गरीबी खत्म होने के झूठे दावे और हजार करोड़ का एक जश्‍न

Poverty in India
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आम चुनाव से ठीक पहले सरकार द्वारा जारी किए गए उपभोग-व्‍यय के आंशिक आंकड़ों के आधार पर सुरजीत भल्‍ला करन भसीन ने जल्‍दबाजी में ब्रूकिंग्‍स इंस्टिट्यूशन की ओर से भारत में अत्‍यधिक गरीबी खत्‍म होने की मुनादी कर दी। नोटबंदी, जीएसटी और अंत में महामारी की मारी अधिकांश आबादी के बीच जहां एक शख्‍स अपने बेटे की प्री-वेडिंग पर हजार करोड़ खर्च करता है, वहां ये सरकारी आंकड़े दुर्गंध फैलाने से ज्‍यादा किसी काम के नहीं। अर्थशास्‍त्री अशोक मोदी की टिप्‍पणी

अंतरराष्‍ट्रीय मुद्रा कोष में मेरे पहले बॉस रहे दिवंगत अर्थशास्‍त्री माइकल मूसा बहुत तेज दिमाग वाले शख्‍स थे। उन्‍होंने एक बार मुझसे कहा था कि हर आंकड़े की सत्‍यता का ‘सूंघ’ कर पता लगाया जाना  चाहिए। हाल ही में जब भारत की सरकार ने एक दशक से ज्‍यादा समय के बाद उपभोग सर्वेक्षण के शुरुआती आंकड़े जारी किए, तब मुझे उनका दिया मंत्र याद आया। फिर महसूस हुआ कि इन आंकड़ों से  तो दुर्गंध आ रही है।

भारत में पिछली जनगणना 2011 में हुई थी। लंबे समय से अर्थशास्त्रियों का यह मानना रहा है कि भारत का सरकारी जीडीपी (सकल घरेलू उत्‍पाद) डेटा आर्थिक वृद्धि को बढ़ा-चढ़ा कर दिखाता है। नई दिल्‍ली में सितंबर 2023 में हुए जी-20 शिखर सम्‍मेलन से ठीक पहले भारत के राष्‍ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय ने बड़ी ढिठाई के साथ एक अतिरंजित अनुमान जारी किया। इसमें कुपोषण और एनीमिया के उच्‍च स्‍तर को दर्शाया गया था। इसके चलते इस सर्वेक्षण के निदेशक को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ गया था।            

पिछली बार 2012 में जो समग्र उपभोग-व्‍यय सर्वेक्षण आया था उसमें दिखाया गया था कि 22 प्रतिशत लोग गरीबी में जी रहे हैं। फिर 2018 के एक सर्वेक्षण से लीक हुए डेटा में जब सामने आया कि गरीबी बढ़ गई है, तो सरकार ने उस सर्वे को कचरे में फेंक दिया। आश्‍चर्य नहीं होना चाहिए कि जब उपभोग के नए आंशिक आंकड़े सामने आए तो इसने चौतरफा काफी उत्‍साह पैदा किया। जल्‍दबाजी में सुरजीत भल्‍ला- जो आइएमएफ में भारत के पूर्व कार्यकारी निदेशक हैं- और अर्थशास्त्री करन भसीन ने ब्रूकिंग्‍स इंस्टिट्यूशन की ओर से मुनादी कर डाली कि भारत में अत्‍यधिक गरीबी का उन्‍मूलन हो चुका है।       

आंकड़ों का ऐसा दुरुपयोग भले ही अभिजात्‍यों के सीमित दायरे में भारत के प्रचार को और चमका सके लेकिन गरीबी अब भी भारत में बहुत गहरे धंसी हुई है। उस पर से और महंगाई ने जिस तरह से गरीबों की कमाई में सेंध मारी है और यह लगातार जारी है, ऐसा लगता है कि आर्थिक अभाव और व्‍यापक ही हुआ है।   

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गरीबी को नापना जटिल काम है। उसके लिए सबसे बुनियादी जरूरत इस बात की है कि गरीबी की एक सीमारेखा तय की जाए। विश्‍व बैंक ने 1990 में अंतरराष्‍ट्रीय गरीबी रेखा को 1 डॉलर प्रतिदिन पर तय किया था। 2011 में महंगाई को संज्ञान में लेते हुए उसने संशोधित कर के इसे 1.90 डॉलर प्रतिदिन कर दिया। यानी जो लोग रोजाना 1.90 डॉलर खर्च नहीं कर सकते, उन्‍हें ही ‘अत्‍यधिक गरीब’ कहा जा सकता है।

भारत के लिए यह 1.90 डॉलर प्रतिदिन की सीमा ऐसी है जो गुजारे के लिए जरूरी उपभोग से नीचे है। जैसा कि अर्थशास्‍त्री शोहुआ चेन और मार्टिन रेवेलियन ने बताया है, इतने में तो न्‍यूनतम भोजन ही आ सकता है, बाकी और कुछ मुश्किल है। खरीदने की तुलनात्‍मक ताकत (परचेजिंग पावर पैरिटी, पीपीपी) के लिहाज से देखें, तो 2012 में 1.90 डॉलर का मतलब होता था 30 रुपया प्रतिदिन, जो गरीबी विशेषज्ञ एस. सुब्रमण्‍यन के अनुसार दो जून की रोटी के लिए भी बमुश्किल पर्याप्‍त था।   

हाल में जारी उपभोग-व्‍यय के आंकड़ों का विश्‍लेषण करने में भल्‍ला और भसीन ने ऐसा लगता है कि 1.90 डॉलर की गरीबी सीमा को 22.9 रुपये प्रति डॉलर की पीपीपी दर में बदल दिया है, जैसा कि आइएमएफ ने रिपोर्ट किया है। इसी से उनके विश्‍लेषण में यह बात निकल कर आ रही है जो लोग रोजाना 45 रुपया खर्च नहीं कर सकते, वे ही गरीब माने जाएंगे।

यह तरीका अपनी सदिच्‍छा से गरीबी को खत्‍म करने का है। औसत महंगाई की दर को 6 प्रतिशत भी मान लें, जैसा कि सरकार ने अपनी प्रेस विज्ञप्ति में कहा है, तो 2012 में जितना सामान 30 रुपये में आ जाता था उतने का दाम अब 58 रुपये होगा। इतना ही नहीं, कम कमाई वाले परिवारों को असमान रूप से महंगाई की ज्‍यादा मार झेलनी पड़ रही है- जिस तरह का सामान वे खरीदते हैं वे औसत मुद्रास्‍फीति की दर से भी महंगे हैं, ऊपर से इन परिवारों की आवाजाही सीमित है (जो इन्‍हें स्‍थानीय इजारेदारों के रहम पर छोड़ देती है) और ये परिवार थोक में खरीदने में भी असमर्थ होते हैं।

अफसोस की बात यह है कि भारत सरकार पारिवारिक आय के हिसाब से बांट कर मुद्रास्‍फीति की दर को जारी नहीं करती। अगर भारतीय परिवारों में से नीचे के आधे परिवारों के लिए भी सालाना मुद्रास्‍फीति 8.5 प्रतिशत हो, तो उन्‍हें अपनी बुनियादी जरूरतें पूरी करने के लिए रोज मोटामोटी 80 रुपये चाहिए। ऐसे में भारत की गरीबी दर 22 प्रतिशत के करीब बैठेगी, जो 2012 के आसपास है।

अच्छा और बुरा अर्थशास्त्र

गरीबी की सीमा को थोड़ा सा ऊपर बढ़ा दें, तो नंगी सच्‍चाई हमारे सामने आ जाएगी। सन 2014 में भारतीय रिजर्व बैंक के पूर्व गवर्नर चक्रवर्ती रंगराजन की अध्‍यक्षता वाली एक कमेटी ने निष्‍कर्ष दिया था कि ग्रामीण क्षेत्रों के लिए उपयुक्‍त गरीबी रेखा 33 रुपये प्रतिदिन की है- विश्‍व बैंक की गरीबी रेखा के करीब, जबकि शहर में रहने वालों के लिए उनकी आवाजाही और आवासीय खर्चों के लिए कम से कम 47 रुपये प्रतिदिन की जरूरत है। सुब्रमण्‍यन ने जोर देकर कहा कि शहरी गरीबी का यह आकलन सच्‍चाई से बहुत परे है। उनका अनुमान था कि अत्‍यधिक अभाव से बचाने के लिए शहरी निवासियों को रोजाना 88 रुपये खर्च करने के लिए जेब में चाहिए।     

व्‍यावहारिक मुद्रास्‍फीति दरों के हिसाब से रंगराजन और सुब्रमण्‍यन के अनुमानों को संयोजित करने के बाद मिलाकर अगर निष्‍कर्ष निकालें, तो तस्‍वीर दर्दनाक दिखेगी- शहरी गरीबी 40 से 60 प्रतिशत के बीच पड़ती है जिसका मतलब यह है कि भारत के 30 से 40 प्रतिशत लोग गरीब हैं। यह अनुमान भी कम ही है चूंकि शिक्षा, परिवहन और मकान की कीमतें बढ़ी हैं, साथ ही चिकित्‍सा पर फुटकर जेबखर्च भी बढ़ा है। तमाम माता-पिताओं को अपने बच्‍चों की शिक्षा और भोजन में से कोई एक चीज चुनने की मजबूरी पैदा हो गई है, ऐसे में क्‍या आश्‍चर्य कि सरकार 60 प्रतिशत आबादी को मुफ्त राशन देने के लिए खुद को बाध्‍य समझ रही है?

लगातार बढ़ती उच्‍च गरीबी का एक श्रेय आंशिक रूप से 2016 की नोटबंदी को जाता है जिसने भारत की 80 प्रतिशत मुद्रा को बेकार कर डाला और 2017 में बेतरतीबी से लागू किए गए माल एवं सेवा कर (जीएसटी) को जाता है। दोनों ने ही कमजोर आबादी को बहुत कष्‍ट पहुंचाए।   

इसके बाद कोविड-19 की महामारी सबसे बड़ा झटका साबित हुई। इसने करोड़ों भारतीय कामगारों को कम उत्‍पादकता वाली खेतीबाड़ी से जुड़े कामों की ओर लौटने को विवश कर दिया। आज 2018 के मुकाबले सात करोड़ ज्‍यादा भारतीय खेतीबाड़ी कर रहे हैं क्‍योंकि गैर-कृषि रोजगारों में अवसरों का अभाव है। ऐसे काम ज्‍यादातर वित्‍तीय और शारीरिक रूप से जोखिम भरे क्षेत्रों में ही बचे रह गए हैं, जैसे निर्माण मजदूरी, रेहड़ी-पटरी, सुरक्षाकर्मी और घरेलू सहायक, आदि।  

मुसीबतों और कष्‍टों में जी रहे करोड़ों भारतीयों की इस तस्‍वीर के सामने चुनाव से ठीक पहले जारी किया गया उपभोग का आंशिक डेटा संदेह पैदा करता है और गरीबी खत्‍म हो जाने वाली भल्‍ला-भसीन की मुनादी द्वेषपूर्ण जान पड़ती है। इतना ही नहीं, उनका यह कहना कि उपभोग में असमानता घटी है, हास्‍यास्‍पद है- पैसेवाले भारतीय कभी भी अपने 400 डॉलर के डिजाइनर जूतों, लैम्‍बोर्गीनी या सरकारी सर्वेक्षकों को दी जाने वाली ऐय्याश पार्टियों के बारे में नहीं बताते।

भारत के अमीरों और गरीबों के बीच की खाई हैरतनाक है। मुकेश अम्‍बानी के बेटे की शादी से पहले के समारोहों पर 120 मिलियन डॉलर (करीब एक हजार करोड़ रुपये) का खर्च देख लीजिए- लड़का 1 मिलियन डॉलर (8 करोड़ रुपये से ज्‍यादा) की घड़ी पहने हुए है, एक सुपरस्‍टार को नाचने के लिए 6 मिलियन डॉलर (करीब 50 करोड़ रुपये) मिलते हैं और भारत का विमानन प्राधिकारण पास के एयरपोर्ट को कुछ समय के लिए इसलिए खाली करवा देता है क्‍योंकि जश्‍न में अंतरराष्‍ट्रीय सेलिब्रिटी आने वाले हैं।

फिलहाल, उपभोग और महंगाई के व्‍यापक डेटा की अनुपलब्‍धता के चलते भारत में गरीबी की सटीक तस्‍वीर को आंकना असंभव है। अफसोस यह है कि सरकार द्वारा रणनीतिक रूप से जारी किया गया आंशिक डेटा और उसी के आधार पर किया जा रहा आधा-अधूरा चमकदार विश्‍लेषण दुर्गंध फैला रहा है।


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