अयोध्या के कुहरे में लिपटा दिसंबर का एक दिन। धुंध इतनी, कि कुछ दूर खड़े अपने साथी को देख पाना तक मुश्किल हो रहा था। वहीं एक लड़का काले-पीले रंग के डिवाइडर को उन्हीं रंगों से दोबारा पोत रहा था। बात करने पर पता चला उन्नाव से मजदूरी करने आया है। डिवाइडर को दोबारा पोतने का कारण पूछा तो सहज भाव से वह बोला, ‘राजा जी आने वाले हैं ‘! उसके जवाब ने अगला सवाल करने पर मजबूर कर दिया- कहां के राजा? उसने फिर उसी बेफिक्री से जवाब दिया, ‘देश के राजा’।
सड़कों पर लगे बैनरों और होर्डिंगों में राजा राम की आकृति देश के आदमकद राजा से वाकई छोटी हो चुकी है। लगातार हो रही तोड़-फोड़, हल्की-भारी मशीनों की अहर्निश घरघराहट ने अयोध्या में बाकी सभी आवाजों को दबा दिया है। एक चाय पीने भर की बातचीत में उस मजदूर ने 22 जनवरी 2024 का सार समझा दिया, ‘राजा की शान में कोई गुस्ताखी नहीं चाहिए। उन्हें धूल, गंदगी, मिट्टी, न जाने किससे दिक्कत हो जाए। इसलिए हर चीज को दोबारा, तिबारा तैयार किया जा रहा है।‘
राजा जी की सवारी की तैयारी में दुबारा-तिबारा चमकाई जा रही है अयोध्या (फोटो: अमन गुप्ता)
चौतरफा हो रहे विध्वंस और नवनिर्माण पर एक वरिष्ठ पत्रकार, जो राम मंदिर को अपने शुरुआती दिनों से ही कवर कर रहे हैं, कहते हैं, ‘यह पूरा इलाका ही कायरों का इलाका है, जो कभी प्रतिरोध नहीं करता। यह जानते हुए भी कि इससे उनका ही नुकसान हो रहा है।‘
युद्ध-अयुद्ध के किरदार
अयोध्या का मतलब है जहां कभी युद्ध न हुआ हो या जिससे लड़ा न जा सके। किसी से न लड़ पाने की केवल दो ही वजह हो सकती है। पहली, या तो वह बहुत कमजोर हो और जिसे जीतकर कुछ हासिल न होना हो। दूसरी, जो आपसे ज्यादा ताकतवर हो और उसके जीतने की उम्मीद हो। इन दोनों कारणों में सच चाहे जो हो, लेकिन विडम्बना यह है कि पिछले कई दशकों से उत्तरकौशल की यह धरती हर तरह से युद्धरत रही है- कभी भी स्वेच्छा से नहीं, इसे हमेशा उकसाया गया है।
उकसावे की कार्रवाइयों का पहला पन्ना आजादी के बाद नवंबर 1949 में खुलता है जब अयोध्या में पहली बार कब्रें खोदे जाने का सिलसिला शुरू हुआ था। उसके बाद से लेकर अब तक यहां की सड़क से लेकर दिल्ली की संसद तक और लखनऊ के सदन से लेकर अदालतों तक जो युद्ध खेला गया, उसने पुरानी कब्रों को उघाड़ने और नई कब्रें बनाने का काम किया। दर्जनों लाशें यहां की मिट्टी में दबी पड़ी हैं, जो अपने जीते जी तो सवाल करती ही रहीं लेकिन आज भी गाहे-बगाहे सिर उठाकर जवाब मांगती हैं। बस, अयोध्या में अपने राजा राम जैसा उतना साहस कभी नहीं जुट पाया कि वह पलट कर जवाब दे सके।
अयोध्या की ऐसी पुरानी प्रतिरोधी आवाजों में एक आवाज बाबा लालदास की थी। स्थानीय स्तर पर लालदास की कई पहचानें हैं- कम्युनिस्ट पार्टी के नेता, राम मंदिर आंदोलन के विरोधी, और सबसे बड़ी पहचान कोर्ट द्वारा नियुक्त राम मंदिर के पहले तटस्थ पुजारी। आज भी पूछने पर लोग उनके बारे में बात करने से हिचकिचाते हैं।
आनंद पटवर्धन की फिल्म ‘राम के नाम’ में बाबा लाल दास का एक दृश्य
लालदास अयोध्या की संत परंपरा से आने वाले पहले और इकलौते महंत थे जिन्होंने राम मंदिर आंदोलन का उसकी शुरुआत से ही विरोध किया और पुरजोर तरीके से कहा कि यह राम जन्मस्थान और बाबरी का झगड़ा न होकर सामान्य भूमि विवाद है जिसके लिए कोर्ट कचहरी, आंदोलन जैसी किसी भी चीज की जरूरत नहीं है। उनका मानना था कि इस विवाद को आपस में मिल बैठकर हल किया जा सकता है।
बाबरी विध्वंस के करीब साल भर बाद बाबा लाल दास की 16 नवंबर, 1993 को गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। इसके बाद महंत सत्येंद्र दास राम मंदिर के पुजारी नियुक्त किए गए, जो आज तक बने हुए हैं। महंत सत्येंद्र दास, 22-23 दिसंबर 1949 की दरमियानी रात बाबरी मस्जिद में चुपके से रामलला की मूर्ति रखने वाले अज्ञात पचास-साठ लोगों के आपराधिक गिरोह के सरगना और मुकदमे में मुख्य आरोपी के तौर पर नामजद अभिरामदास के शिष्य हैं।
रानीपुर छतर गांव में रात के साढ़े नौ बजे की गई लाल दास की हत्या की प्रमुख वजह महंत द्वारा कुछ साल पहले एक लाख रुपये में खरीदी गई सात बीघा जमीन बताई गई। पुलिस जांच से लेकर सीबीआइ तक की रिपोर्ट में हत्या की यही वजह बताई गई है। अयोध्या में इस पर एक मत नहीं है, बेशक यह वजह वाजिब जान पड़ती है चूंकि जमीन के विवाद के चलते बीते दशकों के दौरान लगभग बीस हत्याएं यहां हो चुकी हैं। राम मंदिर आंदोलन के समय से लेकर अब तक देखा जाए, तो दो सौ से ज्यादा हत्याएं सामने आती हैं।
लालदास की हत्या अयोध्या के लोगों के मानस में सबसे रहस्यमय और अनसुलझी इसलिए रह गई क्योंकि यहां राम मंदिर आंदोलन का राजनीतिक व वैचारिक विरोध केंद्र में था। लालदास ने विश्व हिंदू परिषद के मंदिर आंदोलन की आलोचना करते हुए उनके एक आदमी पर भगवान राम की मूर्ति चुराने का आरोप लगाया था। इसके अलावा प्राप्त हुए चंदे का सवाल भी प्रमुख था। एक टीवी पत्रकार को दिए इंटरव्यू में उन्होंने इस सिलसिले में करोड़ों-अरबों की हेराफेरी की बात कही थी और यह दावा किया था कि मंदिर निर्माण के लिए जो शिलाएं घुमाई गईं उससे कई लोगों ने अपने निजी घर बनवा लिए।
लालदास की हत्या का केस लड़ने वाले वकील आरएल वर्मा के बेटे चरणजीत इसको राजनीतिक हत्या के तौर पर देखते हैं। दिसंबर के आखिरी दिनों में उनसे मुलाकात हुई। विस्तार से बात करते हुए उन्होंने बताया, ‘बहुत संभव है कि यह राजनीतिक हत्या हो क्योंकि जिस तरह की भाषा वे बोल रहे थे उस समय वे इकलौते थे। जिस अंदाज में लालदास ने राम मंदिर आंदोलन का विरोध किया उतना शायद ही किसी ने किया हो। उन्होंने साफ तौर पर इसे वोट हासिल करने के लिए तनाव पैदा करने का एक षड़यंत्र कहा था। अयोध्या के किसी महंत ने शायद ही ऐसा कहा हो। ऐसे में हत्या कोई बड़ी बात नहीं।‘
लालदास के संदर्भ में एक खास बात और है कि उनका जन्म अयोध्या में ही हुआ था। इस कारण से उनकी अयोध्या और इस पूरे इलाके को लेकर समझ बहुत साफ थी। इसके उलट, यहां के मठों और मंदिरों में जो साधु-संत या महंत हैं, उनमें स्थानीय लोगों की संख्या काफी कम है।
राजनीतिक कारण से लाल दास की हत्या की बात इससे भी पुष्ट होती है कि पत्रकार मधु किश्वर को उनकी पत्रिका ‘मानुषी’ के लिए दिए एक इंटरव्यू में उन्होंने अपनी हत्या की आशंका जताते हुए कहा था कि अयोध्या में उस समय तक 50-60 महंतों की हत्या हो चुकी थी और उन्हें खुद आश्चर्य था कि वे अब तक जिंदा कैसे हैं।
गला दबा के महंत…
अयोध्या में मठों और मंदिरों की संपत्ति को लेकर होने वाले विवाद हर दौर में रहे हैं। बीते तीन-चार दशकों में अयोध्या में 20 के लगभग ऐसी हत्याएं हुईं हैं जो मठ और मंदिर की संपत्ति से जुड़ी हैं। इस मसले पर यहां लोगों के बीच एक कहावत बहुत प्रचलित है- ‘पांव दबा के चेला, गला दबा के महंत’।
यह हत्याओं का एक पहलू है। मठों-मंदिरों की जमीन और संपत्ति से जुड़ी राजनीति को समझना हो तो 2001 की घटना पर ध्यान देना आवश्यक है जब राम जन्मभूमि न्यास के उपाध्यक्ष और राधावल्लभकुंज के महंत नृत्यगोपालदास के ऊपर सरयू नदी से लौटते हुए बम से हमला किया गया था। वीएचपी सहित संतों-महंतों ने इस हमले का आरोप पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आइएसआइ पर लगाया था। नृत्यगोपालदास ने खुद इसी से मिलती-जुलती आशंका जताई थी। बाद में इस हमले का आरोप उनके ही एक पुराने शिष्य देवराम दास वेदांती पर लगा जिसे नृत्यगोपालदास ने अपने राधावल्लभ कुंज मंदिर के कंट्रोल को लेकर हुए विवाद के बाद निकाल दिया था।
नृत्यगोपालदास पर हमले पर हुए हमले की कहानी में देवराम दास वेदांती के अलावा एक और प्रमुख नाम आता है उस समय के रामजन्मभूमि न्यास के अध्यक्ष रामचंद्र परमहंस का। नृत्यगोपालदास पर हुए इस हमले से लगभग एक साल पहले परमहंस पर भी लगभग इसी तरह का हमला हुआ था। परमहंस पर हुए हमले की मोडस ऑपरेंडी लगभग वही थी जो नृत्यगोपालदास के मामले में थी।
चरणजीत बताते हैं कि उसी समय के आसपास दो और हत्याएं हुईं थीं- एक सीएल गुप्ता की और दूसरी सुभाष भान की। सीएल गुप्ता इलाहाबाद हाइकोर्ट में मंदिर से जुड़े दस्तावेजों के कस्टोडियन थे और सुभाष भान गृह मंत्रालय के ओएसडी थे, जो राम मंदिर से जुड़े दस्तावेजों का काम देख रहे थे।
सीएल गुप्ता की मौत सुबह की सैर के दौरान एक गाड़ी की टक्कर लगने से हुई थी। सुभाष भान की मौत दिल्ली के तिलक ब्रिज रेलवे स्टेशन पर सन 2000 में संदेहास्पद तरीके से हो गई थी। उत्तर प्रदेश सरकार ने इसकी जांच सीबीआइ से भी कराई, लेकिन क्या फैसला आया इसकी जानकारी नहीं है। सुभाष भान की मौत के बाद राम मंदिर से जुड़े कई दस्तावेज गायब हैं। दस्तावेजों के गायब होने की जांच भी सीबीआइ को सौंपी गई थी।
अयोध्या के साकेत डिग्री कॉलेज में प्रोफेसर डॉ. अनिल कुमार सिंह यहां हुई हत्याओं पर बात करते हुए धर्म की राजनीति के एक दिलचस्प पहलू को उभारते हैं। डॉ. सिंह बताते हैं कि जिस समय लालदास राम मंदिर के पुजारी थे उस दौर में यहां के मठ-मंदिरों में वामपंथी विचारधारा के लोगों की उपस्थिति थी- विचारधारा से इतर, मानवीय ढंग से सोचने वाले लोगों की उपस्थिति जो मंदिर-मस्जिद के झगड़े से ज्यादा मानवता में विश्वास रखते थे।
वे कहते हैं, ‘केवल एक मंदिर और मठ में नहीं, लगभग हर जगह उनकी उपस्थिति थी और लालदास तो घोषित तौर पर कम्युनिस्ट पार्टी से जुड़े हुए थे, पॉलिटिकल व्यक्ति थे। यह उनके विचारों में स्पष्टता से भी समझा जा सकता था। अपनी समझ के कारण ही वे वीएचपी-आरएसएस के ढोंग का खुलकर विरोध कर पाए। अपने विरोधी स्वभाव और वीएचपी जैसे संगठनों के विरोधी होने के बाद भी मंदिर का पुजारी होने के कारण उन्होंने राम जन्मभूमि न्यास में जगह मिली हुई थी।‘
अयोध्या के मठों-मंदिरों में यदि महज तीन-चार दशक पहले तक वामपंथी और अहिंसक विचारों वाले लोग मौजूद थे, तो वे गए कहां? क्या सभी लाल दास की गति को प्राप्त हो गए?
मठ और मौत
इस कहानी का एक अहम सिरा बिहार से जाकर जुड़ता है, जिसके बारे में प्रकाशक और लेखिका शारदा दूबे ने अपनी पुस्तक ‘पोर्ट्रेट्स फ्रॉम अयोध्या’ में जिक्र किया है।
वे लिखती हैं कि अस्सी के दशक की शुरुआत में यानी 1983-84 के दौरान जब राम मंदिर के लिए आंदोलन चलाने का खयाल विश्व हिंदू परिषद के जेहन में उठा था, तभी अपराधियों की एक बड़ी संख्या बिहार से अयोध्या की तरफ आई। वे बेगुसराय के गैंगस्टर कामदेव सिंह का हवाला देती हैं जो अपने इलाके में कई कम्युनिस्टों की हत्या के लिए कुख्यात था। 1983 में पुलिस एनकाउंटर में कामदेव सिंह मारा जाता है। इसके बाद उसका गिरोह बिखर जाता है और उनमें से कई लोग अयोध्या में आकर पनाह पाते हैं।
इस गिरोह का एक प्रमुख चेहरा रहा रामकृपाल दास, जो बमबाज था। अयोध्या आकर उसने अपहरण, फिरौती और जमीन कब्जाने का अपना धंधा जमाया। उनके खिलाफ लूट और हत्या के दो दर्जन मुकदमे थे। नवंबर 1996 में उसकी हत्या हुई। इस घटना के करीब साल भर बाद बिहार के पत्रकार कन्हैया भेलारी ने द वीक में एक कवरस्टोरी लिखी जिसमें अयोध्या और बिहार के अपराध गठजोड़ को लेकर कुछ चौंकाने वाले खुलासे किए गए।
भेलारी लिखते हैं, ‘कुछ साधु यहां जारकर्म में भी लिप्त रहते हैं। हनुमानगढ़ी के राम शरण दास की तो इस चक्कर में जान ही चली गई। उनके ऊपर दर्जन भर मुकदमे थे और पुलिस उन्हें तलाश रही थी। वे अपने बीमार चेले को देखने फैजाबाद के जिला अस्पताल में जा रहे थे कि पता चला पुलिस पीछा कर रही है। उन्होंने अपनी रिवॉल्वर निकाल कर पुलिस पर गोली चला दी लेकिन उलटे गोली खा गए।‘
दो साल बाद 1993 में जब लाल दास मारे गए, हनुमानगढ़ी के राम प्रकाश दास को पुलिस ने दौड़ा कर गोली मारी। राम प्रकाश बिहार का था, महज 19 साल का था और मठ के लड्डू दास पर गोली चलाकर भाग रहा था। उसने जब पुलिस पर गोलीबारी की तब पुलिस ने उसे गोली मारी।
अपराध और हत्याओं के मामले में खासकर हनुमानगढ़ी बहुत कुख्यात रही है। बहुत पहले 1976 में गढ़ीनशीन दीनबंधु दास के ऊपर जानलेवा हमला हुआ था जब एक और महंत रामकृपाल दास ने उन पर गोली चला दी थी। इसके अगले साल ही मठ के भीतर नगाओं के दो समूह आपस में भिड़ गए और बजरंग दास नाम के नगा साधु की हत्या हो गई थी। इसके बाद सिलसिला थमा नहीं- 1987 में दीनबंधु दास, 1990 में हरभजन दास और 1995 में रामाज्ञा दास की एक-एक कर के हत्या हुई।
द वीक में ही 11 जुलाई 1999 की अपनी रिपोर्ट में अजय उप्रेती ने ऐसे मामलों की लंबी फेहरिस्त गिनवाई है। वे लिखते हैं, ‘सितंबर 1991 में जानकी घाट के 70 वर्षीय महंत की उनके कमरे में गला दबाकर हत्या कर दी गई। मंदिर की 15 करोड़ की जायदाद कब्जाने के लिए उनकी हत्या करने के आरोप में तीन साधुओं जनमेजय शरण, बालगोविंद दास और कमलेश दास को आरोपी बनाया गया। यह मुकदमा जब चल रहा था तब तक आरोपी जनमेजय दास महंत बने हुए थे।‘
हनुमानगढ़ी में सैकड़ों साधु रहते हैं। 1976 में पहले जुर्म के बाद यहां 1984 से हत्याओं का सिलसिला कायम रहा है। 1984 में हरभजन दास की हत्या उन्हीं के लोगों ने की। इसके बाद 1992 में दीनबंधु दास मारे गए। फिर रामाज्ञा दास मारे गए। सारी हत्याएं जमीन जायदाद को लेकर हुईं। इसी तरह, लक्ष्मण किला मंदिर में महंत की गद्दी की लड़ाई के चक्कर में महंत मैथिली शरणाचार्य के कमरे में 2011 में बम फेंके गए। आरोप संजय झा उर्फ मैथिली राम शरण पर था, जो पूर्व महंत का ड्राइवर था। शारदा दूबे की किताब कहती है कि बम मारने वाले संजय झा को राम जन्मभूमि न्यास के मुखिया रामचंद्र परमहंस और भाजपा के प्रदेश उपाध्यक्ष रहे विनय कटियार की शह थी।
इसी तरह, गुप्तार घाट आश्रम के पास की जमीन कब्जाने को लेकर 1998 में मोहन दास उर्फ मौनी बाबा के चेलों ने गुप्तार घाट के निवासियों पर गोली चला दी थी जिसमें चार लोग मारे गए थे। ऐसी कई घटनाओं में अकसर नृत्यगोपाल दास का नाम प्रमुखता से आया है। मसलन, भक्तमल भवन की संपत्ति कब्जाने के मामले में उसके महंत गुरु राम कृपाल दास द्वारा नृत्यगोपाल दास के ऊपर प्रताडि़त करने का आरोप 1998 में लगाया गया था।
बहरहाल, संपत्ति कब्जाने की लड़ाइयां पलटवार भी करती हैं, जैसा मई 2001 में खुद नृत्यगोपाल दास के ऊपर हुए बम के हमले से समझ में आता है। यह हमला शुरू में आइएसआइ के सिर मढ़कर उन्होंने भटकाने की कोशिश की, लेकिन असली मसला राम वल्लभ मंदिर पर कब्जे की लड़ाई का था। नृत्यगोपाल दास ने महंत देवराम दास वेदांती को हटवा दिया था। वेदांती ने उसी का बदला लिया था।
लाल दास के उत्तराधिकारी
जाहिर है, जमीन-जायदाद से जुड़ी इतनी सारी कथित हत्याओं का सिलसिला ही लाल दास की राजनीतिक हत्या को भी जमीन विवाद के नतीजे के तौर पर दिखाना आसान और सहज बनाता है। इसे राजनीतिक हत्या मानने वाले लाल दास के वकील के बेटे चरणजीत वर्मा खुद कहते हैं कि यहां बाबाओं की बहुत हत्याएं हुई हैं, हनुमानगढ़ी के कई महंतों की हत्याएं हुई हैं, इसलिए अयोध्या के लिए लाल दास की हत्या बहुत सामान्य बात थी।
उनके परिवार के सदस्यों द्वारा मामले में आए फैसले को ऊपरी अदालत में चुनौती न देने की वजह पूछने पर वर्मा कहते हैं, ‘उस समय उनके बच्चे बहुत छोटे थे, एक तो यह वजह रही। दूसरा कि उस समय अयोध्या में घटनाक्रम बहुत तेजी से बदल रहा था और इस बदल रहे घटनाक्रम में किसी एक चीज पर टिक कर रह पाना बड़ा मुश्किल था।‘
लाल दास की हत्या में उनके बेटे को भी आरोपी बनाया गया था, जबकि लालदास की हत्या की एफआइआर उनके बेटे ने ही लिखवाई थी जो घटनास्थल पर मौजूद ही नहीं था। उसे बाद में किसी तरह से खोजकर अस्पताल बुलाया गया था। पुलिस की शुरुआती जांच को आधार बनाते हुए सीबीआइ ने उनके बेटे को भी संदिग्ध माना और उसी आधार पर जांच की।
लाल दास का बेटा अब भी अयोध्या से कुछ दूर गांव में रहता है। उससे हमने बात करने की बहुत कोशिश की, लेकिन बात नहीं हो सकी। अयोध्या में लंबे समय तक रहे दस्तावेजी फिल्मकार शाह आलम बताते हैं कि लाल दास के बेटे को अपने पिता की हत्या के मामले में गिरफ्तारी से बचाने में उनके करीबी साधु युगल किशोर शरण शास्त्री का बड़ा हाथ रहा। शास्त्री खुद ऐसा दावा करते रहे हैं, हालांकि आजकल वे लंबे समय से गुमनामी में चल रहे हैं।
शास्त्री पर आने से पहले इस कड़ी में सबसे महत्वपूर्ण मौजूदा महंत सत्येंद्र दास पर कुछ बात जरूरी है, जो लाल दास के हटाए जाने के बाद राम मंदिर के पुजारी बनाए गए। लाल दास ने यह कहकर सत्येंद्र दास को कठघरे में खड़ा कर दिया था कि बाबरी का गुंबद गिराए जाने पर रामलला की मूर्ति वहीं मलबे में दब गई थी और विश्व हिंदू परिषद ने उसे दूसरी मूर्ति से बदल दिया था। सत्येंद्र दास इस बात को कतई नहीं मानते।
लालदास को 1981 में कोर्ट द्वारा राम मंदिर का मुख्य पुजारी नियुक्त किया गया था। बाबरी विध्वंस के कुछ महीने पहले तक वह इस पद पर बने रहे थे। 1991 में बनी कल्याण सिंह की भाजपा सरकार ने मार्च 1992 में यानी बाबरी विध्वंस से नौ महीने पहले लालदास को पुजारी के पद से हटा दिया। सरकार के इस फैसले के खिलाफ उन्होंने इलाहाबाद हाइकोर्ट की लखनऊ बेंच में एक याचिका दायर की थी जिस पर सुनवाई चल रही थी। लालदास को हटाने के लिए उन पर भ्रष्टाचार के आरोप लगाए गए थे।
जब मस्जिद पर हजारों कारसेवकों की भीड़ ने 6 दिसंबर 1992 को चढ़ाई की, उस वक्त सत्येंद्र दास रोज की तरह मंदिर में ही थे। सुबह ग्यारह बजे कारसेवकों के एक नेता ने उनसे पूजा के लिए नारियल और कपड़ा मांगा था। वीएचपी की तरफ से घोषणा हो रही थी सरयू से लाए जल से चबूतरे की धुलाई की जाएगी और रेत से वहां प्रतीकात्मक मंदिर बनाकर उसकी पूजा होगी। सत्येंद्र दास का कहना है कि उस दिन न मस्जिद गिराने की योजना थी न ही मंदिर बनाने की।
शारदा दूबे उन्हें उद्धृत करते हुए लिखती हैं, ‘4 दिसंबर को टाइटल वाले मुकदमे में फैसला आना था कि मस्जिद के पास 2.77 एकड़ वाली विवादित जमीन पर प्रतीकात्मक पूजा की जा सकती है या नहीं। कोर्ट ने फैसला मुल्तवी कर दिया और 11 दिसंबर की तारीख दे दी। यानी पक्षकारों को अब इंतजार करना था। इसके बजाय वीएचपी ने हड़बड़ी में 6 तारीख को कारसेवा का ऐलान कर डाला। जिस जगह पहले शिलान्यास की अनुमति दी गई थी उसे ही प्रतीकात्मक मंदिर निर्माण के लिए चुना गया, जो रेत और पानी से किया जाना था।‘
कारसेवकों को रेत और पानी के प्रतीकात्मक मंदिर की व्यर्थता का अचानक अहसास हुआ। वे चिल्लाते हुए मस्जिद की ओर बढ़ने लगे। सत्येंद्र दास कहते हैं, ‘वीएचपी के शीर्ष नेता उन्हें नियंत्रित नहीं कर पाए। उन्हें डर के मारे वहां से भागना पड़ गया। इसके बाद कोई घोषणा काम न आई। चीजें अपनी गति से आगे बढ़ीं। गुंबद गिराए जाने लगे और लोग मलबे से ईंटें, मिट्टी और धातु उठा-उठा कर अपने साथ ले जाने लगे।‘
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क्या हुआ मूर्तियों का? जिनके गुंबद के मलबे में दब जाने और वीएचपी द्वारा बदल दिए जाने का दावा लाल दास ने अपनी हत्या से पहले किया था? क्या वे दब गई थीं या कारसेवक उन्हें भी लूट ले गए थे? सत्येंद्र दास इस पर नाराजगी से कहते हैं, ‘ऐसा मैं कैसे होने दे सकता था? पहला गुंबद नीचे गिरने से पहले ही हालात को भांपते हुए मैंने अपने पुजारियों से कह कर सुरक्षित जगह पर मूर्तियां भिजवा दी थीं। अगली ही सुबह उन्हें दोबारा स्थापित कर दिया और आज तक वे वैसे ही हैं।‘
दूबे से बातचीत में सत्येंद्र दास कहते हैं कि वे 6 दिसंबर को भगवान को भोग नहीं लगा पाए थे, उसके बदले में उन्होंने अगले बारह साल तक फलाहार किया।
मूर्तियों का क्या हुआ, यह सवाल अकेले लाल दास नहीं उठा रहे थे। इस सवाल को लोकसभा में भी उठाया गया था। तत्कालीन गृहमंत्री एस.बी. चव्हण ने जवाब दिया था कि इस मामले में जांच हुई और पाया गया कि मूर्तियां, उनके आभूषण और गद्दी सब कुछ विध्वंस के पहले जैसे थे वैसे ही पाए गए।
सत्येंद्र दास के हवाले से दूबे लिखती हैं, ‘जो कोई कह रहा है कि ये वाले रामलला पहले वाले से अलग हैं वह मेरे साथ बहुत नाइंसाफी कर रहा है।‘ सत्येंद्र दास के लिए यह वाकई नाइंसाफी और भावना से जुड़ा मामला है क्योंकि मस्जिद में रामलला की मूल मूर्तियां उनके गुरु अभिरामदास ने ही रखी थीं।
आज सत्येंद्र दास इस मसले पर बात करने को तैयार नहीं हैं। लाल दास के संबंध में उनसे बात करने की कई बार कोशिश की गई, लेकिन यह संभव नहीं हो सका। लालदास ने इस बात की आशंका जताई थी कि उनकी हत्या की जा सकती है, इस संबंध में उन्होंने अयोध्या प्रशासन से कई बार सुरक्षा की मांग भी की थी जिसे लगातार अनसुना किया गया। फिर उन्हें सुरक्षा मिली भी, तो हटा ली गई। कोर्ट कोई फैसला दे पाती इससे पहले 16 नवंबर 1993 को उनकी हत्या कर दी गई।
सेकुलर शास्त्री
अस्सी के दशक में राम मंदिर आंदोलन के दौरान अयोध्या में एक और महत्वपूर्ण किरदार उभरा, जो बाबा लाल दास के साथ रहा और बाबरी विध्वंस के वक्त आरएसएस से जुड़ा हुआ था। नाम है युगल किशोर शरण शास्त्री, जिनके बारे में आज से कुछेक साल पहले तक अकसर अयोध्या-लखनऊ के रास्ते आने वाली प्रतिरोध की खबरों में सुनने को मिलता था।
शास्त्री के प्रयासों का ही नतीजा था कि आरएसएस उस समय आम अयोध्यावासियों के साथ मठों और मंदिरों में जगह बना पाया, लेकिन शास्त्री जी कालांन्तर में अजीब विडम्बना का शिकार हुए। किसी धार्मिक नगरी में आकर साधु बन जाने की परंपरा में बिहार से आए युगल किशोर ने अपनी मेहनत और प्रतिभा की बदौलत अयोध्या के साधु समाज के साथ-साथ आरएसएस में अपनी जगह तो बनाई, लेकिन संघ की वर्ण व्यवस्था में पिछड़े तबके से होने के कारण उन्हें उनकी भूमिका नहीं मिली। ऐसा कुछ लोग कहते हैं। अंतत: शास्त्री जी संघ से बाहर निकल आए।
सन 1998 के बाद शास्त्री के साथ लंबे समय तक रहे दस्तावेजी फिल्मकार और पत्रकार शाह आलम बताते हैं कि शास्त्रीजी जमीन-जायदाद और एनजीओ आदि के चक्कर में फंस कर गड़बड़ा गए। सबसे पहले संघ से बाहर उन्हें खींचने वालों में शाह आलम गांधीवादी निर्मला देशपांडे का नाम लेते हैं। जमीन-जायदाद के मोर्चे पर भी शास्त्री का अपने चेले राममिलन से विवाद रहा।
संघ से बाहर आने के बाद शास्त्री ने वीएचपी, संघ और तमाम लोगों पर खूब आरोप लगाए। बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद विश्व हिंदू परिषद की आलोचना की- आलोचना की हद इतनी कि कारसेवा के दौरान मुलायम सरकार ने जो गोली चलवाई उसमें मारे गए लोगों की वे सूची लेकर घूमते थे और कहते थे कि ‘इस सबका जिम्मेदार अशोक सिंघल है। मुलायम सिंह में हिम्मत है तो सिंघल को गिरफ्तार करें’।
बाबा लाल दास के बाद राम मंदिर आंदोलन को लेकर हो रही गतिविधियों के संदर्भ में युगल किशोर शास्त्री का प्रतिरोध इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि अव्वल तो वे संघ के संगठन से निकले हुए थे और दूसरे, अयोध्या के मूलवासी नहीं थे फिर भी उनका और लाल दास का साथ था।
अयोध्या की गंगा-जमुनी तहजीब के संदर्भ में यही बात शास्त्री के विरोध में भी जाती थी। अयोध्या के लोगों ने उन्हें कभी भी अपने बीच का आदमी नहीं माना। बेशक, शास्त्री को अयोध्या के बाहर लखनऊ और दिल्ली से काफी वैचारिक और बौद्धिक समर्थन मिलता रहा था। खासकर समाजकर्मी संदीप पांडे, शबनम हाशमी और राम पुनियानी जैसे लोगों के साथ वे अकसर आयोजनों का हिस्सा रहते थे।
उन्हें जानने वाले कुछ लोगों का कहना है कि वे अपने को संघ की वर्ण व्यवस्था से पीड़ित बताकर गंगा-जमुनी तहजीब का झंडाबरदार बनने की कोशिश कर रहे थे। युगल शरण शास्त्री के बारे में बात करते हुए हाजी महबूब कहते हैं कि उस दौर में गंगा-जमुनी तहजीब के नाम पर अयोध्या में जो भी हो रहा था वह सब दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं था।
हाजी कहते हैं “सबको मंदिर चाहिए था।” मंदिर के साथ उनका दूसरा उद्देश्य यह था कि मुसलमान यहां से चले जाएं।
राम मंदिर आंदोलन के मसले पर शास्त्री से बात करने के कई प्रयासों के बाद भी उनसे मुलाकात नहीं हो पाई, इसके लिए उनके फोन पर संपर्क करने के साथ उनके सभी संभावित ठिकानों पर खोजने के प्रयास किण् गए।
कुछ साल पहले युगल किशोर शास्त्री को काफी गंभीर ब्रेन ट्यूमर हुआ था। उसके बाद करीब एक साल तक उन्हें स्मृतिलोप हो गया। शाह आलम कहते हैं, ‘’अभी तो कोई संपर्क हुए उनसे छह महीने से ज्यादा हो गया लेकिन उस बीच वे मुझे पहचान नहीं पाते थे। बाद में सोशल मीडिया पर वे जाने क्या-क्या लिखने लगे।‘’
शास्त्री अब भी अयोध्या या आसपास ही रहते हैं लेकिन सार्वजनिक जीवन में सक्रिय नहीं हैं। केवल सोशल मीडिया पर हैं, जहां राम मंदिर को लेकर दो-चार छिटपुट बातें उन्होंने लिखी हैं, मसलन: ‘पहले यह राम मंदिर है या नहीं यह तो निर्णय हो जाए’; ‘सवाल तो यह है कि श्रीराम ने शम्बूक की हत्या किसलिए किया’; ‘इस मंदिर के बनने से किसी के शरीर पर क्या फर्क पड़ता है’।
शास्त्री ने ‘संघी आतंकवाद’ नाम की एक किताब भी लिखी है। शारदा दुबे ने अपनी किताब में युगल किशोर शास्त्री के ऊपर भी एक अध्याय लिखा है। उनका कहना है कि युगल किशोर से घृणा या प्रेम तो किया जा सकता है लेकिन उन्हें नकारा नहीं जा सकता। बेशक, राम मंदिर आंदोलन की सबसे बड़ी प्रतिरोधी आवाज रहे बाबा लाल दास और उनके सरीखे महंतों का कोई सबसे करीबी जीवित जानकार है तो वे शास्त्री हैं, बशर्ते वे कुछ बोलें।
बाकी, अयोध्या के बचे-खुचे प्रगतिशील लोगों में से ज्यादातर अब इन मसलों पर बात करने को तैयार नहीं होते। कुछ पुराने लोग जो लालदास को जानते थे या फिर उनके साथ थे, वे कहते हैं कि अब उन पर बात करने का क्या फायदा है- ‘जो होना था हो गया, मंदिर तो बन रहा है न!’ उनका नाम लेते ही कोई कहता है कि गड़े मुर्दे उखाड़ने का क्या फायदा, तो कोई और कहता है कि मठ और मंदिर की राजनीति में उसकी दिलचस्पी नहीं है।
राम के नाम पर
क्या मंदिर बनने की प्रक्रिया में वाकई लोगों की दिलचस्पी अयोध्या के अतीत के चमकदार अध्यायों में कम होती गई है या फिर यह अपनी जबान बंद रखने का महज बहाना है? क्योंकि धर्म, राजनीति और अपराध न सही, पर मंदिर बनने और पुरानी अयोध्या उजड़ने से आजीविका तो सबकी प्रभावित हो रही है?
अयोध्या व्यापार मंडल के अध्यक्ष नंदु कुमार गुप्ता बताते हैं कि वीएचपी ने जब आंदोलन शुरू किया तो यहां के लोगों को अच्छा लगा और एक उम्मीद दिखी कि अब शायद मंदिर बन जाए, इसलिए उन्होंने वीएचपी का समर्थन किया लेकिन बाद में जब बाबरी को तोड़ा गया और दंगे-फसाद हुए तब जाकर उन्हें समझ में आया कि मामला गलत हाथों में चला गया है और इस तरह से उन्हें मंदिर नहीं चाहिए।
वे कहते हैं, ‘जब तक समझ आया तब तक बहुत देर हो चुकी थी।‘ उनके मुताबिक मंदिर की चाहत रखने वालों में केवल हिंदू ही नहीं मुसलमान भी थे क्योंकि हिंदू और मुसलमान दोनों यहां के समाज का हिस्सा रहे हैं।’
मंदिर से इतर, अयोध्या अपने आप में एक छोटा सा कस्बा था। मंदिर के चक्कर में इसे जबरदस्ती बड़ा बनाने की कोशिश की जा रही है। ऐसा करने के पीछे सरकार द्वारा बताया गया कथित उद्देश्य यह है कि राम मंदिर बन जाने के बाद यहां हर दिन जो दो लाख लोग श्रद्धालु रामलला के दर्शन के लिए आएंगे, उनके लिए शहर में आधुनिक सुविधाएं हों और उन्हें किसी तरह की परेशानी न हो। इसको ध्यान में रखते हुए शहर का विस्तार किया जा रहा है। इसका दूसरा और अनकहा पक्ष जमीन का व्यापार है, जो इस समय अयोध्या में सबसे ज्यादा मुनाफा देने वाला धंधा है। धर्म और आस्था की घोषणाओं में लिपटे जमीन के धंधे ने अयोध्या को पूरी तरह बदल डाला है। इसने आम लोगों के खाने-पीने और कमाने के रास्ते बंद कर दिए हैं। सामाजिक और सांस्कृतिक नुकसान जो हुआ है, वो अलग है।
गुप्ता इस बात को स्वीकार करते हैं, ‘राम मंदिर आंदोलन से पहले यहां हर साल मेले लगते थे, जो आसपास के लोगों के लिए रोजगार का, मेल-मिलाप का एकमात्र जरिया हुआ करते थे। इसमें अयोध्या के अलावा दूसरे जिलों से भी लोग आते थे, लेकिन मंदिर आंदोलन के बाद यह सब खत्म हो गया। लोग कहते हैं कि व्यापारियों का भी नुकसान हो गया क्योंकि अब इन मेलों में विश्व हिंदू परिषद और उससे जुड़े लोग ही ज्यादातर आते हैं। आम लोगों का आना-जाना कम हो गया है। इससे मेलों में भीड़ तो हो जाती है, लेकिन व्यापार नहीं होता है।‘
तो क्या स्थानीय व्यापारियों की तरफ से कोई विरोध हुआ इसका? गुप्ता इससे इनकार करते हैं। वे कहते हैं, ‘इसकी कई वजह हैं, लेकिन असल बात यह है कि यहां के लोग खुद चाहते थे कि मंदिर बने।‘
सामान्य व्यापार और जनजीवन से ज्यादा ताल्लुक न रखने वाले संत समाज के लिए भी एक मंदिर वाली यह नई अयोध्या कुछ चिंताएं लेकर आई है। राम मंदिर आंदोलन के बाद से ही लगातार यहां आशंका जताई जा रही थी कि मठों-मंदिरों और उनकी संपत्ति पर खतरा पैदा हो जाएगा। आज जब राम मंदिर बनकर तकरीबन तैयार है तो एक बार फिर से अयोध्या के संतों-महंतों में यह चिंता घर कर गई है।
एक प्रमुख मंदिर के पुजारी नाम न छापने की शर्त पर कहते हैं, ‘मठ और मंदिरों का खर्च श्रद्धालुओं के दान से चलता है, यही हमारी कमाई होती है, लेकिन राम मंदिर बनने के बाद यह सब कुछ राम मंदिर की तरफ शिफ्ट हो जाएगा। अभी जो लोग अयोध्या आते थे उनका उद्देश्य अयोध्या घूमना होता था। ऐसे में वे हर जगह जाते थे, लेकिन राम मंदिर बनने के बाद अयोध्या में वही एक प्रमुख स्थान हो जाएगा, जिसको यहां आने वाले लोग देखकर वापस चले जाएंगे।‘
जश्न बाकी है…
रामलला की नई मूर्ति का अनावरण 19 दिसंबर को हुआ। उसी दिन पुरानी मूर्तियां यानी ‘रामलला विराजमान’ तंबू से उठकर 18000 करोड़ की लागत से बन रहे भव्य मंदिर में प्रवेश कर गए। नई मूर्तियों में प्राण-प्रतिष्ठा की तैयारियां लगभग पूरी हो चुकी हैं। पुरानी मूर्तियां भी वहीं गर्भगृह में नए के साथ में रखी और पूजी जाएंगी।
चालीस साल पहले शुरू हुए मंदिर आंदोलन का लक्ष्य मूर्तिमान और साकार करने के इस क्रम में अयोध्या ठहर-सी गई है। शहर में सार्वजनिक परिवहन को रोक दिया गया है। जनजीवन तकरीबन ठप है। हाइवे से आने वाले वाहनों को शहर में घुसने नहीं दिया जा रहा है। सुरक्षा ऐसी चाक-चौबंद है कि परिंदा भी पर न मार सके।
बीते पचास वर्षों के गवाह और कलमकार रहे वरिष्ठ पत्रकार केपी सिंह कहते हैं, ‘यह जो मंदिर है न, लाशों के ढेर पर बन रहा है। इसमें कारसेवकों की, महंतों की और मजदूरों की- न जाने कितनी लाशें दबी हुई हैं। ध्वंस के समय जितने कारसेवक नहीं मरे उससे ज्यादा लोग तो मंदिर निर्माण से लेकर यहां चल रहे काम में मर गए। इसको किसी ने नहीं गिना। ये नव्य और भव्य अयोध्या की कीमत है।‘
जब मलबा हटेगा, तब शायद हड्डियां बरामद हों। फिलहाल तो फैजाबाद से अयोध्या की तरफ जाने वाली सड़क पर चलना चाहिए- लगभग 13 किलोमीटर लंबे इस ‘रामपथ’ को एक ही रंग और एक जैसी पेंटिंगों से पोत दिया गया है। इस रामपथ के नीचे करीब 2200 दुकानें और सैकड़ों घर जमींदोज हैं। मलबा केवल इस सड़क पर नहीं, पूरे शहर में है। उसके बीच बच गए घर-दुकान के दरवाजों और शटर पर हिंदू धर्म से जुड़े प्रतीक चिह्न बनाए गए हैं- धनुष-बाण, शंख, स्वास्तिक से लेकर दीप और त्रिशूल तक सब कुछ। कई जगहें ऐसी हैं जहां पहले ही पुताई कर दी गई थी, इसके चलते वे अब धूल से अटी पड़ी हैं। पोते गए चिह्नों और प्रतीकों के रंग, उनकी बनावट में सौम्यता नहीं, उग्रता झलकती है।
एक स्थानीय पत्रकार बताते हैं- ‘ऐसा इसलिए है कि इसके लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी गई है। अब जब यह मंदिर बन रहा है तो उसको विजय के तौर पर देखा जा रहा है। और जब विजय हुई है, तो उसका सार्वजनिक उत्सव तो मनाया ही जाएगा!’
सार्वजनिक उत्सव के रंग में छटांक भर भंग घोलकर शंकराचार्यों ने उसे और आकर्षक बना दिया है। संतों, महंतों, धर्माचार्यों और शंकराचार्यों ने ऐसा विरोध-प्रतिरोध थोड़ा पहले किया होता तो अयोध्या की कहानी शायद कुछ और ही होती। आज अयोध्या में लालदास का कोई नामलेवा नहीं। उनकी हत्या में जितना हाथ उनके हत्यारों का था, उतना ही योगदान इस शहर की चुप्पी का भी है।
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