मुझे लग रहा है गणित वालों ने कोरोना के बहाने दुनिया से हिसाब चुकता कर लिया है. वह तो मज़े से अपने बंद कमरे में दुनिया के कोने-कोने में बैठे मौज ले रहे होंगे. कहीं संगीत सुनते, तो कहीं सिगरेट फूंकते, आज भी उतनी ही शिद्दत से दिन-रात किसी समीकरण की उठा-पटक में उलझे होंगे.
स्टोर रूम में वर्षों से बेकार पड़े कन्टिनजेन्सी के पैसे से खरीदी स्टेशनरी का इस्तेमाल किसी अल्गोरिथम के रिजल्ट तक पहुंचने के लिए कर रहे होंगे. अश्वत्थामा का धैर्य ही उनकी कसौटी है. उन्हें लगता है कि सृष्टि के अंत तक वे इसी खुमारी में रहेंगे. अपने रियाज़ में आज के लिए नया, यह संग-रोध उनकी दिनचर्या का हिस्सा रहा है. उन्होंने आज बंद कमरे की अपनी ज़िंदगी पूरी दुनिया पर नाजिल कर दी है.
सीधे कह दिया भाई देख लो या तो सबको टीका लगाओ नहीं तो स्पर्श-अनुपात को कम रखो. इन्हें पता है टीका तो आज न कल यह ढूंढ ही लेंगे, तब तक गणित का जादू है जो चल रहा है. ऐसा हल्ला मचाया कि सब त्राहिमाम! त्राहिमाम! कर स्पर्श-अनुपात को कम करने के चक्कर में सोशल डिस्टेंसिंग का पालन कर रहे हैं.
जिन एप्लाइड मैथमेटीशियन को मैथ वाले कमतर मानते थे और कहा करते थे कि यह भी कोई मैथ जानते हैं जी! उनकी आज दुनिया भर में पूछ हो रही है. हर तरफ मैथेमेटिकल मॉडलिंग का शोर है. दुनिया विश्वयुद्ध के बाद पहली बार इस तरह से गणित के सामने दण्डवत हुई है.
इन पूर्वज गणितज्ञों के मॉडल की मानें तो ग्रहणशील (Susceptible) ,संक्रमित (Infected), आरोग्य प्राप्त या मरे हुए (Recovered) के तिलिस्म में दुनिया कैद है. ज़्यादा तनाव ही नहीं है क्योंकि यह पूरी जनसंख्या को अचर मानते हैं. मतलब कोई मर गया या संक्रमण से स्वस्थ हो गया तो उधर से घट इधर जुड़ गया मतलब यह एक शून्य योग का खेल है. घाटा नक्को रंग चोखा. आदमी थोड़े है, इधर बस सब इस मॉडल में संख्या है.
ऐसा नहीं कि यह विचार आज आये हैं. यह सब तंत्र-यंत्र पहले से ही थे पर कोई इन्हें पूछता नहीं था. ज़माने से बस यह मॉडल गणित के शोध पत्रों की शान हुआ करते थे.
इस एसआईआर (SIR) मॉडल को प्रोपोज़ करने वाले दोनों सज्जन करमैक और मैकेण्डरिक दशकों पहले अपनी-अपनी कब्र में सो गए हैं लेकिन उनका दिया हुआ मॉडल मनुष्यता के लिए आज सबसे बड़ी लड़ाई लड़ रहा है.
यह काम होता है रिसर्चर का जिन्हें हम वक्त रहते कभी नहीं समझ पाते हैं. घर से समाज तक, जिन्हें हमेशा प्रताड़ित करते रहता है. जल्दी कमाऊ, जल्दी बिकाऊ दुनिया में शीत युद्ध के बाद मैथमेटीशियन के लिए जगह कम होती गयी. वह ज़माना था जब लोगों में रिसर्च को लेकर जुनून और अपने काम को लेकर निष्ठा थी.
समय को देखिए प्रथम विश्वयुद्ध हो गया है. प्लेग जैसी महामारी ने दुनिया को तबाह कर दिया है. दूसरा विश्वयुद्ध सामने है लेकिन ये दोनों वैज्ञानिक अपनी धुन में काम कर रहे थे. उन्हें ज़रा भी भनक रही होगी कि उनका यह आइडिया एक दिन बड़े-बड़े देशों को लॉकडाउन के लिए मजबूर करेगा!
इन दोनों ने 1927, 1932 और 1933 में प्रकाशित अपने शोध पत्रों में इस मॉडल की ताकीद की थी. उसके कुछ सालों बाद यह मॉडल और ये शोध पत्र, कुछ अपवादों को छोड़ दें, तो लगभग भुला दिया गया. कहा गया कि इसका टेक्स्ट पढ़ना कठिन था लेकिन बायोलॉजिस्ट और एपिडेमिलोजिस्ट की ज़रूरत को देखते हुए बुलेटिन ऑफ मैथमेटिकल बायोलॉजी ने इसे 1991 में पुनः प्रकाशित किया.
उसके बाद इस रिसर्च पर आधारित कितने वैरिएंट मॉडल आए हैं जैसे (SEIR) आदि हैं जो लगातार जीवविज्ञानियों के काम आ रहे हैं, जैसा कि सांख्यिकी की दुनिया में एक प्रसिद्ध कोट है जो जॉर्ज बॉक्स के नाम से प्रचलित है कि “सारे मॉडल गलत हैं, लेकिन कुछ काम के हैं.” सामान्य आदमी ऊपर-ऊपर समझ सकता है, पर इसकी जटिलता को समझने के लिए लीनियर, नॉन-लीनियर डिफरेंशियल इक्वेशन का आधारभूत ज्ञान चाहिए.
मुझे यह जानने की जिज्ञासा है कि पिट्सबर्ग के अपने घर में मनुष्य के छल-कपट से ऊब, सेल्फ क्वारन्टीन में वर्षों से कैद ग्रेगरी पेरेलमैन अभी कैसा होगा! इन दिनों उसके मन में क्या चल रहा होगा! उसने जब कोरोना के कहर की ख़बर अपने पुराने खटारे कम्प्यूटर पर कभी रुकने तो कभी चलने वाले इंटरनेट की मदद से पढ़ी होगी, तो उसके मन में कौन सा ख़याल आया होगा!
क्या एक बार उसके मन में आया होगा कि फिर से गुणा-गणित की दुनिया में वापस लौटा जाय! एसआईआर मॉडल का कोई नया वैरिएंट तलाश कर. हलकान मनुष्यता की कुछ मदद की जाय. कोई समाधान ढूंढा जाय या फिर उसने कोई गाली उछाल, अपने गिटार पर कोई रूसी क्लासिक धुन छेड़ दी होगी!