अच्छा और बुरा अर्थशास्त्र

सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में जब अभिजीत एक अर्थशास्त्री बनने की दिशा में कदम बढ़ा रहे थे उस वक्त सोवियत रूस के प्रति थोड़ा सम्मान बचा हुआ था जबकि भारत उसके जैसा बनने की पूरी कोशिश कर रहा था। वामपंथी अतिवादी चीन को मानते थे, चीनी लोग माओ की पूजा करते थे, रीगन और थैचर ने आधुनिक कल्याणकारी राज्य पर अपने हमले अभी शुरू ही किए थे और दुनिया के करीब 40 फ़ीसदी आबादी भयंकर गरीबी में जी रही थी। तब से लेकर अब तक कितना कुछ बदल चुका है और शायद इसमें काफी कुछ बेहतरी के लिए है।

अर्थशास्त्र एक गतिशील जगत की कल्पना करता है। एक ऐसी दुनिया, जहां लोग प्रेरित होते हैं, नौकरियां बदलते हैं, कभी मशीन बनाते हैं तो कभी संगीत रचते हैं, तो कभी नौकरी छोड़ने का फैसला लेकर इस दुनिया को समझने के लिए सफर करते हैं। नित नए उद्योग पैदा होते हैं, तरक्की करते हैं, नाकाम होते हैं और बंद हो जाते हैं। फिर कुछ नए कारोबारी विचार पैदा होते हैं जो पहले वालों से ज्यादा तीक्ष्ण और प्रासंगिक होते हैं।

उत्पादकता उछाल मारती है तो राष्ट्र भी संपन्न होते हैं। कभी जो चीज मैनचेस्टर के मिलों में बनती थी वह मुंबई के कारखानों में चली आती है और वहां से म्यांमार पहुंच जाती है, फिर शायद एक दिन यही मोम्बासा या मोगादिशु में भी देखने को मिल सकता है। मैनचेस्टर का पुनर्जन्म मैनचेस्टर डिजिटल के रूप में होता है तो मुंबई की मिलें महंगे रिहायशी भवनों और शॉपिंग मॉल में तब्दील हो जाती हैं। वहां वित्त के क्षेत्र में काम करने वालों को खर्च करने के लिए मोटी तनख्वाह मिलती हैं। हर कहीं अवसर दिखाई देते हैं, बस उन्हें तलाशे जाने का इंतजार है और उनकी नजर पड़ने का, जिन्हें अवसरों की जरूरत है।

गरीब देशों का अध्ययन करने वाले अर्थशास्त्रियों के रूप में  हम इतना समझते हैं कि चीजें इतने आदर्श रूप में काम नहीं करती हैं, कम से कम उन देशों में जहां हमने काम किया है और समय खर्च किया है। एक बांग्लादेशी, जिसने अभी पलायन नहीं किया है, शहर जाकर नौकरी तलाशने की अनिश्चितताओं का मुकाबला करने के बजाय अपने गांव में रहकर परिवार के साथ भूखे मरता है। घाना का  एक बेरोजगार घर बैठे इंतजार करता है कि उसकी शिक्षा ने  उससे जिन अवसरों का वादा किया था वेक अप उसकी खाली झोली में गिरेंगे। दक्षिण अमेरिका के दक्षिणी कोन में कारखाने बंद हो जाते हैं और उनकी जगह लेने के लिए पर्याप्त कारोबार नहीं आ पाते। ऐसा लगता है कि यह जो बदलाव हो रहा है, अक्सर कुछ ऐसे लोगों को फायदा पहुंचाने वाला है जो दिखते नहीं, जिन तक पहुंचा नहीं जा सकता। मुंबई की मिलों से बेरोजगार हुए लोगों को चमचमाते भोजनालयों में खाने का मौका नहीं मिलता। मुमकिन है उनके बच्चों को यहां बैरे की नौकरी मिल जाए, लेकिन वे ऐसी नौकरियां नहीं चाहते।

पिछले कुछ वर्षों में इस बात का अहसास हुआ कि विकसित देशों में भी कुछ जगहों पर कहानियां ऐसी ही हैं। सभी  अर्थव्यवस्थाएं  फंसी हुई लगती हैं। बेशक कुछ अहम फर्क इनके बीच हैं, मसलन अमेरिका में छोटे कारोबार भारत या मेक्सिको के समकक्षों के मुकाबले ज्यादा तेजी से तरक्की करते हैं और जो नहीं कर पाते, वे बंद हो जाते हैं। इनके मालिक फिर किसी और कारोबार में लग जाते हैं। इसके मुकाबले भारत में और कुछ हद तक मेक्सिको में लोग समय के प्रवाह में जमे हुए से दिखाई देते हैं। वे न तो इतने बड़े बनते हैं कि वालमार्ट बन जाएं और ना ही पल्ला झाड़ कर अपना धंधा बदल लेते हैं।

खुद अमेरिका में भी इस किस्म की गतिशीलता एक समान नहीं है, इलाकों के हिसाब से बदलती है। जैसे,  बॉइस में कोई कारोबार बंद होता है तो सिएटल में खड़ा हो जाता है लेकिन जो लोग बेरोजगार हुए थे, वे नौकरियों के लिए सिएटल नहीं आ सकते। और ऐसा भी चाहते भी नहीं हैं क्योंकि उनकी नजर में जो कुछ भी मूल्यवान है, उनके दोस्त, उनके परिवार, उनकी स्मृतियां, उनकी वफादारियां, आगे बढ़ने से वह सब कुछ पीछे छूट जाएगा। लेकिन जैसे-जैसे अच्छी नौकरियां खत्म होती हैं और स्थानीय अर्थव्यवस्था गतिरोध का शिकार होती है, वैसे-वैसे चुनने के विकल्प और कम होते जाते हैं, संभावनाएं संकरी होती जाती हैं और गुस्सा बढ़ता है। पूर्वी जर्मनी, तकरीबन समूचे फ्रांस- बड़े शहरों को छोड़कर- और ब्रेक्जिट पट्टी सहित अमेरिका के कुछ प्रांतों में यही तो हो रहा है।  यहां तक कि ब्राजील और मेक्सिको के कुछ हिस्सों में भी यही परिघटना देखी जा रही है।

आर्थिक कामयाबी के चमचमाते द्वीपों पर जैसे-जैसे अमीरों और प्रतिभाशाली लोगों के कदम पड़ते हैं, वैसे-वैसे बाकी बड़ी आबादी अपनी-अपनी जगहों में सिमटती जाती है। यही वह दुनिया है जिसने ट्रम्प, बोलसनारो और ब्रेक्जिट को पैदा किया है। आने वाले वक्त में यदि हमने इसके बारे में कुछ नहीं किया तो यह ऐसे और विनाशों को पैदा करेगी।

इन सब के बावजूद विकास अर्थशास्त्री होने के नाते हम इस तथ्य से भी अवगत हैं कि पिछले 40 वर्ष के दौरान सबसे ज्यादा चौंकाने वाली बात बदलाव की यह रफ्तार ही रही है, बदलाव चाहे अच्छा हो या बुरा। पिछले चार दशक में हमने जाने क्या-क्या देखा-  साम्यवाद का पतन, चीन का उभार, वैश्विक गरीबी को  बार-बार आधा किए जाने के वादे, गैर-बराबरी का विस्फोट, एचआइवी का उभार और फिर गिरावट, शिशु मृत्यु दर में भारी गिरावट, पर्सनल कंप्यूटर और सेलफोन का फैलाव, फिर आया अमेज़न, अलीबाबा, फेसबुक और ट्विटर, और साथ लाया अरब स्प्रिंग, एकाधिकारी राष्ट्रवाद का प्रसार, पर्यावरण पर मंडराते विनाश का खतरा, इत्यादि।

सत्तर के दशक के उत्तरार्ध में जब अभिजीत एक अर्थशास्त्री बनने की दिशा में कदम बढ़ा रहे थे उस वक्त सोवियत रूस के प्रति थोड़ा सम्मान बचा हुआ था जबकि भारत उसके जैसा बनने की पूरी कोशिश कर रहा था। वामपंथी अतिवादी चीन को मानते थे, चीनी लोग माओ की पूजा करते थे, रीगन और थैचर ने आधुनिक कल्याणकारी राज्य पर अपने हमले अभी शुरू ही किए थे और दुनिया के करीब 40 फ़ीसदी आबादी भयंकर गरीबी में जी रही थी। तब से लेकर अब तक कितना कुछ बदल चुका है और शायद इसमें काफी कुछ बेहतरी के लिए है।

सारा बदलाव बुरा नहीं था।  यह संयोग की बात है कि कुछ अच्छे विचारों ने आग पकड़ी तो कुछ बुरे विचार भी सुलग गए। कुछ बदलाव तो दुर्घटनावश हुआ, मसलन किसी और कृत्य का ऐसा परिणाम जिसकी अपेक्षा नहीं की गई थी। उदाहरण के लिए, गैर-बराबरी में हुए इजाफे का एक आंशिक कारण अनुदार अर्थव्यवस्था रही, जिसमें सही वक्त पर सही जगह पर होना सबसे अहम होता है। असमानता में आये इजाफे ने निर्माण क्षेत्र को हवा-पानी मुहैया करवाया जिसके चलते विकासशील देशों के शहरों में अकुशल बेरोज़गारों के लिए नौकरियां पैदा हुईं, जिसने आगे चलकर गरीबी में गिरावट का रास्ता बनाया।

यह तमाम बदलाव जिन नीतियों के चलते आया था, उन्हें कमतर आंकने की गलती नहीं करनी चाहिए। निजी उद्यमों और व्यापार के लिए चीन व भारत के दरवाज़े खोला जाना, यूके, अमेरिका और उनके पिछलग्गुओं के यहां अमीरों पर लगने वाला कर कम किया जाना, बचायी जा सकने वाली मौतों से लड़ने में कायम हुआ वैश्विक सहयोग, पर्यावरण की कीमत पर आर्थिक वृद्धि को तरजीह दिया जाना, बढ़े हुए संपर्क साधनों के मार्फत आंतरिक पलायन को प्रोत्साहन या फिर रहने लायक शहरी स्पेस में निवेश की नाकामी के चलते उसे हतोत्साहित किया जाना, कल्याणकारी राज्य का पतन लेकिन विकसित देशों में हाल में ही सामाजिक हस्तांतरण का पुनराविष्कार, इत्यादि तमाम नीतियों को गिनवाया जा सकता है। नीतियों में ताकत होती है। सरकारों के पास इतनी ताकत होती है कि वे चाहें तो बड़े पैमाने पर कल्याण के काम कर सकती हैं और चाहें तो विनाश भी। यही स्थिति बड़े निजी और द्विपक्षीय दानदाताओं की है।

इस किस्म की तमाम नीतियां अच्छे और बुरे अर्थशास्त्र (और सामान्य तौर पर देखें तो सामाजिक विज्ञान पर) के कंधे पर टिकी थीं। समाजविज्ञानी लगातार सोवियत शैली वाले राजकीय नियंत्रण की महत्वाकांक्षा के बारे में लिख रहे थे। वे लगातार इस बात पर जोर दे रहे थे कि भारत और चीन जैसे देशों में उद्यमिता के बोतलबंद जिन्न को मुक्त किया जाना होगा। वे हमें पर्यावरणीय विनाश के प्रति चेता रहे थे। वे नेटवर्क कनेक्शन की असामान्य शक्तियों पर लिख रहे थे, और काफी पहले, जब तक कि ये खतरे इस दुनिया के सामने आ नहीं गये। कुछ स्मार्ट धर्मार्थवादी करोड़ों जिंदगियों को बचाने के लिए विकासशील देशों में एचआइवी के मरीजों को एंटीरेट्रोवायरल दवाएं बांट रहे थे, उसके पीछे दरअसल कल्याणकारी समाजविज्ञान ही काम कर रहा था। अज्ञान और विचारधारा पर यह अच्छे अर्थशास्त्र की जीत ही थी जिसने सुनिश्चित किया कि कीटनाशक युक्त मच्छरदानी अफ्रीका में बेची न जाए, बांटी जाए। इसने बच्चों में मलेरिया से होने वाली मौतों को आधे से ज्यादा कम कर दिया।

बुरे अर्थशास्त्र ने अमीरों को रियायत देने और कल्याणकारी कार्यक्रमों को संकुचित करने का रास्ता अपनाया। इसने यह विचार दिया कि राज्य भ्रष्ट और नाकारा है जबकि गरीब आलसी हैं। इसी का नतीजा है कि आज असमानता विस्फोट के कगार पर पहुंच चुकी है और आक्रोश पैदा कर रही है।

रूढ़िवादी अर्थशास्त्र ने हमें बताया कि व्यापार सभी के लिए फायदेमंद होता है। तीव्र आर्थिक वृद्धि के लिए कुछ भी कीमत चुकायी जा सकती है और इसे हासिल करने के लिए और ज्यादा मेहनत करनी होगी। इसकी आंख पर चूंकि पट्टी बंधी थी तो इसने दुनिया भर में बढ़ती असमानता, इसके साथ आने वाले सामाजिक विभाजन और आसन्न पर्यावरणीय विनाश की उपेक्षा कर डाली और इन्हें रोकने के लिए जो कदम उठाए जाने थे उनमें इतनी देरी कर दी कि अब इस प्रक्रिया को पलटा नहीं जा सकता।

समष्टि अर्थशास्त्रीय नीतियों का रूपांतरण करने वाले लॉर्ड कीन्स ने लिखा थाः “जो लोग व्यावहारिक होते हैं और खुद को किसी बौद्धिक प्रभाव से मुक्त मानते हैं, वे आम तौर से किसी नाकारा अर्थशास्त्री के गुलाम होते हैं। सत्ता में बैठे सनकी हवा में तैर रही आवाज़ों को सुन कर फैसले करते हैं, उनकी सनक दरअसल कुछ साल पहले के किसी अकादमिक कलमघिस्सू के विचारों से छन कर आ रही होती है।”

विचार ताकतवर होते हैं। विचार ही बदलाव की अगुवाई करते हैं। अच्छा अर्थशास्त्र हमें अकेले नहीं बचा सकता लेकिन उसके बगैर हम पिछली गलतियों को दुहराने के लिए अभिशप्त होते हैं। अज्ञान, अतीन्द्रियता, विचारधारा और स्थितप्रज्ञता आपस में मिलकर हमें ऐसे जवाब पेश करते हैं जो विश्वसनीय दिखते हैं, जिनमें बड़े वादे होते हैं लेकिन अंत में जिनसे हमें केवल धोखा मिलता है। इतिहास गवाह है कि आज जो विचार चल रहे हैं वे अंत में अच्छे या बुरे कुछ भी साबित हो सकते हैं- मसलन, प्रवासियों के लिए खुद को खुले रखने से समाज नष्ट हो जाएंगे- यह विचार आजकल प्रभावी जान पड़ता है लेकिन हम जानते हैं कि सारे साक्ष्य इसके उलटे को सिद्ध करते हैं।

बुरे विचारों के खिलाफ़ हमारे पास इकलौता रास्ता यही है कि सतर्क रहा जाए, “ज़ाहिर” के आकर्षण का प्रतिरोध किया जाए, चमत्कारिक वादों को संदेह की नज़र से देखा जाए, साक्ष्यों पर सवाल किए जाएं, जटिलताओं के समक्ष धैर्य बरता जाए और हम जितना जानते हैं और जान सकते हैं, उसके प्रति ईमानदारी बरती जाए। इस सतर्कता के अभाव में बहुआयामी समस्याओं पर कोई भी संवाद केवल नारे और भोंडी नकल तक सिमट कर रह जाएगा। फिर नीतिगत विश्लेषण की जगह झोलाझाप नुस्खे ले लेंगे। यह बात केवल अकादमिक अर्थशास्त्रियों पर नहीं, हम सब पर लागू होती है। अर्थशास्त्र को केवल अर्थशास्त्रियों के भरोसे नहीं छोड़ा जाना चाहिए। हमें आपकी ज़रूरत है। आप हमारे साथ रहें। हमें लगता है कि यह मुमकिन है।

अभिजीत बनर्जी और एस्थर डफलो की पुस्तक गुड इकनॉमिक्स फॉर हार्ड टाइम्स के उद्धृत


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