Culture

Serbia Protests

सर्बिया : एक रेल हादसा, दो दर्जन मौतें, और आज पूरा देश निरंकुश सरकार के खिलाफ सड़क पर है…

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दिल्‍ली में रेलवे स्‍टेशन पर हुई भगदड़ में दो दर्जन से ज्‍यादा लोगों की मौत हुई है। भारत के रेलमंत्री ने औपचारिक अफसोस जताकर स्थिति को नियंत्रण में बता दिया है। तकरीबन ऐसा ही हादसा नवंबर में सर्बिया में हुआ था और इतने ही लोग मरे थे। पूर्व मंत्री सहित तेरह लोगों पर मुकदमा भी चला, इसके बावजूद सर्बिया के लोगों ने सड़क का रुख किया तो छात्रों के नेतृत्‍व में शुरू हुआ विरोध पूरे देश में आंदोलन बनकर फैल गया। लोकतांत्रिक संस्‍थाओं को जवाबदेह और पारदर्शी बनाने की लड़ाई में सर्बिया से उठे नए किस्‍म के जनउभार पर स्‍लावोइ ज़ीज़ेक

Bharat Mata imagery of RSS

हिन्दुत्व के कल्पना-लोक में स्त्री और RSS के लिए उसके अतीत से कुछ सवाल

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मध्ययुग में पश्चिमी जगत में आधुनिकता के आगमन ने धर्म के वर्चस्व को जो चुनौती दी थी, भारत में अंग्रेजों के आगमन के बाद पैदा हुई परिस्थितियों और राजनीतिक आजादी ने यहां धर्म के प्रभाव को और अधिक सीमित कर दिया। रूढ़िवादी, प्रतिक्रियावादी ताकतों ने समय-समय पर इस बदलाव को बाधित करने की कोशिश की। संविधान निर्माण से लेकर स्त्रियों को अधिकार-संपन्न करने के लिए ‘हिन्‍दू कोड बिल’ को सूत्रबद्ध एवं लागू किए जाने का हिन्दुत्ववादी ताकतों ने जिस तरह से विरोध किया, ऐसी ही बाधाओं का ही परिणाम रहा कि डॉ. आंबेडकर को नेहरू के मंत्रिमंडल से इस्तीफा देना पड़ा। सुभाष गाताड़े का यह आलेख संविधान-निर्माण के दौरान स्पष्ट तौर पर उजागर हुए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्त्री-विरोधी विचारों एवं सक्रियताओं की पड़ताल करता है

Cultural performance in Daman, Gujarat

वहां भी दिल धड़कते हैं मोहब्बत सांस लेती है: गुजरात में IPTA का गठन

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आम लोग सीधे-सरल और सच्चे होते हैं और उन्हें गीत संगीत कलाएं भाती हैं, न कि झूठ, धोखा, नफ़रत और हिंसा। आम लोग बहकाये जाते हैं निजी स्वार्थों की खातिर, लेकिन भीतर से उन्हें भी सुकून और इंसानियत की ही तलाश होती है। चाहे वो गुजरात हो या धरती पर मौजूद कोई और जगह। साल भर पहले ‘ढाई आखर प्रेम के’ नामक सांस्‍कृतिक यात्रा से उपजे इस अनुभव को अबकी उत्‍तरायण ने और गाढ़ा किया, जब गुजरात के वलसाड़ में इप्टा की तदर्थ समिति का गठन हो गया। साल भर में गुजरात की दूसरी सांस्‍कृतिक यात्रा पर विनीत तिवारी का रिपोर्ताज

Rajendra Shinde of Jalgaon district of Maharashtra and his wife Sonali, are landless labourers. With their kids and other families, they had come to Delhi due to the drought back home, Courtesy PARI

पलायन का मौसम फिर आ गया, खेतिहर मजदूरों का सवाल किसान आंदोलन में कब आएगा?

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जनवरी खत्‍म होते ही उत्‍तरी महाराष्‍ट्र के गांवों के बस स्‍टैंड दोबारा गुलजार होने लगते हैं। एक ओर दिल्‍ली की सरहद पर किसान एमएसपी की मांग के लिए आमरण अनशन कर रहे हैं तो दूसरी ओर खेतिहर मजदूर अगले पांच महीनों की बेरोजगारी, पलायन और दिहाड़ी के लिए कमर कस रहे हैं। कृषि संकट के समाधानों में एमएसपी केवल एक मसला है, लेकिन सारा आंदोलन इसी के इर्द-गिर्द क्‍यों? जनवरी से जून तक खाली रहने वाले खेतिहर मजदूरों को राजनीति और किसान आंदोलन के विमर्श में कब लाया जाएगा? जलगांव से लौटकर हरेराम मिश्र की रिपोर्ट

Ken Saro-Viva

तानाशाही सत्ताओं से कैसे न पेश आएं? केन सारो-वीवा की शहादत के तीसवें साल में एक जिंदा सबक

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एक लेखक अपने लोगों और अपने जल, जंगल, जमीन को बचाने के लिए फांसी पर झूल गया था, यह बात आभासी दुनिया के बाशिंदों को शायद मिथकीय जान पड़े। महज तीन दशक पहले दस नवंबर, 1995 को केन सारो-वीवा एक तानाशाह के हाथों शहीद हुए थे। बिलकुल उसी दिन, जब दशकों बाद जेल से आजाद हुए नेल्‍सन मंडेला बतौर राष्‍ट्रपति अपने पहले अंतरराष्‍ट्रीय सम्‍मेलन में भाग ले रहे थे। मुक्तिकामी संघर्षों की धरती अफ्रीका के इतिहास का यह अहम प्रसंग हमारी आज की दुनिया के लिए क्‍यों प्रासंगिक है? केन सारो-वीवा की हत्‍या के एक दशक बाद उनके गांव-शहर होकर आए वरिष्‍ठ पत्रकार आनंद स्‍वरूप वर्मा ने इसे अपनी पुस्‍तक में दर्ज किया है। आज केन सारो-वीवा को याद करते हुए उन्‍हीं की कलम से यह कहानी

Chutka Nuclear Plant

इनकार और इज्जत की जिंदगी पर बाजार भारी, चुटका के लोगों को दोबारा उजाड़ने की मुकम्मल तैयारी

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परमाणु हथियारों के खिलाफ अभियान चलाने वालों को शांति का नोबेल देकर दुनिया के बड़े देश वापस परमाणु ऊर्जा की ओर लौट आए, तो भारत ने भी जन-प्रतिरोध के चलते बरसों से अटकी परियोजनाओं को निपटाने के लिए कमर कस ली। पहली बार किसी राष्‍ट्रीय सुरक्षा सलाहकार को न्‍यूक्लियर प्‍लांट लगाने के काम में तैनात किया गया, और नतीजा सामने है। अपने अधिकारों, अपनी जिंदगी और अपनी आजीविका के लिए बरसों चली आदिवासियों की लड़ाई अब खत्‍म होने को है। बस दो पैसा ज्‍यादा मुआवजे का सवाल है, वरना मध्‍य प्रदेश के मंडला जिले के गांव के गांव अपना सामान फिर से बांध चुके हैं। यहां परमाणु प्‍लांट लगना है, तो लौटकर आने का सवाल ही नहीं है। संवैधानिक अधिकारों पर ऊर्जा-बाजार की जीत का चुटका प्रसंग आदित्‍य सिंह की कलम से

Fredric Jameson

फ्रेडरिक जेमसन: पुरानी दुनिया और नए युग के वैचारिक जगत को जोड़ने वाला अंतिम सिरा

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आज से बीसेक दिन पहले फ्रेडरिक जेमसन शायद इकलौते जीवित शख्‍स थे जिन्‍होंने एक सदी के दौरान बदलती हुई हमारी दुनिया को न सिर्फ देखा और महसूस किया था, बल्कि राजनीति, वैचारिकी, संस्‍कृति से लेकर बौद्धिकता के विभिन्‍न क्षेत्रों में हुए बदलावों की सघन पड़ताल करते हुए विपुल लेखन भी किया। वे पुरानी और नई दुनिया के बीच एक वैचारिक पुल थे, जो बीते 22 सितंबर को चल बसे। इस दुनिया को दिए उनके वैचारिक योगदान के आईने में प्रतिष्ठित दार्शनिक स्‍लावोइ ज़ीज़ेक ने उन्‍हें याद किया है। ज़ीज़ेक का जेमसन पर लिखा स्‍मृतिलेख यहां अविकल प्रस्‍तुत है

बिहार: परंपरा और लोकलाज के दबाव में गर्व और कर्ज का मर्ज बनता पितरों का श्राद्धभोज

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पितृपक्ष बीत गया। हर साल की तरह इस बार भी अंधविश्‍वास और कुरीतियों के खिलाफ तथा परंपराओं के पक्ष में खूब कागजी बहसें चलीं, लेकिन देश भर में अर्पण-तर्पण से लेकर भोज-भात चलता रहा। राजस्‍थान में मृत्‍युभोज के खिलाफ बने कानून का वहां कोई असर नहीं दिखता। बिहार का मिथिलांचल इस मामले में हमेशा की तरह सबसे आगे रहा। कर्ज लेकर, जमीन बेचकर भी लोग अपनी प्रतिष्‍ठा बचाते रहे। इसके बावजूद कई जगह इस परंपरा का विरोध हो रहा है, बेड़ियां टूट रही हैं। राहुल कुमार गौरव ने अपनी रिपोर्ट में जमीन पर हो रहे बदलाव का आकलन किया है

प्रयागराज: गरीबी, गंदगी और जहालत में मरते रहे मुसहर, ‘बिगड़े रहे देवता’ लोकतंत्र के…

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पूरे अगस्‍त हुई बारिश के बीच उत्‍तर प्रदेश में मुसहर और सहरिया समुदायों के बच्‍चे बेहद मामूली बीमारियों से मरते रहे। उल्‍टी, दस्‍त, आदि के कारण हुई मौतों से चौतरफा इनके गांवों में मातम छाया रहा, लेकिन न तो ग्राम प्रधान झांकने आए और न ही स्‍थानीय लोकसेवकों ने कोई खोज-खबर ली। महीने के आखिरी दिन प्रदेश सरकार विमुक्‍त जन दिवस का उत्‍सव मनाकर अपनी जिम्‍मेदारी से मुक्‍त हो गई। प्रयागराज के गांवों से सुशील मानव की रिपोर्ट

Ladakh Foundation Day

लद्दाख: संस्‍कृति के खोल में अधूरी ‘आजादी’ का सरकारी जश्‍न

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बौद्ध बहुल लद्दाख ने कभी मुस्लिम बहुल जम्‍मू और कश्‍मीर से आजादी चाही थी। 5 अगस्‍त, 2019 को तत्‍कालीन राज्‍य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बांटे जाने से लद्दाख को आजादी तो मिली, लेकिन किस कीमत पर? उसकी पर्वतीय परिषद की स्‍वायत्‍तता जाती रही। अब अधूरी आजादी को लेकर वहां के लोग छठवीं अनुसूची और पूर्ण राज्‍य के दरजे की लड़ाई लड़ रहे हैं। उधर सरकार स्‍थानीय सांस्‍कृतिक महोत्‍सव की शक्‍ल में यह आजादी उसे बेचने की कोशिश कर रही है। बीच में करगिल अपनी अलहदा धार्मिक पहचान के चलते खुद को फंसा हुआ पा रहा है। लेह और करगिल से लौटकर रोहिण कुमार की फॉलो-अप रिपोर्ट