दिल्ली की सरहदों पर 2020 में डेरा डाले किसान आंदोलन को जब छह महीने बीत चुके थे, तब उसकी ताप गांवों में भी महसूस होने लगी थी। जो किसान दिल्ली मोर्चों पर बैठे थे, वे एक अनुशासन के तहत नरम थे लेकिन जो गांव में पीछे छूट गए थे वे अपने साथियों की वापसी का इंतजार करते-करते गरमा चुके थे। आगामी लोकसभा चुनावों में पंजाब, हरियाणा, राजस्थान और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासी जमीन उसी ताप में जलकर पक्की हुई है।
इस इलाके ने किसान आंदोलन के बाद से कई नाटकीय मोड़ देखे हैं, लेकिन ज्यादातर परिचित कहानियां हरियाणा और पंजाब से हमारी सुनी हुई हैं। इस मामले में राजस्थान की कहानी को सुनाया जाना अब तक बाकी है। यह कहानी सुनाई जानी इसलिए भी जरूरी है क्योंकि दो दिन बाद ही पहले चरण के मतदान होने हैं और चार साल के हो चुके किसान आंदोलन की कायदे से पहली देशव्यापी चुनावी परीक्षा अब होनी है।
चुरू का ‘जयचंद’
कहानी चुरू जिले से शुरू होती है। जैसे दिल्ली की सरहदों पर 2020-21 में तीन कृषि कानूनों के खिलाफ तेरह महीने तक आंदोलन चला, ठीक वैसे ही 2022-23 में चुरू जिले के किसान बारह महीने तक प्रधानमंत्री फसल बीमा योजना के तहत मुआवजा पाने के लिए तहसीलों के बाहर डेरा डाले रहे। जब उनकी आवाज को अनसुना किया जाने लगा तब वे अपने सांसद और विधायकों के घरों तक जाकर विरोध करने से नहीं चूके। उस समय मौके के चुरू के भाजपाई सांसद राहुल कस्वां को भी आंदोलन की आंच लगी। किसान बहुल इलाके में किसान उन्हें ‘जयचंद’ कहने लगे।
नवंबर के आखिरी दिनों में हुए राजस्थान के विधानसभा चुनाव में चुरू की तारानगर सीट से भाजपा के प्रत्याशी राजेन्द्र राठौड़ चुनाव हार गए। बकौल राजेन्द्र राठौड़, राहुल कस्वां अपनी ही पार्टी के ‘जयचंद’ हो गए। कस्वां के ऊपर राठौड़ के खिलाफ चुनाव लड़ रहे कांग्रेसी उम्मीदवार की मदद करने के आरोप लगे।
दोनों ओर से जयचंद की उपाधि पाए राहुल के दिन बहुत सर्द माहौल में कटे। चढ़ते बसंत में भाजपा ने एक आंतरिक सर्वे करवाया जिसमें राहुल की हार की संभावनाएं सामने आने लगीं, तब पार्टी ने उनकी जगह पैरालिंपिक विजेता देवेन्द्र झाझड़िया को लोकसभा का टिकट पकड़ा दिया। टिकट कटने के तीन दिन बाद 8 मार्च को राहुल अपने घर की छत पर चढ़ गए। अपने ऊपर लगा जयचंद वाला दाग धोने के लिए उन्होंने राजेंद्र राठौड़ पर जुबानी हमला करते हुए कहा, ‘‘जयचंदों के बीच में रहने वाले जयचंद ही जयचंदों की बात करते हैं। क्या अब वो एक व्यक्ति (राजेंद्र राठौड़) मेरे भविष्य का फैसला करेगा? चुरू का बच्चा-बच्चा मेरे कल का फैसला करेगा। अब ये लड़ाई एक आदमी के अहंकार के खिलाफ है।’’
उनका यह भाषण वायरल हुआ। जमात की लड़ाई पीछे छूटी, जात की लड़ाई बड़ी हो गई। इस जाट-बहुल सीट पर समाज का जयचंद होने का दाग धुल चुका था और भाजपा के दागी ‘जयचंद’ को किसानों ने कहा, “दाग अच्छे हैं।” राहुल कस्वां छत से उतरे और तीन दिन बाद 11 मार्च को पहले कांग्रेसी हुए। फिर कांग्रेस के लोकसभा उम्मीदवार बने।
टिकट मिलने के महीने भर बाद और मतदान से ठीक पहले कस्वां की क्या जमीनी तैयारी है, इस पर चुरू की राजनीति पर अच्छी पकड़ रखने वाले वकील राकेश जेवलिया कहते हैं, “1998 से लगातार भाजपा ही इस सीट से जीतती रही है। साल 2009 तक रामसिंह कस्वां यहां के सांसद रहे और उसके बाद उनके बेटे राहुल सांसद हैं। पिछले दो चुनाव में यहां मोदी लहर थी, लेकिन पिछले पांच साल में हुए कई किसान आंदोलनों ने मोदी का जलवा कम कर दिया है। देवेन्द्र झाझड़िया मोदी के नाम पर वोट मांग रहे हैं। राहुल कस्वां नरेंद्र मोदी या देवेन्द्र के बारे में किसी भी प्रकार की बात करने से बच रहे हैं और चुनाव को “चाचा-भतीजा” की लड़ाई बना रहे हैं, जिसको हम राजेंद्र राठौड़ बनाम राहुल कस्वां से समझ सकते हैं। थोड़े जातिगत ध्रुवीकरण के कारण राहुल का पलड़ा आज की तारीख़ में भारी है।”
नागौर: गठबंधन के हनुमान
चुरू में उभरा ‘जयचंद’ राहुल कस्वां को बरी कर के लगती हुई सीट नागौर पर इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार हनुमान बेनीवाल के साथ जाकर चिपक गया है। नागौर कांग्रेस के दर्जनों नेता कार्यकर्ता बेनीवाल के साथ खड़े दिखाई नहीं दे रहे हैं।
दरअसल, नागौर कांग्रेस पर मिर्धा परिवार का ठीकठाक असर है और इसी परिवार की ज्योति मिर्धा यहां से भाजपा की प्रत्याशी भी हैं, जिसके कारण मिर्धा परिवार के कई परंपरागत कांग्रेसी कार्यकर्ता दबे-छुपे भाजपा की मदद कर रहे हैं। मिर्धा परिवार के इस घालमेल से परेशान हनुमान ने जायल क्षेत्र में अपने भाषण में गठबंधन को ‘मतीरों का भारा’ (टोकरा) कह डाला और कांग्रेस के चार-पांच नेताओं पर ‘भाजपा का दुपट्टा पहनकर’ चुनाव प्रचार करने के आरोप लगाए। हनुमान का यह भाषण वायरल होने लगा और कांग्रेस हाईकमान ने तेजपाल मिर्धा सहित कांग्रेस के तीन नेताओं को पार्टी से छह साल के लिए निष्कासित कर दिया।
तेजपाल मिर्धा खिंवसर से कांग्रेस के प्रत्याशी भी रहे हैं। उनके पार्टी से निकाले जाने के बाद कई पार्षदों और कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने पार्टी से त्यागपत्र दे दिया, जिससे हनुमान गठबंधन में अकेले पड़ते नजर आ रहे हैं। ‘मतीरों की भरी टोकरी’ से ऐसे ही मतीरे छलकते रहे तो हनुमान को जीत का प्रसाद मिलना मुश्किल होगा।
हनुमान के पक्ष में हालांकि एक ही चीज काम कर रही है- ग्रामीण नागौर में मिर्धा परिवार की खराब छवि। नागौर के एक किसान धर्मपाल सिंह ने बताया, “इस परिवार ने पिछले बीस साल में अपनी अलग-अलग शाखाएं खोलकर ग्रामीण नागौर के सिर में दर्द दे दिया है। चाचा कांग्रेस में है तो भतीजी भाजपा में और कोई तीसरा कहीं और। नागौर की हर विधानसभा सीट पर खामखा पर्चा भरकर ये लोग बैठ जाते हैं और हारने पर जनता को गालियां देने लगते हैं।”
भाजपा की उम्मीदवार ज्योति मिर्धा बीते विधानसभा चुनाव में अपने चाचा से हार चुकी हैं। इस चुनाव में वे खूब खर्च कर रही हैं और बड़ी चालाकी से सिर्फ मोदी के नाम पर ही वोट मांग रही हैं, लेकिन इस सीट का गणित उनका साथ नहीं दे रहा। उधर बेनीवाल मुंहफट होने के बावजूद ग्रामीण युवाओं में लोकप्रिय हैं और मुसलमान समुदाय के चार लाख से ज्यादा वोटों का एक बड़ा हिस्सा उनके खाते में गिरने जा रहा है। इसलिए इस सीट पर अपने दम पर वे ठीकठाक मजबूत हैं।
सीकर में लाल बनाम भगवा
नागौर से सटी हुई सीकर सीट से इंडिया गठबंधन के उम्मीदवार अमराराम सीपीएम के चुनाव चिह्न पर मैदान में हैं। उनके समर्थक “लाल लाल लहरावेलो, अमरो दिल्ली जावेलो” का नारा उछालकर माहौल बनाने की कोशिश कर रहे हैं, लेकिन उन्हें भी यही सवाल बार-बार डरा रहा है कि कहीं सीकर के कांग्रेसी उनके साथ कोई खेल न कर दें।
एक किसान नेता के रूप में अमराराम की यहां निजी छवि बुलंद है, पर लोग उन्हें पार्टी से नहीं जानते। सीकर की एक डिफेंस एकेडमी के नौजवानों से बात करते हुए यह बात सामने आई कि वे अमराराम की पार्टी को तो नहीं जानते पर यह जानते हैं कि वे किसानों के नेता हैं और उनकी इलाके में खूब इज्जत है।
लाल के सामने भगवा पहने आर्यसमाजी बाबा सुमेधानंद सरस्वती वह पहली डोर हैं जिनके जरिये राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ शेखावटी को अपनी नई प्रयोगशाला बनाना चाहता है। इस इलाके के लेखक संदीप मील ने कहते हैं, “शेखावटी के लगभग हर शहर और कस्बे में मुस्लिम आबादी रहती है और संघ यहां आजादी के बाद से ही साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण की फिराक में रहा है, लेकिन लेफ्ट की मौजूदगी के कारण यहां कांग्रेस पर भी सेकुलर बने रहने का दबाव रहता है जिसके कारण यहां धर्म आधारित नफरत का बहुमत नहीं बन पाया। सुमेधानंद सरस्वती बाबा बेशक आर्य समाज के हों, लेकिन काम बिल्कुल संघ के इशारों पर करते हैं।”
सुमेधानंद पिछले दो बार के सांसद हैं पर अब उनकी हैट्रिक पर लोगों को शक हो रहा है। कुछ दिन पहले ही उन्होंने जाट बोर्डिंग हॉस्टल को गुंडों का अड्डा बता दिया था। जाट हॉस्टल के लड़कों से बात करने पर सच्चाई कुछ और नजर आती है।
वहां पहुंचते ही हमें सीकर के देहात से पढ़ने आए छात्रों ने घेर लिया और कहने लगे, “क्या हम 20-22 साल के लड़के गुंडे लगते हैं?” उनमें से एक सोनू हुड्डा ने बताया, “बाबा के उस बयान से ग्रामीण समाज में ठीकठाक गुस्सा है। इस हॉस्टल से हर साल हर भर्ती में बच्चे सेलेक्ट होते हैं और इसका निर्माण हमारे बाप-दादाओं ने सामंतों और अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन के दौरान किया था। उस बाबा को मिर्ची तो इसलिए लगती है क्योंकि किसान आंदोलन में यहां से बड़ी संख्या में लड़के आंदोलन में जाते थे।”
पूरे शेखावटी बेल्ट में ही किसान आंदोलन का ठीकठाक असर है, जो बीते विधानसभा परिणामों में भी देखने को मिला था। अबकी तो सुमेधानंद सरस्वी के सामने उसी किसान आंदोलन का एक नेता लड़ रहा है। अमराराम तीन बार विधानसभा तो गए हैं, लेकिन एक बार भी लोकसभा नहीं जा पाए। सीकर में सीपीएम और कांग्रेस दोनों के मजबूत संगठन हैं। अगर दोनों में कोई तालमेल बैठता है तो अबकी अमराराम दिल्ली की राह पकड़ सकते हैं।
श्रीगंगानगर: दोनों प्रत्याशी बाहरी
दिल्ली में किसान आंदोलन के दौरान गंगानगर के जिला सचिवालय पर भी कुछ किसान धरना दिए बैठे थे। यह जुलाई 2021 की बात है। भाजपा की एससी सेल के प्रदेशाध्यक्ष कैलाश मेघवाल कुछ लोगों के साथ किसानों के मोर्चे पर आए और उन्होंने गाली-गलौज की और किसानों से उठकर भाग जाने को कहने लगे।
बात किसानों और मेघवाल के कार्यकर्ताओं के बीच हाथापाई तक पहुंच गई थी, जिसके बाद गुस्साए किसानों ने मेघवाल के भी कपड़े फाड़ दिए थे। भाजपा ने इस घटना को दलितों पर हमले की तरह पेश किया। राष्ट्रीय मीडिया ने भी इसी पेशकारी के रट्टे लगाए।
किसान आंदोलन में सक्रिय रहे इलाके के निवासी हरिन्द्र हैप्पी ने बताते हैं, “चूंकि राजस्थान में किसान आंदोलन सबसे ज्यादा गंगानगर में ही था तो इस दवाब को कम करने के लिए यह बिसात बिछाई गई थी। दूसरा कारण यह भी था कि जिले की कुल जनसंख्या के अनुपात में सबसे ज्यादा दलित गंगानगर जिले में ही हैं, तो यहां दलितों और गैर-जाट जातियों के आधार पर समीकरण बैठाने की कोशिश की गई। विधानसभा चुनाव के परिणामों ने बेशक इस समीकरण का पहिया पंचर कर दिया और गंगानगर में भाजपा को 6 में से केवल 2 सीट ही मिली। ये दो सीटें भी कांग्रेस के बागियों के कारण भाजपा को मिलीं।”
पंजाब और हरियाणा से सटी गंगानगर सीट पर वर्तमान में इंडिया गठबंधन से कांग्रेस के उम्मीदवार कुलदीप इंदौरा और भाजपा प्रत्याशी प्रियंका बैलाण दोनों ही “बाहरी” हैं। दोनों अनूपगढ़ से हैं जो बीकानेर लोकसभा में आता है। दोनों ही लोकप्रिय नेता नहीं हैं। लोग कहते हैं कि लोकसभा तो छोड़िए, दोनों विधानसभा तक नहीं जीत सकते।
हरिन्द्र के अनुसार, “कुलदीप इंदौरा का पलड़ा इसलिए भारी लग रहा है क्योंकि अंदरूनी कलह कम है और कांग्रेस के काडर का वोट पड़ने की संभावना है। सीपीएम के वोट भी मिलने की पूरी संभावना है क्योंकि उसके नेता इस तरह प्रचार कर रहे है जैसे वे खुद लड़ रहे हों।‘’
दूसरी ओर प्रियंका बैलाण भाजपा प्रदेश और राष्ट्रीय नेतृत्व के सहयोग से क्षेत्रीय भाजपा नेताओं का साथ लेने में जुटी हैं। हरिन्द्र बताते हैं कि पूर्व केंद्रीय मंत्री और गंगानगर से पांच बार सांसदी जीत चुके भाजपा के नेता निहालचंद कतई नहीं चाहते कि इस क्षेत्र से पार्टी का कोई और नेता उभरे, “इसलिए वह प्रियंका का साथ नहीं दे रहे। उधर भाजपा नेतृत्व निहालचंद की कारगुजारी से खुश नहीं है और क्षेत्र में नए नेतृत्व को स्थापित करना चाहता है।‘’
प्रियंका खुद दलित हैं लेकिन उनकी शादी अरोड़ा खत्री से हुई है, इस कारण से खासकर गंगानगर शहर में पंजाबी बनिया समाज के वोट उन्हें पड़ने की संभावना है। नौजवान किसान राहुल बिश्नोई भी ऐसा ही कुछ कहते हैं, “किसान आंदोलन की इतनी गर्माइश इस सीट पर है कि चाहकर भी भाजपा यह सीट नहीं जीत पाएगी। गंगानगर-हनुमानगढ़ के युवा अच्छी खासी संख्या मे सेना मे भर्ती होते हैं, इसलिए अग्निवीर का मुद्दा यहां भी चर्चा में है। इसके अलावा दोनों जिलों मे बढ़ता नशा भी इस चुनाव पर असर डाल रहा है। हाल ही में हुए विधानसभा चुनाव में भी यही तीनों मुद्दे हावी थे। विधानसभा चुनाव में इन दो जिलों की 11 सीटों में से 7 कांगेस, 1 पर निर्दलीय और भाजपा को 3 सीट मिली थीं।”
दौसा: नो वोट फॉर भाजपा
किसान आंदोलन के नजरिये से राजस्थान में श्रीगंगानगर और सीकर के बाद सबसे ज्यादा उपजाऊ जिला दौसा है। यहां किसान संगठन भाजपा के खिलाफ ‘नो वोट फॉर भाजपा’ कैंपेन चला रहे हैं।
इस लोकसभा में बस्सी, चाकसू (जयपुर जिला), लालसोट, सिकराय, दौसा, बांदीकुई, महुवा (दौसा जिला), थानागाजी (अलवर जिला) विधानसभा क्षेत्र पड़ते हैं। कांग्रेस ने बांदीकुई के वर्तमान विधायक मुरारी लाल मीणा पर दांव खेला है, तो भाजपा ने कन्हैया लाल मीणा को मैदान में उतारा है। वह बस्सी से पूर्व विधायक और मंत्री रहे हैं, पर पिछले तीन विधानसभा चुनावों में भाजपा के टिकट पर हार का मुंह देख चुके हैं। इस सीट पर मीणा, गुर्जर, बैरवा, ब्राहमण और माली समाज का संख्याबल ज्यादा है और इसे सचिन पायलट के प्रभाव वाली सीट माना जाता है। पायलट मुरारी लाल मीणा की जीत के लिए मेहनत कर रहे हैं।
उधर वरिष्ठ नेता किरोड़ीलाल मीणा ने भाजपा प्रत्याशी के पक्ष में अलग राग छेड़ रखा है। राजस्थान के पत्रकार निर्मल पारीक का यह ट्वीट गौर करने लायक है।
दौसा में किसानों के मुद्दों पर काम करने वाले नौजवान महावीर गुज्जर कहते हैं, “ईआरसीपी योजना पहले किसानों के लिए सिंचाई योजना थी पर मोदी सरकार ने इसकी पूरी डीपीआर को बदलकर इंडस्ट्री के लिए पानी की योजना बनाकर दोबारा उतारा है, जिसका प्रचार यहां की जनता में हमने ठीकठाक कर दिया है। हमने कई भाजपा के नेताओं का घेराव भी किया है और इसी को मुद्दा बनाते हुए सभी किसान संगठन ‘नो वोट टु भाजपा’ कैंपेन भी चला रहे हैं।”
स्थानीय पत्रकारों से बातचीत में पता चला कि भाजपा इस सीट पर मजबूत थी, परन्तु कमजोर प्रत्याशी के कारण इस सीट पर कांग्रेस अब उसके मुकाबले में आ गई है। भाजपा ने जिन कन्हैयालाल को टिकट दिया है उन पर गुर्जर आरक्षण आंदोलन में उपजी जातिगत हिंसा को भड़काने के आरोप जनता में लगते रहे हैं, इसलिए लोग उनके साथ मंच पर दिखने में सहज नहीं हैं। पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने कन्हैयालाल की इस बदनामी का जिक्र केन्द्रीय नेतृत्व से भी किया था, लेकिन उनकी नहीं सुनी गई। दौसा लोकसभा में वसुन्धरा गुट के नेता कन्हैयालाल के मंच पर चढ़ने तक से परहेज कर रहे हैं।
करौली: बसपा की सेंधमारी
जिस तरह दौसा में भाजपा का एक गुट अपने प्रत्याशी के लिए असहज है ठीक वैसे ही करौली लोकसभा में कांग्रेस का एक गुट अपने प्रत्याशी पर सहमति नहीं बना पा रहा।
कांग्रेस ने इस सीट से पूर्व मंत्री भजनलाल जाटव को टिकट दिया है, जिन पर बाहरी होने का ठप्पा लगा हुआ है। भाजपा ने करौली पंचायत समिति की पूर्व प्रधान इंदू जाटव पर दांव खेला है। कांग्रेस प्रत्याशी भजनलाल जाटव को अशोक गहलोत का करीबी माना जाता है और सचिन पायलट का धुर विरोधी। इसलिए सचिन पायलट उनका साथ नहीं दे रहे हैं, जिसके कारण कांग्रेस थोड़ी सी पिछड़ रही है। इस सीट पर बहुजन समाज पार्टी का भी ठीकठाक प्रभाव है और बसपा के प्रत्याशी विक्रम सिंह सिसोदिया (जाटव) कांग्रेस के ही वोटों में सेंधमारी कर रहे हैं।
यह सीट उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश से सटी हुई है और इन दोनों राज्यों के वोटिंग पैटर्न का असर इधर भी रहता है, इसलिए राम मंदिर, हिंदुत्व, संविधान पर खतरे जैसे मुद्दे यहां खूब उठाए जा रहे हैं। किसान कार्यकर्ता महावीर गुर्जर का मानना है कि कांग्रेस बिना गुटबाजी के लड़े तो अब भी यह सीट जीत सकती है क्योंकि भाजपा प्रत्याशी की तुलना में कांग्रेस प्रत्याशी दलित समाज में बहुत बड़ा नाम और चेहरा है। आज की स्थिति में भाजपा मामूली सी आगे दिख रही है, इसलिए इस सीट पर जीत का अंतर बहुत कम रहने वाला है।
अलवर: चाहिए एक और ‘यादव’?
दिल्ली से राजस्थान की ओर बढ़ने पर सूबे का पहला जिला अलवर अपनी तिजारा विधानसभा से खुलता है, जो बीते विधानसभा चुनाव में बाबा बालकनाथ के भाजपा प्रत्याशी होने के कारण चर्चित रही थी। इस यादव-बहुल इलाके के गांव की फिरनियों पर अहीर रेजिमेंट की मांग के शिलापट्ट लगे दिखलाई पड़ते हैं, जिन पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा हुआ है, “हमारी मांग अहीर रेजिमेंट।”
शेखावटी के बाद राजस्थान के इस इलाक़े से भी सेना में बंपर भर्तियां होती थीं, लेकिन अब सुबह सवेरे कम ही युवा एनसीआर में आने वाले इस ज़िले के चमकते हाइवे पर दौड़ते नजर आते हैं। यादव युवाओं के मन में अग्निवीर की टीस तो है, लेकिन हिंदुत्व का एक गहरा असर भी उन पर दिखता है।
इस इलाके के पत्रकार गर्वित गर्ग ने बतलाया, “अहीर रेजिमेंट की मांग ने मोदी सरकार के कार्यकाल में ही जोर पकड़ी है, और सरकार उनकी इस मांग पर कई बार साफ मुंह फेर चुकी है, फिर भी मांग न मानने का गुस्सा यादवों के वोटिंग पैटर्न में नहीं झलकता है। अग्निवीर स्कीम आई तो तब जरूर लगा था कि कुछ रोष भाजपा के उलट दिखेगा, लेकिन बीते विधानसभा चुनाव में बाबा बालकनाथ ने जाति की आइडेंडिटी भुलवाकर सभी को हिंदुत्व के लपेटे में ले लिया। इस तरह कर्म पर धर्म की जीत हुई।”
पिछले दो बार से हरियाणा के रोहतक में स्थित मस्तराम आश्रम के महंत चांदनाथ और उनकी मृत्यु के बाद उनके उत्तराधिकारी बालकनाथ यहां से जीते। उनके मुक़ाबले में अलवर राजपरिवार के भंवर जितेंद्र सिंह होते थे, जो 2009 में तो जीते थे लेकिन उसके बाद से लगातार हार रहे हैं। इस सीट पर कांग्रेस ने जब भी यादव उम्मीदवार दिया है, उसके जीतने की संभावनाएं ज़्यादा रही हैं। बालकनाथ खुद यादव बिरादरी से आते हैं।
2017 में चांदनाथ की मृत्यु के बाद हुए उपचुनाव में कांग्रेस के डॉ. करण सिंह यादव ने भाजपा के डॉ. जसवंत यादव को दो लाख वोटों से हराया था। उससे पहले 2004 में डॉ. करण सिंह यादव ने चांदनाथ को हराया था। 1998 में भी कांग्रेस के घासीराम यादव यहां से विजयी हुए थे।
इस बार भाजपा ने यहां से केंद्रीय मंत्री और भाजपा के महासचिव भूपेन्द्र यादव को मैदान में उतारा है, जबकि कांग्रेस ने अभी कुछ महीने पहले ही पहली बार विधायक बने 34 साल के युवा ललित यादव को मैदान में उतारा है। यहां पर कांग्रेस के भंवर जितेंद्र सिंह की जगह एक यादव को टिकट देने से मुक़ाबला दिलचस्प बन गया है। कांग्रेस भूपेन्द्र यादव के बाहरी उम्मीदवार होने पर निशाना साध रही है, तो भाजपा के लोग यादव-बहुल क्षेत्रों में जाकर कह रहे हैं कि ‘’ललित यादव विधायक तो हैं ही, आपको भूपेन्द्र यादव के रूप में एक यादव सांसद और मंत्री और मिलेगा। ललित का इस हार से कोई नुक़सान नहीं होगा, वह विधायक रहेगा लेकिन भूपेन्द्र को हरा दिया तो अलवर से एक मंत्री छिन जाएगा।‘’
अलवर लोकसभा में मुक़ाबला दिलचस्प इसलिए भी है क्योंकि हरियाणा के मेवात से जुड़े इस इलाके में विधानसभा चुनावों में भाजपा ने ध्रुवीकरण करने की जबरदस्त कोशिश की थी। तिजारा विधानसभा से बाबा बालकनाथ का नामांकन करवाने बाकायदा उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ आए थे। बालकनाथ को राजस्थान के सीएम उम्मीदवार के तौर पर भी पेश किया गया था। बालकनाथ खुद कुछ हजार वोटों से जीत गए लेकिन अलवर की आठ विधानसभा सीटों में से पांच पर कांग्रेस ने जीत हासिल की।
भूपेन्द्र यादव भाजपा के शीर्ष नेतृत्व का करीबी होने के नाम पर अपने लिए वोट मांग रहे हैं, लेकिन उनके लिए इस सीट पर मुश्किलें बहुत हैं। इस सीट पर मेव (मुस्लिम) समुदाय के लगभग 3.5 लाख मतदाता हैं जिनका अधिकांश वोट भाजपा को हराने वाले के पक्ष में ही पड़ता है। साथ ही यहां पर 4.5 लाख दलित मतदाता हैं और अलवर ग्रामीण से आने वाले दलित विधायक टीका राम जूली को राजस्थान विधानसभा में नेता विपक्ष बना कर कांग्रेस ने दलितों में अपनी स्थिति मज़बूत की है।
यहां एक लाख से अधिक जाट मतदाता भी हैं जो कांग्रेस के पक्ष में जाते हुए दिख रहे हैं, हालांकि कांग्रेस को एक झटका इस बात से लगा है कि ललित यादव को टिकट मिलने के बाद कांग्रेस से दो बार सांसद रहे डॉ. करण सिंह यादव भाजपा में चले गए हैं। साथ ही तिजारा से विधायक रहे संदीप यादव भी लोकसभा का टिकट न मिलने से नाराज चल रहे हैं। इसके बाद भी ललित यादव अपने रोड शो और रैलियों में यादव युवाओं के बीच लोकप्रिय दिखाई दे रहे हैं। अगर ललित यादव अपने समाज के 30 से 40 प्रतिशत वोट भी पा गए तो भूपेन्द्र यादव लोकसभा में नहीं पहुंच पाएंगे।
भाजपा का ‘अग्निपथ’ झुंझुनू
झुंझुनू शहर से मंडावा के लिए जाने वाली सड़क के किनारे बनी फौजी भर्ती एकेडमियों ने इतने बुरे दिन कभी नहीं देखे होंगे। हम जिस एकेडमी में घुसे, उसके मालिक अमित शर्मा ने अपने ऑफिस में हेल्थ सप्लीमेंट बेचने की तैयारी कर ली है। वे अब कोचिंग के बजाय अपनी दुकानदारी पर ध्यान देने में व्यस्त हैं। फौज का सपना देखने वाले नौजवानों के लिए ऑफिस के पीछे बने कमरे खाली पड़े हैं।
बातचीत में उन्होंने बताया, “अग्निवीर के बाद अब लड़कों में फौज का क्रेज बहुत कम हो गया है। जिस इलाके में आप आए हो, इसके हर गांव में आपको कोई न कोई फौजी शहीद जरूर मिलेगा। पहले हमारा धंधा बढ़िया चलता था। मेरे पास ही साढ़े चार सौ बच्चे थे। अब बस नाम मात्र ही बचे हैं।”
ठीक ऐसी ही परेशानी सीकर में विवेकानंद डिफेंस एकेडमी चलाने वाले अभिषेक की भी दिखी, जिन्होंने बताया, “हमने जब एकेडमी शुरू की थी तब ग्यारह बारह सौ बच्चे होते थे, अब सिर्फ बीस परसेंट बचे हैं। अग्निवीर सब ले डूबा।”
चुनाव के बारे में अमित कहते हैं, “पिछली बार वे सैनिकों की शहादत के नाम पर जीते थे, अबकी बार उनकी नौकरी की बलि लेने के कारण हारेंगे। कम से कम शेखावटी में तो हारेंगे ही।”
झुंझुनू के सामाजिक कार्यकर्ता महीपाल पूनिया ने बताया, “झुंझनू पिछली बार भाजपा के लिए जितना आसान था, अबकी बार उतना ही मुश्किल है। एक तो झुंझुनू में यमुना जल समझौते के लिए किसान आंदोलित हैं और दूसरा अग्निवीर से नौजवानों में गुस्सा है। इसके अलावा भाजपा ने जिस शुभकरण चौधरी को यहां से अपना कैंडिडेट बनाया है उसके खिलाफ अवैध टोल वसूली का आंदोलन भी चला है और हाईकोर्ट ने भी उस पर 50 करोड़ रुपये का जुर्माना भी लगाया था। वह उदयपुरवाटी में विधानसभा की राजनीति करता था तो अपने लोकल समीकरणों के चक्कर में राजपूतों को गालियां निकालता था। अब उसकी वही पुरानी वीडियो झुंझुनू जिले में राजपूत समाज के वोट उन तक पहुंचने में बाधा साबित हो रही हैं। इतना ही नहीं, राजपूत नेता और पूर्व मंत्री राजेन्द्र गुढ़ा ने भी शुभकरण चौधरी के खिलाफ मोर्चा खोला हुआ है।”
इस सीट से कांग्रेस ने पूर्व केन्द्रीय मंत्री शीशराम ओला के बेटे बृजेन्द्र ओला को टिकट दिया है, जिनके पक्ष में कोई खास उत्साह जमीन पर नहीं है तो कोई विरोध भी नहीं है। इस लोकसभा की नवलगढ़ विधानसभा से कांग्रेस को भितरघात का सामना भी करना पड़ रहा है।
जयपुर: गरीब नेता, फर्जी सेकुलर
गांव-कस्बों में साम्प्रदायिक और सेकुलर का जो फर्क दिखाई देता है, वह शायद शहर तक आते-आते खत्म हो जाता है। जयपुर शहर से कांग्रेस के पहले घोषित प्रत्याशी सुनील शर्मा की कहानी इसी का एक उदाहरण है।
शर्मा का टिकट कांग्रेस को इसलिए काटना पड़ा क्योंकि वे जिस मंच पर जाते थे वहां भाजपा की मनपसंद बातें होती थीं। कुछ लोगों ने उनकी संबद्धता को लेकर दिल्ली से ट्विटर आदि पर अभियान चलाया, तो मजबूरी में कांग्रेस को प्रत्याशी बदलना पड़ गया। इसके बावजूद शर्मा अपनी सफाई देने से नहीं चूके, हालांकि भाजपा इस मुद्दे को लेकर उड़ गई।
इस घटनाक्रम पर वरिष्ठ पत्रकार आनंद चौधरी ने बताया, “कांग्रेस ने उन्हें टिकट जिस भी स्थिति में दिया हो, लेकिन जयपुर डायलॉग्स नाम के प्लेटफार्म से उनका नाम जुड़ने के बाद उनके टिकट कटने को भाजपा ने शहर में कांग्रेस के हिंदू-विरोधी होने का माहौल बना दिया। खुद कांग्रेस के प्रत्याशी पूर्व मंत्री प्रतापसिंह खाचरियावास को भी इस सीट से जीतने की कोई उम्मीद नहीं है, इसलिए वह किसी भी किस्म का खर्चा नहीं कर रहे। बस अपने गरीब होने की दुहाई दे रहे हैं। जयपुर शहर के लोग एक गरीब पूर्व मंत्री के इस चुटकुले पर हंस रहे हैं। मनोरंजन में कोई कमी नहीं है।”
भाजपा ने इस सीट से बड़े नेता भंवरलाल शर्मा की बेटी मंजू शर्मा को प्रत्याशी बनाया है। इस शहरी सीट पर राम मंदिर, हिंदुत्व और मोदी फैक्टर हावी है। जयपुर लोकसभा सीट की आठ विधानसभा सीटों में से छह पर भाजपा काबिज है। इस सीट पर भाजपा ठीकठाक मार्जिन से आगे दिखाई दे रही है।
जयपुर ग्रामीण: करीबी मुकाबला
विधानसभा चुनाव से ही जिस लोकसभा सीट की चर्चा सबसे ज़्यादा होने लगी थी, वह है जयपुर ग्रामीण। कारण था 2009 में इस सीट से जीते पूर्व केंद्रीय कैबिनेट मंत्री और इसी में आने वाली झोटवाड़ा विधानसभा से जीते राजस्थान के पूर्व कृषि मंत्री लाल चंद कटारिया का कांग्रेस से पलायन करके भाजपा में चले जाना और इस वजह से सीट का “कांग्रेसी टिकटार्थियों के लिए खुल जाना।
नाम चाहे चार-पांच चले कांग्रेस में, लेकिन जिसकी मीडिया में चर्चा सबसे अधिक थी, जिसकी आम जनता/गली नुक्कड़ में चर्चा सबसे अधिक थी, उसी को टिकट मिला- अनिल चोपड़ा। राजस्थान में चोपड़ा जाट भी होते हैं, तो राव राजेन्द्र सिंह को भाजपा से टिकट मिलने के बाद यह चुनाव जाट बनाम राजपूत का हो गया है, लेकिन इसकी आवाज बहुत धीमी रखी गई है।
जयपुर यूनिवर्सिटी की छात्र राजनीति से चमके और टीम “सचिन पायलट” के फाइनेंशियल/लॉजिस्टिक पक्ष को देख चुके चोपड़ा ने पायलट टीम के हर विधायक के चुनाव में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है, चाहे वे अभिमन्यु पूनिया हों, रामनिवास गावडिया हों या मुकेश भाकर। झोटवाड़ा विधानसभा चुनाव में कैबिनेट मंत्री राज्यवर्द्धन राठौर के ख़िलाफ़ लड़े नौजवान अभिषेक चौधरी को सम्माजनक मुकाबले में लाने का श्रेय भी अनिल चोपड़ा को जाता है।
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इस सीट पर बारीकी से नजर रखने वाले गुरप्रीत संघा ने बताया, “अनिल को टिकट मिलते ही इस सीट पर युवा वोटर में एक जोश सा आ गया, जिसे भाजपा के बुजुर्ग उम्मीदवार राव राजेन्द्र मैच नहीं कर पाए। अभी राजस्थान की हर लोकसभा सीट पर नौजवान उम्मीदवारों के लिए एक अलग ही क्रेज देखने को मिल रहा है, चाहे रवीन्द्र भाटी हों, अनिल चोपड़ा हों, राजकुमार रोत हों या फिर मनीष यादव।”
कुछ महीने पहले यह सीट भाजपा के लिए आसान लग रही थी, परन्तु आज की स्थिति में यह सीट फंस गई है। कांग्रेस के अनिल चोपड़ा मज़बूत चुनाव लड़ रहे हैं, लेकिन वे पार्टी की गुटबाजी के चक्कर में जिस तरह अपने प्रचार में गोविंद डोटासरा को नज़रअंदाज कर रहे हैं उससे उन्हें नुक़सान हो सकता है। आज की तारीख़ में डोटासरा राज्य की जाट राजनीति के पोस्टर बॉय हैं और चोपड़ा का उनके साथ नजर न आना जाट वोटर को खटक रहा है।
वहीं भाजपा राज्य में अपनी सरकार, राव राजेन्द्र की पर्सनल इमेज और इस सीट पर ढ़लते हुए मोदी मैजिक पर एक महंगा कैंपेन चला रही है, जिसके आगे “धनी” माने जाने वाले चोपड़ा की जेब भी फीकी पड़ रही है। इस सीट पर हार-जीत का मार्जिन बहुत कम रहने वाला है।
भरतपुर में जाटव फैक्टर
भरतपुर लोकसभा सीट पर जाट राजपरिवारों के नटवर सिंह और विश्वेन्द्र सिंह का दबदबा होता था, लेकिन 2008 में हुए परिसीमन के बाद यह सीट रिज़र्व हो गई। यहां से नटवर सिंह दो बार कांग्रेस से सांसद रहे और विश्वेन्द्र सिंह एक बार जनता दल और दो बार भाजपा से सांसद रहे। उसके बाद नटवर सिंह का परिवार भाजपा में चला गया और विश्वेन्द्र सिंह का कांग्रेस में।
इस बार विधानसभा में नटवर सिंह के बेटे जगत सिंह भाजपा की तरफ़ से नदबई से विधायक बन गए, जबकि राजस्थान की गहलोत सरकार में मंत्री विश्वेन्द्र सिंह डीग-कुम्हेर से हार गए। इन दोनों राजपरिवारों की दलीय आस्था पेंडुलम की तरह झूलती रहती है। इस लोकसभा सीट पर लगभग पांच लाख जाट मतदाता हैं और चार लाख जाटव मतदाता, जबकि तीन लाख के आसपास मेव (मुस्लिम) मतदाता हैं, साथ में इतने ही गुर्जर मतदाता भी हैं।
कांग्रेस को बीते विधानसभा चुनाव में यहां बड़ा झटका लगा था जब नगर और कामां जो दोनों ही मेव-बहुल सीटें थीं, वहां उसके विधायक हार गए। साथ में उसके बड़े जाट नेता विश्वेन्द्र सिंह डीग-कुम्हेर से हार गए। 2018 के विधानसभा चुनाव में भाजपा भरतपुर की सात विधानसभाओं में से एक भी नहीं जीत पाई थी। उसके बाद यहां से चार विधायक गहलोत सरकार में मंत्री भी बनाए गए लेकिन 2023 के चुनावों में कांग्रेस यहां से एक भी सीट नहीं जीत पाई। सिर्फ़ गहलोत के करीबी सुभाष गर्ग राष्ट्रीय लोकदल के उम्मीदवार के तौर पर जीते, हालांकि बाद में लोकदल इंडिया गठबंधन को छोड़ कर एनडीए के साथ चला गया।
इस बार भाजपा ने बीस साल पहले सांसद रहे रामस्वरूप कोली और कांग्रेस ने 400 वोट से विधानसभा चुनाव हारने वाली 26 साल की संजना जाटव को उम्मीदवार बनाया है। भरतपुर में पिछले कुछ दिनों में जाट महापंचायतें हुई हैं जिनमें भाजपा को हराने की बात कही जा रही है। जाट भरतपुर में राजा थे और इस वजह से उनको भरतपुर, डीग और धौलपुर जिलों में आरक्षण नहीं मिलता। इसको लेकर भरतपुर और धौलपुर में जाट आरक्षण संघर्ष समिति ने ऑपरेशन गंगाजल भी शुरू किया है जिसमें जाट समाज के ओगों को गंगाजल की कसम खिलाकर भाजपा को वोट नहीं देने की अपील की जा रही है।
भरतपुर में विधानसभा चुनावों में कांग्रेस के भीतर बहुत उठापटक हुई है और अशोक गहलोत को सबसे ज़्यादा चुनौती इसी इलाके से मिली थी। एक तरफ़ जहां विश्वेन्द्र सिंह सचिन पायलट के साथ चले गए थे, वहीं मेव समाज ने अपना ख़ुद का उम्मीदवार खड़ा कर गहलोत की करीबी जाहिदा ख़ान को चुनौती दे दी थी। जाट-जाटव-मेव-गुर्जर इन सभी समुदायों में सचिन पायलट लोकप्रिय रहे हैं और इसी का नतीजा था कि 2018 में कांग्रेस यहां की सभी सीटें जीती, लेकिन 2023 में चुनाव कांग्रेस के दो गुटों के बीच सिमट गया।
अब, जब गहलोत राजस्थान की राजनीति में कमजोर पड़ गए हैं और सचिन पायलट अपने लोगों को टिकट दिलवा पाने में सक्षम हो गए हैं तो यहां पर गुर्जर और जाट समाज का ग़ुस्सा थोड़ा शांत पड़ता दिखाई दे रहा है। सामाजिक कार्यकर्ता उमर पाडला ने बताया, “वैसे तो यह सीट भाजपा आराम से जीत जाती पर आज के दिन यह सीट फंसी हुई है। उसका कारण है कांग्रेस से एक जाटव का टिकट होना। यहां जाटवों की संख्या चार लाख के आसपास है और बसपा का यहां राजनीतिक काम पहले से रहा है इसलिए जाटव वोट राजनीतिक रूप से समझदार भी है। वहीं भाजपा ने कोली समाज के प्रत्याशी को टिकट दिया है जिनकी संख्या 70 से 80 हजार के बीच है। मेव वोट एकमुश्त कांग्रेस को पड़ रहे हैं। इसलिए मेव+जाटव एक अच्छा समीकरण बन रहा है, पर जिताऊ नहीं है। जीतने के लिए जाटों के कम से कम 60 प्रतिशत वोट चाहिए। अगर जाटों ने कांग्रेस को वोट कर दिया तो उसकी बात बन सकती है। वैसे जाटों का कल्ट फिगर राजा विश्वेन्द्र सिंह कांग्रेस के लिए मेहनत करता दिख रहा है।”
बीकानेर: शहर के सहारे भाजपा
विधानसभा चुनाव में बीकानेर की सात में से छह विधानसभा सीटों पर कब्जा जमाने वाली भाजपा के लिए बीकानेर की लोकसभा सीट आसान लग रही थी। पिछले लोकसभा चुनाव में करीब तीन लाख से अधिक मतों से जीतने वाले कानून मंत्री अर्जुनराम मेघवाल इस बार भी जीत को लेकर आश्वस्त नजर आ रहे थे। मतदान के करीब आते-आते हालांकि समीकरण बहुत तेजी से बदले हैं।
जातिगत समीकरण की बात करें तो इस जाट-बहुल क्षेत्र में कांग्रेस की पकड़ मजबूत हुई है। करीब 80 प्रतिशत जाट कांग्रेस की तरफ झुका हुआ है, इसमें हनुमान बेनीवाल की आरएलपी और सीपीएम से गठबंधन और चुरू सीट का भी असर है। यहां की खाजूवाला विधानसभा और शहरी क्षेत्र में करीब 20-25 फीसदी अल्पसंख्यक समुदाय का वोटर भी कांग्रेस के खाते में जुड़ने के आसार हैं।
लूणकरणसर विधानसभा क्षेत्र में कांग्रेस के बागी रहे वीरेंद्र बेनीवाल का फिर कांग्रेस से जुड़ना, आरएलपी प्रत्याशी प्रभु दयाल जिनको विधानसभा क्षेत्र से करीब 45 हजार वोट मिले थे उनकी कांग्रेस के साथ सीट शेयरिंग और कांग्रेस प्रत्याशी के रूप में राजेंद्र मूंड की पकड़ लूणकरणसर विधानसभा क्षेत्र में अर्जुनराम मेघवाल के लिए बड़ा सिरदर्द बन रही है।
डूंगरगढ़ विधानसभा में कांग्रेस और सीपीएम प्रत्याशी का साथ इस क्षेत्र में कांग्रेस को मजबूती दिलाता नजर आ रहा है। कोलायत विधानसभा क्षेत्र में भी देवीसिंह भाटी का खुलकर अपनी पार्टी को समर्थन नहीं दिख रहा। अर्जुनराम मेघवाल की खाजूवाला विधायक डॉ. विश्वनाथ मेघवाल से पुरानी नाराजगी भी इस चुनाव में उभरकर सामने आ रही है। नोखा विधानसभा क्षेत्र में मुख्यमंत्री भजनलाल शर्मा ने दौरा किया, रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने भी सभाएं कीं, लेकिन माहौल नहीं बन पाया।
बीकानेर शहर में बेशक भाजपा का अपना वोट बैंक है। हिंदुत्व के कार्ड और राम मंदिर का मुद्दा यहां असरदार है और भाजपा शहर से ही एक बड़े मार्जिन की उम्मीद लगाए बैठी है। बीकानेर शहर प्रधानमंत्री के पोस्टरों से अटा पड़ा है। मेघवाल और उनके समर्थक मोदी के नाम पर वोट मांग रहे हैं, पर देहात में उन्हें वह प्रतिक्रिया नहीं मिल रही जो पिछली बार मिली थी।
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