बुंदेलखंड: अवैध खनन, गुमनाम मौतें और एक अदद तहरीर का इंतजार

छतरपुर के पलटा गांव में खनन के दौरान मारे गए टिंकू रेकवार का शोकाकुल परिवार
गुमनाम मौत का मारा एक परिवार, फोटो: सतीश मालवीय
पुलिस नहीं चाहती कि उसके पास मरे हुए लोगों की एफआइआर हो। ठेकेदार और खदान मालिकान भी नहीं चाहते कि कानूनी पचड़े में उनका व्‍यापार फंसे। इसलिए इनके बीच एक अघोषित समझौता है कि उनकी लापरवाही से कोई मजदूर मर जाए तो उसके परिवार का मुंह पैसे से बंद करा दो। कोई बोले तो उसे गायब करवा दो, मरवा दो। मध्‍य प्रदेश के बुंदेलखंड की खदानों में लगातार अनाम मौत मर रहे मजदूरों पर सतीश मालवीय की जमीनी पड़ताल

बुंदेलखंड में पैसों के पहाड़ हैं। ये पहाड़ खरीदे जाते हैं, बेचे जाते हैं। फिर इनसे पैसे बनाए जाते हैं। कई खरीदे जा चुके हैं, कई खरीदे जाने बाकी हैं। इन पहाड़ों में अवैध खनन से ग्रेनाइट निकलता है और हादसों से इंसानों की लाशें। फर्क बस इतना है कि ग्रेनाइट का तो एक-एक ग्राम हिसाब मांगता है, लेकिन मौतों का हिसाब यहां नहीं रखा जाता। हिसाब क्‍या, मौतें दर्ज तक नहीं की जाती हैं क्‍योंकि मरने वाले आम लोग हैं, गरीब हैं, मजदूर हैं।

बहुत दिन नहीं हुए जब बुंदेली चूहा सुरंग विधि यानी रैटहोल माइनिंग की खूब चर्चा हुई थी। मध्‍य प्रदेश के टीकमगढ़ और पश्चिमी उत्‍तर प्रदेश के कुछ ऐसे खनन मजदूरों के नाम सामने आए थे जिन्‍होंने अमेरिकी मशीन फेल हो जाने पर महज 25 घंटे में पहाड़ को खोद कर 17 दिन से फंसे हुए 41 मजदूरों को उत्‍तरकाशी की सिलक्‍यारा सुरंग से बाहर निकाला था। साल बीतते-बीतते बहादुरी की ये दास्‍तानें तो पृष्‍ठभूमि में चली ही गईं, लेकि‍न किसी ने पलट कर यह जानने की कोशिश नहीं कि दिल्‍ली से दूर अपने गांवों के पहाड़ों में इन मजदूरों की जिंदगी कैसी कट रही है, घट रही है।    



विडंबना यह है कि बुंदेलखंड के जो मजदूर हाथ से खुदाई के लिए उत्‍तराखंड में मशहूर हुए, वे अपने यहां बरसों बरस से ड्रिलिंग मशीनों और विस्‍फोटकों की भेंट चढ़ते आ रहे हैं। बुंदेलखंड स्थित टीकमगढ़, छतरपुर, महोबा, बांदा की पहाड़ियों में फल-फूल रहे वैध-अवैध ग्रेनाइट और स्टोन क्रैशर उद्योग में खनन ठेकेदारों, खनन कम्पनियों और प्रशासन की मिलीभगत से जो पैसा बनाने का कारोबार चल रहा है, वह अब तक कई जिंदगियां लील चुका है। हर हफ्ते लोग मारे जा रहे हैं।

दुर्भाग्‍य यह है कि ये मौतें कहीं उस रूप में दर्ज नहीं हैं कि इन्‍हें कार्यस्‍थल पर सुरक्षा में लापरवाही के चलते हुई मौत ठहराकर मालिकान के खिलाफ इंसाफ की लड़ाई लड़ी जा सके क्‍योंकि कुछ वैध और कुछ अवैध तरीके से हर तरह के कानून को ताक पर रख कर यहां धंधा किया जाता है। पहाड़वालों (बुंदेलखंड में लोग क्रैशर और खनन कंपनियों को यही कहते हैं) के आगे कोई कानून नहीं चलता। नतीजतन, पुराने पहाड़ झरते जाते हैं और मौत का समानांतर पहाड़ खड़ा होता जाता है।

उत्‍तरकाशी की सुरंग में घटे हादसे से दस दिन पहले की बात है। तारीख 2 नवंबर 2023 की, जब मध्यप्रदेश विधानसभा के चुनाव प्रचार का दौर जोरों पर था। हम छतरपुर के प्रकाश बम्होरी इलाके की तरफ बढ़ रहे थे। रास्‍ते में चुनाव प्रचार करने वाली राजनीतिक दलों की गाड़ियां भी धूल उड़ाते जाने किधर भागी जा रही थीं।

यहां दो दिन पहले ही यानी 31 अक्टूबर को एक मौत हुई थी। बदौराकलां गांव की मां भद्रकाली खदान में पहाड़ से गिर कर 27 वर्षीय मजदूर टिंकू रेकवार की जान चली गई थी। इस इलाके में पिछले तीन महीनों में पहाड़ से गिरकर किसी मजदूर की यह तीसरी मौत थी, लेकिन चुनाव प्रचार में लगे नेताओं को इन मौतों से कोई सरोकार नहीं था। किसी भी राजनीतिक दल के वाहन का रुख इन मजदूरों के घर की तरफ नहीं था।

गांव पलटा और बदौराकलां का रास्ता प्रकाश बम्होरी से होकर जाता है। यहां पहुंचने के लिए एक ही सड़क है। सड़क पर सफेद धूल की मोटी परत जमी हुई थी जिसने सड़क के बड़े-बड़े गड्ढों को ढंक रखा था। जब भी कोई वाहन यहां से गुजरता है, हवा में धूल फैल जाती है और आगे का रास्ता धुंधला हो जाता है। धूल में छुपे सड़क के गड्ढों और बेतरतीब ढंग से भागते दैत्याकार हाइवा डंपरों के कारण यहां चलना असमय मौत को न्‍योता देने जैसा लगता है।


यहां धड़धड़ाते डंपरों के बीच चलना मौत को न्योता देना है

हमारा स्थानीय सूत्र घटनाओं की गंभीरता और यहां के माहौल को अच्‍छे से जानता है। इसीलिए हमसे वह इस इलाके में प्रवेश करने से पहले प्रकाश बम्होरी थाना प्रभारी छत्रपाल सिंह से इजाजत लेने की बात करता है। हम थाना प्रभारी से 31 अक्‍टूबर को हुई टिंकू की मौत पर बातचीत करना चाहते थे, लेकिन छत्रपाल सिंह उसे महज एक हादसा बतलाते हुए हमसे साफ कहते हैं, “मैं आपको वहां जाने की इजाजत नहीं दे सकता। अगर आप जाना ही चाहते हैं तो खूब जाइए पर आपके साथ कोई घटना घटती है तो मैं जिम्मेदारी नहीं लूंगा, माहौल सही नहीं है यहां।

थाना प्रभारी का रुख साफ था। हमारे इरादे भी ठोस थे। प्रकाश बम्होरी से पलटा की तरह निकलते ही सड़क के दोनों तरफ बड़े-बड़े गिट्टी के ढेर, स्टोन क्रैशर, और गहरी-गहरी खदानें दिखना चालू हो जाती हैं। प्रकाश बम्होरी से घटहरी और बदौराकलां के बीच तीस से ज्यादा खदानें और स्टोन क्रैशर हैं। कुल 40 की संख्‍या बताई जाती है। बड़े-बड़े पहाड़ जो कभी यहां आसमान की तरफ सीना तान कर खड़े थे अब वे गिट्टी की ढेर में बदले नजर आते हैं। जमीन, पाताल को छू रही गहरी खदानों तक पहुंच चुकी है लेकिन पलटा गांव तक विकास वाली सड़क अब तक नहीं पहुंची है। गांव में गलियां हैं और गलियों में कीचड़ ही कीचड़।  

टिंकू के घर का माहौल गमजदा था। दालान में कुछ औरतें बैठी हुई थीं। कुछ लोग घर के आगे चबूतरे पर बैठे थे। उनमे टिंकू के दादा जल्लू रेकवार भी थे। शुरू में लोग हमसे बात करना नहीं चाहते थे। फिर धीरे-धीरे घटनाक्रम को लेकर भयावह विवरण सामने आने लगे।


पलटा गांव में गलियां हैं और गलियों में कीचड़ ही कीचड़

टिंकू के पिता मेवाराम ने बताया, “मैं अपने खेत में काम कर रहा था। तभी मेरा भतीजा मोटरसायकिल से आया और कहने लगा- जल्दी चलो, खदान में कुछ हुआ है। मैं काम छोड़ कर भागा। जब वहां पहुंचा तो बहुत भीड़ लगी हुई थी। हम उसे जिंदा नहीं पा सके। लोग बता रहे थे कि वो 700 फुट ऊंचे पहाड़ से गिरा था। उसे पहाड़ में होल करने इतना ऊपर चढ़ाया गया था। अगर हमें पता होता कि इतना जोखिम भरा काम है तो हम कभी नहीं जाने देते। वह तो केवल सफाई का काम करता था वहां। बस पेट पालने के लिए वो ये काम कर रहा था। दो महीने पहले ही दिल्ली से काम छोड़ कर आया था।

टिंकू के दो छोटे बच्चे हैं। बच्चों और टिंकू की पत्नी अंजना को फिलहाल मायके भेज दिया गया है, यह बताते हुए मेवाराम असली कहानी पर आते हैं। पहाड़वालों (यानी कंपनी और ठेकेदारों ने) ने और समाज के लोगों ने मेवाराम को चुप रहने को कहा। शुरू में उन्‍हें 20 लाख रुपया मुआवजे की पेशकश की गई, लेकिन दो दिन में ही मामला 20 से 15 और 15 से 10 लाख पर आ गया।

बेबसी और रुआंसे चेहरे के साथ मेवालाल पूछते हैं, ‘’और हम क्या कर सकते हैं? जो वो कहेंगे करना पड़ेगा, हम गरीब आदमी किसी से क्या लड़ेंगे?

मेवाराम के यह सब बताने के बाद ऐसा लगा कि वे लोग भी हमसे बात करना चाह रहे हैं जो शुरू में इनकार कर रहे थे। देखते-देखते चबूतरे पर गांव के लोगों का जमावड़ा लग गया था। सभी बहुत उग्र और गुस्से में थे। सभी की परेशानी एक-सी थी- पहाड़वालों का आतंक और बेरोजगारी।



यहीं बदौराकलां के युवक जयराम सोलंकी पहाड़ों में मजदूरों के साथ हो रही इस तरह की घटनाओं के बारे में विस्‍तार से बताते हैं, “यहां घटनाएं इस तरह हो रही हैं कि मजदूरों से ऊंचे पहाड़ों और गहरी खदानों में डाई यानी ड्रिल मशीन से चट्टानों में छेद (विस्फोटक भरने) कराने के लिए बिना किसी सुरक्षा उपकरण के सैकड़ों फुट ऊपर लटकाया जाता है- सिर्फ एक रस्सी के सहारे। इसमें मजदूर के साथ भारी-भरकम ड्रिल मशीन भी होती है। मशीन चलाते वक़्त संतुलन बिगड़ते ही मजदूर सैकड़ों फुट नीचे गिरता है और उसकी मौत हो जाती है।

सोलंकी की मानें तो मजदूरों को पहाड़ पर चढ़ने के लिए मजबूर किया जाता है। इसके लिए उनका हफ्ते भर का पेमेंट रोक दिया जाता है और कहा जाता है अगर कहे अनुसार काम नहीं करोगे तो रोका हुआ पेमेंट नहीं दिया जाएगा। मजबूरन मजदूर को ऊंचाई पर चढ़ना होता है। ऐसे चार से पांच हजार मजदूर इन पहाड़ों और खदानों में काम कर रहे हैं, जिनका न कोई बीमा है, न श्रम विभाग में रजिस्ट्रेशन, न ही उनकी सुरक्षा का कोई इंतजाम है।

जयराम कहते हैं, ‘’हमने कई बार खनिज इंस्पेक्टर से इस बारे में कहा, लेकिन सब पैसे का खेल है। कोई कार्यवाही नहीं होती। मजदूर मर जाता है, पहाड़वालों द्वारा मृतक के परिवार पर दबाव बनाया जाता और मामूली मुआवजा देकर उन्हें चुप करा दिया जाता है। प्रशासन में भी पैसा चला जाता है, बात ऊपर नहीं पहुंच पाती।‘’



वे बताते हैं कि पट्टे के बाहर भी कई खदानें अवैध चल रही हैं। यहां 2005 से 2022 तक यानी 17 साल में 40 से ज्यादा मजदूरों की मौत हो चुकी है। जयराम के अनुसार अभी तक यहां के 15 से 20 पहाड़ बिलकुल खत्म हो चुके हें और फिलहाल यहां 50 से ज्यादा पहाड़ों में खनन चल रहा है, जिससे वे अगले पांच साल में खत्म हो जाएंगे।

हमारी बातचीत के बीच में मेवाराम बोल पड़ते हैं, “सब बेबसी का काम है, पेट के लिए।

इसी बीच पहाड़ से काम करके लौट रहे कमलेश रेकवार लोगों का जमावड़ा और गहमागहमी देख कर यहीं ठहर जाते हैं। कुछ देर हमारी बातें सुन कर बीच में बोल पड़ते हैं, “पहाड़ में किसी के मर जाने पर पहाड़ वाले कहते हैं- पैसा बोलो, कितना चाहिए? पहाड़ वाला सीधे पैसे की बात करता है। वो दबाब बना कर कितने कम में मृतक के परिवार वालों को तोड़ लेता है… जैसे परसों इनकी (टिंकू के पिता) 20 लाख में बात हुई थी न? हुई थी कि नहीं?’’ वह इशारा कर के पूछता है।

फिर गुस्‍से में कहता है, ‘’फिर कैसे 10 लाख में टूट गए?’’

इतने में जयराम गुस्से में कहते हैं, ‘’ये तुम लोगों की कमी थी कि कैसे इतने कम में टूट गए? अड़ जाते, कहते जब तक जितना मांगा है उतना मुआवजा नहीं मिलेगा मो अंतिम संस्कार नहीं होगा।



कमलेश का कहना है कि जिसका कोई मर जाता है वह कुछ कहने के हाल में कहां रहता है। वे कहते हैं, “ये पहाड़बाजी है, पहाड़बाजी। पहाड़वालों का काम है तोड़ना, चाहे आदमी हो या पहाड़। वो मजदूरों को एक नहीं होने देते। घटना के बाद सब पहाड़वाले इकट्ठा हो जाते हैं और मृतक के परिवार के पीछे लग जाते हैं। चारों तरफ से (पुलिस और प्रशासन) इतना दबाब बनाते हैं कि आपको कम से कम में टूट कर उनके दिए मुआवजे को स्वीकारना पड़ता है, उनकी शर्ते माननी पड़ती हैं, एफिडेविट पर साइन करने ही पड़ते हैं। एक बार साइन हो गए तो फिर आप कहीं तहरीर करने लायक नहीं रहते। न्याय तो फिर दूर की बात हो जाती है।

तो फिर आप लोग पहाड़ में काम करने जाते ही क्‍यों हैं? इस सवाल पर कमलेश कहते हैं, ‘’यहां लोगों के पास कोई काम ही नहीं है। इसलिए हम पहाड़ पर काम करने जाते हैं। क्या करें? पेट के लिए कुछ तो करना पड़ेगा, जान पर खेलना पड़ेगा। मै खुद ड्रिल करता हूं, होल में विस्फोटक भरता हूं। विस्फोटक भरने का काम बहुत खतरनाक होता है। 20 किलो की मशीन लेकर 300-400 फुट ऊंचाई से उतरना होता है।

तभी एक बुजुर्ग उत्तेजना में कहते हैं, ‘’वो तो साथ में गांव के लोग काम करते हैं इसलिए हमें पता भी चल जाता है। अगर कोई बाहर का हो तो पहाड़ वाले पता नहीं कहां मरे आदमी को गायब कर दें। ऐसा पांच-छह मजदूरों के साथ हुआ है। पहाड़ वाले सड़क दुर्घटना या मौत की कोई और वजह बता कर मामला रफा-दफा कर देते हैं। वे चुपचाप लाशें भी ठिकाने लगा देते हैं।‘’

बाकी लोग उस बुजुर्ग की हां में हां मिलाते हैं। ऐसी ही एक घटना के चश्मदीद जयराम और उनके गांव के कुछ लोग रहे हैं। ऐसा एक मामला पूर्वी उत्‍तर प्रदेश के देवरिया के एक मजदूर का था जिसकी मौत पहाड़ से गिर कर हुई थी। उसके शव को उसके घर पहुंचाने के लिए गांव के लोगों ने चंदा किया था। मृतक की बूढी मां और 12-13 वर्ष की छोटी बहन शव को लेने आए थे। लोग बताते हैं कि उनको तो बहुत कम मुआवजे में पहाड़वालों ने तोड़ लिया था। पता नहीं उन तक पैसा पहुंचा भी या नहीं।

कुल मिलाकर यहां मजदूर की जान की कोई कीमत नहीं। इतने मुआवजे में जीवन चल जाएगा? कोई घायल होता है, कोई ज़िन्दगी भर के लिए अपाहिज होता है। ऐसे कई लोग हैं इस इलाके में जो पहाड़ों में घायल और अपाहिज होकर घर बैठ गए। हमको न्याय चाहिए, पूरा न्याय। हमारी कोई नहीं सुनता। पुलिस, प्रशासन सब मिले हुए हैं“, उत्तेजना में नवलकिशोर रेकवार नाम का युवक कहता है। वह खुद खनन नहीं करता लेकिन उसके भाई और रिश्‍तेदार इस काम में रह चुके हैं। नवलकिशोर के दो भाई पहाडों में काम करने जाते थे, पर टिंकू की मौत के बाद से नहीं जा रहे।



टिंकू की मौत से पहले 23 सितंबर को इसी गांव के 22 वर्षीय प्रेमनारायण कुशवाहा की मौत भी चेतारी की मां भद्रकाली खदान में ही हुई थी। प्रेमनारायण के भाई बलवीर स्वयं घटना के चश्मदीद हैं।

वे बताते हैं, “दोपहर का वक़्त था। मैं उससे थोड़ी दूरी पर काम कर रहा था। वह पहाड़ के नीचे खदान में फावडे से पत्थर हटा रहा था। एकदम से पत्थर टूटने की बहुत जोर की आवाज आई। ऐसी आवाजें यहां आती रहती हैं, इसलिए मैंने गौर नहीं किया पर कुछ ही देर में वहां के कुछ मजदूरों का शोर सुनाई दिया। मजदूर चिल्ला रहे थे- कोई दब गया, दब गया। मैं भागकर वहां पहुंचा। बहुत भीड़ थी, अफरातफरी मची हुई थी। सैकड़ों टन भारी पत्थर के नीचे वो दबा था। मजदूरों ने जैसे-तैसे पत्थर हटाया तो पता चला वो मेरा भाई प्रेमनारायण है।

और कुछ कहने से पहले बलवीर की आंखों में आंसू भर आते हैं। खुद को संभाल के वे कहते हैं, “बिना किसी चेतावनी के पत्थर गिराया गया था। ऊपर पहाड़ पर लोग मौजूद थे। उस वक्‍त उन्होंने नीचे कोई सूचना नहीं दी थी। हादसे के तुरंत बाद मुंशी, मैनेजर सब भाग गए। फिर शाम को पोस्टमार्टम के समय मुंशी का फ़ोन आया कि पैसा ले लो और मामला खत्म करो। हमारा दिमाग़ काम नहीं कर रहा था। उन्होंने मुआवजे का 15 लाख बोला था, पर मिला 6 लाख ही।

बलवीर छह साल से इलाके के अलग-अलग पहाड़ों में काम करते आ रहे हैं। हमसे अपनी आंखों के सामने खदान और पहाड़ में हुई कई मौतों का वे जिक्र करते हैं। बलवीर से बात करते हुए हमें बीच-बीच में पहाड़ों में हो रहे विस्फोटों की आवाज सुनाई दे रही थी।


सैकड़ों फुट ऊंचाई पर रस्सी के सहारे चढ़ कर काम करते मजदूर

नाराज बलवीर कहते हैं, “पहाड़ का मैनेजर-मुंशी बहुत (गाली) होते हैं। हमें खतरा महसूस होता है तो हम पहाड़ पर चढ़ने से मना करते हैं। तब वे गालियां बकते हैं, कहते है जब काम नहीं करना तो क्यों आए हो यहां। सिर्फ मशीन बांधने के लिए रस्सा दिया जाता है, इंसान के लिए नहीं।

इन पहाड़ों में मजदूरों का कोई रिकॉर्ड नहीं रखा जाता, न ही उनका नाम मस्टर रोल में चढ़ाया जाता। उन्हें नगद भुगतान किया जाता है।

नवंबर के बाद दोबारा हमने इस इलाके का दौरा जनवरी में किया। कुछ और मृत मजदूरों के परिवारों से मिलने की कोशिश की, पर हमें निराशा हाथ लगी। सभी ने मिलने से इनकार कर दिया1 सबका एक ही जवाब था- हमने एफिडेविट पर साइन किया है, अब हम कुछ नहीं कह सकते।

जिस दिन टिंकू की पहाड़ से गिरने से मौत हुई उसी दिन प्रकाश बम्होरी से 8 किलोमीटर दूर महोबा के डहर्रा पहाड़ में लाडपुर के 26 वर्षीय परशुराम कुशवाहा की मौत पहाड़ से गिरकर ही हुई थी। हमने लाडपुर में परशुराम के परिवार से मिलने की कोशिश की और गांव के लोगों से उसके बारे में जानकारी हासिल करनी चाही, पर हमें सफलता नहीं मिली।

फिर खबर मिली कि इसी 9 जनवरी को कबरई के विशालनगर के रहने वाले 53 वर्षीय धनीराम अनुरागी की मौत डहर्रा के एक नम्बर पहाड़ में ब्लास्टिंग के दौरान 259 फुट ऊंचे पहाड़ से गिरने से हुई है। स्थानीय अखबारों और न्यूज़ एजेंसियों में धनीराम की जगह किसी छद्म नाम 28 वर्षीय बनवारीलाल का जिक्र किया गया था। यह इस पहाड़ में उस पखवाड़े यानि जनवरी के पहले पखवाड़े में हुई दूसरी मौत थी।

इस केस के बारे में महोबा में हमने कई पत्रकारों और एक्टिविस्टों से जानकारी जुटाने की कोशिश की लेकिन किसी ने साथ नहीं दिया। यहां पहाड़वालों का असल दबदबा और दबंगई नजर आ रही थी। हमने जितने भी लोगों से सम्पर्क किया, उनके चेहरे पर पहाड़वालों का खौफ साफ दिखाई दे रहा था।

इसके बावजूद हमने कबरई के विशाल नगर में धनीराम के घर का दौरा किया। घर खोजने में हमें काफी मशक्कत करनी पड़ी। धनीराम की मौत के तीसरे दिन हम उसके घर पहुंचे थे। बेहद कमजोर लग रही रचना (19), जो धनीराम की बड़ी बेटी हैं हमें दरवाजे पर ही मिल जाती हैं। कोई उन्हें हमारे आने की खबर शायद पहले ही दे चुका था। रचना हमें बैठने को कह कर घर के भीतर चली जाती हैं।


रचना और सुलोचना (दाएं): पिता की मृत्यु के बाद दोनों के ऊपर अपाहिज मां और छोटे भाई की जिम्मेदारी आ गई है

धनीराम की छोटी बेटी सुलोचना (18) हमें बताती है, “दीदी बहुत डिप्रेशन में है, तीन दिन से अस्पताल में थी।” घर के हालात देख कर इस बात का अहसास किया जा सकता था कि इस परिवार की दुनिया उजड़ चुकी है। फिलहाल, रचना की बीए फाइनल और सुलोचना की बीए एलएलबी की परीक्षाएं 17 जनवरी से शुरू होने वाली हैं और दोनों बहनों पर आगे पढ़ाई जारी रखने का संकट आन पड़ा है।

घटना को याद करते हुए सुलोचना बताती हैं, “9 तारीख की सुबह दस साढ़े दस बजे हमारे मोबाइल पर कॉल आया था पहाड़ से। हमें सीधे कहा गया था कि आपके पापा पहाड़ से गिर गए हैं और उनकी मौत हो गई है, महोबा अस्पताल पहुंचिए। पिताजी 17-18 साल से पहाड़ में काम कर रहे थे।

वहीं बैठे धनीराम के बहनोई भगवानदीन बीच में कुछ कहते हैं पर सुलोचना उन्हें डांट देती हैं। सुलोचना को अपने साथ हुए अन्याय का अहसास है। वे बहुत गुस्से में थीं, लेकिन हमसे कहती हैं- ‘’हम इससे ज्यादा कुछ नहीं बता सकते भइया।

धनीराम के परिवार ने भी मुआवजे वाले एफिडेविट पर दस्तखत किए हैं जिस पर किसी से भी घटना के बारे में बातचीत न करने, ख़ासकर मीडिया से कुछ न बोलने की शर्त लिखी हुई है। एफिडेविट पहाड़वालों के पास होता है इसलिए हमें उसकी प्रति नहीं मिल सकी। और ये सब कुछ मौत के दो दिन के भीतर निपट गया ताकि परिवार को कहीं और फरियाद लेकर जाने का मौका ही न मिल सके!



धनीराम के परिवार को 14 लाख मुआवजे पर तोड़ लिया गया था। भगवानदीन कहते हैं, “हमें वहां पहुंचने ही नहीं दिया गया, नहीं तो हम इतने कम में नहीं टूटने देते। अब देखिए न, दो-दो बच्चि‍यां हैं। इनकी पढ़ाई-लिखाई, शादी, अपाहिज मां है, एक छोटा बच्चा है, सब कैसे चलेगा?

सुलोचना के मामा संतोष कहते हैं, “अब चले न चले, क्या करें? जैसे भी हो चलाना पड़ेगा। उस वक्‍त जो वो कहते हैं मानना पड़ता है। हमारे हिसाब से तो ठीक नहीं है पर हमारी हैसियत उनसे लड़ने की तो नहीं है।

डहर्रा के कल्लू अहिरवार (30) की मौत बीते 18 दिसम्बर को पहाड़ में ट्रैक्टर के गिरने से हुई थी, ऐसा उनके भतीजे देशराज हमें बताते हैं। कल्लू पहाड़ की चट्टान में विस्फोटक भरने के लिए होल करने का काम करते थे।

कल्लू के भाई सिद्धा के अनुसार पहाड़ों में पुराने ट्रैक्टर काम पर लगाए जाते हैं जिनका कोई मेंटेनेंस नहीं होता। सिद्धा कहते हैं, ‘’कल्‍लू को जो ट्रैक्‍टर दिया गया था उसके ब्रेक काम नहीं कर रहे थे, बहुत पुराना ट्रैक्टर था वो।‘’

देशराज बताते हैं, “यहां हफ्ते भर में किसी न किसी पहाड़ में कोई मौत हो ही जाती है। मृतक या घायल अगर आसपास के गांव का होता है तो उसके गांव वाले हो-हल्ला करके थोड़ा बहुत मुआवजा ले भी लेते हैं वरना कोई बाहर का हो तो पहाड़वाले कहां दबा दें, पता न चले। यहां बिहार, राजस्थान, छतीसगढ़ के भी मजदूर काम करते हैं।

हमने जब सिद्धा के परिवार की तस्‍वीरें उतारनी शुरू कीं, तो सिद्धा की पत्नी मीरा बोली, “कहीं पहाड़वालों को पता न चल जाए कि आप हमारे यहां पूछताछ के लिए आए थे। बड़ी मुसीबत हो जाएगी हमारे लिए। यहां रहना मुश्किल कर देंगे। आप जल्दी से यहां से निकल जाओ।


  • सिद्धा, कल्लू के भाई

बांदा रोड पर एक स्टोन मिल के मालिक से मजदूरों की मौतों पर बात हुई। उन्‍हें अपने व्यापार की चिंता ज्‍यादा थी। वे कहते हैं, “मजदूरों की मौत तो डेली का मामला है, इसमें नया क्या है। हमारा तो व्यापार बैठा जा रहा है, चार साल से धंधा मंदा है। 15 किलोमीटर दूर मध्यप्रदेश के प्रकाश बम्होरी में 102 रूपये रॉयल्‍टी है तो इधर पांच गुना ज्यादा 500-600 रूपये है। इसलिए सारा धंधा वहां शिफ्ट हो गया। सरकार हमारा साथ ही नहीं देती। पहले सब अच्छा था, प्राइवेट मैनेजमेंट चलता था मंडी में। सब काम पहाड़ और क्रैशर वाले देखते थे। रोज के 20000 डंपर आते थे मंडी में। अब उसका 10 प्रतिशत भी नहीं आते। अब यहां अधिकारि‍यों की चलती है, उनका गुंडा टैक्स चलता है।‘’

वे बताते हैं कि अब यहां नेताओं के साथ-साथ अधिकारि‍यों की भी गुंडागर्दी चलती है। हर अधिकारी को महीना चाहिए। अगर महीना नहीं पहुंचा तो ये चालान, वो चालान, ये नियम वो नियम। वे कहते हैं, ‘’हमारा तो भट्ठा बैठ जाएगा। मजदूरों का मरना तो डेली का है, इतना बड़ी मंडी है, दुर्घटना होंगी ही और लोग मरेंगे ही।

थोड़ी दूर स्थित डरहत गांव में हमें 37 साल के सुरेन्द्र राजपूत मिलते हैं। सुरेन्द्र 16 साल से पहाड़ों में काम कर रहे हैं। उनसे पुराना पहाड़ों में काम करने वाला इस इलाके में नहीं है, लेकिन आज उनका मजदूरी कार्ड नहीं बना। वे बताते हैं कि यहां कई बार लखनऊ के अधिकारी आए, उनके कागज, फोटो ले गए पर उन्‍हें आज तक कोई कार्ड नहीं मिला।



सुरेन्द्र कहते हैं, ‘’पहाड़ में कोई कायदा कानून नहीं चलता। अधिकारी आते हैं और जाते हैं पर पहाड़ में कुछ नहीं बदलता। नियम के अनुसार ब्लास्टिंग कोई ट्रेंड (प्रशिक्षित) आदमी करता है जिसका सरकारी रिकॉर्ड होता है पर यहां सब हम ही करते हैं। कब, कहां, कैसे, ब्लास्टिंग करनी है, होल कितना करना, होल में कितना विस्फोटक भरना है, कैसे भरना है, सबका कायदा होता है, नियम होता है पर वो सब कागज पर ही होता है। पूरी मंडी में 5 से 6 हजार मजदूर हैं- सारे अवैध और बंधुआ।

पास में खड़े एक पुराने पट्टाधारक और ठेकेदार मुन्ना रेकवार कहते हैं, “अब पहाड़ के काम में बहुत रिस्क है, गहराई बहुत बढ़ गई है। हर महीने दो-तीन मजदूरों की जान जा रही है।

कबरई में हमें एक और पुराने पट्टाधारक मिलते हैं। नाम न छापने की शर्त पर वे कहते हैं, “जब यहां कोई मौत होती है तो डीएम-एसपी का कहना रहता है कि हमारे पास मत आओ, तुम अपना वहीं निपटा लो। हमारे यहां कोई न आए। न सूचना दो, न कोई एफआइआर करे, न कोई कार्यवाही। ये सब पहाड़वाले, पट्टाधारक, क्रैशर मालिक इकट्ठा हो जाते हैं। इनका बड़ा संगठन है, यूनियन है जो बहुत ताकतवर है। वे मृतक के परिवारवालों को शासन-प्रशासन तक पहुंचने ही नहीं देते। रिश्‍तेदारों पर समझौते के लिए दबाव बनाते हैं। हर तरफ से बुरी तरह घेर लेते हैं और तब तक पीछा नहीं छोड़ते जब तक एफिडेविट पर दस्तखत नहीं करा लेते।

वे कहते हैं, ‘’मैं भी खुलकर उनका विरोध नहीं कर सकता। मैं खुद पट्टाधारक हूं, अगर विरोध करता हूं तो सारे अधिकारी, पहाड़वाले, क्रैशर वाले सब मिलकर मुझे ही तोड़-मरोड़ देंगे।

इस मसले पर हमने दैनिक हिंदुस्तान के महोबा ब्यूरो चीफ और वरिष्ठ पत्रकार कैलाश तिवारी से बातचीत की। तिवारी लम्बे समय से इस कारोबार पर नजर रखते आ रहे हैं। वे बताते हैं, “कबरई में लगभग 500 क्रैशर प्लांट हैं। इन प्लांटों में जो बोल्डर आता है वो 200 से ज्यादा पहाड़ों के पट्टे हैं जो डहर्रा, पचपहरा, गंगामाइया, गंज, मध्यप्रदेश के प्रकाश बम्होरी के पहाड़ हैं। एक पहाड़ में औसतन 20 से 25 पट्टे होते हैं। पत्थर तोड़ने का जो तरीका है वो एकदम देसी है। कभी रस्सी टूट जाती है, तो कभी ईडी बिछाते वक्‍त विस्फोट हो जाता है। सालाना औसतन 10-15 मौतें हो रही हैं यानी हर महीने कम से कम एक।



मुआवजे पर तिवारी बताते हैं, “ज्यादातर पट्टाधारक ही क्रैशर मालिक हैं या जो क्रैशर मालिक हैं वही पट्टाधारक भी हैं। इनकी एक यूनियन है जो बहुत मजबूत है। उनका मुआवजे का एक मानक है जो आजकल 20-22 लाख चल रहा है, लेकिन कितने पर मृतक का परिवार टूट जाए, कितना उन तक पहुंच पाता है ये दूसरी बात है। अक्सर पहाड़वाले मानते ही नहीं कि‍ कोई घटना हुई है, मजदूर का कोई रिकॉर्ड नहीं होता- न श्रम विभाग में न कहीं और, जिससे उन्हें सरकारी लाभ नहीं मिल पाता।

वे इस धंधे का पर्यावरणीय आयाम भी गिनवाते हैं और कहते हैं कि प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड भी औपचारिकता ही करता है। राष्‍ट्रीय राजमार्गों (एनएच) का जो नियम है, उसके अनुसार एनएच से 500 मीटर के दायरे में कोई स्टोन क्रैशर नहीं लगनी चाहिए पर सारी स्टोन क्रैशर 500 मीटर के दायरे में ही हैं, एनएच के एकदम किनारे। हरित पट्टी और स्प्रिंकलर भी कागज पर ही हैं। पूरे क्षेत्र में धूल का गुबार छाया रहता है जिसके चलते यहां लगातार टीबी, दमा, फ्लोराइसिस के मरीज बढ़ रहे हैं।

तिवारी के अनुसार, “मजदूर की मौत और मुआवजे पर प्रशासनिक हस्तक्षेप तब होगा जब कोई मुद्दई होगा, कम्प्लेनेंट होगा, कोई तहरीर करने वाला होगा। अगर कोई होगा ही नहीं तो फिर प्रशासन क्या कर सकता है? पहाड़वाले वहां तक पहुंचने ही नहीं देते। वे दबाव बना कर एफिडेविट करा लेते हैं और मामला खत्म हो जाता है। प्रशासन को सब जानकारी है, लेकिन पहाड़वालों की लॉबी इतनी मजबूत है कि कोई अधिकारी ज्यादा नियम-कानून करेगा तो वे उसे टिकने ही नहीं देंगे। रातोरात तबादले करा देते हैं।

तबादला तो फिर भी ठीक है, यहां ठेकेदार, मालिक और प्रशासन के त्रिकोणीय समीकरण में हत्‍याएं भी देखी गई हैं। पहाड़वालों, क्रैशर मालिकों और अधिकारियों के बीच लेन-देन किस तरह चलता है इसका उदाहरण है क्रैशर मालिक चंद्रकांत त्रिपाठी की हत्या का मामला। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार त्रिपाठी की हत्या सितंबर 2020 में हुई थी। इस हत्या का आरोप तत्कालीन महोबा पुलिस अधीक्षक मणिलाल पाटीदार पर लगा था। एफआइआर के अनुसार मणिलाल, क्रैशर मालिक पर हर महीने 6 लाख रूपये रिश्वत देने का दबाव डाल रहे थे। त्रिपाठी 8 सितंबर 2020 को मीडिया के सामने इस मामले को रखना चाह रहे थे पर उसी दिन उनकी हत्या कर दी गई।

इसीलिए पहाड़ों में मजदूरों की मौतों से संबंधित लगभग हर स्थानीय मीडिया रिपोर्ट में सरकारी अधिकारियों का एक ही बयान छपा होता है कि “कोई तहरीर आएगी तो जांच और कार्यवाही की जाएगी“। जैसे हालात हैं, उनमें ऐसा लगता है कि न कभी तहरीर पहुंचेगी, न कभी कोई कार्रवाई होगी।


सभी वीडियो और तस्वीरें: सतीश मालवीय


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