गुजरात उच्च न्यायालय के एक जज ने एक नाबालिग बलात्कृत के केस की सुनवाई के दौरान उसके वकील को मनुस्मृति पढ़ने की सलाह दे दी। जाहिर है, यह सलाह कोर्ट के आदेश में दर्ज नहीं है, मौखिक थी, लेकिन जिस याचिका पर यह सलाह दी गई वह उच्च अदालतों में न्याय-प्रक्रिया के सांस्कृतिक पतन को दर्शाता है। बिलकुल इसी तर्ज का आदेश पिछले महीने इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने दिया था, जिस पर बीते 3 जून को सुप्रीम कोर्ट ने रोक लगा दी।
गुजरात उच्च न्यायालय के समक्ष जो मामला आया, वह 16 साल 11 महीने की एक नाबालिग लड़की का था जिसके साथ बलात्कार हुआ था और गर्भ ठहर गया था। लड़की के पिता की ओर से पेश हुए अधिवक्ता की प्रार्थना थी कि सात महीने के हो चुके गर्भ को चिकित्सीय तरीके से खत्म करने का आदेश जारी किया जाय क्योंकि लड़की अभी नाबालिग है। इस अर्जी पर जस्टिस समीर जे. दवे ने कहा कि पहले के जमाने में 14-15 साल की लड़कियां ब्याह दी जाती थीं और 17 तक बच्चे को जन्म दे देती थीं, यह बहुत सामान्य था।
जस्टिस दवे की यह मौखिक टिप्पणी लाइव लॉ ने उद्धृत की है:
‘’हम लोग तो इक्कीसवीं सदी में रह रहे हैं, वरना अपनी मां या दादी से पूछिए, शादी करने की अधिकतम उम्र 14-15 साल हुआ करती थी। 17 साल के पहले ही बच्चा हो जाता था। लड़कियां लड़कों से पहले जवान हो जाती हैं। चार-पांच महीने का आगे पीछे तो चलता ही है, उससे कोई फर्क नहीं पड़ता। वैसे आप पढ़ेंगे तो नहीं, लेकिन इसके बारे में जानने के लिए आपको मनुस्मृति पढ़नी चाहिए।‘’
नाबालिग के पिता सिकंदर सैयद के वकील का कहना था कि इस मामले में जल्द सुनवाई होनी चाहिए क्योंकि प्रसव की अनुमानित तारीख 16 अगस्त है। अदालत ने साफ कहा कि वह गर्भपात का आदेश नहीं दे सकती यदि भ्रूण और नाबालिग की सेहत दुरुस्त हो।
xxx-vs-state-of-gujarat-475613
कुंडली-न्याय
जज दवे की इस टिप्पणी से दो हफ्ते पहले 23 मई को इलाहाबाद उच्च न्यायालय में एक केस आया था। वहां भी मामला एक बलात्कार पीड़ित का था। सुनवाई बलात्कार के आरोपित की जमानत पर होनी थी।
लड़की का आरोप था कि शादी का झांसा देकर आरोपित ने उसके साथ यौन संबंध बनाए जबकि उसकी मंशा शादी करने की नहीं थी। इस मामले में आरोपित के वकील ने अदालत को बताया था कि दोनों के बीच शादी इसलिए नहीं हो सकती क्योंकि लड़की मांगलिक है। लड़की के वकील ने इसका खंडन करते हुए कहा कि लड़की मांगलिक नहीं है।
दोनों पक्षों के विरोधी दावों को सुनने के बाद जस्टिस बृजराज सिंह ने आदेश दिया कि लखनऊ विश्वविद्यालय के ज्योतिष विभाग के प्रमुख तीन सप्ताह के भीतर यह जांच कर रिपोर्ट दें कि बलात्कार पीड़ित मांगलिक है या नहीं। अदालत ने दोनों पक्षों को दस दिनों के भीतर विभागाध्यक्ष के पास लड़के और लड़की की कुंडली लेकर जाने का आदेश दिया।
इस आदेश पर सुप्रीम कोर्ट ने 3 जून को रोक लगा दी। अवकाश बेंच के न्यायाधीश न्यायमूर्ति सुधांशु धूलिया और पंकज मित्तल ने उच्च न्यायालय की एकल पीठ के आदेश पर रोक लगाते हुए कहा कि यह आदेश पूरी तरह अप्रासंगिक है और इसमें निजता के अधिकार सहित कई आयाम शामिल हैं।
दिलचस्प यह है कि सर्वोच्च अदालत ने इस मसले में ज्योतिष या कुंडली आदि पर कोई आपत्ति नहीं जाहिर की, बल्कि उससे ठीक उलट टिप्पणी की। बलात्कार पीड़ित की ओर से पैरवी कर रहे वकील अजय कुमार सिंह का कहना था कि लउ़की मांगलिक नहीं है और उच्च न्यायालय ने इंडियन एविडेंस ऐक्ट की धारा 45 के तहत विशेषज्ञ की राय लेने को कहा है। सिंह का कहना था कि ज्योतिष एक विज्ञान है, विश्वविद्यालय इस विषय में डिग्री देते हैं।
सिंह के इस दावे पर बेंच ने कहा कि वह विषय को चुनौती नहीं दे रही न ही इसमें फंस रही है कि ज्योतिष एक विज्ञान है या नहीं।
इस मामले में भारत सरकार के सॉलिसिटर जनरल ने उच्च न्यायालय के आदेश को चिंताजनक बताते हुए उस पर रोक लगाने की अपील की थी। सुप्रीम कोर्ट ने इसलिए उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक नहीं लगाई कि ज्योतिष कोई अंधविश्वास या अवैज्ञानिक चीज है बल्कि इसलिए कि एक बलात्कार आरोपित ज्योतिष को आधार बनाकर जमानत मांग रहा था।
सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय को केस की मेरिट के आधार पर आरोपित की जमानत याचिका पर फैसला देने का आदेश दिया।
गुजरात और इलाहाबाद दोनों मामलों में फर्क यह रहा कि एक जगह मनुस्मृति का हवाला मौखिक रूप से दिया गया, तो दूसरी जगह बाकायदा अदालती आदेश में ज्योतिष को लाया गया। सुप्रीम कोर्ट ने केस के मेरिट के आधार पर भले इलाहाबाद उच्च न्यायालय के आदेश पर रोक लगाई, लेकिन ज्योतिष पर कोई टिप्पणी नहीं की बल्कि उसका सम्मान करने की बात कही।
तीनों अदालतों का यह समान रुझान- आदेश के भीतर या इतर- न्याय की आधुनिक अवधारणा के वैज्ञानिकता पर आधारित होने के बजाय उन प्रतिगामी ‘सांस्कृतिक’ मानकों पर कसे जाने की ओर इशारा करता है, जिसका वाहक राजनीतिक सत्ता प्रतिष्ठान है जो आधुनिक लोकतांत्रिक गणराज्य को राजदंड के सहारे चलाने में यकीन रखता है। ये दो ताजा मामले उन विवादास्पद अदालती फैसलों और टिप्पणियों की लंबी फेहरिस्त में अदद हैं, जिनके दायरे में निचली अदालतों से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सभी शामिल हैं।
ऐसे मामलों के कुछ चर्चित उदाहरण नीचे देखे जा सकते हैं।
- 21 दिसंबर, 2021: केरल उच्च न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि नागरिकों का कर्तव्य है कि वे अपने प्रधानमंत्री का सम्मान करें। यह टिप्पणी एक याचिका पर सुनवाई के दौरान आई जिसमें कोविड-19 के टीकाकरण के प्रमाण पत्र पर से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तस्वीर हटाने की मांग की गई थी। याचिकाकर्ता के ऊपर जस्टिस पीवी कुन्ही कृष्णन ने एक लाख रुपये का दंड लगाते हुए कहा कि प्रधानमंत्री संसद की छत तोड़कर नहीं आए हैं, जनादेश से जीत कर आए हैं इसलिए हर नागरिक को उनकी इज्जत करनी चाहिए।
- फरवरी, सितंबर और अक्टूबर 2021: इलाहाबाद उच्च न्यायालय के जज शेखर कुमार यादव ने एक जमानत याचिका पर सितंबर 2021 में सुनवाई करते हुए कहा था कि गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित कर देना चाहिए। उनका कहना था कि ‘’जब गाय का कल्याण होगा तभी देश का कल्याण होगा।‘’ जस्टिस यादव ने अगले ही महीने अक्टूबर में कहा था कि भगवान राम और कृष्ण को राष्ट्रीय सम्मान देने के लिए संसद में एक कानून लाया जाना चाहिए। यह मामला भी एक व्यक्ति की जमानत से जुड़ा था जिसमें सुनवाई करते हुए जिसमें जज ने राम जन्मभूमि पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले का हवाला दिया। जस्टिस यादव ने इससे पहले मार्च में अमेजन प्राइम पर आई एक सीरीज़ ‘तांडव’ पर सुनवाई करते हुए कहा था कि तांडव नाम रखना बहुसंख्य लोगों की भावनाओं को आहत करना है क्योंकि इसका संबंध भगवान शिव से है।
- मार्च 2021: सुप्रीम कोर्ट भी ऐसे विवादों से नहीं बचा है। अदालत में मुख्य न्यायाधीश एसए बोबड़े की बेंच पर एक मामला बलात्कार का आया था जिसमें उन्होंने 23 साल के एक बलात्कार के आरोपित से पूछा कि क्या वह पीडिता से शादी करेगा। आरोपित सरकारी कर्मचारी था और उसने एक नाबालिग से बलात्कार किया था। जस्टिस बोबड़े ने कहा था, ‘’हम तुम्हें शादी के लिए बाध्य नहीं कर रहे हैं। खुद बताओ तुम क्या चाहते हो।‘’
- जनवरी 2021: बॉम्बे उच्च न्यायालय की नागपुर खंडपीठ की जज पुष्पा गनेड़ीवाला ने यौन उत्पीड़न के एक केस में कहा था कि ‘’बिना त्वचा के त्वचा से संपर्क हुए एक नाबालिग के स्तनों को छूना पॉक्सो कानून के अंतर्गत यौन उत्पीड़न नहीं कहा जा सकता।‘’ उसी साल नवंबर में हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इस आदेश को रद्द कर दिया था।
- 2017: राजस्थान उच्च न्यायालय के जस्टिस महेश चंद्र शर्मा विवादास्पद न्यायिक टिप्पणियों के लिए बीते कुछ वर्षों में सबसे चर्चित रहे हैं। उन्होंने भी शेखर कुमार यादव की तरह गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने की मांग की थी यह कहते हुए कि गाय ऑक्सीजन छोड़ती है, लेकिन उनका सबसे चर्चित बयान मोरनी को लेकर आया था। शर्मा ने अपने सेवाकाल के आखिरी दिन गौशाला के एक केस में सुनवाई करते हुए गाय पर टिप्पणी के अतिरिक्त एक रिपोर्टर से बातचीत में मोर को उतना ही पवित्र बताया था। उनका कहना था कि मोरनी मोर के साथ संभोग नहीं करती है बल्कि मोर के आंसू पीकर वह गर्भवती हो जाती है।
- जुलाई 2015: मद्रास उच्च न्यायालय ने जस्टिस पी. देवदास के एक आदेश को रद्द किया था जिसमें एक बलात्कारी और बलात्कृत के बीच मध्यस्थता का आदेश दिया गया था। इस मामले में जस्टिस देवदास ने बलात्कारी को जमानत दे दी थी।
मनु का कानून
जजों की टिप्पणियां विवाद का विषय पहले भी बनती रही हैं, लेकिन बीते कुछ वर्षों के दौरान मोटे तौर पर ऐसी टिप्पणियां स्त्री-पुरुष संबंध के दायरे में ही आ रही हैं। यूपी और गुजरात उच्च न्यायालय के ताजा दो मामले बलात्कार से जुड़े हैं। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रहे बोबड़े की टिप्पणी भी बलात्कार के मामले में ही आई थी। ऊपर गिनाए गए कुछ मामले भी बलात्कार के ही केस हैं।
इन सभी टिप्पणियों में संविधान में दी गई न्याय की आधुनिक अवधारणा को जिस तरह ‘संस्कृति’ की आड़ लेकर तोड़ने-मरोड़ने की कोशिश की गई है, वह निर्णायक रूप से स्त्री यानी पीड़ित पक्ष के खिलाफ जाती है। यहां समस्या अपने आप में ‘संस्कृति’ से नहीं है बल्कि उसके नाम पर गिनवाई जाने वाली अवैज्ञानिक, अपुष्ट बातों और अंधविश्वासों से है जिन्हें संस्कृति का लिहाफ ओढ़ाकर चलने दे दिया जाता है।
यह स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि अब कोर्टरूम में हाइकोर्ट का जज पैरवी कर रहे वादी के वकील को मनुस्मृति पढ़ने की सलाह देने लगा है। यह कोई संयोग नहीं है। राजस्थान उच्च न्यायालय के बाहर तीन दशक से ज्यादा समय से स्थापित मनुस्मृति हाथ में लिए मनु की प्रतिमा को हटाने के लिए लगाई गई एक जनहित याचिका को बीती फरवरी में सुप्रीम कोर्ट ने खारिज कर दिया था। इस बारे में खबर बहुत कम रिपोर्ट हुई थी।
यह याचिका रामजीलाल बैरवा ने सुप्रीम कोर्ट में लगाई थी। फरवरी 2023 में जस्टिस संजीव खन्ना और एम.एम सुंदरेश ने इसे इस आधार पर खारिज कर दिया था कि ऐसी ही एक याचिका राजस्थान उच्च न्यायालय में काफी पहले से लंबित है। सर्वोच्च नयायालय ने याचिकाकर्ताओं को उच्च न्यायालय जाने का आदेश दिया।
मनु की यह प्रतिमा राजस्थान उच्च न्यायालय के बाहर 1989 में स्थापित की गई थी। याचिकाकर्ताओं के अनुसार यह काम चुपके से किया गया था। इसके छह महीने बाद फुल कोर्ट बैठक ने निर्णय लिया था कि प्रतिमा हटाई जाएगी। इसके खिलाफ एक पीआइएल दायर हो गई, तभी से प्रतिमा को कोर्ट परिसर से हटाए जाने के आदेश पर रोक लगी हुई है।
2018 में यह मामला बहुत गरमा गया जब औरंगाबाद से आई रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की दो महिला सदस्यों ने इस प्रतिमा पर चढ़कर इसे काले रंग से पोत दिया। इनके खिलाफ मुकदमा दर्ज हुआ जो जारी है। रह-रह कर मनु की इस प्रतिमा के खिलाफ संगठनों का विरोध देखने को मिलता रहा है, लेकिन आज तक न्यायपालिका ने इस मामले में सक्रियता नहीं दिखाई।
ऐसी स्थिति में फिर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए जब कोरोना को दूर भगाने के लिए ‘भाभीजी के पापड़’ का नुस्खे के तौर पर प्रचार करने वाला भाजपा का नेता आज कानून मंत्री बना दिया गया है और खुद इस लोकतंत्र का प्रधानमंत्री दर्जनों पंडों और कर्मकांडों के बीच नई संसद में राजदंड की स्थापना कर चुका है।
इस संदर्भ में यह भूलना नहीं चाहिए कि दिल्ली में राजदंड की स्थापना ठीक उस समय हुई जब कुछ किलोमीटर दूर महिलाएं अपनी इज्जत की लड़ाई लड़ते हुए सड़कों पर मार खा रही थीं। यह अदालतों के बाहर का दृश्य था, जहां मनु की प्रतिमा आज भी खड़ी है। अदालतों के भीतर मनुस्मृति पढ़ने की सलाह अब दे ही दी गई है। संयोग नहीं है कि इस सलाह की शुरुआत गुजरात से हुई है, कहीं और से नहीं।