बिहार : संघ-भाजपा की दाल यहां अकेले क्यों नहीं गल पाती है?

Nitish and Modi together on a hoarding
पिछले आम चुनाव में बिहार में एक को छोड़कर सारी सीटें जीतने वाले एनडीए के पास इस बार बहुत कुछ पाने को नहीं है, लेकिन गिरने की गुंजाइश बरकरार है। नरेंद्र मोदी की 12 मई को पटना में होने वाली भव्‍य रैली संभव है इस गिरावट को थाम ले, लेकिन सवाल है कि मोदी लहर और हिंदुत्‍व के चरम उभार के दौर में भी बिहार में भाजपा को गठबंधन का सहारा क्‍यों लेना पड़ रहा है? क्‍या चीज भाजपा के लिए बिहार को हिंदी पट्टी में अपवाद बनाए हुए है? और क्‍या अगले साल अपने दम पर बिहार में भाजपा सरकार बना सकेगी? राहुल कुमार गौरव की पड़ताल

विकास के मामले में पिछड़ा माने जाने वाले बिहार को आम धारणा में ‘धर्मनिरपेक्षता’ का गढ़ माना जाता है। यह कथित धर्मनिरपेक्षता जाति की जटिल राजनीति से निकलती है और उसी में समा जाती है। इसकी विडम्‍बना यह है कि 2019 के आम चुनाव में राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) यहां 40 में से 39 सीटें जीतने के बावजूद विशुद्ध भारतीय जनता पार्टी की सरकार कभी नहीं बनवा पाया। हिंदी पट्टी का यह इकलौता सूबा है जहां भाजपा न कभी सरकार बना पाई, न ही उसका मुख्‍यमंत्री बन सका। इस संदर्भ में जनवरी में आया भाजपा नेता गिरिराज सिंह का बयान और चुनाव प्रबंधक प्रशांत किशोर के हाल में आए बयान काफी अहम हो जाते हैं, जिनका इशारा अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में यहां भाजपा की सरकार बनने की तरफ है। 

गिरिराज ने तो कहा ही है कि 2025 में भाजपा बिहार में सरकार बनाएगी। प्रशांत किशोर की मानें, तो इस लोकसभा चुनाव के बाद नीतीश कुमार की जनता दल (युनाइटेड) का केवल ‘कंकाल बचा रह जाएगा जिसे भाजपा अपनी सुविधानुसार ढोएगी’। ये बातें इसलिए महत्‍वपूर्ण हैं क्‍योंकि सन 2000 से लेकर अब तक यानी करीब ढाई दशक के दौरान अलग-अलग दलों व गठबंधनों के चोले में सत्‍तासीन हुए नीतीश कुमार ही इकलौते शख्‍स हैं जिन्‍होंने नौ बार अपने नेतृत्‍व में मंत्रिमंडल बनाया है। वह भी उस दौर में, जब हिंदी पट्टी में भाजपा और राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ का उभार चरम तक हुआ, जबकि बिहार में यह दौर नीतीश के नाम रहा। इस दौरान भाजपा को उन्‍होंने उपमुख्‍यमंत्री के पद से ऊपर नहीं बढ़ने दिया। छोटे मोदी कहे जाने वाले सुशील मोदी से हुई यह शुरुआत भाजपा के तारकिशोर प्रसाद, रेणु देवी, वीके सिन्‍हा और सम्राट चौधरी तक अब भी चली आती है, लेकिन भाजपा की दाल यहां अकेले कभी नहीं गलती।    


The Hindi Heartland in BJP's Seat Total
हिन्दी प्रदेश में भाजपा की राजनीतिक स्थिति, स्रोत: The Diplomat

मंदिर आंदोलन के दौर में लालकृष्‍ण आडवाणी की रथयात्रा को रोककर धर्मनिरपेक्षता का राष्‍ट्रीय चेहरा बने लालू प्रसाद यादव की राजनीतिक विरासत जिस भी रूप में आज तक बिहार में कायम है, उसे सामान्‍य तौर से ‘सामाजिक न्‍याय’ की राजनीति कह कर संबोधित कर दिया जाता है। नीतीश भी उसी धारा से आते हैं, हालांकि भाजपा और राष्‍ट्रीय जनता दल (राजद) के बीच सहयोगी चुनने और पाला बदलने की उनकी कला ही भाजपा को अब तक बिहार में सत्‍ताच्‍युत रखने के पीछे ज्‍यादा जिम्‍मेदार रही है।

सवाल है कि हिंदुत्‍व के राष्‍ट्रीय उभार के बीते एक दशक में भाजपा के लिए गुजरात, यूपी या एमपी मॉडल की तरह बिहार का कोई मॉडल क्यों नहीं बन सका? अगर बिहार का ‘सेकुलरिज्‍म’ जातियों के जटिल खेल को साधने भर का नाम है तो भाजपा जाति की राजनीति पर टिके सूबों गुजरात या राजस्‍थान की तरह यहां यह कलाबाजी क्‍यों नहीं दिखा सकी? अगर जमीनी स्थितियां नहीं बदली हैं, तो प्रशांत किशोर इस बार के चुनाव परिणाम में नीतीश के कमजोर और भाजपा के मजबूत होने की बात किस आधार पर कर रहे हैं?

आज से बीस साल पहले 2004 के लोकसभा चुनाव में एनडीए ने बिहार में नौ सीटें जीती थीं, जिसमें भाजपा को पांच सीटें मिली थीं। पांच साल बाद 2009 के लोकसभा चुनाव में एनडीए 32 सीटों पर चुनाव जीती जिसमें भाजपा सिर्फ 12 सीटों पर जीती थी। मोदी की लहर के दौरान 2014 में एनडीए ने पिछली बार से एक सीट कम यानी 31 सीटें जीतीं लेकिन भाजपा दस अंक बढ़कर 22 पर पहुंच गई। 2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए ने बढ़त बनाते हुए 39 सीटों पर जीत हासिल की, वहीं भाजपा सभी 17 सीटों पर चुनाव जीत गई।

विधानसभा चुनावों की बात करें, तो अपनी स्‍थापना के ठीक बाद भाजपा को 1985 के बिहार विधानसभा चुनाव में 234 में से 16 सीटें मिली थीं। 1990 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 237 सीटों में से 39 सीटें हासिल हुईं; 1995 में भाजपा ने 315 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किए लेकिन सिर्फ 41 सीटें जीत पाई। 2000 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 168 में से 67 सीटें हासिल हुईं। 2005 में ऐसा पहली बार हुआ जब बिहार में एक ही साल के अंदर दो बार विधानसभा चुनाव कराने पड़े। पहली बार भाजपा 103 में से 37 सीटें लेकर आई, फिर भाजपा ने 102 में से 55 सीटें जीतीं। 2010 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने 102 में से 91 सीटें जीती थीं। इसी चुनाव में नीतीश मुख्‍यमंत्री का चेहरा बनकर उभरे थे। 2015 के विधानसभा चुनाव में भाजपा को 157 सीट में से 53 सीटें मिली थीं। ज्‍यादा सीटों पर लड़ने के बावजूद भाजपा को सीटें बहुत कम आईं क्‍योंकि इस चुनाव में वह जदयू से अलग होकर चुनाव लड़ी थी। 2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने बढ़त बनाई और 74 सीटें जीत लीं।

इन आंकड़ों को देखें, तो स्पष्ट पता चलता है कि भाजपा बिना किसी सहयोगी पार्टी के बिहार के असेंबली चुनाव में अच्छा प्रदर्शन नहीं कर पा रही है। यह ट्रेंड ऐतिहासिक कहा जा सकता है। लोकसभा चुनाव में भाजपा का प्रदर्शन बिहार में जितना बेहतर हो रहा है, उतना विधानसभा चुनाव में देखने को नहीं मिल रहा है।


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कई राजनीतिक दलों की नैरेटिव टीम में प्रोजेक्ट मैनेजर के तौर पर काम कर चुके पटना के रहने वाले परमवीर सिंह कहते हैं, “बिहार की राजनीति में भाजपा और राजद दो ध्रुव हैं, हालांकि नीतीश कुमार की पार्टी के बिना कोई भी पार्टी सत्ता तक नहीं पहुंच पा रही है। नीतीश की पार्टी का दूसरे पार्टी के साथ गठबंधन जरूरी है। 2009 और 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा और जदयू दोनों को फायदा मिला था। 2014 के लोकसभा चुनाव में जदयू को अकेले लड़ने का नुकसान हुआ।” इस चुनाव से पहले नीतीश कुमार एक बार फिर राजद को छोड़कर एनडीए के साथ आ गए। चूंकि एनडीए का पहले ही 39 सीटों पर कब्‍जा है, तो ज्‍यादा से ज्‍यादा एक सीट ही बढ़ने की गुंजाइश उसके पास है। सवाल है कि अगर एनडीए की सीटें घटीं, तो नुकसान भाजपा को होगा या नी‍तीश को?

पाटलिपुत्र यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर हेमंत कुमार झा बताते हैं, “2014 के चुनाव के बाद से ही भाजपा ने तमाम हिंदू संगठनों के माध्यम से पिछड़ा, अन्य पिछड़ा वर्ग और दलित समुदायों के बीच हिंदुत्व को एक मुद्दा बना दिया था। पिछड़ा वर्ग के खास जाति समूह के खिलाफ प्रचार करके सभी पिछड़ा, अतिपिछड़ा और दलित जातियों को उसने एक समूह में बांधने की कोशिश की है। भाजपा ने कम प्रतिनिधित्व वाले ओबीसी और दलित समूहों के नेताओं को पार्टी में पद दिया और इस बात का भरपूर प्रचार-प्रसार किया गया कि पिछड़े वर्ग की कुछ जातियां उन समूहों का हक खा रही हैं।‘’

इन्‍हीं समूहों का वोट पाने के चक्‍कर में भाजपा की केंद्र सरकार ने रोहिणी आयोग का गठन किया। मोदी सरकार ने 2017 में जस्टिस जी. रोहिणी की अध्यक्षता में चार सदस्यीय आयोग का गठन किया था। आयोग को इस बात का पता लगाना था कि 27 प्रतिशत आरक्षण का लाभ सभी पिछड़ी जातियों को समरूप ढंग से मिल रहा है या नहीं। रोहिणी कमीशन का मकसद था कि ओबीसी में अत्यंत पिछड़े वर्ग को भी आरक्षण का लाभ मिल सके।

बिहार में सिविल सेवा की तैयारी करवाने वाले शिक्षक रजनीश बताते हैं कि रोहिणी आयोग की रिपोर्ट अगर लागू हुई तो 27 प्रतिशत ओबीसी आरक्षण चार हिस्सों में बंट जाएगा क्‍योंकि रिपोर्ट के मुताबिक 25 प्रतिशत जातियों ने ओबीसी सीटों के 97 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा कर रखा है। इसका सबसे ज्यादा नुकसान यादव, बनिया और कुर्मी को होगा।

माना जा रहा था कि लोकसभा चुनाव से पहले केंद्र सरकार रोहिणी आयोग की रिपोर्ट को जारी कर देगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। अरिहंत पब्लिकेशन के लेखक संजय कुमार बताते हैं, “एक तरफ भाजपा रामकृपाल यादव, नंदकिशोर यादव और नित्यानंद राय जैसे यादव नेताओं का सहारा लेकर सीमांचल, मिथिलांचल और अन्य लोकसभा क्षेत्रों में यादवों को अपनी ओर करने की पूरी कोशिश करती है। इसकी मुख्य वजह है कि बिहार विधानसभा में हर चौथा विधायक यादव है। दूसरी तरफ यादवों के प्रति अन्य पिछड़ी एवं दलित जातियों के भीतर राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता जगाने की भी भाजपा कोशिश करती है। यादव को दबंग जाति घोषित करते रहना या बार-बार रोहिणी आयोग की रिपोर्ट का जिक्र करना इसी रणनीति का हिस्‍सा रहा है।

इससे भाजपा को दोहरा लाभ मिलता है। एक तो बिहार के सीमांचल, मिथिलांचल और कोसी क्षेत्र में यादव और मुस्लिम दोनों की संख्या अच्छी-खासी है। रजनीश के मुताबिक लोकसभा चुनाव में यादव समुदाय ठीकठाक संख्या में भाजपा को वोट देता रहा है। इसीलिए भाजपा इन इलाकों में खुलकर हिंदू बनाम मुस्लिम की राजनीति करती है।



इस दोहरी रणनीति के साथ भाजपा जातिगत जनगणना का विरोध भी करती है। बिहार में जिस समय जातिगत जनगणना हो रही थी, उस वक्त मध्य प्रदेश की एक चुनावी रैली में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भाषण के दौरान बोल रहे थे कि भारत को जाति के आधार पर विभाजित करने की कोशिश की जा रही है। उनका इशारा बिहार की ओर था। उसी समय बिहार भाजपा के नेता और केंद्रीय मंत्री गिरिराज सिंह ने जातिगत जनगणना पर कहा था कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ऐसा करके लोगों को गुमराह करने की कोशिश कर रहे हैं।

बिहार में भाजपा की उलझी हुई राजनीति को समझने के लिए हमें अनिवार्यत: उसकी मातृ संस्‍था आरएसएस के काम की ओर देखना होगा, जिस पर आम तौर से बिहार के संदर्भ में कहीं कोई बात नहीं होती है। इसके अलावा, बिहार में हिंदू मतदाता की जातिगत संरचना और उसके इतिहास पर भी जाना होगा। फॉलो-अप स्‍टोरीज ने इस मुद्दे पर पूरे सूबे में दर्जनों लोगों से बात कर के समझना चाहा कि आखिर बिहार हिंदुत्‍व की राजनीति में अब तक अपवाद कैसे बना हुआ है।

तैंतीस वर्षीय रजनीश कुमार सीमांचल स्थित कटिहार और अररिया जिले के कुछ स्थानों पर आरएसएस की गतिविधियों में सक्रिय रहते हैं। माखनलाल पत्रकारिता विश्वविद्यालय भोपाल से पत्रकारिता करने के बाद वे बिहार में आरएसएस के लिए प्रांत प्रचार विभाग टोली सदस्य के तौर पर काम कर रहे हैं। रजनीश बताते हैं, “मैंने उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में लगभग छह से आठ साल आरएसएस के लिए काम किया है। इन राज्यों में जिस तरह आरएसएस ऐक्टिव है उस तरह बिहार में नहीं है। बिहार के सीमांचल क्षेत्र के अलावा पटना, भागलपुर और बक्सर जैसे मुख्य शहरों छोड़ दिया जाए, तो आरएसएस काफी ऐक्टिव नजर नहीं आती।

उनके अनुसार 2014 के बाद संघ ने धीरे-धीरे ही सही, अपनी जमीन बिहार में भी बनाई है, लेकिन बिहार की कोई भी क्षेत्रीय पार्टी और खुद भाजपा के साथ लंबे समय से गठबंधन में रही जदयू भी नहीं चाहती कि यहां आरएसएस मजबूत हो।

शायद यही वजह है कि 2019 में भाजपा-जदयू गठबंधन के वक्त राज्य सरकार के गृह मंत्रालय ने आरएसएस और उससे जुड़े संगठनों और उसके अधिकारियों की जानकारी इकट्ठा करने का आदेश जारी किया था। स्पेशल ब्रांच द्वारा सभी क्षेत्रीय पुलिस मुख्‍यालयों को आदेश दिया गया था कि इन संगठनों के पदाधिकारियों के नाम, पते, फोन नंबर और पेशे की जानकारी एक सप्ताह के भीतर जमा किए जाएं। उस वक्‍त गृह मंत्रालय मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के पास ही था। इस जानकारी का बाद में क्‍या हुआ, कहीं कोई खबर नहीं है। 


Directions from Special Cell, Patna to investigate RSS and its affiliates
स्पेशल ब्रांच द्वारा सभी क्षेत्रीय पुलिस मुख्‍यालयों को आदेश

संघ से जुड़े विजय कुमार सिंह बताते हैं, “यहां आज भी जमीन ही तैयार की जा रही है। बिहार में जातियों के बीच की दूरी इतनी गहरी है कि यहां एक वक्त रणवीर और सनलाइट जैसी जातीय सेनाएं संघ से कहीं ज्यादा मजबूत नजर आती थीं। जब जातिगत गौरव मजबूत होगा, तो आरएसएस के मजबूत होने का सवाल ही नहीं उठता। उसी का नुकसान भाजपा को हो रहा है।‘’

विजय सिंह कहते हैं, “पूरे बिहार में अभी पिछड़ा, अतिपिछड़ा और दलित राजनीति हावी है। इन वर्गों में अधिकांश नेता जो भाजपा से जुड़े हुए हैं, उनका संघ से कोई संबंध नहीं है- चाहे वे उपमुख्यमंत्री सम्राट चौधरी, जनक राम, कृष्णानंद पासवान हों या छेदी पासवान। सभी नेता सिर्फ सत्ता के लिए भगवा झंडा उठाए हुए हैं। जब तक इन वर्गों में आरएसएस अपना नेता नहीं बनाएगा, भाजपा अकेले सत्ता के शीर्ष पर नहीं जा सकती। बिहार जैसे राज्य में संघ से जुड़े किसी सवर्ण नेता के बल पर सत्ताशीर्ष की कल्पना ही नहीं की जा सकती।

वे मानते हैं कि ‘’अगर संघ पिछड़े और दलितों के बीच जाकर अच्‍छा काम करे तो बिहार में भी मजबूत हो सकता है।” आरएसएस पर रिसर्च कर रहे दिल्ली यूनिवर्सिटी के छात्र सौरभ ममगई इतिहास के पन्‍नों को खंगाल कर विजय हसंह की बात को ही आगे बढ़ाते हैं, “बिहार में भूदान आंदोलन के वक्त संघ विनोबा भावे का पूरा समर्थन कर रहा था। संघ की वजह से ही बिहार में भूदान में बहुत जमीन मिली, हालांकि उसका लाभ पाने वाले पिछड़ों और दलितों ने भाजपा को मौका नहीं दिया। उसके बाद जनता पार्टी की सरकार में शामिल जनसंघ ने जगजीवन राम को प्रधानमंत्री बनाने की भी कोशिश की थी, लेकिन उसमें भी वह असफल रहा। फिर आडवाणी की रथयात्रा से की गई कोशिश पर लालू प्रसाद यादव ने पूर्ण विराम लगा दिया। उसके बाद नीतीश कुमार के साथ लगातार सरकार बनाने के बावजूद बिहार के कुछ इलाकों (सीमांचल, बेगूसराय, मिथिला) को छोड़ दें तो संघ खास प्रभाव नहीं बना सका है।

संघ के उत्तर-पूर्व क्षेत्र के कार्यवाह डॉ. मोहन सिंह के मुताबिक बिहार में लगभग 1200 स्थानों पर 1600 से ज्यादा शाखाएं लग रही हैं। इसके अलावा 569 स्थानों पर साप्ताहिक मिलन और 69 स्थानों पर संघ मंडली चलती है। उनके मुताबिक संघ द्वारा बिहार में 200 से अधिक स्थानों पर सेवा कार्य किए जा रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि प्रांत के अनुसार देखा जाए, तो उत्तर बिहार में 700 से ज्यादा स्थानों पर 950 शाखाएं और दक्षिण बिहार में 400 से ज्यादा स्थानों पर 680 शाखाएं लगती हैं।

बताया जाता है कि कोरोना के बाद बिहार में संघ की गतिविधियों और शाखाओं में कुछ तेजी आई थी। यही वह वक्‍त था जब अलग से संघ के बिहार प्रांत की वेबसाइट लॉन्‍च की गई थी, हालांकि उस पर अगस्‍त 2021 के बाद का कोई अपडेट नहीं है और वेबसाइट बैठी हुई है। संघ प्रमुख मोहन भागवत इस बीच बिहार के दौरे पर जाते रहे हैं। सबसे हालिया दौरा फरवरी के आखिरी सप्‍ताह और मार्च के पहले सप्‍ताह में चार दिन का था। उससे पहले दिसंबर 2023 में भी भागवत ने बिहार का दौरा किया था।



वरिष्ठ पत्रकार राजेश ठाकुर इस संदर्भ में कहते हैं, ‘’आने वाले वक्त में भाजपा में संघ की भूमिका और भी मजबूत होने की अपेक्षा है। मोहन भागवत भी बिहार लगातार आ रहे हैं। संघ से जुड़े विजय सिन्हा को उपमुख्यमंत्री बनाने में संघ का महत्वपूर्ण योगदान है। उसी तरह नंदकिशोर यादव को स्पीकर बनाने में संघ से जुड़े नित्यानंद राय की महत्वपूर्ण भूमिका है।‘’ इसके बावजूद संघ और भाजपा के पास कोई सर्वस्‍वीकृत चेहरा बिहार में नहीं है। बिहार के नामचीन ब्लॉगर और प्रोफेसर रहे रंजन ऋतुराज इस ओर ध्‍यान दिलाते हैं।

वे बताते हैं कि बिहार में भाजपा का कद बड़ा नहीं होने के पीछे केंद्रीय भाजपा यानी दिल्ली में बैठी भाजपा की टीम का बहुत बड़ा हाथ है। भाजपा के पास कोई बड़ा चेहरा बिहार में नहीं था और नहीं है। वे कहते हैं, ‘’हम लोगों को लगता है कि राजनीति सिर्फ जाति और धर्म के आधार पर होती है, हालांकि पार्टियों में क्षेत्र के आधार पर सबसे ज्यादा राजनीति होती है। बिहार और यूपी के नेताओं का कद बड़ा होना इस बात का संकेत देगा कि प्रधानमंत्री की कुर्सी यहीं से बनेगी। सम्राट चौधरी का कद जैसे ही बढ़ा उन्हें वित्त और वाणिज्य जैसा सुस्त मंत्रालय मिल गया। लोकसभा के टिकट बंटवारे में भी उनकी मर्जी नहीं चल रही है। एक योगी का बढ़ता कद ही दिल्लीवालों के लिए खतरा हो चुका है। ऐसे में बिहार से कोई उभरा तो काफी परेशानी हो जाएगी।

भाजपा या संघ का कोई बड़ा चेहरा भले बिहार में न हो, लेकिन संघ के दखल ने इतना तो तय कर ही दिया है कि चुनाव में कोई मुसलमान चुनकर न आए। पाटलिपुत्र विश्वविद्यालय के प्रोफेसर हेमंत कुमार झा बताते हैं, “आरएसएस के मजबूत होने का अर्थ भाजपा का मजबूत होना है। लिहाजा हिंदू बनाम मुस्लिम की राजनीति का प्रभाव बढ़ना भी है। ऐसा बिहार में धीरे-धीरे हो रहा है। 2020 के विधानसभा चुनाव में एनडीए की तरफ से एक भी मुस्लिम चेहरा चुनाव नहीं जीता था। मतलब पूरी तरह से मुस्लिम-विरोध की राजनीति हावी हो चुकी है।

2020 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने एक भी मुस्लिम उम्मीदवार को टिकट नहीं दिया था। वहीं जदयू के 11 मुस्लिम उम्मीदवार चुनाव हार गए थे। इस आम चुनाव में जहां एनडीए ने सिर्फ एक, वहीं इंडिया गठबंधन ने सिर्फ चार मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट दिया है जबकि जातिगत जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक़ राज्य में करीब 17.7 प्रतिशत मुस्लिम आबादी है। यानी प्रकारांतर से मुस्लिम-विरोध की राजनीति ने मुसलमानों की दावेदारी को 40 सीटों वाले राज्‍य में महज पांच पर लाकर छोड़ दिया है।

नीतीश कुमार के कहे, यह स्थिति सकारात्‍मक है, जैसा कि हाल ही ही में उन्‍होंने बयान दिया था कि राजद की सरकार में हिंदू और मुस्लिम की लड़ाई होती है लेकिन जब राज्य में एनडीए की सरकार रहती है तो कोई दंगा नहीं होता। नीतीश के इस टिप्पणी पर भूपेंद्र नारायण मंडल यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर शशि झा का मानना है कि यह बयान एक हद तक सच है।

वे कहते हैं, ‘’नीतीश कुमार ने 2005 से 2013 तक भाजपा के साथ सरकार चलाई, लेकिन उन्होंने कभी भी कानून व्यवस्था से समझौता नहीं किया। फिर 2014 एवं 2022 में नीतीश कुमार जब एनडीए से अलग हुए तब सांप्रदायिक घटनाओं में तेजी आई थी, लेकिन राज्य में राजद-जदयू की सरकार इस मुद्दे पर पूरी तरह ऐक्टिव थी क्योंकि वह जानती थी कि दंगा किस पार्टी को फायदा करेगा।‘’



झा बताते हैं कि मार्च 2023 में रामनवमी के वक्त सासाराम में सांप्रदायिक झड़प होने की सूचना सुनते ही गृहमंत्री अमित शाह के निर्धारित कार्यक्रम को प्रशासन ने रद्द कर दिया था। बिहार शरीफ में हुए दंगे को लेकर प्रशासन तुरंत सजग हो गया था और कुछ ही दिनों के भीतरी पूरे इलाके में शांति स्थापित कर दी गई थी।

मुसलमानों का राजनीति में घटता प्रतिनिधित्‍व और एनडीए सरकार के दौरान सांप्रदायिक झड़पों में कमी का दावा आंशिक रूप से सच हो सकता है, लेकिन बिहार के समाज को ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाना भी जरूरी है। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक अरुण त्रिपाठी कहते हैं, “बिहार के इतिहास से बिहार का धर्मनिरपेक्ष चरित्र थोड़ा मिलता-जुलता है। शूद्र जातियों की शासन-व्यवस्था मगध, मौर्य और गुप्त वंश के रूप में सबसे शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना बिहार में ही हुई थी। कम्युनिस्ट आंदोलन, समाजवादी आंदोलन और त्रिवेणी संघ आंदोलन भी बिहार में हुआ था। इस वजह से राम मंदिर आंदोलन का असर बिहार में उतना नहीं देखा गया जितना मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में देखा गया था।‘’

वंचित जातियों के ऐतिहासिक सह-अस्तित्‍व से निकलते बिहार के इस धर्मनिरपेक्ष चरित्र को समझने के लिए सुपौल का उदाहरण सटीक होगा।

सुपौल लोकसभा क्षेत्र का गठन 2008 के परिसीमन के बाद हुआ था। इस लोकसभा क्षेत्र में दो बार जदयू और एक बार राजद के सांसद रहे हैं। इसके बावजूद यहां दोनों दलों का एक अच्छा कार्यालय तक नहीं है जबकि भाजपा के पास एक आलीशान कार्यालय है। कांग्रेस का पुराना कार्यालय शहर के बीच में है।

सुपौल लोकसभा क्षेत्र में 15 प्रतिशत मुस्लिम और 85 प्रतिशत हिंदू है। हिंदुओं का समीकरण देखें तो 20 प्रतिशत यादव, 20 प्रतिशत दलित और 10 प्रतिशत सवर्ण हैं। बाकी 25 प्रतिशत पिछड़ी एवं अतिपिछड़ी जातियां हैं। हिंदू बहुसंख्यक सुपौल लोकसभा क्षेत्र में तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा अपना जनाधार नहीं बना सकी है। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब भाजपा, जदयू और राजद अलग-अलग चुनाव लड़े थे तब भाजपा का प्रत्‍याशी तीसरे स्थान पर रहा।

2014 के लोकसभा चुनाव में विजयी उम्मीदवार कांग्रेस की रंजीत रंजन को 332927 वोट हासिल हुए थे। नंबर दो पर रहे जदयू के दिलेश्वर कमैत जिन्हें 273255 वोट मिले। तीसरे स्थान पर रहे भाजपा के दलित उम्मीदवार कामेश्वर चौपाल को 249693 वोट मिले थे।


BJP office in Supaul, Bihar
सुपौल में भाजपा का भव्य कार्यालय

सुपौल जैसे लगभग दस से ज्यादा लोकसभा क्षेत्रों में हिंदू आबादी के बावजूद आज तक तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा अपना जनाधार क्‍यों नहीं बना सकी, इस पर बात करते हुए परमवीर सिंह बताते हैं कि लगभग एक साल पहले जब जदयू और राजद एक साथ थे, तब मधेपुरा, सुपौल, किशनगंज, अररिया, झंझारपुर, बांका, नालंदा, गया, सीतामढ़ी, मुंगेर, नवादा, सासाराम लोकसभा क्षेत्र में भाजपा को उम्मीदवार मिलना मुश्किल हो रहा था।

बिहार में जातिगत जनगणना और राजनीति पर काम कर चुके आइआइटियन आशीष आनंद बताते हैं कि वाल्मीकि नगर, पूर्वी चंपारण, पश्चिमी चंपारण, शिवहर, दरभंगा, सीतामढ़ी, मुजफ्फरपुर, वैशाली,  महाराजगंज, बेगूसराय, भागलपुर, पटना साहिब, पाटलिपुत्र, आरा, बक्सर और औरंगाबाद जैसी 16 सीटों पर भाजपा बिना किसी सहयोगी दल के चुनाव में टक्कर दे ही नहीं सकती है। यहां भी उसका जीतना तय नहीं है।

आशीष आनंद बताते हैं, “अभी सुपौल जैसी सामान्य सीट पर राजद ने चौपाल जाति के दलित उम्मीदवार को उतारा है। वहां ग्राउंड पर जाने के बाद पता चलता है कि चौपाल छोड़कर कोई भी दलित जाति उसको वोट नहीं दे रही है। चौपाल जाति भी 70 प्रतिशत ही दे रही है। बाकी 30 प्रतिशत खुलकर एनडीए का समर्थन कर रहे हैं।‘’

एनडीए का समर्थन करने वाला चौापाल जाति का छोटा हिस्‍सा वह है जो अपनी जाति के कामेश्वर चौपाल की ओर देखता है जिन्‍हें अयोध्या के राम मंदिर ट्रस्ट में शामिल किया गया है। इसलिए वे जाति नहीं, धर्म पर वोट करेंगे। आनंद के मुताबिक आसान भाषा में कहें, तो दलित समुदाय में शामिल जातियां दलित पहचान से ज्यादा खुद की जाति की पहचान के लिए राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं। इसमें मुख्य भूमिका छोटी पार्टियों की है।


Kameshwar Chaupal, a dalit trustee in Ram Mandir from Supaul
कामेश्वर चौपाल

मैथिली भाषा के लेखक आत्मेश्वर झा कहते हैं, “छोटी पार्टियों ने छोटी-छोटी जातियों के राजनीतिक वर्चस्व को बढ़ाया है। इसका असर जमीन पर भी देखने को मिलता है। सुपौल जिला की बिशनपुर पंचायत में 2018 में एक राजपूत समाज के दबंग ने मल्लाह जाति के गरीब व्यक्ति को मारा था। इसके बाद मुकेश साहनी सुपौल पहुंचकर आंदोलन किए थे। ऐसी घटनाएं बिहार में आम हैं। गरीब और शोषित लोगों का इस वजह से छोटी पार्टियों पर भरोसा जगा है। अभी सिर्फ मुकेश साहनी के आने के बाद अधिकांश मल्लाह समाज इंडिया गठबंधन को वोट दे रहा है।

आनंद कहते हैं, ‘’ये सवर्ण और बनिया बहुल सीटें हैं। सिर्फ जदयू और राजद एक हो जाएं तो बिहार में भाजपा अन्य छोटी पार्टियों की मदद से 20 सीट भी नहीं निकाल पाएगी। 2014 के लोकसभा चुनाव में राजद जदयू के अलग-अलग लड़ने से भाजपा को फायदा हो गया था। ऐसे समझिए कि 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को लगभग 30 और उसकी सहयोगी पार्टी को 6 प्रतिशत वोट मिला था। राजद को 21 प्रतिशत, जदयू को 16 प्रतिशत और कांग्रेस को 9 प्रतिशत वोट मिला था। कुल मिला लें तो यह 46 प्रतिशत बैठता है जबकि भाजपा और उसके सहयोगी दलों का वोट प्रति‍शत 36 के आसपास था।

उपर्युक्‍त रुझान के आलोक में देखें, तो समुदायों के कुछ पुराने जख्‍म ऐसे हैं जिनसे वोटिंग और राजनीतिक पसंद अब भी तय होती है। इसका एक उदाहरण बेलछी गांव है। बेलछी गांव में हुआ नरसंहार बिहार का पहला जातिगत नरसंहार था जिसमें 11 लोगों को जिंदा जला दिया गया था। मरने वालों में आठ पासवान और तीन सुनार थे। मारने वाले कुर्मी थे।

यहां आज भी गांव के पासवान समाज के कई लोग नीतीश कुमार को सिर्फ इसलिए सत्ता में नहीं बने रहने देना चाहते क्‍योंकि वे कुर्मी समुदाय से आते हैं। पासवान समाज के एक व्यक्ति नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, “नीतीश कुमार अगर सत्ता में रहे तो हमारे समाज का विकास नहीं होगा। चिराग पासवान को मुख्यमंत्री बनना चाहिए।

वहीं बेलछी गांव के ही दूसरे छोर पर रहने वाले मुसहर समुदाय के लोग नीतीश कुमार के विरोध में कुछ नहीं बोलते हैं। पासवान समाज की तरह मुसहर समाज राजनीति को लेकर उतना जागरूक भी नहीं दिखता। संभव है कि यह इस जाति पर केंद्रित राजनीतिक दल के न होने के कारण हो। ये लोग राजनीति में नरेंद्र मोदी, रामविलास पासवान (दिवंगत), नीतीश कुमार और लालू प्रसाद यादव को ही जानते है। मुसहरों में अधिकांश लोग नरेंद्र मोदी का ही समर्थन करते दिखे।


Belchhi village of Bihar that witnessed first caste massacre
बेलछी गांव में हुआ नरसंहार बिहार का पहला जातिगत नरसंहार था जिसमें 11 लोगों को जिंदा जला दिया गया था

बिहार में यह जाति की राजनीति की विशिष्‍टता है कि एक गांव में हुए दलितों के नरसंहार के कारण पासवान समाज तो नीतीश कुमार का विरोध करता है जबकि इसी गांव का मुसहर समाज उनका विरोध नहीं करता है।

सुपौल के स्थानीय पत्रकार विमलेंदु सिंह बताते हैं, “भाजपा के जिलाध्यक्ष दलित जाति से आते है। मुख्य नेताओं को देखा जाए तो सभी जाति के लोग शामिल है। इसके बावजूद यहां जदयू और राजद की जो पकड़ है, वह भाजपा की नहीं है। लोकसभा चुनाव में मोदी फैक्टर देखने को मिल भी जाता है, विधानसभा चुनाव में तो सिर्फ लालू बनाम नीतीश की राजनीति होती है। अतिपिछड़ा, पिछड़ा और दलित आज भी तीर निशाना को अपनी पार्टी मानते हैं।

इतनी गहराई से जातिगत हितों के हिसाब से बंटे समाज को हिंदुत्‍व की एक छतरी के नीचे आखिर भाजपा और संघ लाए भी तो कैसे?

बिहार में कुर्मी समुदाय के एक वामपंथी नेता नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि जाति की राजनीति और उनके बीच परस्‍पर संघर्ष की स्थिति भाजपा के हिंदुत्‍व की छतरी को तनने नहीं देती है। वे कहते हैं, ‘’निश्चित रूप से जातिगत संघर्ष, धार्मिक संघर्ष से कोई बेहतर चीज नहीं है, लेकिन जो है सो यही है। आप मान सकते हैं कि एक तरह की हिंसा दूसरे तरह की हिंसा को रोके रखती है। इसमें सेकुलरिज्‍म जैसा कुछ भी नहीं है। इसे सेकुलरिज्‍म कहना गलत होगा।‘’

भारत के संविधान में जिस ‘सेकुलरिज्‍म’ की परिकल्‍पना की गई है, उसमें अंतरधार्मिक प्रभुत्‍व और हिंसा के साथ-साथ धर्मों के भीतर भी जातिगत या लैंगिक प्रभुत्‍व और हिंसा का स्‍थान नहीं था। यानी अगर हिंदुओं की दो जातियों के बीच प्रभुत्‍व का संघर्ष है, तो वह भी सांप्रदायिकता ही कही जाएगी। समाज के सेकुलर होने की शर्त दोहरी है- एक धर्म के भीतर के तबकों के बीच सद्भाव और धर्मों के बीच सद्भाव। अफसोस की बात है कि बिहार में एक किस्‍म की सांप्रदायिकता को दूसरे किस्‍म की सांप्रदायिकता का विरोधी मान लिया जाता है।    

वरिष्ठ पत्रकार और लेखक नलिन वर्मा इसे समझाते हुए कहते हैं, “बिहार ने धार्मिक संघर्ष से ज्यादा जातिगत संघर्ष को देखा है। अन्य राज्यों में बिहार के जैसे जातिगत नरसंहार नहीं हुए हैं, वह भी सीधे अगड़ा बनाम पिछड़ा का जातिगत संघर्ष। यहां सौ से ज्यादा गांवों में नरसंहार हुए हैं। इसके अलावा, बिहार में उत्तर प्रदेश की तरह अयोध्या, मथुरा और काशी जैसे स्थल भी नहीं हैं जहां धार्मिक तुष्टिकरण को हवा दी जा सके।‘’

शायद यही कारण होगा कि 2024 के समूचे चुनाव अभियान में बिहार में धर्म के अलावा कई अन्‍य मुद्दों पर बात हो रही है। एनडीए के घटक दलों में भाजपा के नेताओं को छोड़ दिया जाए, तो खुद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार और अन्य नेता भी धर्म के मुद्दे पर खुलकर कुछ नहीं बोल रहे हैं। शायद यही वजह है कि जातिगत जनगणना करवाने में बिहार अव्‍वल रहा है और उसी का नतीजा था कि कांग्रेस जैसा वर्ग-समन्‍वय वाला दल भी अन्‍य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के बारे में बोलने लगा और जातिगत जनगणना के हक में उतर आया।

बिहार में राजद और जदयू तो पिछड़ी और दलित जातियों की एकता के सहारे बिहार में दशकों से राज कर ही रहे हैं, लेकिन पिछले कुछ वर्षों में कई अन्‍य जातियों की अपनी पार्टियां भी राजनीतिक रूप से बहुत मजबूत हुई हैं। इसका कुछ फायदा भाजपा को बेशक मिला है, मसलन हम, रालोसपा, वीआइपी, लोजपा और अन्य छोटी पार्टियों का प्रभाव बिहार चुनाव में अब प्रमुखता से देखने को मिलता है।


RLSP leader Upendra Kushwaha with Amit Shah
छोटे दलों का जोर: केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह के साथ रालोसपा के मुखिया उपेन्द्र कुशवाहा

बिहार की दलित बस्तियों में बच्चों को पढ़ाने वाले और छात्र आंदोलन में सक्रिय अंशु अनुराग बताते हैं, “अतिपिछड़ों और दलितों ने पिछड़े वर्ग से आने वाले लालू और नीतीश जैसे नेताओं का साथ देकर उन्हें सत्ता के शीर्ष पर बिठाए रखा, लेकिन जैसे छोटी-छोटी पार्टियां बिहार में तेजी से उभरीं, इन जातियों को अहसास होने लगा कि इनकी जाति भी सामाजिक और राजनीतिक रूप से मजबूत हो सकती है। फिर कई स्थानीय पार्टियां एक जाति को केंद्र में रखते हुए अपनी पार्टी को मजबूत करने लगीं। इसका असर यह हुआ कि राजद और जदयू कमजोर होती गईं। भाजपा को इसका फायदा मिलता है।

जन जागृति शक्ति संगठन के सचिव और नेशनल एलायंस ऑफ पीपुल्‍स मूवमेंट के सदस्य आशीष रंजन सीमांचल में लगातार दलितों और शोषितों के बीच काम कर रहे है। वे बताते हैं, “बिहार कम्युनिस्ट और सोशलिस्ट विचारधारा का गढ़ रहा है, हालांकि 2014 के बाद दलित जातियों के हिंदूकरण का पूरा प्रयास किया गया है। जैसे, वाल्मीकि जाति खुद को महर्षि वाल्मीकि के वंशज के रूप में अब देखने लगी है। मल्लाह को भगवान राम के दोस्त और भक्त के रूप में प्रचारित किया गया है। उसी तरह चमार जाति को राम के रैदास के रूप में प्रचारित किया जा रहा है। इसमें एनडीए के घटक दलों का मुख्य योगदान रहा है, जिसमें लोजपा, वीआइपी और हम मुख्य हैं जिन्‍हें दलित जातियों की पार्टी के तौर पर जाना जाता है।

सत्‍तर वर्षीय एक रिटायर्ड कृषि पदाधिकारी और मैथिली लेखक बताते हैं, “नब्‍बे के दशक से पहले जिस तरह बिहार में भूराबाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण और लाला) का विरोध हो रहा था उसी तरह 2000 के बाद की राजनीति में माय यानी मुस्लिम और यादव समीकरण का विरोध होने लगा। लालू के खिलाफ विकल्प बनने पर जो जगह मिली, वह जगह अब भी नीतीश कुमार के पास है, चाहे कम ही क्यों न हो गई हो। नीतीश कुमार ने बिहार के अत्यंत पिछड़े समुदाय और दलितों का एक बड़ा वोट समूह बनाया और इस समूह ने लगातार उनका साथ दिया है। इसका उपयोग वह बेहतर करते हैं।

राजनीति की शुरुआत में नीतीश कुमार की छवि समाजवादी और धर्मनिरपेक्ष नेता की रही है। 1995 में समता पार्टी ने पहली बार धुर वामपंथी सीपीआइ-एमएल के साथ चुनावी गठबंधन कर राज्य विधानसभा चुनाव लड़ा था जिसमें बुरी तरह हारने के बाद समता पार्टी ने भाजपा के साथ गठबंधन किया था। वरिष्ठ पत्रकार और लेखक नलिन वर्मा के मुताबिक सत्ता के मकसद से नीतीश कुमार ने अपनी मूल विचारधारा से समझौता करना शुरू कर दिया, जो आज तक करते आ रहे है।

वे याद दिलाते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में नीतीश कुमार ने सांप्रदायिक राजनीति का हवाला देते हुए भाजपा से नाता तोड़ लिया था, जबकि रेल मंत्री रहते हुए नीतीश ने दिसंबर 2003 में गुजरात के कच्छ में एक रेलवे परियोजना का उद्घाटन करते हुए 2002 के गुजरात दंगों पर कहा था कि ‘’जो कुछ हुआ उसे भूल जाइए। वह एक धब्बा था, मैं गुजरात के विकास के लिए नरेंद्र भाई को बधाई देता हूं। अगर गुजरात विकसित होता है, तो देश भी विकसित होगा।‘’

आज नीतीश वापस 2003 वाली स्थिति में पहुंच चुके हैं, लेकिन दो दशक में पटना की गंगा और मैली हुई है। अलग-अलग जातियों के राजनीतिक दलों की सत्‍ता में हिस्‍सेदारी की ललक एक ओर राजद व जदयू के सियासी एकाधिकार की जगह कम कर रही है, तो दूसरी ओर भाजपा के लिए जगह बना रही है। कभी संघ से जुड़े रहे दरभंगा के एक वरिष्‍ठ पत्रकार कहते हैं, ‘’भाजपा यहां नीतीश के कमजोर चरित्र और लालू के जंगलराज, दोनों से मोहभंग के कारण आएगी। उसमें छोटे दलों की सत्‍तालिप्‍सा काम करेगी। जरूरी नहीं कि भाजपा का यह राज संघ के जनाधार से ही पैदा हो। बहुत मुमकिन है कि भाजपा के एक बार सत्‍ता में आ जाने पर संघ खुलकर जमीन नापे। एक बार संघ ने अपनी फसल खड़ी कर ली तो भाजपा को हटाना यहां से मुश्किल हो जाएगा।‘’    

यह कब होगा? क्‍या अगले ही साल? इसके जवाब में कहते हैं, ‘’बहुत संभव है। 4 जून को आने वाला जनादेश यह तय कर देगा कि नीतीश का भविष्‍य क्‍या रहने वाला है। यह लोकसभा चुनाव अगले विधानसभा चुनाव की जमीन तैयार करेगा।‘’


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