संकट बहुत सघन होकर सतह पर आ चुका था, तो कई सरकारों ने वास्तव में बहुत तेज कार्रवाई करते हुए लॉकडाउन लगाए, अपनी कमजोर आबादी की सुरक्षा सुनिश्चित की और अप्रत्याशित स्तर पर वित्तीय व मौद्रिक हस्तक्षेप किए ताकि आर्थिक मोर्चे पर पतन को रोका जा सके। हमारी जिंदा स्मृति में यह पहला मौका था जब नीति-निर्माताओं ने मुनाफे के ऊपर जनता को तरजीह दी और अर्थशास्त्रियों के मुकाबले महामारी के जानकारों को ज्यादा ध्यान से सुना।
इस वायरस ने साझेपन (कॉमन्स) के चरित्र को भी प्रकाशित किया। निजी और साझा हितों के बीच की रेखा इसने धुंधली कर डाली। इसने हमारे सामने सामूहिक कार्रवाई वाली एक समस्या पैदा की थी। उसे समन्वित प्रयासों से ही संबोधित किया जा सकता था। थोड़े समय के लिए ही सही, पर ऐसा लगा कि मौत से हुए सामूहिक साक्षात्कार ने समाज के उदार और नरम पक्ष को सामने ला दिया था।
यह नैतिक अवस्था अपवाद थी, लेकिन इसे वैज्ञानिक खोज ने एक झटके में समाप्त कर डाला। जैसा कि आर्थिक इतिहासकार एडम टूज ने लिखा है, एमआरएनए वैक्सीन ने एक बार फिर से वैश्विक पूंजीवाद को कयामत से बचा लिया। महामारी बिलकुल साफ तौर पर यह साबित कर चुकी थी कि छोटी अवधि के हितों पर केंद्रित हमारी मौजूदा आर्थिक प्रणालियां बुनियादी रूप से उससे निपटने के लायक नहीं थीं- इकोलॉजिस्ट और माइक्रोबायोलॉजिस्ट गैरेट हार्डिन जिसे ‘’ट्रैजेडी ऑफ द कॉमन्स’’ (साझे की त्रासदी) कहते हैं। यह अंतर्निहित कमजोरी और अक्षमता वैक्सीन आते ही बहुत जल्द छुपा ली गई।
इस चक्कर में सुधारों की प्रेरणा तो कहीं गुम हो गई, लेकिन यह बात अब भी जाहिर है कि हमें ऐसी अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं की जरूरत है जो दीर्घकालिक वैश्विक हितों का अल्पकालिक फायदों के साथ तालमेल बैठा सकें। वैक्सीन ने कोविड को भले एक विचलन की तरह देखने-बरतने की हमें सहूलियत दी, लेकिन हमें भूलना नहीं चाहिए कि कोविड वास्तव में था क्या: धरती पर जो चुनौतियां हमारे इंतजार में हैं, उन्हीं जैसों में से एक ही महज झांकी। जलवायु परिवर्तन, अनियंत्रित आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस और दूसरे घटनाक्रमों के मद्देनजर सरहदों को तोड़ने वाले सहकारिता आधारित समाधान अब किसी की रूमानियत नहीं, अस्तित्व के लिए अनिवार्यता बन चुके हैं।
महामारी के चलते लगाए गए लॉकडाउन के हटाए जाने के बाद से हम सब मोटे तौर पर रोजमर्रा के काम-धंधे पर लौट आए हैं। हमने उन वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं से आंख चुरा ली जिनके कारण बुनियादी चीजों का टोटा पड़ गया था। यह टोटा वास्तव में जरूरत के हिसाब से तत्काल उत्पादन और सक्षमता के नाम पर बनाए गए सघन उत्पादन-केंद्रों के ऊपर हमारी अतिनिर्भरता का नतीजा था। अपने उत्पादन नेटवर्कों को ज्यादा विकेंद्रीकृत और प्रतिरोधी बनाने के लिए नवाचार करने के बजाय हम एक बार फिर से सबसे सस्ते ‘’वैश्विक कारखानों’’ की तलाश में जुट गए।
अपने बरतन-कड़ाहे बजाते हुए हमने जिन अनिवार्य सेवाकर्मियों को कुछ समय के लिए सम्मानित किया था, वे मोटे तौर पर आज भी असंगठित, असुरक्षित कामगार बने हुए हैं। उनके पास अब भी कोई मजबूत सामाजिक सुरक्षा का तंत्र नहीं है। जिन असमानताओं पर हमने इतनी चीख-पुकार मचाई, उनकी हालत और बुरी हो चुकी है। ऑक्सफैम के अनुसार महामारी ने पांच अरब लोगों को और गरीब कर के छोड़ा जबकि दुनिया के पांच सबसे अमीर व्यक्तियों की संपत्ति को दोगुना कर डाला।
इसी तरह, जॉर्ज फ्लायड की हत्या के बाद नस्ली नाइंसाफी पर मची चीख-पुकार को अब ‘’वोक’’ एजेंडे का हिस्सा बताकर खारिज किया जा रहा है। कहा जा रहा है कि नवंबर के चुनाव में अमेरिकी मतदाताओं ने इस मुद्दे को खारिज कर दिया। वार्ताओं को दो साल हो गए लेकिन अब भी वैश्विक महामारी संधि के मसौदे पर दस्तखत नहीं हो सके हैं और वायरस के कारण सीधे जिन सत्तर लाख लोगों की जान गई अब वे लोग महज आंकड़े बनकर रह गए हैं।
नए साल पर इस हकीकत को बिलकुल ठंडे दिमाग से याद रखा जाना चाहिए कि जलवायु परिवर्तन, निरंकुश एआइ और बढ़ते भूराजनीतिक तनाव, साथ ही बर्ड फ्लू और एमपॉक्स जैसे जनस्वास्थ्य के संकट, बहुत तेजी से एकजुट होकर ताकतवर होते जा रहे हैं- ठीक वैसे ही जैसे पांच साल पहले वायरस का हाल था। विज्ञान बेशक हर बार हमारी हिफाजत करने आ ही जाता है, लेकिन आगे अगर नहीं आया तो? क्या हमारी संस्थाएं तब हमें महफूज कर सकेंगी?
यहां याद रखा जाना होगा कि आसन्न तमाम संकटों के बीच कोविड महज एक था और हमें पंगु बनाने के लिए वही काफी था। 2025 में हमारे सामने ऐसे खतरों की भरमार है। इन्होंने अगर झुंड में हमला किया तो सत्यानाश तय है।
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