ऐसा कैसे हो सकता है? बीते मंगलवार (5 नवंबर) से मेरा फोन लगातार घनघना रहा है और लोग मैसेज भेजकर यही सवाल बार-बार पूछे जा रहे हैं (क्योंकि मेरे कुछ दोस्त, सहकर्मी और परिचित लोग इस बात से वाकिफ थे कि मैं पक्का मानकर चल रहा था कि डोनाल्ड ट्रम्प इस चुनाव में आसानी से जीत जाएंगे)। हर एक मैसेज का विस्तार से सबको अलग-अलग जवाब देने से बढि़या है कि मैं एक जगह यहीं पर इसे समझा दूं।
बीते 2300 वर्षों से, या कम से कम प्लेटो के रिपब्लिक लिखने के बाद से ही दार्शनिक इस ज्ञान से परिचित रहे हैं कि दबंग और उत्पीड़क प्रवृत्ति वाले लोग लोकतांत्रिक चुनावों में कैसे जीतते हैं। यह बिलकुल सीधा सा मामला है, बस अभी हमारे सामने घटा भर है।
लोकतंत्र में चुनाव लड़ने के लिए कोई भी आजाद है। वे लोग भी, जो नेतृत्व करने या सरकारी संस्थाओं पर राज करने के लायक बिलकुल नहीं होते। इस नालायकियत की एक सीधी सी निशानी होती है बिना किसी की परवाह किए मुंह पर झूठ बोलने की सलाहियत- खासकर यह नाटक करते हुए कि ऐसा करते हुए वह जनता की धारणा में बसे बाहरी और अंदरूनी दुश्मनों से उसकी रक्षा कर रहा है। प्लेटो सामान्य लोगों को भावनाओं से सहज संचालित मानते थे। इसीलिए सामान्य लोग ऐसे संदेशों के चक्कर में आसानी से फंस जाते हैं। यह दलील लोकतांत्रिक राजनीति के दर्शन की सच्ची बुनियाद है (जैसा कि मैंने अपनी पिछली किताब में बताया भी है)।
दार्शनिक लोग यह भी जानते हैं कि इस किस्म की राजनीति हमेशा कामयाब हो ऐसा जरूरी नहीं है। जैसा कि ज्यां-जॉक रूसो ने कहा था, लोकतंत्र तब सबसे नाजुक स्थिति में होता है जब किसी समाज में गैर-बराबरी बहुत गहरी हो जाती है और जरूरत से ज्यादा एकदम साफ दिखाई देने लगती है। गहरी सामाजिक और आर्थिक असमानताएं दबंगों के लिए ऐसी परिस्थिति पैदा कर देती हैं कि वह लोगों के असंतोष का आसानी से शिकार कर सकता है। इस तरह प्लेटो के कहे मुताबिक, लोकतंत्र का पतन हो जाता है। इसीलिए रूसो ने निष्कर्ष दिया था कि लोकतंत्र के लिए व्यापक बराबरी की दरकार है। केवल तभी लोगों के असंतोषों का इतनी आसानी से दोहन नहीं किया जा सकेगा।
मैंने अपनी किताब में बहुत महीन तरीके से यह समझाने की कोशिश की है कि जो लोग (भौतिक या सामाजिक स्तर पर) अपमानित महसूस करते हैं वे क्यों और कैसे कुछ बीमारियों की चपेट में आ जाते हैं, जैसे नस्लवाद, समलैंगिकों के प्रति घृणा, स्त्री-द्वेष, जातीय राष्ट्रवाद, और धार्मिक पाखंड, आदि। अगर वे अपेक्षाकृत अधिक सामाजिक बराबरी वाले हालात में जी रहे होते तो इन बीमारियों को स्वीकार नहीं, खारिज कर देते।
एक स्वस्थ और स्थिर लोकतंत्र के लिए जो भौतिक परिस्थितियां होनी चाहिए, अमेरिका आज उन्हीं की कमी से गुजर रहा है। अमेरिका को परिभाषित करने वाली यदि कोई चीज है तो वह है धन-संपदा की भयंकर असमानता। यह एक ऐसी परिघटना है जो सामाजिक संबंधों को कमजोर करती है और द्वेष को पैदा करती है। लोकतांत्रिक राजनीति का 2300 साल पुराना दर्शन जब यह कह रहा हो कि ऐसी परिस्थिति में लोकतंत्र टिक ही नहीं सकता, तो किसी को भी 2024 के चुनाव के परिणाम से चौंकने की जरूरत नहीं होनी चाहिए।
लेकिन एक बात जरूर पूछी जा सकती है, कि अब तक अमेरिका में ऐसा क्यों नहीं हुआ? इसका मुख्य कारण यह है कि यहां के नेताओं के बीच एक अलिखित समझौता रहा है कि असाधारण रूप से विभाजनकारी और हिंसक राजनीति उन्हें नहीं करनी है। 2008 का चुनाव याद करिए। रिपब्लिकन प्रत्याशी जॉन मैक्केन चाहते तो बड़ी आसानी से बराक ओबामा की पैदाइश के बारे में फैलाई गई नस्ली अफवाहों और षडयंत्रकारी अफसानों के चक्कर में फंस सकते थे लेकिन उन्होंने वह रास्ता लेने से इनकार कर दिया। उनकी एक समर्थक ने जब उनसे कहा कि डेमोक्रेटिक प्रत्याशी ओबामा विदेश में पैदा हुए एक ‘’अरब’’ हैं, तो पलट कर मैक्केन ने उसे दुरुस्त किया। मैक्केन भले हार गए, लेकिन उन्हें उनकी अखंडता के लिए याद किया जाता है।
यह सच है कि अमेरिकी नेता चुनाव जीतने के लिए नियमित रूप से नस्लवाद और समलैंगिकों के खिलाफ द्वेष का बहुत महीन ढंग से इस्तेमाल करते रहे हैं, लेकिन ऐसी राजनीति खुलकर नहीं करने का एक अघोषित समझौता ही उन्हें मुखर होने से रोकता था। वे खुलेआम नस्लवादी अपीलें नहीं कर पाते थे। राजनीतिक सिद्धांतकार टाली मेडलबर्ग इसे समानता की कसौटी (नॉर्म ऑफ इक्वालिटी) कहते हैं। इसीलिए नेताओं को छुपे हुए संदेशों, संकेतों और पहचान आधारित रूढि़यों का सहारा लेना पड़ता था (जैसे, शहर के निचले इलाकों में व्याप्त अपराध और कामचोरी)।
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जब गैर-बराबरी बहुत गहरी हो जाती है, तो ये छुपे हुए कूट संकेतों वाली राजनीति उतनी असरदार नहीं रह जाती। फिर खुलकर की जाने वाली अपीलें ज्यादा असरदार होती हैं। ट्रम्प ने 2016 से यही किया है। उन्होंने वह अलिखित समझौता तोड़ दिया है। उन्होंने अवैध प्रवासियों को कीड़ा-मकोड़ा और अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों को ‘’आंतरिक दुश्मन’’ करार दिया। ‘’हम बनाम वे’’ वाली इतनी नंगी राजनीति बहुत मारक हो सकती है, और दार्शनिक हमेशा से यह बात जानते रहे हैं।
यानी, लोकतांत्रिक राजनीतिक दर्शन ट्रम्प परिघटना के अपने विश्लेषण में सही साबित हुआ है। ज्यादा त्रासद यह है कि आगे जो होने वाला है, इस पर भी उसका आकलन एकदम साफ है। प्लेटो की मानें, तो जो व्यक्ति इस किस्म से प्रचार करता है वह एक उत्पीड़क की तरह ही राज करेगा।
हम मान सकते हैं कि ट्रम्प ने अपने इस चुनाव प्रचार और पिछले कार्यकाल में जो कुछ भी कहा और किया, वह सब कुछ प्लेटो को एक बार फिर से सही ठहराएगा। सरकार की हर शाखा पर रिपब्लिकन पार्टी का प्रभुत्व अमेरिका को एकदलीय राज्य में तब्दील कर देगा। हो सकता है कि भविष्य कुछ दूसरे लोगों को भी सत्ता की होड़ में आने के अवसर दे, लेकिन आगे जितनी भी सियासी स्पर्धाएं होंगी उन्हें स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव नहीं कहा जा सकेगा।
कॉपीराइट: प्रोजेक्ट सिंडिकेट, 2024