दो हजार सोलह (डोनाल्ड ट्रम्प के पहली बार राष्ट्रपति चुने जाने) से पहले यदि कोई चरमपंथी और निरंकुश व्यक्ति अमेरिका का राष्ट्रपति नहीं बन सका, तो इसके पीछे कारण यह नहीं है कि यहां इस किस्म के तत्व नहीं थे। ऐसा भी नहीं कि जनता का ऐसे तत्वों के प्रति समर्थन नहीं था। इसके उलट, अमेरिका के राजनीतिक परिदृश्य में हमेशा से ही चरमपंथी नेताओं की मौजूदगी रही है।
1930 के दशक में कम से कम आठ सौ दक्षिणपंथी अतिवादी संगठन अमेरिका में हुआ करते थे। इस दौर में उभरे सबसे अहम व्यक्तियों में एक थे यहूदी-विरोधी कैथोलिक पादरी फादर चार्ल्स कफलिन, जिनका एक भड़काऊ राष्ट्रवादी कार्यक्रम रेडियो पर आता था। उसकी लोकप्रियता का आलम यह था कि उसके श्रोताओं की संख्या एक समय चार करोड़ प्रति सप्ताह तक पहुंच गई थी। फादर कफलिन खुल्लमखुल्ला लोकतंत्र-विरोधी थे। वे सीधे राजनीतिक दलों को जड़ से खत्म करने की बात करते थे और चुनावों की भूमिका पर ही सवाल उठाते थे। वे एक अखबार चलाते थे, जिसका नाम था ’’सोशल जस्टिस’’। 1930 के दशक में उनके अखबार ने फासीवादियों का समर्थन करना शुरू कर दिया था। उसने मुसोलिनी को ‘’मैन ऑफ द वीक’’ घोषित कर दिया और अकसर नाजी शासन के बचाव में लिखता था। कुछ प्रेक्षकों ने उन्हें रूजवेल्ट के बाद अमेरिका का सबसे ज्यादा प्रभावशाली व्यक्तित्व बताया था।
आर्थिक मंदी के इसी दौर ने एक और शख्स को पैदा किया। उसका नाम था सिनेटर हुई लॉंग, जो खुद को ‘’द किंगफिश’’ कहता था। वह लुइसियाना का गवर्नर था। इतिहासकार आर्थर एम. श्लेसिंगर जूनियर ने उसके बारे में कहा था- ‘’अपने दौर का महान लोकप्रिय शख्स, जिसका कद लातीनी अमेरिका के तानाशाह शासकों वर्गास या पेरोन के समकक्ष है।‘’ किंगफिश के भीतर वक्तृत्व का जबरदस्त हुनर था और वह अकसर ही बोलने में कानूनों का उल्लंघन करता था। गवर्नर रहते हुए उसने जो काम किया, उसके बारे में श्लेसिंगर ने लिखा कि वह ‘’एक सर्वसत्तावादी राज्य का सबसे करीबी प्रयोग था जो अमेरिकी गणराज्य ने अब तक देखा था’’। ऐसा राज्य बनाने के लिए उसने धमकी और रिश्वत का सहारा लिया और इनके दम पर विधायिका, न्यायपालिका और प्रेस को उसने घुटनों पर ला दिया।
विपक्ष के एक नेता ने उससे एक बार पूछा कि क्या उसने कभी संविधान के बारे में सुना है। उसका जवाब था, ‘’अब मैं ही संविधान हूं।‘’ एक अखबार के संपादक हॉडिंग कार्टर ने उसे ‘’अमेरिकी मिट्टी से पैदा हुआ पहला सच्चा तानाशाह’’ लिखा था। फ्रैंकलिन रूजवेल्ट के प्रचार प्रबंधक जेम्स ए. फार्ली की 1933 में जब रोम में मुसोलिनी से मुलाकात हुई, तो उन्होंने लिखा कि इटली के तानाशाह को देखकर उन्हें ‘’हुई लॉंग की याद हो आई’’।
लॉंग ने धन के पुनर्वितरण का वादा कर के अपने अनुयायियों की जबरदस्त संख्या जुटा ली थी। एक बात 1934 में सामने आई कि उसके पास जितनी चिट्ठियां आती हैं उतनी तो सारे सिनेटरों के पास मिलाकर भी नहीं आती हैं और यहां तक कि उनकी संख्या राष्ट्रपति को मिलने वाली चिट्ठियों से भी ज्यादा है। उस समय तक उसके अभियान शेयर आवर वेल्थ की देश भर में 27000 शाखाएं फैल चुकी थीं और उसकी मेलिंग लिस्ट में अस्सी लाख लोगों के नाम पते दर्ज थे। लॉंग ने चुनाव लड़ने का मन बना लिया था। न्यू यॉर्क टाइम्स के एक रिपोर्टर से उसने कहा था, ‘’मैं रूजवेल्ट से लड़ सकता हूं, उन्हें हरा सकता हूं, और वे यह बात जानते हैं।‘’ रूजवेल्ट वास्तव में लॉंग को एक गंभीर खतरे के रूप में देख रहे थे। वो तो सितंबर 1935 में लॉंग की हत्या हो गई और रूजवेल्ट को अभयदान मिल गया।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद आए स्वर्णिम युग में भी अमेरिका के भीतर निरंकुशता वाली प्रवृत्ति कायम रही। ऐसे चेहरों में एक सिनेटर जोसफ मैकार्थी सबसे प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने शीतयुद्ध के दौरान कम्युनिस्टों का डर दिखाकर किताबें प्रतिबंधित कीं, सेंसरशिप को बढ़ावा दिया और व्यक्तियों व संस्थाओं को काली सूची में डाला। जनता में उनका बहुत समर्थन था। मैकार्थी की राजनीतिक सत्ता के चरम दौर में हुए सर्वे दिखाते हैं कि अमेरिका की करीब आधी आबादी उनके समर्थन में थी। यहां तक कि 1954 में सिनेट में उन्हें प्रतिबंधित किए जाने के बाद भी गैलप पोल में मैकार्थी को 40 फीसदी समर्थन मिला।
दशक भर बाद अलाबामा के गवर्नर जॉर्ज वॉलेस अपने अलगाववादी बयानों से राष्ट्रीय सुर्खियों में आए और 1968 व 1972 में उन्होंने राष्ट्रपति का चुनाव लड़ा। वॉलेस के तरीकों के बारे में पत्रकार आर्थर हेडली ने लिखा था- ‘’ताकतवर लोगों से नफरत की पुरानी और गौरवशाली अमेरिकी परंपरा’’। हेडली लिखते हैं कि वॉलेस ‘’परंपरागत और सहज अमेरिकी रोष’’ का दोहन करने के उस्ताद थे। वॉलेस अकसर हिंसा को बढ़ावा देते थे और संवैधानिक मानकों के प्रति उपेक्षा का भाव दर्शाते थे। उन्होंने कहा था:
संविधान से ज्यादा ताकतवर एक चीज है… वह है जनता की इच्छाशक्ति। वैसे भी संविधान होता क्या है? वह तो जनता की ही पैदा की हुई चीज है। सत्ता का पहला स्रोत जनता है और लोग अगर चाहें तो संविधान को खत्म कर सकते हैं।
वॉलेस अपने नारों और संदेशों से गोरी आबादी के मजदूर तबके के भीतर मौजूद आर्थिक असंतोष और उत्पीड़ित होने की भावना का दोहन करते थे, साथ ही उनमें नस्लवाद की छौंक भी लगा देते थे। ये लोकप्रिय नारे इस आबादी को बहुत अपील करते थे। इन्हीं संदेशों के सहारे वॉलेस ने डेमोक्रेटिक पार्टी के परंपरागत मजदूर जनाधार में सेंध लगाई। सर्वेक्षण दिखाते हैं कि 1968 में तीसरी पार्टी के राष्ट्रपति प्रत्याशी के तौर पर वॉलेस को 40 फीसदी अमेरिकियों का समर्थन हासिल हुआ। प्राइमरी के चुनावों में मई 1972 में वे जॉर्ज मैक्गवर्न के मुकाबले दस लाख से ज्यादा वोटों से आगे चल रहे थे, कि उनके ऊपर हुए एक जानलेवा हमले ने उनके चुनाव अभियान को पटरी से उतार दिया, हालांकि वे बच गए।
निरंकुशता की नस्लभेदी जड़ें
अमेरिका के लोगों की निरंकुश नेताओं के प्रति दीवानगी बहुत पुरानी रही है। यह असामान्य बात नहीं है कि कफलिन से लेकर लॉंग, मैकार्थी और वॉलेस जैसे व्यक्तियों को ठीकठाक 30 से 40 फीसदी लोगों का समर्थन हासिल हुआ। हम अकसर खुद को दिलासा देते फिरते हैं कि अमेरिकी राजनीतिक संस्कृति ही ऐसी है जो हमें इस किस्म की अपीलों से बचाए रखती है, लेकिन ऐसे निरंकुशतावादियों से असली सुरक्षा लोकतंत्र के प्रति अमेरिकियों की संकल्पबद्धता से नहीं आती, बल्कि हमारे राजनीतिक दलों से पैदा होती है।
हमारी राजनीतिक व्यवस्था को टिकाए रखने वाली यह कसौटी काफी हद तक खुद नस्ली अलगाव पर टिकी हुई थी। रीकंस्ट्रक्शन के युग से लेकर 1980 के दशक के बीच की अवधि में हमें जो स्थिरता दिखती है, उसकी जड़ें एक पुराने पाप तक जाती हैं। वह पाप 1877 का समझौता था जिसने दक्षिणी इलाकों में लोकतंत्र को खत्म करने की प्रक्रिया चलाई और ‘’जिम क्रो’’ (नस्लभेदी) कानूनों को मजबूत करने की जमीन बनाई। इसी नस्ली अलगाव ने सीधे-सीधे दोनों दलों के बीच परस्पर सभ्यता और सहयोग में योगदान दिया, जो बीसवीं सदी में अमेरिकी राजनीति का लक्षण बना।
अमेरिकी गृहयुद्ध के बाद चले पुनर्निर्माण का दौर खत्म होने पर 1870 के दशक में हर उस प्रांत में एक ही पार्टी (डेमोक्रेट) का निरंकुश राज हो गया था जो पहले कनफेडरेट का हिस्सा था। यह एकदलीय राज कोई मामूली ऐतिहासिक हादसा नहीं था। यह बिलकुल नंगे तरीके से संविधान के साथ की गई लोकतंत्र-विरोधी जोड़-तोड़ का परिणाम था। दरअसल, पुनर्निर्माण के दौरान अफ्रीकी-अमेरिकियों को बड़े पैमाने पर मतदाता बनाया गया था। समूचे दक्षिणी हिस्से में काले मतदाताओं के पंजीकरण का काम संघीय सेना की निगरानी में अंजाम दिया गया। इस कदम ने राजनीति पर दक्षिणी इलाके के गोरों के नियंत्रण तथा डेमोक्रेटिक पार्टी के सियासी प्रभुत्व के लिए बड़ा खतरा पैदा कर दिया था।
दक्षिण के प्रांतों मिसिसिपी, साउथ कैरोलिना और लुइसियाना में अचानक अफ्रीकी-अमेरिकी मतदाताओं की आबादी बहुमत में आ गई और अलाबामा, फ्लोरिडा, जॉर्जिया व नॉर्थ कैरोलिना में भी वे तकरीबन बहुमत के आसपास पहुंच गए। पूरे देश में काले मतदाताओं की संख्या, जो 1866 में आधा फीसदी थी, वह दो साल बाद बढ़कर 80.5 फीसदी हो गई। कई दक्षिणी प्रांतों में काले मतदाताओं का पंजीकरण नब्बे फीसदी की दर को पार कर गया। फिर काले मतदाताओं ने चुनावों में वोट किया। एक अनुमान के अनुसार 1880 के राष्ट्रपति चुनावों में काले मतदाताओं की मतदान दर नॉर्थ और साउथ कैरोलिना, टेनेसी, टेक्सस, और वर्जीनिया में 65 फीसदी या उससे ऊपर रही।
1870 के दशक में दो हजार से ज्यादा ऐसे अफ्रीकी-अमेरिकी प्रतिनिधि चुनावों के माध्यम से निर्वाचित हुए जो पहले दक्षिण में गुलाम हुआ करते थे। इनमें से चौदह कांग्रेस प्रतिनिधि रहे और दो अमेरिकी सिनेटर थे। एक समय तो स्थिति ऐसी आ गई कि लुइसियाना और साउथ कैरोलिना के निचले सदनों में चालीस फीसदी से ज्यादा प्रतिनिधि काले थे। चूंकि अफ्रीकी-अमेरिकियों ने ज्यादातर रिपब्लिकन पार्टी को ही वोट दिया था, तो रिपब्लिकन पार्टी फिर से जी उठी। नॉर्थ कैरोलिना, टेनेसी और वर्जीनिया में 1880 और 1890 के दशकों में डेमोक्रेट पार्टी की सत्ता चली गई जबकि अलाबामा, आरकंसास, फ्लोरिडा, जॉर्जिया, मिसिसिपी और टेक्सस में वह हारने के कगार पर पहुंच गई। राजनीतिविज्ञानी वी. ओ. की जूनियर के शब्दों में, ये लोकतांत्रिक चुनाव यदि ऐसे ही जारी रहते तो “काले गुलाम रखने वाले गोरों के लिए ये जानलेवा साबित होते।”
इसीलिए गोरों ने नियम बदल डाले। सभी 11 पूर्ववर्ती कनफेडरेट प्रांतों ने 1885 से 1908 के बीच अपने-अपने संविधान और चुनाव कानूनों में सुधार कर के अफ्रीकी-अमेरिकियों के मताधिकार बाधित कर दिए। इन प्रांतों ने चुनावी टैक्स, संपत्ति की अनिवार्यताएं, साक्षरता परीक्षा और जटिल मतपत्र जैसे कुछ उपाय लागू किए जो कथित तौर पर नस्ल “निरपेक्ष” थे। इतिहासकार अलेक्स कीसर लिखते हैं कि “इन तमाम बंदिशों का मोटामोटी लक्ष्य गरीबों और निरक्षर काले लोगों को चुनाव से दूर रखना था।” चूंकि अधिकतर अफ्रीकी-अमेरिकी रिपब्लिकन थे, तो माना जा रहा था कि उनका मताधिकार छीनने से डेमोक्रेटिक पार्टी का चुनावी प्रभुत्व दोबारा बहाल हो जाएगा।
मताधिकार पर बंदिशें लगाने में साउथ कैरोलिना सबसे आगे रहा, जिसकी बहुसंख्य आबादी कालों की थी। यहां 1882 में लाए गए “एट बॉक्स लॉ” (आठ बक्सों का कानून) ने ऐसा जटिल मतपत्र बना दिया कि निरक्षरों के लिए मतदान करना लगभग असंभव ही हो गया। चूंकि इस प्रांत में रहने वाले ज्यादातर काले लोग निरक्षर थे, तो स्वाभाविक रूप से काले मतदाताओं की मतदान दर अचानक नीचे आ गई। सात साल बाद इस प्रांत में चुनावी टैक्स और साक्षरता परीक्षा लागू की गई। इसके बाद कालों की मतदान दर- जो 1876 में 96 फीसदी तक पहुंच चुकी थी- 1898 में गिरकर 11 फीसदी पर आ गई। कालों को मताधिकार से वंचित किए जाने के इन तरीकों ने रिपब्लिकन पार्टी की कमर ऐसी तोड़ी कि प्रांतीय सरकार के दरवाजे करीब एक सदी तक रिपब्लिकन पार्टी के लिए बंद रहे।
टेनेसी में कालों के मताधिकार ने रिपब्लिकन पार्टी को इतना प्रतिस्पर्धी बना दिया था कि 1888 में डेमोक्रेट-समर्थक अखबार एवलान्च ने लिखा कि अगर कुछ ऐसा-वैसा नहीं किया गया, तो अगले चुनाव में “रिपब्लिकन पार्टी की एकतरफा जीत” होगी। अगले ही साल डेमोक्रेट प्रतिनिधियों ने चुनावी टैक्स लागू कर दिया, पंजीकरण की अहर्ताएं कठोर बना दीं और डोर्च कानून ला दिया, जिसके चलते मतपत्र इतना जटिल हो गए कि उन्हें भरने के लिए पढ़ा-लिखा होना जरूरी हो गया। 1890 में डेमोक्रेट पार्टी की एकतरफा जीत हुई, रिपब्लिकन भहरा गए। 1896 आते-आते काले मतदाताओं की मतदान दर यहां शून्य के करीब पहुंच गई।
अलाबामा ने भी मताधिकार पर बंदिशों का रास्ता अपनाया। प्रांत की प्रतिनिधि सभा ने जब कालों के वोट बाधित करने का एक बिल मंजूर किया, तब गवर्नर थॉमस जोन्स ने कथित रूप से कहा था, “इससे पहले कि मेरे हाथ को फालिज मार जाए, मुझे जल्दी से इस बिल पर दस्तखत कर लेने दो क्योंकि यह हमेशा के लिए [लोकप्रियतावादियों]…. और नीगरों का सफाया करने जा रहा है।” बिलकुल यही कहानी आरकंसास, फ्लोरिडा, जॉर्जिया, लुइसियाना, मिसिसिपी, नॉर्थ कैरोलिना, टेक्सस और वर्जीनिया में भी दुहराई गई।
इन कथित “सुधारात्मक” उपायों ने अमेरिका के दक्षिणी हिस्से में लोकतंत्र की वास्तव में हत्या कर दी। कई प्रांतों की आबादी में अफ्रीकी-अमेरिकियों की बहुसंख्या या उसके आसपास थी, यहां तक कि संविधान में अब काले लोगों को मताधिकार का प्रावधान भी शामिल था, बावजूद इसके “कानूनी” या न्यूट्रल जान पड़ने वाले उपाय यह सुनिश्चित करने में इस्तेमाल किए गए कि दक्षिण के मतदाता करीब-करीब सभी गोरे लोग ही रहें। इस तरह दक्षिणी प्रांतों में कालों की मतदान दर, जो 1880 में 61 फीसदी थी, 1912 में गिरकर 2 फीसदी पर आ गई। अफ्रीकी-अमेरिकी लोगों के मताधिकार को बाधित किए जाने ने रिपब्लिकन पार्टी का सफाया कर डाला। इसने अगली करीब एक सदी तक डेमोक्रेटिक पार्टी के एकदलीय शासन तथा गोरे प्रभुत्व को स्थायी बना दिया।
चूंकि दक्षिण के डेमोक्रेट धड़ों की रूढि़वादी रिपब्लिकनों के साथ वैचारिक निकटता थी, तो इसने दलीय ध्रुवीकरण को बेशक कम किया, हालांकि यह एक बड़ी कीमत पर हुआ- नागरिक अधिकारों को राजनीतिक एजेंडे से बाहर रखने की आपसी सहमति के आधार पर। इसने अमेरिका को कभी भी पूरी तरह से लोकतांत्रिक नहीं बनने दिया। यानी, अमेरिका के लोकतांत्रिक मानक मूलत: अलगाव के परिप्रेक्ष्य में पैदा हुए थे। इसलिए जब तक राजनीतिक समुदाय मोटे तौर पर गोरों तक सीमित रहा, डेमोक्रेटिक और रिपब्लिकन पार्टी के बीच ज्यादा अंतर नहीं रहा। किसी भी दल ने दूसरे को अपने वजूद के लिए खतरा नहीं माना।
दलीय संरचना में बदलाव का दौर
बीसवीं सदी के ज्यादा वक्त अमेरिका के दोनों राजनीतिक दल विशाल विचारधारात्मक तम्बू के जैसे हुआ करते थे। इन तम्बुओं के भीतर विविध किस्म के लोग रहते थे जिनके राजनीतिक खयालों का दायरा बहुत चौड़ा था। मसलन, डेमोक्रेटिक पार्टी के दायरे में न्यू डील कार्यक्रम के समर्थक उदारपंथियों, संगठित श्रमिक संगठनों, दूसरी और तीसरी पीढ़ी के कैथोलिक प्रवासियों, अफ्रीकी अमेरिकियों आदि का एक गठजोड़ होता था लेकिन यह पार्टी दक्षिणी प्रांतों के रूढि़वादी गोरों की नुमाइंदगी भी करती थी। उधर रिपब्लिकन पार्टी में उत्तर-पूर्व के उदारपंथियों से लेकर मध्य-पश्चिम और पश्चिम के संरक्षणवादियों का चौड़ा दायरा शामिल था। ईसाई धर्म के प्रचारक दोनों ही दलों में हुआ करते थे, हालांकि डेमोक्रेट की तरफ उनका पलड़ा थोड़ा भारी था। यानी, दोनों में से किसी भी दल को आप नास्तिक नहीं कह सकते थे।
चूंकि दोनों दल अपनी संरचना में ही परस्पर विविधतापूर्ण थे, उनके बीच आज के मुकाबले ध्रुवीकरण बहुत कम होता था। संसद के भीतर डेमोक्रेट और रिपब्लिकन नेता टैक्स, व्यय, सरकारी नियमन, यूनियन, आदि मुद्दों पर बेशक बंटे होते थे लेकिन नस्ल के विस्फोटक मसले पर दोनों दलों की राजनीति एक जैसी थी। दोनों ही दलों में नागरिक अधिकारों का समर्थन करने वाले धड़े शामिल थे, लेकिन दक्षिण के डेमोक्रेट द्वारा इस मसले का विरोध और कांग्रेस की कमेटी प्रणाली के ऊपर उसका नियंत्रण इस एजेंडे को ही दरकिनार रखता था। यही आंतरिक विविधता टकरावों को हल करने में काम आती थी।
एक दूसरे को अपना दुश्मन मानने के बजाय दोनों दलों को अकसर समझौते की एक साझा जमीन मिल ही जाती थी। इसीलिए अकसर उदारवादी डेमोक्रेट और रिपब्लिकन नागरिक अधिकारों के सरोकर को मजबूत करने के लिए कांग्रेस के भीतर एक साथ मिलकर वोट करते, तो दक्षिण के डेमोक्रेट और उत्तर के दक्षिणपंथी रिपब्लिकन उसे रोकने के लिए आपस में मिलकर एक ‘’संरक्षणवादी गठजोड़’’ की तरह काम करते थे।
दूसरे विश्व युद्ध के बाद नस्ली समावेश की जो प्रक्रिया अमेरिका में चली, उसने अमेरिका के संपूर्ण लोकतांत्रीकरण के साथ एक नए किस्म का दलीय ध्रुवीकरण पैदा किया। नागरिक अधिकार आंदोलन ने दोनों दलों के बीच की इस परस्परता को खत्म कर दिया, जब 1964 में नागरिक अधिकार कानून और 1965 में मताधिकार कानून आया। इसने लंबे संघर्ष के बाद काले लोगों को मताधिकार देकर और एक पार्टी का राज समाप्त कर के दक्षिण का न सिर्फ लोकतांत्रीकरण किया, बल्कि दोनों दलों के बीच के परंपरागत रिश्तों को नए ढंग से संयोजित भी किया, जिसके परिणाम आज हमें देखने को मिल रहे हैं।
नागरिक अधिकार कानून, 1964 ही वह धुरी है जिसने डेमोक्रेटिक पार्टी को नागरिक अधिकारों वाली पार्टी और रिपब्लिकन को नस्ली यथास्थितिवाद की पोषक पार्टी के रूप में परिभाषित करने का काम किया। इस पालेबाजी का नतीजा हुआ कि आने वाले दशकों में दक्षिण के गोरे बहुत तेजी से रिपब्लिकन हो गए। सदी के अंत तक स्थिति यह हो गई कि जो क्षेत्र बरसों से डेमोक्रेटिक पार्टी का गढ़ रहा था वहां रिपब्लिकन पार्टी का कब्जा हो गया। ठीक इसी के समानांतर दक्षिण के काले मतदाता बहुत तेजी से डेमोक्रेटिक पार्टी की ओर भागे, जिन्हें एक सदी बाद वोट करने का अधिकार मिला था। उसी तरह उत्तरी प्रांतों के कई परंपरागत रिपब्लिकन मतदाता जो नागरिक अधिकारों के समर्थक थे, डेमोक्रेट हो गए। दक्षिण की रिपब्लिकन करवट ने उत्तर-पूर्व को डेमोक्रेट बना दिया।
1965 के बाद घटे इस उलटफेर ने मतदाताओं को विचारधारात्मक स्तर पर छांटने की एक प्रक्रिया को जन्म दिया। करीब एक सदी में पहली बार दलीय राजनीति और विचारधारा आपस में एक हो गई थी- रिपब्लिकन पार्टी मूलत: जड़तावादी और डेमोक्रेटिक पार्टी मुख्यत: उदारवादी हो गई। सन 2000 के दशक तक आते-आते दोनों दल विशाल वैचारिक तम्बू की तरह नहीं बचे। संरक्षणवादी डेमोक्रेट और उदारवादी रिपब्लिकन का लोप होते ही दोनों दलों के बीच की साझा जमीन भी गायब हो गई।
इसके बावजूद, अमेरिकी मतदाताओं की उदार डेमोक्रेट और संरक्षणवादी रिपब्लिकन में छंटाई दलीय वैर को समझने में अकेले पर्याप्त नहीं है। न ही यह इस बात को साफ करती है कि यह ध्रुवीकरण इतना गैर-बराबर क्यों हुआ है, कि रिपब्लिकन पार्टी ने तो दक्षिणपंथ की ओर बहुत तेजी से करवट ली लेकिन डेमोक्रेट उतनी तेजी से वामपंथी नहीं हो सके। एक और बात यह है कि विचारधारात्मक विभाजन पर बने दल अनिवार्यत: ऐसा ‘’भय और नफरत’’ पैदा नहीं करते जो परस्पर उदारता को निगल जाए और नेता अपने प्रतिद्वंद्वी की वैधता पर ही सवाल उठाने लग जाएं। ब्रिटेन, जर्मनी और स्वीडन में भी मतदाता विचारधारात्मक स्तर पर बंटे हुए हैं, लेकिन इनमें से कहीं भी वैसी दलीय नफरत देखने को नहीं मिलती जितनी अमेरिका में है।
अमेरिका की जातीय विविधता केवल काले मतदाताओं तक सीमित नहीं थी। साठ के दशक की शुरुआत में अमेरिका में प्रवासियों की बड़ी लहर देखने में आई। पहले लैटिन अमेरिका से लोग आए, फिर एशिया से लोग अमेरिका में आए। इसने देश के जनसांख्यिकीय नक्शे को गजब का बदला है। अमेरिकी आबादी में 1950 में बमुश्किल 10 फीसदी अश्वेत लोग हुआ करते थे। 2014 तक इनकी दर 38 फीसदी हो गई। अमेरिकी जनगणना ब्यूरो का अनुमान है कि 2044 तक अश्वेत आबादी बहुसंख्यक हो जाएगी।
काले लोगों को मिले मताधिकार के साथ इस प्रवासन ने मिलकर अमेरिका के राजनीतिक दलों को बदला है। जो नए मतदाता बने, उन्होंने असमान रूप से डेमोक्रेटिक पार्टी को अपना समर्थन दिया। पचास के दशक में डेमोक्रेटिक पार्टी के अश्वेत मतदाताओं की संख्या 7 फीसदी थी। यह 2012 में 44 फीसदी तक जा पहुंची। इसके उलट, रिपब्लिकन मतदाताओं में 2000 के दशक तक नब्बे फीसदी के आसपास गोरे ही रहे। यानी, डेमोक्रेटिक पार्टी लगातार जातीय अल्पसंख्यकों की पार्टी बनती गई जबकि रिपब्लिकन अब भी मोटामोटी गोरों की ही पार्टी बनी हुई है। इसके अलावा, रिपब्लिकन पार्टी ईसाई धार्मिक प्रचारकों की पार्टी भी बन चुकी है।
ईसाई धर्म प्रचारक बड़े पैमाने पर 1970 के दशक में राजनीति में आए। उनकी राजनीतिक प्रेरणा का बड़ा स्रोत 1973 में सुप्रीम कोर्ट का रो बनाम वेड के मुकदमे में दिया एक फैसला था जो गर्भपात को कानूनी बनाता था। 1980 में रोनाल्ड रीगन के राज से रिपब्लिकन पार्टी ने ईसाई अधिकारों को अपना मुद्दा बनाया और लगातार धार्मिक मतों की ओर वह झुकती चली गई, जिनमें गर्भपात का विरोध, स्कूली प्रार्थना का समर्थन और बाद में समलैंगिक विवाहों का विरोध शामिल रहा। गोरे धर्म प्रचारक साठ के दशक में डेमोक्रेट झुकाव वाले हुआ करते थे लेकिन उन्होंने अब धीरे-धीरे रिपब्लिकन पार्टी को वोट देना शुरू कर दिया। 2016 में 76 फीसदी गोरे धर्म प्रचारकों ने खुद को रिपब्लिकन वोटर बताया था। इसके उलट, डेमोक्रेट मतदाता लगातार सेकुलर होते गए। नियति रूप से चर्च जाने वाले डेमोक्रेट समर्थक गोरे लोगों की संख्या जो 1960 के दशक में 50 फीसदी हुआ करती थी, 2000 के दशक में 30 फीसदी के नीचे आ गई।
यह एक असाधारण बदलाव था। राजनीतिविज्ञानी ऐलन अब्रामोवित्ज बताते हैं कि 1950 के दशक में अमेरिकी मतदाताओं के बीच विवाहित गोरे ईसाइयों की संख्या करीब 80 फीसदी थी और वे दोनों दलों में मोटामोटी बराबर बंटे हुए थे। सन 2000 के दशक में विवाहित गोरे ईसाई कुल मतदाताओं का बमुश्किल 40 फीसदी रह गए और ये सब रिपब्लिकन पार्टी के पाले में सिमट आए थे। दूसरे शब्दों में कहें, तो दोनों दल अब नस्ल और धर्म के आधार पर बंट चुके थे।
पहचान की राजनीति तक
बीती एक-चौथाई सदी के दौरान डेमोक्रेट और रिपब्लिकन केवल दो प्रतिस्पर्धी राजनीति दल भर नहीं रह गए हैं बल्कि उससे कहीं आगे बढ़कर वे उदार और जड़ खेमों में बदल चुके हैं। इनके मतदाता अब नस्ल, मजहबी आस्था, भूगोल और यहां तक कि जीवनशैली की विभाजक रेखाओं के आर-पार बहुत गहरे बंट चुके हैं।
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अमेरिका से लेकर भारत तक अपने नेता के साये में जॉम्बी बनते राजनीतिक दल
1960 में कुछ राजनीतिविज्ञानियों ने अमेरिकियों से पूछा था कि अगर उनका बच्चा किसी दूसरे राजनीतिक दल के समर्थक से शादी कर ले तो उन्हें कैसा महसूस होगा। इस सवाल के जवाब में चार फीसदी डेमोक्रेट और पांच फीसदी रिपब्लिकनों ने कहा था कि उन्हें ‘‘बुरा लगेगा’’। इसके उलट, 2010 में अंतर्दलीय विवाह के सवाल पर 33 फीसदी डेमोक्रेट और 49 फीसदी रिपब्लिकन समर्थकों ने कहा कि उन्हें ‘’थोड़ा बहुत या बहुत ज्यादा बुरा लगेगा’’। यानी, डेमोक्रेट या रिपब्लिकन होना अब महज एक राजनीतिक पार्टी से सम्बद्धता का मामला नहीं रह गया है, बल्कि पहचान बन चुका है।
प्यू फाउंडेशन ने 2016 में एक सर्वेक्षण किया और पाया कि 49 फीसदी रिपब्लिकन और 55 फीसदी डेमोक्रेट समर्थकों का कहना था कि उन्हें दूसरी पार्टी से ‘’डर’’ लगता है। राजनीतिक रूप से सक्रिय अमेरिकियों के बीच यह संख्या और ज्यादा है- 70 फीसदी डेमोक्रेट और 62 फीसदी रिपब्लिकन मानते हैं कि वे दूसरी पार्टी के भय के साये में जीते हैं। ये सर्वेक्षण अमेरिकी राजनीतिक में एक खतरनाक परिघटना के उभार का संकेत देते हैं।
यह लेख स्टीवेन लेवित्सकी और डेनियल जिब्लाट की लिखी किताब हाउ डेमोक्रेसीज़ डाई के चुनिंदा अंशों का संकलन है। यह किताब राजकमल प्रकाशन से हिन्दी में शीघ्र प्रकाश्य है। अनुवाद, सम्पादन और संकलन अभिषेक श्रीवास्तव ने किया है।