‘पॉप’ हिंदुत्‍व: तीन संस्‍कारी नायक और उनकी कुसांस्‍कृतिक छवियां

Representational Image, Courtesy The India Forum, SOPA/Alamy
भारतीय जनता पार्टी के जन्‍म से ही उसके चुनावी घोषणापत्रों का पहला वादा रहे अयोध्‍या के राम मंदिर में जब प्राण प्रतिष्‍ठा को कुछ दिन ही बच रहे हैं, तब धर्म और शास्‍त्रोक्‍त पद्धतियों पर बहस छिड़ी हुई है। सच्‍चाई यह है कि हिंदू धर्म के रूढ़ हो चुके संस्‍थागत स्‍वरूप को त्‍यागकर उसे लोकप्रिय व सर्वग्राह्य बनाने से भाजपा का यह प्रोजेक्‍ट पूरा हुआ है। नए मीडिया में विभिन्‍न लोकरंजक विधाओं के माध्‍यम से हिंदुत्‍व के प्रचार-प्रसार पर बहुत कम अध्‍ययन हुआ है। इसी विषय पर कुणाल पुरोहित की लिखी पुस्‍तक ‘एच-पॉप’ पर चर्चा कर रहे हैं अतुल उपाध्‍याय

विल्हेम रीश ने जब अपनी किताब दि मास साइकोलोजी ऑफ फाशिज्‍म लिखी थी तब वे इस बात का विश्लेषण करना चाहते थे कि कैसे हिटलर जैसे सर्वसत्तावादी शासक ने इतने बड़े पैमाने पर जनता को अपने प्रोपगंडा में यकीन दिलाया होगा। लेखक इस बात से अनभिज्ञ नहीं है कि हिटलर के नाजीवाद और इस वक्त भारतीय राज्‍य (स्‍टेट) द्वारा गढ़ी जा रही सामाजिक संरचना के बीच काफी फर्क है, फिर भी जिस बड़े पैमाने पर और जिस तेजी से वैचारिक नफरत का कारोबार फैल रहा है उसका विश्लेषण किया जाना जरूरी है।

नफरत के इस कारोबार को फैलाने में पारम्परिक मीडिया की भूमिका को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। नया मीडिया– जिसमें वेबसाइटें और सोशल मीडिया के विभिन्न मंच शामिल हैं- को पारम्परिक मीडिया के बरअक्स रखकर देखा गया जहां मुख्यधारा में छूट गई बहसों को आम जन ने अपनी चर्चाओं में शामिल किया। मसलन, #MeToo सरीखी कई खबरें इस नए मीडिया की नामौजूदगी में बाहर ही नहीं आ पातीं, लेकिन यदि बेंजामिन का कहा मानें तो हम पाएंगे कि इसी सोशल मीडिया ने कई ऐसी नई परिघटनाओं को जन्म दिया जो भारतीय फासीवाद के केंद्र में स्थित हिंदुत्ववादी विचारधारा का व्यापक प्रचार करने में इस्तेमाल की गईं। इनमें सबसे महत्वपूर्ण काम थे भ्रामक खबरें फैलाना, झूठ की स्‍वीकार्यता कायम कर के उसकी बुनियाद पर लोगों को हिंसा और कत्ल के लिए प्रेरित करना तथा विभिन्न घटनाओं की तह में मौजूद अफसानों को तोड़-मरोड़ कर पेश करना। इससे नफरत के उद्योग की मशीन को ईंधन मिलता है।

इस मशीन की क्षमता और ताकत का अंदाजा लगाने के लिए केंद्रीय गृह मंत्री और राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ के प्रचारक अमित शाह के उस बयान को याद करना चाहिए जब उन्होंने कहा था कि “हमारे सोशल मीडिया वालंटियर्स के पास यह क्षमता है कि हम किसी भी संदेश को, चाहे वो सच हो या झूठ, वायरल करा सकते हैं।‘’

अभी हाल के वर्षों में हिंदुत्व की विचारधारा ने अपने प्रोपगंडा के विस्तार के लिए इस नए माध्यम का नए तरीके से इस्तेमाल करना शुरू किया है। दिलचस्प बात यह है कि यह प्रोपगंडा महज सोशल मीडिया के बुलबुले तक सीमित न होकर असल जमीन पर भी उतना ही काम में लिया जा रहा है। इसी सन्दर्भ में कुणाल पुरोहित की हाल ही में आई किताब H-पॉप काफी महत्वपूर्ण है। अपनी किताब में पुरोहित ने लोकप्रिय संस्कृति के प्रचार के तीन मुख्य माध्यमों- संगीत, कविता, और पुस्तक प्रकाशन- के जरिये इस बात की पड़ताल करने की कोशिश की है कि संघ-भाजपा का वैचारिक ईको-सिस्‍टम कैसे इन माध्यमों का इस्तेमाल अपने ‘विचारों’ के प्रचार-प्रसार में करता है और कैसे सोशल मीडिया इस नफरत के व्यापार में एक महत्वपूर्ण औजार के रूप में सामने आता है।



भारत के सन्दर्भ में वैचारिक प्रोपगंडा कोई नई चीज नहीं है, बल्कि यहां तो विचारहीन प्रोपगंडा का बाजार भी बहुत उर्वर है। आज से तीस साल पहले इस देश में एक ही समय में गणेश दूध पी चुके हैं।

वैचारिक मिथ्‍या-प्रचार का इतिहास उठा कर देखें, तो उसमें पी.एन. ओक सरीखे कथित इतिहासकारों का नाम प्रमुखता के साथ आता है जिन्होंने “क्या ताजमहल ही तेजोमहालय है?” जैसी किताबें लिखकर बीते दशकों भ्रम फैलाने का काम किया, जब इंटरनेट नहीं था। आजकल 1 जीबी डेटा की मुफ्त खिड़की से समाज में झांक रही भारत की युवा पीढ़ी में इतिहासबोध ही नदारद है। दूसरे, समसामयिक विषयों को किसी फॉर्मूले की तरह ब्‍लैक एंड वाइट में समझने की शॉर्टकट आदत नए मीडिया द्वारा संचालित प्रोपगंडा को और कामयाब बना रही है। एक तरफ जबकि बेरोजगारी पैर पसारे हुए है, ऐसे में कोई पॉपुलर चेहरा उन्हें यह बताए कि देश की सारी समस्याओं की जड़ महात्‍मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू थे; और सारी समस्याओं का हल इस देश को हिन्दू-राष्ट्र बनाने में है; तो ‘कारण-समाधान’ के इस सरल जंजाल में ही उन्हें अपनी मुक्ति का शॉर्टकट रास्ता नजर आने लगता है।

कुणाल पुरोहित की किताब इन्हीं बातों का परीक्षण करती है। लेखक मुख्य रूप से तीन सवाल पूछते हैं: क्या कोई गाना लोगों को कत्ल करने के लिए उकसा सकता है? क्या कोई कविता दंगा भड़का सकती है? क्या कोई किताब लोगों को बांट सकती है? तीनों सवालों का मर्म एक है- क्‍या कोई सांस्‍कृतिक रचना-कर्म हिंसा पैदा कर सकता है?

यह किताब तीन भागों में विभाजित है। पॉपुलर (पॉप) या लोकरंजक संस्कृति की ऊपर बताई गई तीनों विधाओं में से एक-एक मशहूर चेहरा (पॉप स्टार) चुनकर पुस्‍तक उनके काम के जरिये विषय की पड़ताल शुरू करती है। किताब का पहला भाग राजस्थान की एक गायिका कवि सिंह के जरिये हिंदुत्व के प्रचारात्‍मक संगीत की पड़ताल करता है। दूसरे भाग में हिंदुत्व के फायरब्रांड कवि कमल आग्नेय के जरिये किताब कविता के माध्‍यम से हिंदुत्व के प्रचार का पर्दाफाश करती है। तीसरे भाग में एक प्रकाशक और हिंदुत्‍व के सांस्कृतिक योद्धा संदीप देव का उदाहरण लेकर किताब इस बात का परीक्षण करती है कि कैसे किताबें छपने से शुरू हुआ संदीप का ‘सांस्कृतिक युद्ध’ नफरत की बुनियाद पर खड़ा है।

इन तीनों सेलिब्रिटी सितारों की खास बात यह है कि ये न सिर्फ अपनी विधाओं के माध्यम से डिजिटल दुनिया में हिंदुत्व का झंडा बुलंद किए हुए हैं, बल्कि असल दुनिया में भी जरूरत पड़ने पर हिन्दू-राष्ट्र के निर्माण में अपना योगदान देने से झिझकते नहीं हैं। दूसरा, इन तीनों सितारों में एक आम चीज इनकी उत्तर-भारतीय मध्यम-वर्गीय सामाजिक पृष्‍ठभूमि है। यह वही सामाजिक तबका है जिसे घरेलू मसलों में भी निर्णय लेने से पहले सैकड़ों बार सोचना पड़ता है; जिसके लिए जीवन-संचलन की प्राथमिक इकाई बाजारीकृत-उदारीकृत माहौल में सामाजिक अलगाव का शिकार हो चुका ‘हिंदू परिवार’ है। शायद इसी ग्रंथि की वजह से यह तबका संघ परिवार के ‘हिन्दू खतरे में है’ वाले (अपेक्षाकृत समावेशी) नारे के झांसे में आकर हाल के वर्षों में भाजपा का वोटर बन गया। इस बात का रहस्य शायद इस तथ्य में भी है कि इन सितारों में से कुछ की राजनीतिक पृष्ठभूमि सेकुलर रही, मसलन कमल ने अपना पहला वोट उत्तर प्रदेश में सेकुलरवाद का झंडाबरदार मानी जाने वाली समाजवादी पार्टी को दिया था (पृष्ठ 143)।

पुरोहित की किताब इन सितारों के निजी जीवन की पड़ताल करती है तथा उन छोटे-छोटे कारणों की तलाश करने की कोशिश करती है जिन्होंने इन्हें हिंदुत्व की खाई में धकेला होगा। पुरोहित यह काम बेहद व्यवस्थित रूप से करते हैं। वे इन सितारों की जिंदगी की शुरुआत, उसमें आए उतार-चढ़ावों तथा उसके बाद की नई शुरुआतों का वृत्‍तान्‍त मुहैया कराते हैं।



कवि सिंह की कहानी उस बच्ची की कहानी है जिसने बचपन में ही अपने पिता को खो दिया था। इसके बाद उन्‍हें मशहूर हरियाणवी गायक रामकेश जीवनपुरवाला ने गोद ले लिया और कालान्‍तर में उन्‍हें गायिका बनाने में महत्वपूर्ण योगदान दिया (पृष्ठ 3)।

कवि ने अपनी 25 साल की उम्र में जितना नाम कमाया वह पुरोहित को हैरान करता है: ‘’वह इतनी कम उम्र में ही अब तक 80 से अधिक गाने रिकॉर्ड कर चुकी है’’ (पृष्ठ 1)। कवि के जिस गाने ने उन्‍हें रातोरात मशहूर कर दिया, वह पुलवामा हमले पर बनाया गया था। उस गाने में हमले के बाद भारतीय ‘जनता’ के भीतर उपजे ‘गुस्से’ को इतने बेहतरीन तरीके से संजोया गया था कि आने वाले हफ्तों में देश के कई हिस्सों में कश्मीरियों के खिलाफ हिंसा की घटनाएं होती रहीं क्योंकि उस गाने में इस बात की ओर भी संकेत किया गया था कि उक्‍त हमले में ‘अंदर के लोगों का भी षड्यंत्र’ शामिल था।

कवि ने उसके बाद इस प्रोपगंडा से इतर भी गाने बनाने की कोशिश की, लेकिन उन गानों को उतनी कामयाबी नहीं मिली। इसका कारण शायद इस बात में निहित है कि 2014 के बाद केंद्र में भाजपा की सरकार और उसके द्वारा संरक्षित-समर्थित हिंदुत्‍ववादी समूहों ने मिलकर जिस तरह का सामाजिक वातावरण तैयार किया है, उसमें नफरत के अलावा और कुछ उतने बड़े पैमाने पर बेचा जा सकना सम्भव नहीं रह गया है। यह बात समझ में आने के बाद कवि ने चालू राजनीतिक जरूरतों के हिसाब से अनुच्‍छेद 370, ‘लव जिहाद’ आदि विषयों पर गाने बनाए, जो बहुत लोकप्रिय हुए (पृष्ठ 51)।



कमल आग्नेय की कविता हिंदुत्व की उस ‘ऐतिहासिक समझदारी’ को ध्यान में रखकर रची गई है जिसमें गोडसे को नायक मानना और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के आलोचकों को ‘गद्दार’ कह देना बेहद आम चलन है (पृष्ठ 81)।

कविता में कमल की रुचि के पीछे उनके पिता का बचपन में उन्‍हें कवि सम्मेलनों में ले जाना एक कारण रहा। कमल अपने स्कूली दिनों से ही कविता लिखने और कविता-पाठ करने लगे थे। कमल ने यति नरसिंहानन्द और धीरेन्द्र शास्त्री उर्फ बागेश्वर बाबा जैसे हिंदुत्‍व के प्रचारकों के मंच से कविता पाठ किया है। उन्‍होंने 2019 के आम चुनाव और 2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा का प्रचार भी किया था (पृष्ठ 167)। विश्व हिन्दू परिषद, भाजपा के कई बड़े नेताओं से उनके घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। उनका यह भी मानना है कि योगी आदित्यनाथ के उत्तर प्रदेश में दोबारा मुख्‍यमंत्री चुने जाने में उन्‍होंने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

लेखक कहते हैं कि इस किताब का तीसरा किरदार संदीप देव रामचरितमानस के लेखक तुलसीदास की तरह बनना चाहता है ताकि वह ‘अधिक से अधिक लोगों तक पहुंच पाए’ क्योंकि उसका यह मानना है कि वह एक ‘यथोचित’ काम को अंजाम दे रहा है (पृष्ठ 212)। संदीप देव एक पत्रकार थे जो बाद में प्रकाशक बन गए और वर्तमान में यूट्यूबर और लाइफ कोच हैं।

वे हिंदुत्व के प्रोजेक्ट के लिए बहुत मेहनत कर रहे हैं। उनका मानना है कि वे हिन्दुओं के पश्चिम, इस्लाम और नेटफ्लिक्स सरीखे दुश्मनों के खिलाफ एक ‘सांस्कृतिक युद्ध’ लड़ रहे हैं (पृष्ठ 182)। उनका यह कथित ‘सांस्कृतिक युद्ध’ इस हद तक आगे बढ़ चुका है कि वे अब इस निष्‍कर्ष पर पहुंचे हैं कि भाजपा भी ‘हिन्दुओं के लिए’ काम नहीं कर रही है। इसीलिए उन्‍होंने अब अपना एक राजनीतिक दल बना लिया है जिसका नाम एकम सनातन भारत दल (पहले ‘एकजुट जम्मू’) है (पृष्ठ 276)। 



हिंदुत्व के प्रचार-प्रसार में लोकरंजक संस्कृति का क्या योगदान हो सकता है इस बात का अंदाजा लगाने के लिए हमें यह देखना होगा कि इतिहास में राजनीतिक विचारधाराओं के वाहकों ने अपने वैचारिक प्रचार-प्रसार और अपनी परियोजनाओं को जनता में स्वीकृति दिलाने के लिए लोक-संस्कृति को कितना महत्व दिया है। ऐसे कई उदाहरण देखे जा सकते हैं।

इन उदाहरणों में सबसे महत्वपूर्ण रवांडा का है जहां तुत्सी समुदाय के नरसंहार में रेडिओ रवांडा की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही थी। भारत में राम मंदिर आंदोलन के दौर में तकरीबन ऐसा ही प्रचारात्‍मक काम दैनिक जागरण ने किया था। अपनी महत्‍वपूर्ण पुस्‍तक ‘पत्रकारिता का अंधा युग’ में वरिष्‍ठ पत्रकार आनंद स्‍वरूप वर्मा उस दौर की हिंदी पत्रकारिता को ‘हिंदू पत्रकारिता’ का नाम देते हैं। उनके गिनाए उदाहरणों में तो मामला जनसत्‍ता जैसे प्रगतिशील और सेकुलर माने जाने वाले दैनिकों तक चला आता है जिसने सती प्रथा के समर्थन में संपादकीय टिप्पणी प्रकाशित की थी।

आज की तारीख में उसी तरह का काम अब हिंदुत्‍व के पॉप स्‍टार कर रहे हैं। वे हिंदुत्व के विचार को इस तरह से प्रसारित कर रहे हैं कि वह हिंदू जनता का ‘कॉमन सेन्स’ (सहजबोध) बनता जा रहा है। इसी सहजबोध के चलते मध्यवर्गीय हिंदुओं का एक बड़ा हिस्‍सा अपनी सारी समस्याओं की जड़ गैर-हिंदुओं (पढ़ें मुसलमानों) में देख रहा है। उसे लग रहा है कि इनके (पाकिस्‍तान) चले जाने और भारत के हिन्दू-राष्ट्र बन जाने से उसकी सारी समस्याएं स्‍वत: खत्म हो जाएंगी।

जब यह समीक्षा लिखी जा रही थी, उस वक्त कवि सिंह अपने सोशल मीडिया के माध्यम से राजस्थान में ‘छोटे योगी’ के नाम से प्रचलित योगी बालकनाथ का चुनाव प्रचार कर रही थीं (अब चुनाव नतीजे आने के बाद बालकनाथ विजयी हुए हैं और राजस्थान में भाजपा ने सरकार बना ली है)। ठीक उसी वक्‍त कमल आग्नेय दूरदर्शन पर और पुलिस के आला अधिकारियों के बीच अपना मंझा हुआ ‘कविता पाठ’ कर रहे थे और संदीप देव की पार्टी एकम सनातन भारत दल को चुनाव आयोग की मान्यता प्राप्त हो चुकी है। इस बात का सिर्फ अंदाजा ही लगाया जा सकता है कि आने वाले समय में हिंदुत्व के ये सांस्‍कृतिक चेहरे उसकी राजनीतिक परियोजना के भीतर किस मुकाम पर क्‍या-क्‍या कर के पहुंचेंगे।


दैनिक जागरण: तीन दशक से ज्यादा समय से ‘हिन्दू’ पत्रकारिता का स्थायी और विश्वसनीय चेहरा

पुरोहित की यह किताब कई वर्षों तक उत्तर-भारत के इलाकों में ‘हेट क्राइम’ पर रिपोर्टिंग के दौरान अर्जित उनके जमीनी अनुभवों की उपज है। किताब हालांकि अकादमिक मिजाज की कम है। लेखक ने चालू पत्रकारिता वाले अंदाज में कुछ छूट ली है ताकि किताब सामान्‍य पाठकों तक भी पहुंच पाए। इसके बावजूद, कई ऐसे आयाम लेखक की निगाह से छूट गए हैं या शायद विषयान्‍तर से बचने के लिए नहीं छुए हैं, जिन पर बात की जा सकती थी।

मसलन, इधर बीच पॉप संस्कृति में आया एक नया बदलाव जो इन तीनों सितारों की भाषा और काम की अंतर्वस्तु में भी दिखाई पड़ता है, वह मस्कुलिनिटी या मर्दानगी की छवियां हैं। संघ के सांस्‍कृतिक राष्‍ट्रवाद के संदर्भ में यह मस्‍कुलिनिटी एक नेता, एक पार्टी, एक राष्‍ट्र जैसे ‘एक’ चालक से जुड़ी हर पदावली में प्रतिबिंबित होती है।

इसके बावजूद रोजमर्रा के हिंदुत्व के प्रोपगंडा, डिजिटल मीडिया, लोकप्रिय संस्कृति आदि में रुचि रखने वाले पाठकों के लिए यह एक महत्वपूर्ण किताब है जिसका पाठ आज के ‘नए’ समय और निर्माणाधीन ‘नए’ भारत की मांग है।


कुणाल पुरोहित, H-पॉप : द सीक्रेटिव वर्ल्ड ऑफ हिंदुत्व पॉप स्टार्स. हार्पर कॉलिंस पब्लिशर्स इंडिया, 2023, पृष्ठ xx+ 280, ₹499/-, आइएसबीएन: 978-93-5699-582-6


More from अतुल उपाध्याय

JNU विवाद : दक्षिणपंथ की मिट्टी में दफन हो रहा पहचान का कफन

JNU में कुछ अच्‍छा हो या बुरा, सब कुछ विवाद का विषय...
Read More

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *