हिन्दुत्व के कल्पना-लोक में स्त्री और RSS के लिए उसके अतीत से कुछ सवाल

Bharat Mata imagery of RSS
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मध्ययुग में पश्चिमी जगत में आधुनिकता के आगमन ने धर्म के वर्चस्व को जो चुनौती दी थी, भारत में अंग्रेजों के आगमन के बाद पैदा हुई परिस्थितियों और राजनीतिक आजादी ने यहां धर्म के प्रभाव को और अधिक सीमित कर दिया। रूढ़िवादी, प्रतिक्रियावादी ताकतों ने समय-समय पर इस बदलाव को बाधित करने की कोशिश की। संविधान निर्माण से लेकर स्त्रियों को अधिकार-संपन्न करने के लिए 'हिन्‍दू कोड बिल' को सूत्रबद्ध एवं लागू किए जाने का हिन्दुत्ववादी ताकतों ने जिस तरह से विरोध किया, ऐसी ही बाधाओं का ही परिणाम रहा कि डॉ. आंबेडकर को नेहरू के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा। सुभाष गाताड़े का यह आलेख संविधान-निर्माण के दौरान स्पष्ट तौर पर उजागर हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्त्री-विरोधी विचारों एवं सक्रियताओं की पड़ताल करता है

वह 1936 का साल था, जब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के विचारों एवं कार्यों से प्रभावित होकर नागपुर निवासी लक्ष्मीबाई केलकर (1905-1978) ने संघ के संस्थापक सदस्य डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार से मुलाकात की और संघ से जुड़ने की इच्छा जाहिर की थी। सुश्री केलकर- जिन्हें बाद में लोग मौसीजी नाम से पुकारने लगे थे- को यह कतई उम्मीद नहीं रही होगी कि संघ सुप्रीमो इस प्रस्ताव को ठुकरा देंगे और उन्हें सिर्फ स्त्रियों का संगठन बनाने की सलाह देंगे। ‘’राष्ट्र सेविका समिति’’ की स्थापना की यही कहानी बताई जाती है, जिसे आरएसएस का पहला आनुषंगिक संगठन भी कहा जा सकता है।

राष्ट्र सेविका समिति की जब स्थापना हुई, तब RSS का निर्माण हुए 11 साल का वक्फा गुजर चुका था। वह दौर औपनिवेशिक शासन के खिलाफ तथा सामाजिक उत्पीड़न से मुक्ति के लिए उठी हलचलों का था, जिसमें स्त्रियों ने बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था। भारतीय राजनीतिक-सामाजिक जीवन में जबरदस्त सरगर्मियों के इस दौर में संघ संस्थापक महानुभावों में से किसी को भी यह खयाल तक नहीं आया था कि आबादी का आधा हिस्सा स्त्रियां उनके नक्शे से गायब हैं। वैसे, उन्हें इस बात का एहसास होता भी कैसे क्योंकि इन दोनों किस्म की हलचलों से उन्होंने दूरी बना कर रखी थी और अपने बेहद संकीर्ण व असमावेशी नजरिये के तहत संगठन बनाने में जुटे थे। धर्म आदि के आधार पर जिन्हें वह ‘अन्य’ समझते थे, उनको लेकर अपनी एकांगी सोच के प्रचार-प्रसार में सक्रिय थे।

मालूम हो कि हिन्‍दू राष्ट्र के निर्माण की परियोजना में स्त्रियों की यह दोयम दर्जे की स्थिति उनकी किसी भूल का नतीजा नहीं थी, बल्कि उनके चिन्तन का अभिन्न हिस्सा थी, जैसा कि बाद की घटनाओं ने साबित किया। हिन्‍दू राष्ट्र के उनके तसव्वुर में स्त्रियों के लिए कोई (समान) स्थान नहीं था। डॉ. हेडगेवार के वारिस और संघ के दूसरे सुप्रीमो माधव सदाशिव गोलवलकर उर्फ गुरूजी ने अपनी किताब ‘विचार सुमन’ उर्फ बंच ऑफ थॉटस में इस फैसले के पीछे के चिंतन को बखूबी उजागर किया है:

स्त्रियां मूलतः माताएं होती हैं जिन्हें अपनी संतानों का लालन-पालन करना चाहिए


Laxmibai Kelkar and Rashtra Sevika Samiti
लक्ष्मीबाई केलकर (1905-1978) और राष्ट्र सेविका समिति की एक तस्वीर, साभार Organiser

महिलाओं के अलग संगठन का नामकरण भी ‘पितृसंगठन’ के दृष्टिकोण को बखूबी उजागर कर रहा था। हिन्‍दू पुरुषों के संगठन के नाम में ‘स्वयंसेवक’ शब्‍द शामिल था जो उनकी कर्ताशक्ति/एजेंसी को रेखांकित कर रहा था जबकि महिलाओं के स्वतंत्र संगठन में ‘सेविका’ शब्द शामिल था जिसमें न केवल कर्ताशक्ति/एजेंसी की बात से इनकार था बल्कि यह शब्द पुरुष-प्रधान दुनिया में उनकी अधीनस्‍थता को रेखांकित करता था। यह एक ऐसा नजरिया है जो धर्मशास्त्रों की शिक्षा से प्रभावित है, जिसके ऊपर मनुस्‍मृति के कथनों की छाप1 दिखती है जो कहती है कि:  

बचपन में पिता उसका रक्षक होता है, उसका पति युवावस्था में उसकी रक्षा करता है, उसकी सन्तानें बुढ़ापे में उसकी रक्षा करती हैं, इस तरह स्त्रियां स्वतंत्र होने के लिए नहीं बनी हैं

मनुस्मृति का जबरदस्त सम्मोहन संघ परिवार पर आज भी व्याप्त है, जिसकी चर्चा हम बाद में करेंगे2, लेकिन यह मात्र संयोग नहीं है कि लगभग नौ दशक की अपनी यात्रा के बाद भी राष्ट्र सेविका समिति नामक संगठन जेण्डर न्याय या स्त्रियों की अपनी पसंदगी जैसे सवालों से कोसों दूर खड़ा है और अब भी मातृशक्ति और कुटुम्ब प्रबोधन अर्थात पारिवारिक मूल्यों में जागरूकता जैसे विमर्श पर ही कदमताल करता दिखता है। राष्ट्र सेविका समिति महिला संगठन का सूत्र “फेमिनिज़म” (feminism) नहीं बल्कि “फैमिलिज़म” (familism) की विचारधारा है और “स्त्री राष्ट्र की आधारशिला है”, यह राष्ट्र सेविका समिति का ध्येय सूत्र है।

स्त्रियों के प्रति संघ के इसी प्रतिगामी नजरिये का प्रतिबिम्बन तब प्रकट रूप में दिखाई दिया जब आजादी के बाद स्त्रियों की समानता की दिशा में कदम उठाए गए और सैकड़ों वर्षों से अधीनस्‍थता की स्थिति में धकेल दी गयी स्त्रियों की आबादी को बराबर का हक दिलवाने की दिशा में पहल हुई। अपने आप को हिन्दुओं का सबसे बड़ा हिमायती बताने वाले आरएसएस को इस बात से गुरेज था जबकि ये कदम सबसे पहले हिन्‍दू स्त्रियों की मुक्ति की दिशा में ही उठ रहे थे।

संविधान सभा में 11 अप्रैल 1947 को डॉ. आंबेडकर ने हिन्‍दू कोड बिल का प्रस्ताव रखा जिस पर चार साल तक बहस चली। प्रस्तुत बिल के जरिये स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान तथा समाज सुधार एवं सामाजिक मुक्ति आंदोलनों  के लम्बे सिलसिले में उजागर हुई, बुलंद हुई स्त्रियों की समानता की आवाज को जुबां देने की एक मजबूत कोशिश हाथ में ली गयी थी। इसके माध्यम से निजी दायरों को राज्य के हस्तक्षेप के लिए खोला जा रहा था ताकि इन आत्मीय कहे जाने वाले दायरों में दबे पड़े उत्पीड़नों, बहिष्करणों और शोषण को सामने लाया जा सके। सबसे बढ़ कर और सबसे दूरगामी था निजी जीवन के नियमों, प्रतिबंधों को निर्धारित करने में धर्म का एकाधिकार समाप्त कर उसमें राज्य के हस्तक्षेप को वैधता प्रदान करना।

यहां इस बात का उल्लेख करना बेहद जरूरी है कि जहां बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलन की सरगर्मी थी, वहीं उन्‍नीसवीं सदी में शुरू हुए समाज सुधार एवं सामाजिक मुक्ति आंदोलन के शीर्ष पर हमें राजा राममोहन राय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर से लेकर जोतिबा तथा सावित्रीबाई फुले, फातिमा शेख, ताराबाई शिन्दे, रमाबाई जैसी अजीम शख्सियतें विराजमान दिखती हैँ, जिनके प्रयासों ने सामाजिक-सांस्कृतिक वातावरण में हलचलें पैदा की थीं और भारतीय समाज को अपनी आंतरिक सीमाओं, दिक्कतों को देखने के लिए प्रेरित किया था। फुले द्वारा स्थापित किए गए सत्यशोधक समाज की ताराबाई शिंदे की ऐतिहासिक रचना ‘स्त्री पुरुष तुलना’ (1882) इस मामले में नयी जमीन तोड़ने वाली थी। मालूम हो कि उन्नीसवीं सदी की इस आवाज ने भारतीय स्त्री की स्थिति पर गहरे प्रश्नचिह्न खड़े किए थे:

 तुम तो पहली की मृत्यु के पश्चात दसवें ही दिन दूसरी को ब्याह कर लाते हो, बताओ भी कि कौन से ईश्वर ने तुम्हें ऐसी सलाह दी है? जैसी स्त्री वैसा ही पुरुष! तुम में ऐसे कौन से गुण विद्यमान हैं, तुम कौन ऐसे शूर और जांबाज हो कि जिसकी वजह से परम पिता ने तुम्हें ऐसी स्वतंत्रता दी है?

बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध में यही धारा पेरियार, आंबेडकर आदि की अगुवाई में और अधिक निखरे रूप में सामने आयी। इसे महज संयोग नहीं कहा जा सकता कि जब स्वाधीन भारत का नक्शा बनाने का समय आया तब उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलन के साथ उजागर हुए उनके मतभेदों के बावजूद डॉ. आंबेडकर ने इन कोशिशों से जुड़ना जरूरी समझा। संविधान-निर्माण ही नहीं, हिन्‍दू कोड बिल को आकार देने में उनका योगदान ऐतिहासिक था।


Dr. B. R. Ambedkar
  • डॉ. आंबेडकर, संविधान सभा की आखिरी बैठक में भाषण

याद रहे, इतिहास में पहली बार हिन्‍दू कोड बिल के जरिये विधवा को और बेटी को बेटे के समान ही सम्पत्ति में अधिकार दिलवाने, एक जालिम पति को तलाक देने का अधिकार पत्नी को दिलवाने, दूसरी शादी करने से पति को रोकने, अलग-अलग जातियों के पुरुष और स्‍त्री को हिन्दू कानून के अन्तर्गत विवाह करने और एक हिन्दू जोड़े के लिए दूसरी जाति में जन्‍मे बच्चे को गोद लेने आदि बातें प्रस्तावित की गयी थीं। एक तरह से कहें, तो हिन्‍दू कोड बिल के माध्यम से पितृसत्ता और धर्म दोनों को एक साथ चुनौती दी जा रही थी।

इतिहास गवाह है कि ब्रिटिश औपनिवेशिक हुकूमत में अलग-अलग धर्मों, संप्रदायों में बंटे भारत में लोगों का निजी जीवन विभिन्न धर्मों के पर्सनल लॉ के आधार पर ही संचालित होता रहा। जाहिर है कि औपनिवेशिक ताकतों के खिलाफ लम्बे समय तक चले संघर्ष में धर्म के इस प्रभाव को सीमित करने या समाप्त करने का जोर बढ़ा था। ब्रिटिश जेलों में रहते हुए नेहरू द्वारा लिखी गयी बहुचर्चित किताब ‘डिस्कवरी ऑफ इंडिया’ (भारत एक ख़ोज) में इस बात का बखूबी जिक्र है कि किस तरह…

ब्रिटिश शासन में… पारम्परिक कानूनों को पुराने ग्रंथों के आधार पर लिए गए न्यायिक फैसलों द्वारा प्रतिस्थापित किया गया… लेकिन इसका परिणाम यह हुआ कि उन्होंने प्राचीन कानूनों को ही वैधता प्रदान की … जिसके सुधार के लिए एक सकारात्मक विधेयक की आवश्यकता थी।3

स्वतंत्रता आंदोलन की सरगर्मियों ने इस माहौल में जबरदस्त बदलाव किया था और पढ़ी-लिखी स्त्रियों के एक हिस्से की सहभागिता से राजनीतिक आजादी के साथ स्वाधीन भारत में स्त्रियों की स्थिति को लेकर भी हलचलें तेज हुईं। तथ्य बताते हैं कि बीस के दशक का असहयोग आंदोलन वह मुकाम था जब स्त्रियां बड़े पैमाने पर स्वाधीनता संग्राम के साथ जुड़ीं। बीस के दशक में हम डॉ. आंबेडकर की अगुवाई वाले महाड़ सत्याग्रह की मिसाल देखते हैं, जिससे जुड़ने वाली महिलाओं की तादाद अच्छी-खासी थी।4

1931 में सम्पन्न कराची कांग्रेस में जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में स्त्रियों की स्थिति को लेकर प्रस्ताव पेश किया गया, जिसमें लिंगों के बीच समानता की अवधारणा को मूल अधिकार की श्रेणी में रखने की बात पर जोर दिया गया। जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में सुभाष चंद्र बोस द्वारा गठित नेशनल प्लानिंग कमेटी ने भी महिलाओं के प्रश्न पर रिपोर्ट जारी की, जिसमें लिंगों के बीच समानता और जेण्डर न्याय जैसी तमाम आधुनिक अवधारणाएं शामिल थीं।5

इन तमाम सरगर्मियों, आलोड़नों का ही नतीजा था कि ब्रिटिशकालीन भारत में प्रख्यात संविधानविद बीएन राव की अध्यक्षता में एक कमेटी बनी (1940) जिसने देश का दौरा किया, अलग-अलग जगह के बार संघ, पत्रकारों, नागरिकों से मुलाकात की तथा हिन्‍दू कोड बिल के मसविदे पर उनसे राय मांगी। अपने इस मसविदे में उन्होंने स्त्रियों के लिए सम्पत्ति में हक, गोद लेने, शादी करने तथा तलाक लेने और उत्तराधिकार/विरासत आदि मसलों पर अपना खाका पेश किया था। देश भर से इस प्रस्ताव पर मिश्रित राय सामने आयी। तत्कालीन मुंबई प्रांत में स्त्रियों को समानता का अधिकार दिलवाने के इस प्रस्ताव का जोरदार समर्थन किया गया। बंगाल जैसे कुछ अन्य सूबों ने भी हिन्दू कोड बिल की हिमायत की, मगर कई सूबों ने इस प्रस्ताव का विरोध किया। 1944 में दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान इस काम को स्थगित करना पड़ा।

यही वह पृष्ठभूमि थी जिसमें स्वाधीन भारत में हिन्‍दू कोड बिल पर चर्चा शुरू हुई। हिन्‍दू कोड बिल के संहिताकरण के लिए बीएन राव कमेटी द्वारा बनाए मसविदे में उचित संशोधन करके यह नया बिल बना। इस बिल में 139 धाराएं थीं जिनका मकसद हिन्‍दू कानूनों का संशोधन तथा उन्‍हें संहिताबद्ध करना था। बहुपत्नी प्रथा, अंतरजातीय विवाह, तलाक, गोद लेना और विरासत ऐसे कई मुद्दे इसके फोकस में थे। 17 नवम्बर 1947 से अप्रैल 1948 के दरमियान इस बिल पर संसद में चर्चा हुई और बाद मे इसे सेलेक्ट कमेटी को भेजा गया। कमेटी ने कुछ संशोधन प्रस्तावित किए, फिर संविधान सभा ने फरवरी 1949 से दिसम्बर 1950 के बीच बिल की धाराओं पर चर्चा की।

स्त्रियों की अधीनता की स्थिति को समाप्त कर उन्हें समानता का अधिकार दिलाने की इन कोशिशों से हिन्दुत्ववादी संगठनों का सहमत होना तो दूर, राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को और उसके सहमना संगठनों जैसे हिन्‍दू महासभा, रामराज्य परिषद को यह कहने में कोई संकोच नहीं हुआ कि ऐसे कदम ‘हिन्दू संस्‍कृति पर हमला’ हैं।  

Savarkar, Golwalkar and Karpatri ji Maharaj
हिन्‍दू महासभा के सावरकर, संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर और स्वामी करपात्रीजी महाराज

संघ के दूसरे सुप्रीमो गोलवलकर, हिन्‍दू महासभा के अग्रणी सावरकर और मनु के विधान पर चलने के हिमायती स्वामी करपात्री महाराज जैसे साधु-सन्त- जिन्होंने रामराज्य परिषद की स्थापना की थी- के बीच इस मसले पर एक अनौपचारिक साझा मोर्चा बना था जिसके साथ कांग्रेस के रूढ़िवादी तत्व भी जुड़े थे। करपात्री महाराज द्वारा शुरू किया गया अखबार ‘सन्मार्ग’ हिन्‍दू स्त्रियों को सीमित अधिकार प्रदान करने की रूपरेखा बना रहे इस बिल की तुलना विभाजन के साथ कर रहा था:

भारत के विभाजन की तरह, हिन्‍दू कोड बिल ब्रिटिश विरासत है और बंटवारे जैसी घृणित कार्रवाई की तरह यह भी समूचे हिन्दू समाज को बांट देना चाहता है, महज दो या तीन हिस्सों में नहीं बल्कि कई हिस्सों में। यह भारतीय और हिन्दू होने की तुलना में अधिक पश्चिमी और इस्लामिक है और ऐसी चुनौतीपूर्ण अवस्था में हिन्दू राष्ट्र को चुप नहीं बैठना चाहिए क्योंकि इसका मतलब होगा अधिक तबाही और जल्द ही उसकी मृत्यु6

संघ सुप्रीमो गोलवलकर को हिन्दू कोड बिल की विकास यात्रा से हिन्‍दू महिलाओं को इतिहास में पहली बार अधिकारसंपन्न करने की स्वाधीन भारत के कर्णधारों की योजना से कोई सरोकार नहीं था। वे भी इसे हिन्‍दू समाज पर ‘खतरे’ के रूप में ही देखते थे। उन्हें हिन्‍दू महिलाओं के लिए पहले से चली आ रही बहुपत्नी प्रथा, संपत्ति के अधिकार से बिल्कुल वंचित रखना, तलाक आदि मामले में वही पुरानी व्यवस्था मंजूर थी। गोलवलकर ने उन्हीं दिनों लिखा था:

जनता को यह अच्छी तरह समझ लेना चाहिए तथा इस संतोष में भी नहीं रहना चाहिए कि हिन्‍दू कोड बिल का खतरा समाप्त हो गया है। वह खतरा अभी ज्यों का त्यों बना हुआ है, जो पिछले द्वार से उनके जीवन में प्रवेश कर उनकी जीवन की शक्ति को खा जाएगा। यह खतरा उस भयानक सर्प के सदृश है, जो अपने विषैले दांत से दंश करने के लिए अंधेरे में ताक लगाए बैठा हो।7

इस बिल को जिस तरह ‘हिन्‍दू धर्म और संस्कृति पर हमले’’ के तौर पर पेश किया जाने लगा, सदन में उसका प्रतिवाद करते हुए आचार्य कृपलानी ने बिल का समर्थन करते हुए दिलचस्प बात कही थी:

मुझे माफ करें, हिन्‍दू धर्म खतरे में होने की बात मेरी समझ से परे है, हिन्दू धर्म तब खतरे में नहीं होता जब हिन्दू चोर होते हैं, बदमाश होते हैं, कालाबाजारी करते हैं, घूस खाते हैं। हिन्दू धर्म तब खतरे में नहीं पड़ता जब कुछ लोग उसके खास कानून को सुधारना चाहते हैं। आप कह सकते हैं कि वह अतिउत्साही हैं, लेकिन भौतिक मामलों में भ्रष्ट होने की तुलना में आदर्श मसलों को लेकर अतिउत्साही होना बेहतर है

गौरतलब है कि उपनिवेशकाल में जनसंघर्ष से सचेत दूरी बना कर रखने वाला आरएसएस आजादी की प्राप्ति के बाद हिन्‍दू संस्कृति पर हमले की बात करता हुआ इस बिल के खिलाफ बाकायदा सड़कों पर उतरा। इस विरोध की अगुवाई आरएसएस संघ ने की थी, जिसने इसी मुददे पर अकेले दिल्ली में 79 सभाओं-रैलियों का आयोजन किया था, जिसमें ‘हिन्दू संस्कृति और परम्परा पर आघात करने के लिए’ नेहरू और आंबेडकर के पुतले जलाए गए थे।8 रामचंद्र गुहा की किताब इस बिल के विरोध की व्यापकता और गंभीरता पर और अधिक रोशनी डालती है:

हिन्दू कोड बिल विरोधी कमेटी ने देशभर में सैकड़ों सभाएं कीं, जहां छिटपुट साधु प्रस्तावित विधेयक को खारिज करते दिखे। इस आंदोलन में शामिल सहभागी अपने आप को धर्मयोद्धा के तौर पर प्रस्तुत कर रहे थे जो एक धर्मयुद्ध लड़ रहे थे। राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने इस आंदोलन में अपनी ताकत को झोंक दिया। 11 दिसम्बर 1949 को संघ ने रामलीला मैदान में एक आम सभा का आयोजन किया, जहां शामिल वक्ताओं ने एक के बाद एक बिल की आलोचना की। किसी ने इसे हिन्दू धर्म पर ‘एटम बम’ कहा तो किसी ने उसकी तुलना खतरनाक रौलट एक्ट से की… अगले दिन संघ के तमाम कार्यकर्ताओं ने संसद पर जुलूस निकाला और ‘हिन्दू कोड बिल मुर्दाबाद’ के नारे लगाए…. प्रदर्शनकारियों ने प्रधानमंत्री नेहरू और डॉ. आंबेडकर के पुतले जलाए और शेख अब्दुल्ला की कार को क्षतिग्रस्त किया।9

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ तथा अन्य प्रतिक्रियावादी संगठनों की हिन्‍दू कोड बिल के खिलाफ चली इन्हीं उग्र सक्रियताओं से- जिनके साथ कांग्रेस का रूढ़िवादी तबका भी समर्थन में खड़ा था- बिल का पारित होना मुश्किल हो गया और बेहद दुखी मन से डॉ. आंबेडकर ने नेहरू मंत्रिमंडल से इस्तीफा दिया। नेहरू मंत्रिमण्डल से इस्तीफा सौंपते हुए प्रस्तुत वक्तव्य में उन्होंने लिखा था:

हिन्‍दू कोड बिल एक तरह से इस मुल्क की विधायिका द्वारा हाथ में लिया गया समाज सुधार का सबसे बड़ा कदम था। अतीत में हिन्दोस्तां की विधायिका द्वारा पारित किसी भी कानून से या भविष्य में पारित किए जा सकने वाले किसी भी कानून से इसकी तुलना नहीं की जा सकती। वर्ग और वर्ग के बीच की गैरबराबरी, लिंगों के बीच की गैरबराबरी – जो हिन्‍दू समाज की आत्मा है – को अक्षुण्ण बनाये रखना तथा आर्थिक समस्याओं को लेकर एक के बाद एक विधेयक पारित करते रहना, एक तरह से संविधान का माखौल उड़ाना है और गोबर के ढेर पर महल खड़े करने जैसा है… मेरे लिए हिन्‍दू कोड का यही महत्व रहा है। और अपने मतभेदों के बावजूद इसी वजह से मैं मंत्रिमण्‍डल का सदस्य बना रहा10

नेहरू ने भारी मन से इस इस्तीफे को स्वीकारा। उन्‍होंने तय किया कि स्त्रियों को अधिकारसम्पन्न बनाने की कोशिशों को स्वाधीन भारत के पहले आम चुनावों के बाद चुनी हुई संसद हाथ में ले। यह काम उनके नेतृत्व में बखूबी पूरा किया गया। आज की तारीख में संविधान निर्माण के उन झंझावाती दिनों को याद करना बेहद जरूरी है क्योंकि जब से केन्द्र की सत्ता में बहुसंख्यकवादी ताकतों का बोलबाला बढ़ा है- जिनकी वैचारिक, सांगठनिक नजदीकी तथा निरतंरता ऐसी ही प्रतिक्रियावादी ताकतो के साथ देखी जा सकती है- तब से इसे धुंधला करने की कोशिश हो रही है।

सबसे अहम बात जो विस्मृत की जा रही है वो यह है कि उन दिनों भारत के भविष्य को लेकर दो धाराओं का संघर्ष उरूज पर था- एक तरफ प्रगति, बदलाव की ताकतें खड़ी थीं और दूसरी तरफ वे ताकतें थीं जो भारत को पीछे ले जाना चाहती थीं। संघ और उसके सहमना संगठन यथास्थिति को बनाए रखने वाले, प्रगति के विरोध में खड़े थे।

आज पीछे मुड़ कर देखें तो हम इन दोनों धाराओं को आसानी से चिन्हित कर सकते हैं।

एक तरफ आजादी के आंदोलन से निकली और सामाजिक मुक्ति के विराट संघर्षों से सामने आयी जवाहरलाल नेहरू, पटेल, मौलाना आजाद, डॉ. आंबेडकर आदि की अगुवाई वाली ताकतें थीं। ये ताकतें आधुनिकता के सिद्धांतों के आधार पर एक समावेशी, अग्रगामी, वैज्ञानिक दृष्टिकोण से संचालित धारा का निर्माण कर रही थीं। यह धारा भारत के भविष्य के सपनों के साथ आगे बढ़ रही थी। इसने दूसरे विश्वयुद्ध की महाविभीषिका से सही सबक निकाल कर स्वाधीन भारत को धर्मनिरपेक्ष आधारों पर आगे ले जाने की हिमायत की थी। दूसरी तरफ गोलवलकर, सावरकर, करपात्रीजी महाराज आदि की अगुवाई वाली धारा थी, जिसने न केवल स्वतंत्रता आंदोलन में सहभागिता नहीं की बल्कि उन्हीं दिनों पुष्पित-पल्लवित हुए फुले, पेरियार, आंबेडकर आदि की अगुवाई वाले सामाजिक मुक्ति आंदोलनों से भी दूर खड़ी थी रही। यह धारा भारत को पूर्व-आधुनिक युग में ले जाना चाहती थी, जिसमें वर्ण, जाति एवं धर्म के आधार पर भेदभाव को उचित ठहराया जाता था। इस धारा का मानना था कि धर्म को राष्ट्र-निर्माण का आधार बनाना चाहिए।

आरएसएस का विरोध स्त्रियों को महज सशक्त बनाने को लेकर नहीं था, बल्कि वह नवस्वाधीन भारत में अपने लिए एक नए संविधान-निर्माण की परियोजना को गैरजरूरी मानने का विस्‍तार था। इसी वजह से उसने इस बात पर जोर दिया कि नया सविधान बनाने के बजाय मनुस्‍मृति को ही आज़ाद भारत का विधान बनाना चाहिए।


Indian Express Clipping with the lead story of adoption of constitution

1949 के नवम्बर में संविधान सभा ने भारत के संविधान पर अपनी मुहर लगायी। उसके सिर्फ तीन दिन बाद संघ के मुखपत्र ऑर्गेनाइजर ने अपने संपादकीय में न केवल इस संविधान को खारिज करने, बल्कि मनुस्मृति को देश का संविधान बनाने की बात कही थी:

लेकिन हमारे संविधान में प्राचीन भारत के इस अनोखे संवैधानिक घटनाक्रम का कोई उल्लेख नहीं है। स्पार्टा के लिकर्गस या पर्शिया के सोलोन के बहुत पहले मनु के कानूनों को रचा गया था। आज तक मनुस्मृति में प्रस्तावित कानून दुनिया की प्रशंसा का सबब बनते हैं और स्वतःस्फूर्त पालन और पुष्टिकरण को निमंत्रण देते हैं। मगर हमारे संवैधानिक विद्वानों के लिए उसके कोई मायने नहीं हैं11

दरअसल, मनु के प्रति गोलवलकर का यह सम्मोहन पुराना था। बीसवीं सदी की तीसरी दहाई के उत्तरार्द्ध में प्रकाशित अपनी पहली रचना ‘वी ऑर अवर नेशनहुड डिफाइन्ड’ में गोलवलकर ने मानवता के सोपानक्रम को लेकर मनु के विचारों की हिमायत की थी:

विराट पुरुष, वह सर्वशक्तिमान जो अपने आप को प्रकट करता है / पुरुष सूक्त के हिसाब से/ सूर्य और चंद्रमा उसकी आंखें हैं, तारे और आसमान उसकी नाभि से निर्मित हुए हैं, ब्राह्मण उसका मस्तिष्क है, क्षत्रिय उसके हाथ हैं, वैश्य जांघ हैं और शूद्र उसके पैर हैं। इसका मतलब यही हुआ कि ऐसे लोग जिनके यहां ऐसी चतुःस्तरीय प्रणाली है अर्थात हिन्दू जन, हमारे ईश्वर हैं। ईश्वर की यह सर्वोच्च दृष्टि ही ‘राष्ट्र’ की हमारी अवधारणा है, जो हमारे चिंतन में पहुंची है और उसने हमारी सांस्कृतिक विरासत की विभिन्न अनोखी अवधारणाओं को जन्म दिया है।

ध्यान रहे कि मनु की किताब के सम्मोहन को लेकर, उसे स्वाधीन भारत की सरजमीं पर लागू करने की मांग को गोलवलकर अकेले नहीं थे। विनायक दामोदर सावरकर, जिन्होंने पहली दफा हिन्दुत्व की संकल्पना पेश की, वह इस किताब की जबरदस्त तारीफ करते हैं। उन्हें लगता था कि उसे भारतीय संविधान बनना चाहिए था। ‘मनुस्मृति में स्त्रियां’ नामक आलेख में वह लिखते हैं:

मनुस्मृति वह ग्रंथ है जो हमारे हिन्‍दू राष्ट्र के लिए वेदों के बाद सबसे अधिक व्यवहार्य है और जो प्राचीन समय से हमारी संस्कृति, रिवाजों, चिन्तन और व्यवहार का आधार रहा है। हमारे राष्ट्र की आध्यात्मिक और दैवी यात्रा को उसी ने सदियों से संहिताबद्ध किया है। आज भी करोड़ों हिन्दुओं द्वारा अपनी जिन्दगियों में और आचरण में जिन नियमों का पालन किया जाता है वह मनुस्मृति पर आधारित है। आज मनुस्मृति ही हिन्दू कानून है।

कोई भी देख सकता है कि सावरकर से लेकर गोलवलकर से लेकर मौजूदा समय तक, भारत के संविधान को प्रश्नांकित करने का सिलसिला पहले से चल रहा है। आजादी के आंदोलन से दूरी बनाए रखे संघ जैसी जमातों को इस बात को समझने में भी कोई दिलचस्पी नहीं थी कि स्वाधीनता आंदोलन के दौरान ही एक स्वतंत्र भारत का संविधान किस तरह का हो। इसे लेकर कांग्रेस पार्टी के अंदर ही नहीं बल्कि राजनीतिक तौर पर जागरूक हो रहे भारतीय समाज में, उसके विभिन्न तबकों में सक्रिय राजनीतिक समूहों में एक बहस खड़ी हुई थी और उसका खाका तैयार हो रहा था। 1928 की नेहरू रिपोर्ट– जिसे मोतीलाल नेहरू की अध्यक्षता में तैयार किया गया था और जो ब्रिटिश काल में सक्रिय आल पार्टीज कॉन्‍फ्रेंस की तरफ से तैयार की गयी थी- इसी बात का प्रतिबिम्बन थी।



निचोड़ के तौर पर कहा जा सकता है कि इस रिपोर्ट में उन्नीस बुनियादी अधिकारों की बात की गयी थी, जिनमें से कुछ बातें अहम थीं:

21 साल की उम्र से अधिक स्त्रियों और पुरुषों को मताधिकार  
– एक नागरिक के तौर पर स्त्रियों और पुरूषों को समान अधिकार  
– राज्य को किसी धर्म के साथ जोड़ा नहीं गया था
– किसी भी समुदाय के लिए अलग मतदाता संघ के प्रस्ताव को खारिज किया गया था

आधिकारिक तौर पर 1936 तक स्त्रियों की भूमिका को लेकर बिल्कुल गाफिल रहे संघ के लिए नेहरू रिपोर्ट के ये सुझाव कुफ्र से कम नहीं रहे होंगे। दरअसल, संविधान-निर्माण को लेकर संघ या हिन्‍दू महासभा की आधिकारिक आपत्तियां उन दिनों जोर पकड़ी थीं जब 1946 में जब स्वाधीनता आसन्न थी और आजादी के आंदोलन की रहनुमाई करने वाली कांग्रेस की तरफ से आजाद मुल्क के संविधान-निर्माण की दिशा में ठोस कदम उठाए जा रहे थे।

मिसाल के तौर पर भारत के संविधान ने एक अहम बात रेखांकित की थी कि यह किसी धर्म विशेष का मुल्क नहीं है। यह उन सभी का मुल्क है जो किसी भी जाति, सम्प्रदाय या धर्म के हों, जो यहां रहते आए हैं। 14 अगस्त 1947 को आजादी की पूर्वसंध्या पर इस साझे मुल्क की बात को सिरे से खारिज करते हुए ऑर्गनाइज़र में लिखा गया था। संघ और उसके असमावेशी, संकीर्ण विचारों पर टिकी यात्रा के गहरे अभ्यासी प्रोफेसर शम्सुल इस्लाम ने अपनी एक बहुचर्चित किताब में उसका उल्लेख किया था: 

हम अपने आप को राष्ट्रीयत्व की झूठी धारणा से प्रभावित होने से बचें। अधिकतर मानसिक विभ्रम और वर्तमान और भविष्य की दिक्कतों से इस साधारण सच्चाई को स्वीकारते हुए मुक्ति पायी जा सकती है कि हिन्दुस्थान में सिर्फ हिन्‍दू ही राष्ट्र हैं… इस राष्ट्र को हिन्दुओं के आधार पर, हिन्‍दू परम्पराओं पर, हिन्दू संस्कृति, हिन्दू विचारों और आकांक्षाओं के आधार पर ही बनना चाहिए12



हिन्‍दू कोड बिल के खिलाफ उग्र आंदोलन की अगुवाई कर रह गोलवलकर ने दलितों और आदिवासियों के कल्याण और सशक्तिकरण के लिए नवस्वाधीन मुल्क द्वारा लिए गए सकारात्मक कार्रवाई के कार्यक्रमों (Affirmative Action Program) को भी कभी उत्साह से नहीं देखा। उन्होंने इसके प्रति अपनी असहमति यह कहते हुए दर्ज करा दी कि इसके जरिये शासक वर्ग हिन्दू सामाजिक एकता की जड़ों पर चोट कर रहे हैं और अतीत में जिस सद्भावपूर्ण माहौल में हिन्‍दू धर्म के तमाम सम्प्रदाय एक पहचान की भावना के तहत रहते थे, उस भावना को चोट पहुंचायी जा रही है। इस बात से इन्कार करते हुए कि निम्न जातियों की दुर्दशा के लिए हिन्दू समाज व्यवस्था जिम्मेदार है, उन्होंने संवैधानिक प्रावधानों को आपसी वैमनस्य बढ़ाने के लिए जिम्मेदार ठहराया:

डॉ. आंबेडकर ने अनुसूचित जातियों के लिए विशेष प्रावधानों की बात, भारत के 1950 में गणतंत्र बनने के, दस साल बाद तक के लिए की थी; मगर वह चले ही जा रहे हैं, यहां तक कि उन्हें विस्तारित भी किया जा रहा है। जाति के आधार पर विशिष्ट अधिकारों को देने से उनके अन्दर अलग रहने के लिए स्वार्थी तबका तैयार होगा। यह शेष समाज में उनके एकीकरण में बाधा पहुंचाएगा।13

सितम्बर 1951 में डॉ. आंबेडकर के अचानक इस्तीफे से यह कत्तई नहीं समझा जाना चाहिए कि बिल के जरिये स्त्रियों के अधिकारों की लड़ाई समाप्त हो गयी। 1952 में सम्पन्न पहले आम चुनावों में कांग्रेस भारी बहुमत से सत्ता में आयी और उसने हिन्‍दू कोड बिल को अलग-अलग हिस्‍सों में बांटकर हिन्दू मैरेज एक्ट, हिन्दू सक्सेशन एक्ट, हिन्दू माइनॉरिटी एण्ड गार्डियनशिप एक्ट और हिन्दू एडॉप्शन्स एण्ड मेन्टेनन्स एक्‍ट को पारित करने की दिशा में मजबूती से कदम बढ़ाए।

ऐसा नहीं था कि हिन्दुत्ववादी ताकतों ने अपने विरोध को समाप्त किया, लेकिन गांधी हत्या में उन ताकतों की संलिप्तता ने तथा नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस को मिली बम्पर जीत ने इस विरोध की धार कुंद कर दी थी। जीत से कांग्रेस के अंदर के रूढ़िवादी तबके खामोश हो गए थे या उनकी आवाज धीमी हो गयी थी।

इन्हीं दिनों हिन्‍दू महासभा के नेता रहे श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लेकर संघ ने भारतीय जनसंघ की स्थापना की थी, जिसने पहले आम चुनाव में हिस्सेदारी की और मुश्किल से तीन सीट जीत पाया था। हिन्‍दू कोड बिल को लेकर अपने विरोध को उसने अलग ढंग से परिभाषित किया। स्वामी करपात्री का विरोध अगर इस बात से था कि वह किसी तरह के सुधार के खिलाफ थे तो जनसंघ का तर्क यह था कि क्या हिन्दुओं के आंतरिक मामलों में एक धर्मनिरपेक्ष राज्य हस्तक्षेप कर सकता है। 1951 के अपने पार्टी घोषणापत्र में उसने साफ कहा:

पार्टी का यह मानना है कि समाज सुधार को ऊपर से लादा नहीं जाना चाहिए। उसे समाज के अंदर से उभरना चाहिए। हिन्‍दू कोड बिल में जिन दूरगामी बदलावों की रूपरेखा बनी है, उन्हें तब तक लागू नहीं करना चाहिए जब तक उसके लिए कोई मजबूत मांग न उभरी हो और उसके लिए मतदाताओं की साफ राय मांगी गई हो।14

25 दिसम्बर 1952 को जबकि अभी हिन्‍दू कोड बिल हकीकत नहीं बना था, तब कोल्हापुर, महाराष्ट्र के राजाराम सभागार में महिलाओं के नौ संगठनों ने डॉ. आंबेडकर का नागरिक अभिनंदन किया। वहां दिए व्याख्यान में आंबेडकर ने हिन्‍दू कोड बिल की अहमियत को लेकर महत्वपूर्ण बातें कहीं। उनका कहना था कि आधुनिक युग में सम्पत्ति ही आजादी के दरवाजे खोलती है और इंग्लैड की महिलाओं की तरह अपने अधिकारों को पाने के लिए महिलाओं को संघर्ष करने का आवाहन किया:

आज के युग में संपत्ति ही आजादी का आधार है। जब तक महिलाओं को संपत्ति में वारिस नहीं माना जाता तब तक उनकी गुलामी खत्म नहीं होने वाली। हिन्दू कोड बिल में मैंने उस प्रकार का इंतजाम भी किया था। हालांकि, वह बिल मंजूर नहीं हुआ। अब इसके बाद कौन-सा बिल आता है, उसका स्वरूप क्या है, उसमें महिलाओं के हकों की, आजादी की क्या व्यवस्था रखी गई है इस ओर महिलाओं को बहुत ध्यान देना होगा। इतना ही नहीं अपने अधिकारों की लड़ाई लड़ने के लिए उन्हें अपने मन की दुर्बलता को त्यागना होगा और कमर कस कर खड़े रहना होगा तभी उनकी स्थिति में सुधार हो सकता है। कुछ प्रगति हासिल की जा सकती है15


नए भारत में बलात्कारियों का संरक्षण : कैसे अच्छे दिन? किसके अच्छे दिन?


पचास के दशक के मध्य में हिन्दू कोड बिल हकीकत बन चुका था। नेहरू द्वारा हिन्दू कोड बिल के अलग-अलग हिस्सों पर अमल करने का स्वागत करते हुए दिया गया आंबेडकर का वक्तव्य काबिलेगौर है। यह वक्तव्य नेहरू बनाम आंबेडकर जैसे फर्जी विमर्श में संलग्न दक्षिणपंथियों के मुंह पर करारा तमाचा है:

उन्हें (नेहरू) इस बात के लिए भी याद रखा जाएगा कि हिन्दू कानून सुधार के काम में उन्होंने रुचि ली और जिन परेशानियों को झेला। मुझे खुशी है कि यह सुधार काफी हद तक पूरा हो, इसको उन्होंने सुनिश्चित किया, भले ही उस रूप में न हो जिस स्थायी महत्व की किताब के रूप में उसको रखा गया था, बल्कि टुकड़ों-टुकड़ों में ही सही।

हिन्‍दू कोड बिल की बात या उससे पैदा बहसें किसी को अब पुरानी लग सकती हैं, लेकिन इस हकीकत से कतई इन्कार नहीं किया जा सकता कि इसके बहाने भारतीय समाज में जो बहस खड़ी हुई, वह अब भी जारी है। जब-जब उस झंझावाती दौर की चर्चा होती है तब कई उदारवादी, प्रगतिशील किस्म के लोग भी यह बात उठाने से नहीं चूकते कि आखिर स्वाधीन भारत के कर्णधारों ने समान नागरिक संहिता के प्रस्ताव पर क्यों नहीं जोर दिया। आखिर क्यों उन्होंने हिन्‍दू कोड बिल- जो बौद्ध, जैन, सिख समुदायों पर भी लागू होता था- की बात की और मुस्लिम एवं ईसाई धर्म के मानने वालों को उससे दूर रखा।


एक जटिल संस्कृति में समान नागरिक संहिता की कवायद और कमला दास की याद


पहले हम इस तथ्य को स्पष्ट कर दें कि संविधान के दिशानिर्देशक सिद्धांत में समान नागरिक संहिता का उल्लेख है, जो इस बात का संकेत और संकल्प है कि हम भविष्य में इस दिशा में आगे बढ़ेंगे। आजादी के वक्त ही समान नागरिक संहिता में मुसलमान जैसे धार्मिक अल्पसंख्यकों के पारिवारिक कानूनों को भी शामिल करने की बात करना एक तरह से बंटवारे के वक्त के ऐतिहासिक संदर्भ को भूल जाना है। आप कल्पना करें कि विभाजन की इस खूंरेजी में आधिकारिक तौर पर अनुमानतः 10 से 15 लाख लोग मारे गए थे, जिसमें सभी समुदायों के लोग शामिल थे। किसी एक समुदाय को हम हत्या का दोषी या भुक्तभोगी नहीं कह सकते क्योंकि सभी धर्मो के लोग हत्या में और पीड़ितों में शामिल थे। इतना ही नहीं, लगभग एक से दो करोड़ लोगों ने एक स्थान से दूसरे स्थान पर स्थानांतरण किया।

ऐसे रक्तरंजित दौर में करोड़ों मुसलमानों ने धर्म के आधार पर राष्ट्रनिर्माण की संकल्पना का विरोध किया और उन्होंने स्वाधीन भारत के कर्णधारों की आवाज में आवाज मिला कर यहीं रहना तय किया। उस दौर में ही जब बंटवारे की यादें ताजा थीं, मुस्लिम पर्सनल लॉ में तब्दीलियों की बात करना बहुत कठिन होता। दूसरे, समान नागरिक संहिता की बात करते हुए हम उस ऐतिहासिक दौर की दो बड़ी खासियत या उपलब्धियों को भी अनदेखा करते हैं।

एक थी, लोगों के निजी कानूनों में धर्म के एकाधिकार को हिन्‍दू कोड बिल से मिली चुनौती। दूसरा अहम पहलू था कि इन चर्चाओं ने पितृसत्ता को भी जबरदस्त चुनौती दी थी। स्त्रियों को सदियों के बंधनों से मुक्त करने की लड़ाई अब भी जारी है। फिलवक्त यह कहना मुश्किल है कि हमेशा समाज की प्रगति के रास्ते में अवरोध बन कर खड़ी रहने वाली प्रतिक्रियावादी ताकतें अपने विवादास्पद अतीत के बारे में क्या सोचती हैं। क्या वे अपनी गलतियों के लिए देश की जनता से माफी मांगने को तैयार हैं?

संसद के बीते अधिवेशन में पटल पर अमित शाह का वक्तव्य इस बात की महज बानगी है कि संघ परिवार और उससे सम्बद्ध जमातों का डॉ. आंबेडकर के विचारों एवं कार्यों के प्रति असली रुख क्या है। कहा जाता है कि ऐसे किसी विचार को कुचला नहीं जा सकता जिसका वक्त आ चुका हो। मुमकिन है इतिहास के इस सबक को हिन्दुत्व वर्चस्ववादी भी ठीक से जज्ब करेंगे। 


(प्रस्तुत आलेख प्रोफेसर रविकांत द्वारा संपादित ‘संविधान के 75 साल’ नामक किताब में जल्द ही प्रकाशित होगा)

1. ‘Manu’s Code of Law: A Critical Edition and Translation of the ‘Manava-Dharmasastra,’ by Patrick Olivelle [Chapter 9 (3)]
2. Page 115, Modinama, Leftword, 2020
3. The Discovery of India ,Nehru, p. 212
4. Mahad, The Making of the First Dalit Revolt, Anand Teltumbde, Aakar Books, 2022
5. Debating Patriarchy, Chitra Sinha,  Page 141
6. Ramavatar Pandey, Editor, Sanmarg, in the preface to ‘Intrigues and Illegalities: Behind the Hindu Code Bill’, Delhi, 1951। [Page 75, Quoted in ‘Debating Patriarchy, Chitra Sinha]
7. श्री गुरूजी समग्र: खण्ड 6, पेज 64 , युगाब्द 5106
8. Ramchandra Guha, The Hindu, 18 July 2004 
9. Page 231, India After Gandhi, Ramchandra Guha
10. Page 128, Thus Spoke Ambedkar, ed.Bhagwan Das
11. Organiser, 30 November 1949
12. Page 146, RSS – Marketing Fascism as Hindu Nationalism, Prof Shamsul Islam, Media House, Delhi 2018
13. Golwalkar, Bunch of Thoughts, Page 363. Sahitya Sindhu, Bangalore, 1996
14. Page 184, Debating Patriarchy
15. बाबासाहेब डा अम्बेडकर सम्पूर्ण वाङ्मय, खंड 40, पेज 297 


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