हमारी उद्देश्यपूर्ण सामाजिक कार्रवाइयों के परिणाम क्या हमारे नियंत्रण से बाहर निकल चुके हैं?

2025 Nepalese Gen Z movement protesters celebrating
2025 Nepalese Gen Z movement protesters celebrating
प्रौद्योगिकी ने बीते दो दशकों में सामूहिक कार्रवाई, गोलबंदी, और आंदोलन का स्‍वरूप बुनियादी रूप से बदल डाला है। निश्‍चित रूप से सामाजिक कार्रवाइयां सोद्देश्‍य ही की जाती हैं, लेकिन उनके नतीजे करने वालों के हाथ से फिसल भी जाते हैं। आज की दुनिया इस मामले में कहीं ज्‍यादा अनिश्चित हो चली है। जैसे, नेपाल में युवाओं की ताजा बगावत जिसने दो दिन में सत्ता तो पलट दी, लेकिन उस क्रम में हुई भारी हिंसा से युवाओं ने खुद को अलग भी कर लिया। जो अंतिम परिणाम निकला, क्‍या बगावत उसी उद्देश्‍य से थी? हम नहीं जानते। अप्रत्‍याशित नतीजों के समाजविज्ञान पर एडवर्ड टेनर की यह टिप्‍पणी शायद रोशनी दे

यह कहानी उस क्रांति के बारे में है जो कभी हुई ही नहीं थी। नब्‍बे बरस पहले हारवर्ड से समाजशास्‍त्र में पीएचडी 26 वर्षीय एक विद्वान युवक राबर्ट के. मर्टन ने एक परचा लिखा, जो अमेरिकन सोशियोलॉजिकल रिव्‍यू में छपा था। आगे चलकर मर्टन अमेरिकन फिलॉसॉफिकल सोसायटी के सदस्‍य बने। परचे का शीर्षक था: ‘’द अनऐन्टिसिपेटेड कनसीक्‍वेन्‍सेज़ ऑफ परपजि़व सोशल ऐक्‍शन’’ यानी ‘’उद्देश्‍यपूर्ण सामाजिक कार्रवाई के अप्रत्‍याशित नतीजे’’। इस परचे को उनके विषय के संदर्भ में प्राय: उद्धृत किया जाता रहा है।

परचे की भाषा बेशक साधारण थी, लेकिन उसकी यह अंतर्दृष्टि क्रांतिकारी थी: कि सामाजिक जगत में कई या अधिकतर परिघटनाएं अप्रत्‍याशित होती हैं, उनका नतीजा बेहतर हो या बदतर। आज, टॉम पीटर्स जैसे मैनेजमेंट गुरु भी इस बात को मानते हैं कि ‘’अवांछित नतीजे वांछित नतीजों के मुकाबले संख्‍या में बहुत ज्‍यादा हैं… अकसर रणनीतियां हमारी परिकल्‍पना के हिसाब से जमीन पर नहीं उतर पाती हैं। इसलिए हम जैसा नतीजा चाहते हैं, वह दुर्लभ ही होता है।‘’   

इस समस्‍या के इतिहास और इसके विश्‍लेषण की ‘’व्‍यापक संभावनाओं और बहुआयामी निहितार्थों’’ के चलते मर्टन ने इस पर केंद्रित एक किताब लिखने का वादा किया था। उन्‍होंने शुरुआत भी की थी, लेकिन बीच में उन्‍हें यह काम छोड़ना पड़ गया। शायद इसलिए क्‍योंकि वह एक ऐसी किताब बन जाती जो सब कुछ के बारे में होती। उनके पीछे हटने का असर शायद यह हुआ कि दूसरे समाजविज्ञानी भी हतोत्‍साहित हो गए। इससे इस विषय के अध्‍ययन में निहित एक विरोधाभास सामने आता है: चूंकि यह विषय सार्वभौमिक म‍हत्‍व का है, इसीलिए विशाल परिदृश्‍यों के बजाय यह केस स्‍टडी यानी विशिष्‍ट प्रसंगों के लिए सबसे ज्‍यादा उपयुक्‍त है। 


Robert K. Merton, who studied unanticipated consequences of purposive actions
राबर्ट के. मर्टन

इससे एक विडम्‍बना भी जुड़ी है- बहुत संभव है कि अप्रत्‍याशित नतीजों पर केंद्रित कोई विश्‍लेषण समाजविज्ञान में कॉपर्निकस जैसी क्रांति ला देता, लेकिन उससे ज्‍यादा आशंका यह है कि ऐसा अध्‍ययन करने वाले विद्वान को उसके अप्रत्‍याशित नतीजे झेलने पड़ते- जैसा थॉमस कुह्न के साथ हुआ था, जब उन्‍होंने वैज्ञानिक प्रतिमान का विचार दिया था और उसके चक्‍कर में दशकों तक विवाद में फंसे रहे। इसके अलावा भी, ऐसे अध्‍ययन की राह में कुछ विचारधारात्‍मक अड़चनें हैं। जैसे, इस विषय के हर उत्‍साही अध्‍येता के बरअक्‍स कोई न कोई ऐसा जरूर होगा जो इस पर अध्‍ययन नहीं चाहता होगा क्‍योंकि उसकी नीतियों के अप्रत्‍याशित नतीजों का जिक्र आने से उसकी ओर से पलटवार तय है।

इस विषय की आलोचना में अर्थशास्‍त्री अलबर्ट ओ. हर्शमैन की यही दलील थी। अप्रत्‍याशित नतीजों के अध्‍ययन में हर्शमैन की विश्‍वसनीयता ठीकठाक थी। उनका दिया सबसे प्रसिद्ध और विवादास्‍पद विचार ‘’हाइडिंग हैंड’’ का है, जो एडम स्मिथ द्वारा बाजार के लिए प्रयुक्‍त मशहूर रूपक ‘’इनविजिबल हैंड’’ (अदृश्‍य हाथ) से अनुकूलित, लेकिन उसका उलटा है। हर्शमैन ने डेवलपमेंट प्रोजेक्‍ट्स ऑब्‍जर्व्‍ड में लिखा था कि तमाम कामयाब कार्यक्रम शुरू ही नहीं हो पाते यदि उनमें आने वाली बाधाओं का पहले से पता रहता, लेकिन एक बार संकल्‍प कर लेने के बाद मनुष्‍य की चतुराई काम आई और नए व अनदेखे समाधान खोज निकाले गए। मसलन, सिडनी ऑपेरा हाउस जब बनकर तैयार हुआ तो अपने बजट से 1300 प्रतिशत ज्‍यादा पैसा खा चुका था, लेकिन बाद में जब वह ऑस्‍ट्रेलिया का अनधिकारिक प्रतीक बनकर उभरा तो लगा कि सौदा बुरा नहीं था। 

नब्‍बे के दशक में अप्रत्‍याशित नतीजों पर बहुत उत्‍साहजनक बहस चली थी। वह दो चीजों पर केंद्रित थी। पहला, रोजमर्रा की जिंदगी में इस्‍तेमाल किए जाने वाले उपकरणों के खुराफाती व्‍यवहार पर, जैसा अमेरिकी टीवी शो ‘ट्वाइलाइट ज़ोन’ के एक एपिसोड ए थिंग अबाउट मशीन्‍स में दिखाया गया है। उसका किरदार एक घमंडी और अड़ियल फूड क्रिटिक बार्टलेट फिंचली है। उसने अपने घरेलू उपकरणों को इतना सताया कि उन उपकरणों ने आजिज आकर उसकी जान ही ले ली। इसका उलटा हमें शीतयुद्ध की शुरुआत में चलाए गए उन अंतरिक्ष कार्यक्रमों में देखने को मिलता है जहां प्रयोग नाकाम हो गए थे क्‍योंकि प्रयोक्‍ताओं ने तकनीक के साथ मूर्खतापूर्ण गलतियां की थीं। 

नब्‍बे के दशक में अप्रत्याशित नतीजों पर अध्‍ययन करने वाले तीन प्रमुख विद्वान रहे: येल के समाजविज्ञानी चार्ल्‍स पेरो, ड्यूक में इंजीनियरिंग के प्रोफेसर हेनरी पेत्रोस्‍की और कॉग्निटिव मनोविज्ञानी डोनाल्‍ड नॉरमैन, जो सैन डिएगो की युनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया से ताल्‍लुक रखते थे।


The TV Screen of Twilight Zone Episode A Thing About Machines
गेट आउट ऑफ हियर: बार्टलेट फिंचली के टीवी ने उससे यही कहा था

पेरो का काम प्रौद्योगिकीय विनाशों पर केंद्रित था। वे थ्री माइल द्वीप पर 1979 में हुए परमाणु हादसे से प्रेरित थे। उनकी प्रेरणा का बिंदु वहां हुआ जानमाल का नुकसान नहीं था, बल्कि उनकी नजर में वह हादसा निर्णायक मशीनों में ऑपरेटर की गलती की सूरत में इस दुनिया की कमजोरी को उजागर करता था। इस घटना के बाद परमाणु संयंत्र के भीतरी सिस्‍टम को बुनियादी रूप से दोबारा डिजाइन किया गया, लेकिन उस हादसे ने इस प्रौद्योगिकी के खिलाफ असंतोष को भी पैदा किया, जो आज तक कायम है। बहुत हाल में जीवाश्‍म ईंधनों और एआइ पर भारी बिजली खपत के नतीजों के चलते परमाणु ऊर्जा दोबारा जिंदा हुई है- यह अप्रत्‍याशित नतीजों को रोकने के लिए किए गए निर्णयों का एक अप्रत्‍याशित परिणाम है।

पेरो ने 1981 में लिखे एक परचे में प्रौद्योगिकी सिस्‍टम्‍स में जोखिम विश्‍लेषण के लिए ‘लूज़ कपलिंग’ और ‘टाइट कपलिंग’ का असरदार नुस्‍खा दिया था। केवल ऑपरेटरों पर दोष मढ़ने के बजाय उन्‍होंने ‘’त्रुटि पैदा करने वाले तत्‍वों’’ पर खुद को केंद्रित किया। परमाणु संयंत्रों के मामले में उन्‍होंने इस मान्‍यता पर ही सवाल उठा दिया कि सुरक्षा इंजीनियर सारी गलतियों को रोक पाने में सक्षम होते हैं। डिजाइन चाहे कितना ही सतर्कतापूर्ण क्‍यों न हो, सबसे चौकस प्रौद्योगिकीय सिस्‍टम भी किसी एक मामूली और अपरिहार्य चूक के पैदा होने से एक के बाद एक सिस्‍टम फेल होते जाने के खतरे के प्रति अरक्षित होते ही हैं। इसे टाइट कपलिंग वाला मामला कहा जाता है। जैसे, जब 1956 में दो जहाज स्‍टॉकहोम और एसएस एंड्रिया डोरिया आपस में टकराये थे, तो उससे होने वाले कुल नुकसान को देखते हुए पेरो और दूसरे सुरक्षा विशेषज्ञों ने उसे राडार के कारण हुआ हादसा कहा था। 

पेत्रोस्‍की का करियर भी थ्री माइल द्वीप वाले हादसे से प्रेरित था। वे परमाणु शोध के केंद्र आर्गोन नेशनल लैबोरेटरी में फ्रैक्‍चर अनालिसि‍स पर काम कर रहे थे। काम के लिए अनुदान में कटौती के चलते वे अकादमिक जगत में लौट आए और आम लोगों को तकनीकी मामले- खासकर इंजीनियरिंग से जुड़ी नाकामियां- समझाने पर जोर देने लगे।

पेत्रोस्‍की यह मानते हैं कि पिछले मॉडल ध्‍वस्‍त होने की प्रतिक्रिया में डिजाइनर जो नए तरीके विकसित करते हैं, उनका नाकाम होना भी अपरिहार्य होता है और उस पर भी विचार किया जाना चाहिए। होता यह है कि जैसे-जैसे उनका आत्‍मविश्‍वास बढ़ता जाता है वे उसी रास्‍ते पर काम को और तेज करते जाते हैं, जब तक कि वे विनाश के मुहाने पर नहीं पहुंच जाते। इसके उदाहरण के रूप में 1912 में डूबे जहाज टाइटेनिक और 1940 में टूटे टाकोमा नैरोज़ पुल (गैलपिंग गर्टी) को देखा जा सकता है, जिसकी वजह हवा के कारण पैदा हुआ अप्रत्‍याशित कम्‍पन था। 



पेरो से उलट, पेत्रोस्‍की ऐसे विनाशों को सुरक्षा के सुधार की दिशा में अनिवार्य त्रासदी मानते हैं। वे यह भी कहते हैं कि नए सुरक्षा उपायों को अगर सतर्कतापूर्ण ढंग से लागू नहीं किया गया, तो वे खुद नए हादसों को पैदा कर देंगे। जैसे, एसएस ईस्‍टलैंड जहाज का शिकागो नदी में डूबना, जिसकी वजह लाइफबोट और डेक की मजबूती थी जिनके चलते जहाज अस्थिर होकर उलट गया। ध्‍यान देने वाली बात यह है कि लाइफबोट और डेक को मजबूत किए जाने जैसे उपाय टाइटेनिक के हादसे के बाद अपनाए गए थे। अर्थशास्‍त्री जॉर्ज डब्‍ल्‍यू. हिल्‍टन ने 1995 में यह उद्घाटन किया था।   

नॉरमैन की विशेषज्ञता मनुष्‍य-केंद्रित डिजाइन में है। वे मानते हैं कि मनुष्‍य के व्‍यवहार और प्रौद्योगिकी की बेहतर समझ से गलतियों और चोटों से बचा जा सकता है। इसी आधार पर उन्‍होंने अपने सहयोगी डेविड रुमेलहार्ट के साथ द्वोराक के ‘’सरलीकृत’’ कीबोर्ड लेआउट के कथित फायदों का परदाफाश कर के दिखाया था कि पारंपरिक क्‍वेर्टी कीबोर्ड के मुकाबले उस पर टाइपिंग की रफ्तार मामूली ही बढ़ पाती है।  

इन शोधकर्ताओं द्वारा खोजे गए विरोधाभासों और विसंगतियों के बावजूद नब्‍बे के दशक की प्रौद्योगिकीय दुनिया कुछ ऐसी बनी जो किसी के नियंत्रण में रहने वाली नहीं थी। यह सच है कि वह दौर किसी क्रांति का प्रतिनिधि‍ नहीं था, बल्कि मौजूदा संगठनों और संस्‍थानों का महज डिजिटल विस्‍तार था। जैसे, अखबारों के इलेक्‍ट्रॉनिक संस्‍करण निकलने लगे तो उनकी सामग्री तक लोगों की पहुंच बढ़ी। यह सामग्री अकसर बिना पे वॉल के होती थी और खर्चा बैनर एडवर्टाइजिंग से निकलता था। इसी तरह वैज्ञानिक और मेडिकल क्षेत्र में इंटरनेट के माध्‍यम से आम लोगों तक नए शोध निष्‍कर्ष पहुंचाए गए। पुस्‍तकालयों और संग्रहालयों ने दस्‍तावेजों और कलाकृतियों को स्‍कैन कर के दूर-दूर तक पहुंचाने का काम किया।

सन् 2000 में डॉट कॉम बुलबुले के फूटने के बावजूद सन् 1990 से 2005 के बीच 15 साल का वक्‍फा सूचना प्रौद्योगिकी का सुनहरा युग था। तब माइक्रोसॉफ्ट के युवा सीईओ रहे बिल गेट्स और उनके सहयोगियों ने 1995 में आई बेस्‍टसेलर किताब द रोड अहेड में उपभोक्‍ताओं के लिए ‘’घर्षणमुक्‍त व्‍यापार’’ वाले स्‍वर्ग का वादा किया था। दुनिया मूर के नियम पर भरोसा कर के चल रही थी कि कंप्‍यूटर की प्रसंस्‍करण क्षमता हर दो साल पर दोगुनी होती जाएगी। फिर, 11 सितंबर, 2001 को अमेरिका पर हुए आतंकी हमले और 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद ऐसा लगा कि एक नया सवेरा आया है। उसके पीछे व्‍यापक स्‍तर पर फैली यह धारणा थी कि सोशल मीडिया असमान दरजेदारियों को सहकारी ढांचों में बदलने के प्रतिसांस्‍कृतिक और प्रगतिशील लक्ष्‍य को अंतत: पूरा करेगा।

पर जैसा माइक टायसन ने कभी सटीक ही कहा था, ‘’जब तक मुंह पर घूंसा नहीं पड़ता, सबके पास एक रणनीति होती है।‘’ पीछे मुड़कर देखें, तो हम पाते हैं कि अनपेक्षित किस्‍म के साम्राज्‍य खड़े करने वाली उद्यमियों की नई पीढ़ी ने पत्रकारीय, अकादमिक, मेडिकल और राजनैतिक ताकतों से मिलकर बनी इस दुनिया के मुंह पर वैसा ही घूंसा जड़ा है।

बीसवीं सदी के उत्तरार्द्ध और इक्‍कीसवीं सदी के आरंभ में जो नवाचार हुए, उनके अप्रत्‍याशित नतीजे ज्‍यादातर महीन थे जबकि नए नवाचारों के अप्रत्‍याशित नतीजे वृहद होंगे, चाहे वे अच्‍छे हों या बुरे। सबसे पहले गूगल आया, जिसके संस्‍थापकों ने एक ऐसा अलगोरिथम बनाया जो सूचना चाहने वालों को पिछली खोज परिणामों के आधार पर सबसे प्रासंगिक स्रोतों तक पहुंचाता था। याहू के विशिष्‍टीकृत मॉडल से अलग, गूगल ने स्रोत चुनने का काम अलगोरिथम के जिम्‍मे छोड़ दिया। यानी, प्रामाणिक स्रोत के ऊपर अब लोकप्रिय स्रोत के भारी पड़ने की छूट थी। अस्‍सी और नब्‍बे के दशक के दौरान अकादमिक जगत के कुछ कोनों में अराजक ज्ञान की जो फसल फली-फूली थी, उसके साकार होने की दिशा में यह पहला कदम था।  


Clay Shirky's book on organisation in the social media age

फेसबुक और ट्विटर ने क्राउडसोर्सिंग यानी भीड़ से स्रोत जुटाने का काम और आगे बढ़ाया। इन मंचों ने अपनी राय को साझा करने और फैलाने की आजादी देने का वादा किया, वह भी बिना शुल्‍क लिए- यह बिल गेट्स के घर्षणमुक्‍त आजादी वाले वादे का ही विस्‍तार था। यूट्यूब जैसे प्‍लैटफॉर्मों के साथ मिलकर इन मंचों ने वैसे वर्चुअल या आभासी समुदाय निर्मित करने में मदद की, जिसकी भविष्‍यवाणी अस्‍सी और नब्‍बे के दशक में वेब जगत के दूरदर्शी लोग किया करते थे। न्‍यूयॉर्क युनिवर्सिटी में मीडिया अध्‍ययन के प्रोफेसर और ‘’फ्री कल्‍चर मूवमेंट’’ के पैरोकार क्‍ले शिर्की ने 2008 में आई अपनी किताब ‘’हियर कम्‍स एवरीबॉडी: द पावर ऑफ ऑर्गनाइजिंग विदाउट ऑर्गाइजेशंस’’ में बड़े उत्‍साह के साथ सोशल मीडिया युग के उद्भव की घोषणा की।

उसे वेब 2.0 कहा गया। यह परंपरागत ताकतों के जबड़े पर जड़ा जबरदस्‍त घूंसा साबित हुआ। सोशल मीडिया कंपनियों ने प्रयोक्‍ताओं की पृष्‍ठभूमि और ब्राउजिंग के व्‍यवहार से जुड़ा डेटा इकट्ठा किया और उसके इस्‍तेमाल से संभावित ग्राहकों की छोटी संख्‍या को विज्ञापनों का निशाना बनाना शुरू कर दिया। विज्ञापन के बजट को ऑनलाइन दर्शकों की ओर मोड़े जाने से पारंपरिक मीडिया का कारोबारी मॉडल तबाह हो गया। इसके चलते सिलसिलेवार ढंग से मीडिया प्रतिष्‍ठान या तो बंद हुए या उनका विलय हो गया। इसने अमेरिकी समाचार मीडिया के केंद्रीकरण में तेजी लाने का काम किया। जब तक कोविड-19 की महामारी आई, जनस्‍वास्‍थ्‍य पर प्रामाणिक जानकारों के संदेशों को अहमियत देने वाले संजीदा मीडिया प्रतिष्‍ठान छिटपुट ही बचे थे।

पॉप कल्‍चर और राजनीति में इनफ्लुएंसरों का उभार अगला हमला था। महामारी के दौरान कथित रूप से सबसे ज्‍यादा ऑनलाइन प्रभाव ब्रिटिश पॉप स्‍टार हैरी स्‍टाइल्‍स का रहा, जिनके कोविड-19 पर किए हर ट्वीट के औसतन 97000 रीट्वीट हुए। चूंकि असहमत लोगों में जबरदस्‍त उत्‍साह था, तो छोटी संख्‍या के बावजूद उनका प्रभाव अपेक्षाकृत बहुत ज्‍यादा था। ऐसे में सत्ताओं और सोशल मीडिया मंचों के सामने एक ऐसा द्वंद्व पैदा हो गया जिसे साधना असंभव सा था। कथित रूप से फर्जी सूचना को मॉडरेट करने का खतरा यह था कि आप उसे और फैलाने में ही मदद करते। सूचना को सेंसर किया जाता, तो उसके आरोपों के चलते उसी सूचना पर लोगों का ध्‍यान और ज्‍यादा जाता।

विश्‍वसनीय जानकारों के बीच भी सोशल मीडिया ने कुछ खास समूहों को बढ़ावा दिया। ऐसे समूहों को मैं ‘’आल्‍ट-थॉरिटीज़’ कहना पसंद करता हूं। ये उन पुरुषों और स्त्रियों के समूह हैं जो अपने-अपने क्षेत्र में हाशिये पर पड़े हुए थे, लेकिन जनता को सीधे अपील करने के मामले में कामयाब साबित हुए। ऐसे कुछ व्‍यक्ति आज की तारीख में ट्रम्‍प प्रशासन के भीतर बड़े पदों पर बैठ चुके हैं। उनमें संरक्षणवादी अर्थशास्‍त्री पीटर नवारो, हार्ट सर्जन से टीवी के झोलाछाप डॉक्‍टर बन चुके मेहमत ओज़, स्‍वास्‍थ्‍य अर्थशास्‍त्री जय भट्टाचार्य, और विशेष रूप से पूर्व पर्यावरणीय अधिवक्‍ता और वैक्‍सीन-विरोधी प्रचारक रॉबर्ट एफ. केनेडी जूनियर हैं, जो फिलहाल अमेरिका के स्‍वास्‍थ्‍य और मानव सेवा मंत्री हैं। इन सभी ने राजनैतिक रूप से वस्‍तुपरक, सहमति-संचालित विज्ञान के मानदंडों को छिन्‍न-भिन्‍न कर डाला है।     

अगला घूंसा ऑनलाइन कंटेंट क्रिएटरों ने जड़ा है, जिनसे वादा किया गया था कि उन्‍हें सूचना के मगरूर चौकीदारों से आजादी मिलेगी। 2019 में, महामारी से भी पहले, अमेरिका के ऑथर्स गिल्‍ड ने एक अध्‍ययन में उजागर किया था कि 2009 (मंदी का साल) के बाद आठ वर्षों के दौरान गूगल, फेसबुक और अमेज़न के प्रभाव के कारण लेखकों की आय 42 प्रतिशत गिरी है। उदाहरण के लिए, मुद्रित और डिजिटल किताबों के बाजार पर अमेजन के प्रभुत्‍व ने इस्‍तेमाल की गई पुरानी किताबों की खरीद को बढ़ावा दिया तथा प्रकाशन की दुनिया में प्रतिष्‍ठानों के एकीकरण में तेजी लाई। इससे नई किताबों के अनुबंध को लेकर प्रतिस्‍पर्धा घट गई।   

रचनाकारों के ऊपर अगला वार अब एआइ का है- लेखकों से लेकर प्रदर्श कलाकारों और संगीतकारों तक, सबके ऊपर। शुरुआत में अग्रणी लार्ज लैंग्‍वेज मॉडलों (एलएलएम) को मनुष्‍य के रचे अनगिनत टेक्‍स्‍ट और तस्‍वीरों से प्रशिक्षित किया गया था, जिनमें ज्‍यादातर लाइसेंसरहित काम थे। फिर कंपनियों पर जब मुकदमे हुए, तो कंपनियां ‘’निष्‍पक्ष उपयोग’’ के सिद्धांत की आड़ लेकर अपने पक्ष में गोलबंदी करने लगीं। इससे भी बुरा यह हुआ कि अब नए एलएलएम अपने दिए पिछले नतीजों के आधार पर ही प्रशिक्षित किए जा रहे हैं। यह गुणवत्‍ता में उत्तरोत्तर गिरावट लाता जा रहा है। इसे मॉडल कोलैप्‍स या स्‍लॉपिफिकेशन का नाम दिया गया है।

एलएलएम जब आया था, तब कई अभिजात्‍य पेशेवरों ने यह माना था कि संभव है एआइ कुशल श्रमिकों के काम को छीन ले, लेकिन वह लोगों को अपना प्रदर्शन सुधारने में भी मदद करेगा। हालिया शोध इस मान्‍यता को चुनौती दे रहा है। फ्रीलांस (स्‍वतंत्र) कामगारों के रोजगार पर जनरेटिव एआइ मॉडलों के प्रभाव का आकलन करने वाले एक ताजा अध्‍ययन में लेखक निष्‍कर्ष देते हैं कि ‘’हमें इस बात के साक्ष्‍य नहीं मिलते कि फ्रीलांसरों की उच्‍च गुणवत्ता वाली सेवाएं- जिसे उनके पिछले प्रदर्शन और रोजगार से मापा जाता है- उनके रोजगार पर पड़ने वाले प्रतिकूल प्रभाव को कम कर पाएंगी। वास्तव में, हमें इस बात के साक्ष्‍य मिले हें कि शीर्ष फ्रीलांसरों के ऊपर एआइ का अपेक्षाकृत ज्‍यादा प्रभाव पड़ रहा है।‘’ कारोबारों में अब भी अभिजात्‍य कर्मचारियों को तरजीह दी जा रही है, लेकिन कुछ कारोबार एआइ-संवर्द्धित कामगारों की ओर मुड़ चुके हैं क्‍योंकि साक्ष्‍य बताते हैं कि नई प्रौद्योगिकी के साथ अभिजात्‍य कर्मचारी खुद को संवर्द्धित नहीं कर पा रहे हैं, बल्कि उसके चलते उनकी उत्‍पादकता कम होती जा रही है।

तो क्‍या, पारंपरिक कामों में रचनाकारों के लिए गिरती संभावनाओं का विकल्‍प ‘’इनफ्लुएंसिंग’’ है? शायद नहीं। 2024 में वॉल स्‍ट्रीट जर्नल ने रिपोर्ट किया था कि कुल जमा इनफ्लुएंसरों में से करीब आधे ने बीते साल 15000 डॉलर या उससे कम कमाया। एक टिकटॉकर को एक करोड़ बार देखे गए अपने एक वीडियो से केवल 120 डॉलर की कमाई हुई थी।    


Attack of smart mob over Capitol Hill, US, 2021
अमेरिका के कैपिटल हिल भवन पर स्मार्ट मॉब का हमला, 6 जनवरी 2021

उससे भी बुरा यह है कि इनफ्लुएंसिंग वास्तव में किसी की पिटाई का सबब बन सकता है। अमेरिका में कैपिटल हिल की इमारत पर 6 जनवरी 2021 को हुए भीड़ के हमले में वहां मौजूद पुलिसवाले इसका गवाह हैं। बीते दो दशकों के दौरान कई विचारकों ने यह भविष्‍यवाणी की थी कि मोबाइल नेटवर्क और सोशल मीडिया के माध्‍यम से अपने आप संगठित होने वाले स्‍वयंस्‍फूर्त विरोध प्रदर्शन एक के बाद एक भ्रष्‍ट निरंकुश सत्ताओं को गिराते जाएंगे। प्रगतिशील प्रौद्योगिकीविद् हावर्ड राइनगोल्‍ड ने ऐसी भीड़ को स्‍मार्ट मॉब का नाम दिया है। दरअसल, ट्रम्‍प समर्थक बलवाइयों को यही लग रहा था, कि वे सत्ता को उखाड़ फेंकेंगे।

‘’अन्‍यथा बिखरे हुए समूहों के बीच समन्‍वय की ताकत लगातार बेहतर होती जाएगी; नए सोशल औजार अभी बनने की प्रक्रिया में ही हैं… एक समूह के तौर पर कार्रवाई की आजादी बुनियादी रूप से राजनैतिक है‘’ : शिर्की ने जब यह लिखा था तब वे बिलकुल सही साबित हुए थे, लेकिन इसका दूसरा पहलू उनसे छूट गया था। वो यह, कि जिस चीज का उपयोग हो सकता है उसी का दुरुपयोग भी हो सकता है। इसे मैं खुराफाती दिमाग कहता हूं।     

अचरज होता है कि मर्टन यदि आज होते तो 2025 की दुनिया के बारे में क्‍या सोचते, जो अप्रत्‍याशित नतीजों से ऐसी भरी पड़ी है कि उन्‍होंने या उनकी पीढ़ी ने कभी कल्‍पना भी नहीं की होगी। अच्‍छा ही हुआ कि वे पैगम्‍बर नहीं बने। वे समझदार थे। आज सिलिकॉन वैली हर उस संस्‍थान को निगलती जा रही है जिसे उसने बनाया था- आइवी लीग, यूसी बर्कली, स्‍टैनफर्ड, नेशनल साइंस फाउंडेशन, और उन तमाम प्रगतिशील अखबारों-पत्रिकाओं की तो बात ही छोड़ दीजिए जिन्‍होंने एक समय में युटोपियाई साइबर-संस्‍कृति का स्‍तुतिगान किया था।        

फिर भी, उलटबांसी कहें कि मुझे उम्‍मीद की वजह नजर आती है। वाम और दक्षिण के खेमे जिन चीजों को ताकतवर ट्रेंड माने बैठे हैं, मेरी नजर में वे दरअसल संयोग से घटी घटनाओं के एक सिलसिले का महज समग्र परिणाम हैं। हो सकता है कि ये परिणाम हमें विनाश तक लेते जाएं, लेकिन उनमें अप्रत्‍याशित सकारात्‍मक नतीजे देने की भी उतनी ही संभावना है।

वियना का उदाहरण लीजिए। पहले और दूसरे विश्‍वयुद्ध के बीच वियना एक गिर चुके साम्राज्‍य की पराजित राजधानी था, जो कम्‍युनिस्‍टों और फासिस्‍टों की हिंसा में फंस कर बिखर चुका था। पहले नाजी जर्मनी ने, फिर सोवियत रूस ने उसके ऊपर आंशिक कब्जा किया। यह सिलसिला 1955 तक चला। इसके बावजूद, आज का वियना लगातार तीसरे साल निवास के लिए दुनिया की सबसे अच्‍छी रिहाइश माना गया है। वियना के ही पत्रकार अल्‍फ्रेंड पोल्‍गर के मशहूर कथन को उधार लें (जिसे अकसर उनके समकालीन कार्ल क्राउस के नाम जड़ दिया जाता है), तो शायद हमें कुछ राहत मिल सके, कि: ‘’स्थिति निराशाजनक है, लेकिन गंभीर नहीं’’।  


Copyright: Project Syndicate, 2025.
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