Culture

Speckled Cobra in a field near an agricultural worker, WHO

MP : तांत्रिक हो या अफसर, यहां सबके लिए है सांप के जहर में अवसर सिवाय मरने वाले के…

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कभी सपेरों का देश कहे जाने वाले भारत में सांप के काटे से मरने वालों की संख्‍या पूरी दुनिया में सर्पदंश से होने वाली मौतों की आधी से ज्‍यादा है। अस्‍पतालों का टोटा, अंधविश्‍वास की व्‍याप्ति और विलुप्‍त होते देसी उपचारक समस्‍या को और गहरा कर रहे हैं। जहररोधी उपलब्‍ध करवाने को लेकर सुप्रीम कोर्ट में याचिका, सरकार के निर्देश, और बीते सात साल से हर 19 सितंबर को मनाए जा रहे अंतरराष्‍ट्रीय सर्पदंश जागरूकता दिवस का कोई असर नहीं पड़ रहा है। उलटे, सांप भी अब भ्रष्‍टाचार की चपेट में आ गए हैं। अपनी तरह का मौलिक सांप घोटाला देखने वाले मध्‍य प्रदेश के सागर से सतीश भारतीय की रिपोर्ट

Indian historical figures depicted in Gyanendra Pandey's book

पुस्तक समीक्षा : भारतीय समाज के ऐतिहासिक किरदार अपने घर की औरतों के लिए कैसे ‘मर्द’ थे?

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बहुत लंबे समय तक लैंगिकता के प्रश्‍न का अध्‍ययन औरतों को केंद्र में रखकर किया गया। आज भी भारतीय नारीवाद खुद को ज्‍यादातर औरतों के सवालों तक ही सीमित रखता है, हालांकि पुरुषों को समझने के लिए उनको केंद्र में लाने का चलन पश्चिम में काफी पहले शुरू हो चुका था। सबाल्‍टर्न इतिहासकार ज्ञानेंद्र पाण्‍डेय की इस साल आई नई किताब ‘मेन ऐट होम’ भारत की कुछ नायकीय विभूतियों के घरेलू व्‍यवहार की पड़ताल कर के घर और बाहर के बीच मर्दानगी की फांक को समझने की कोशिश करती है। इस किताब की समीक्षा अतुल उपाध्‍याय ने की है, जो लोकसंगीत में मर्दानगी के तत्‍वों पर खुद शोध कर रहे हैं

पुस्तक अंश: हिन्दी-उर्दू शुरू में एक ही थीं, उन्हें बांटना भारत के विभाजन की छल भरी शुरुआत थी!

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हिंदी को लेकर आम हिंदीभाषियों में बहुत सी गलत धारणाएं और भ्रम हैं। जाहिर है, यह इतिहासबोध के अभाव और गौरवबोध के संकट के चलते हुआ है। एक ओर अंग्रेजी और दूसरी ओर उर्दू के प्रति दोहरा विद्वेष जो संस्‍कृतनिष्‍ठ हिंदी और संस्‍कृत के प्रति मोह को जन्‍म देता है, ऐतिहासिक रूप से गलत जमीन पर खड़ा है। भाषाविद् डॉ. पेगी मोहन ने अपनी किताब “Wanderers, Kings, Merchants: The Story of India through Its Languages” में हिंदी और उर्दू के कभी एक होने और फिर जुदा हो जाने के इतिहास पर बाकायदे एक अध्‍याय लिखा है! हिंदी दिवस पर वहीं से कुछ अहम अंश

Shanti Majumdar

भुला दी गईं माँओं और सवालिया नागरिकताओं के देश में शांति मजुमदार की कहानी का जी उठना…

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पांच साल पहले नागरिकता संशोधन विधेयक के खिलाफ देशव्‍यापी आंदोलन हुआ था। आज जब सैकड़ों की संख्‍या में पिछले चार माह से मुस्लिम बांग्‍लाभाषियों को चुन-चुन कर बांग्‍लादेश भेजा रहा है, नागरिकता के दावे रद्द किए जा रहे हैं और सरकारी कागजों का अदालतों में कोई अर्थ नहीं रह गया, सड़कें सूनी हैं। ऐसे में अचानक एक कहानी जिंदा हुई है- बंगाल की उस मां की कहानी, जिसने अपने नौ बच्‍चे धरती पर न्‍योछावर कर दिए फिर भी उसे अंत में यहां शरणार्थी ही माना गया। बीते 26 अगस्‍त को दिल्‍ली में मंचित हुए एक नाटक के बहाने नागरिकता के संकट पर अभिषेक श्रीवास्‍तव की कहानी

Tomb of Nawab Abdul Samad in Fatehpur, UP

फतेहपुर : हिंदुत्‍व की पुरानी समझदारी से इबादतगाहों के नए विवादों को समझने की अड़चनें

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देश की सेकुलर जमातों के ऊपर बाबरी विध्‍वंस का कर्ज इस कदर हावी है कि पिछले साल संभल हो, इस साल बहराइच या ताजा-ताजा फतेहपुर, हर जगह उन्‍हें नई अयोध्‍या ही बनती दिखाई देती है। इसके बरक्‍स, हर बार राज्‍य का धर्म में हस्‍तक्षेप और प्रत्‍यक्ष होता जाता है; हिंदुत्‍व की राजनीति और जटिल होती जाती है; जबकि हर बार जमीन पर बहुसंख्‍यकों की गोलबंदी कमतर। अयोध्‍या की घटना तो एक सुगठित आंदोलन की परिणति थी, लेकिन फतेहपुर के मकबरे पर इस माह दिखे बाबरी जैसे दृश्‍य? बाबरी के मुहावरे में आज के हिंदुत्‍व को समझना क्‍यों भ्रामक हो सकता है, संभल और फतेहपुर की जमीन से बता रहे हैं शरद और गौरव

Gabbar Singh, the most recognised face of Sholay

पूरे पचास साल: मौलिकता की बहसों के बीच फैलता एक सिनेमा का लोक-जीवन

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सांभा के ‘पूरे पचास हजार’ और गब्‍बर के ‘पचास-पचास कोस दूर’ वाले अतिपरिचित संवादों से कल्‍ट बन चुकी ‘शोले’ को आए इस स्‍वतंत्रता दिवस पर पूरे पचास साल हो रहे हैं। मनोरंजन का एक लोक‍रंजक उत्‍पाद कैसे लोक को घेरता है तो घेरता ही चला जाता है, ‘शोले’ यदि इसका जीवंत उदाहरण है तो इसकी वजह उसकी राजनीतिक पृष्‍ठभूमि है। यह फिल्‍म इमरजेंसी के बीचोबीच आई थी- एकदम चरम दिनों में, महज डेढ़ महीने में। आज भले घोषित इमरजेंसी नहीं है, लेकिन स्थितियां कुछ कम भी नहीं हैं और अन्‍याय व जुल्‍म के खिलाफ ‘शोले’ निरंकुशता के आकाश में अटल सूरज की तरह चमक रही है। ‘शोले’ की पृष्‍ठभूमि और प्रासंगिकता पर चर्चा कर रहे हैं श्रीप्रकाश

Women fetching water in Barmer, Rajasthan

पानी केवल प्राकृतिक संसाधन नहीं, अब वह न्याय का प्रश्न बन चुका है! पी. साईनाथ का व्याख्यान

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गुरुत्‍वाकर्षण के हिसाब से पानी ऊपर से नीचे की ओर बहता है, लेकिन हजारों साल से जाति, वर्ग और लैंगिक भेदों के मारे भारतीय समाज में यह नियम उलट जाता है। यहां पानी नीचे से ऊपर प्रवाहित होता है। यानी, निचले तबके पानी के लिए श्रम करते हैं और ऊंचे तबके उनका पानी हड़प लेते हैं। यह उलटा प्रवाह जब पानी के निजीकरण के साथ मिलता है तो भयावह असमानता का बायस बन जाता है। फिर पानी महज कुदरती संसाधन नहीं, न्‍याय का सवाल बन जाता है। वरिष्‍ठ पत्रकार पी. साईनाथ का व्‍याख्‍यान ‘पानी का रंग: खत्‍म होता एक प्राकृतिक संसाधन और बढ़ती असमानता’

Ngugi wa Thiong'o

न्गुगी वा थ्योंगो : जिन्हें नोबेल मिलना भारत की मुक्तिकामी आवाजों को शायद बचा ले जाता!

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महान अफ्रीकी लेखक और मुक्तिकामी राजनीति के हस्‍ताक्षर न्गुगी वा थ्योंगो का 28 मई को निधन हो गया। वैश्विक स्‍तर पर उनके निधन की ठीकठाक चर्चा हुई है लेकिन भारत में और खासकर हिंदी जगत में एक परिचित किस्‍म का सन्नाटा है- बावजूद इसके कि न्‍गुगी पहली बार 1996 में और दूसरी बार 2018 में न सिर्फ भारत आए, बल्कि बीते तीन दशक में उनके लिखे साहित्‍य का हिंदी में विपुल अनुवाद भी हुआ। भारत की राजनीति और समाज से जबरदस्‍त समानताएं होने के बावजूद अफ्रीकी जनता के नवउदारवाद-विरोधी संघर्ष को हिंदी के व्‍यापक पाठक समाज ने यदि तवज्‍जो नहीं दी, तो क्या उसकी वजह न्‍गुगी को नोबेल न मिल पाना है? अगर उन्‍हें नोबेल मिल जाता, तब क्‍या तस्‍वीर कुछ और होती? न्‍गुगी की दूसरी भारत यात्रा के संस्‍मरणों को टटोलते हुए इस काल्‍पनिक सवाल के बहाने अभिषेक श्रीवास्‍तव का स्‍मृति-लेख

आजादी से पहले भी अदबी दुनिया इतनी ही हीन और चालाक थी! देवेंद्र सत्यार्थी के बहाने गुजरे जमाने…

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हिंदी, उर्दू और पंजाबी साहित्‍य के यायावर लेखक देवेंद्र सत्‍यार्थी 1908 में आज ही के दिन पैदा हुए थे। उस ज़माने में आज़ादी के आंदोलन की छांव में जब साहित्‍य की छायावादी और प्रगतिशील धाराएं एक साथ अंगड़ाई ले रही थीं, साहित्‍य-संस्‍कृति की दुनिया के बारे में उन्‍हीं के मुंह से सुनना अपने आप में बहुत दिलचस्‍प और आंखें खोलने वाला है। यह संस्‍मरण उर्दू के मानिंद लेखक बलराज मेनरा का लिखा हुआ है जिसमें कुछ लोगों ने उस दौर के लेखकों और प्रवृत्तियों के बारे में सत्‍यार्थी के साथ अनौपचारिक बातचीत की है। इस संस्‍मरण को 2004 में प्रकाशित बलराज मेनरा की संकलित कहानियों और संस्‍मरणों से साभार लिया गया है।

1984 by George Orwell

युद्ध ही शांति है : पचहत्तर साल पहले छपे शब्दों के आईने में 2025 की निरंकुश सत्ताओं का अक्स

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सर्वसत्तावाद, अंधराष्‍ट्रवाद, स्‍वतंत्रता पर बंदिशों, निरंकुशता और एक पार्टी के एकाधिकारी राज का संदर्भ जब-जब आता है, 1949 में प्रकाशित जॉर्ज ऑरवेल के उपन्‍यास 1984 की सहज याद हो आती है। पचहत्तर वर्ष बाद यह उपन्‍यास अपने लेखनकाल के मुकाबले कहीं ज्‍यादा प्रासंगिक हो चुका है, इतना कि आए दिन कोई न कोई नेता, अदालत या असहमत इसको उद्धृत करता है। ऑरवेल ने 1984 में अपने काल्‍पनिक किरदार इमानुएल गोल्‍डस्‍टीन की एक काल्‍पनिक पुस्‍तक ‘द थ्‍योरी ऐंड प्रैक्टिस ऑफ ओलिगार्चल कलेक्टिविज्‍म’ के तीसरे अध्याय में युद्ध पर सर्वसत्तावादी पार्टी के नजरिये से विचार किया था। निरंकुश सत्ताओं को समझने के लिए प्रस्‍तुत युद्धविषयक तकरीर को वर्तमान संदर्भों में पढ़ा जाना चाहिए