G20 देशों का 18वां शिखर सम्मेलन सितंबर 2023 में नई दिल्ली में सम्पन्न हुआ। यह पहला मौका था जब भारत ने इस सम्मेलन की मेजबानी की। इस शिखर सम्मेलन में अनेक बैठकें और अंतरराष्ट्रीय स्तर के कई समझौते हुए। इसे खत्म हुए अब चार महीने हो चुके हैं। इस सम्मेलन को सत्ता-पक्ष द्वारा दुनिया में भारत का डंका बजाने वाले ईवेंट के तौर पर प्रचारित किया गया, लेकिन इसकी वजह से सैकड़ों बस्तियां उजाड़ दी गईं, हजारों परिवार सड़क पर आ गए और लाखों जिंदगियां सीधे प्रभावित हुईं।
महज साल भर पहले दिल्ली की चौहद्दी पर चीख-चिल्ला रहे बेसहारा लोगों की आवाजें अब भुला दी गई हैं। तब भी उन्हें अनसुना ही कर दिया गया था, जब G20 के लिए राजधानी दिल्ली को चमकाने में अरबों रुपये खर्च किए जा रहे थे। अदालत, पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग और दिल्ली विकास प्राधिकरण सहित आधा दर्जन सरकारी एजेंसियों के समन्वित प्रयास से एक ‘सुंदरीकरण’ अभियान चलाया गया। उसके नाम पर दिल्ली के बाहरी इलाकों में अनेक बस्तियों को अवैध बताकर उजाड़ा गया। इन कथित अवैध बस्तियों को हटाने के लिए दिसंबर 2022 में पहली बार नोटिस जारी किया गया जब ठंड परवान चढ़ रही थी।
जनवरी में जब ठंड अपने शबाब पर थी और सौ से ज्यादा बेघर लोगों को निगल चुकी थी, तब सबसे बड़े बेदखली अभियान का नोटिस तुगलकाबाद के हजारों लोगों के यहां पहुंचा। पहली बार बगावत की आवाजें भी वहीं से उठीं और जंतर-मंतर तक पहुंचीं, लेकिन तोड़फोड़ का जो सिलसिला फरवरी 2023 में शुरू हुआ वह अलग-अलग इलाकों में कई चरणों में सितंबर तक जारी रहा। इस तोड़फोड़ से दिल्ली के महरौली, वसंत विहार, तुगलकाबाद, राजघाट, यमुना खादर और धौलाकुआं इलाके में सबसे ज्यादा लोग प्रभावित हुए। अलग-अलग इलाकों में यह विध्वंस सुंदरीकरण, अतिक्रमण हटाओ अभियान, यमुना के बाढ़ वाले मैदानों के संरक्षण और ऐतिहासिक स्मारकों की सुरक्षा के नाम पर चलाया गया।
जो लोग पिछले एक साल में दर-ब-दर हुए, आज वे कहां हैं? कैसे हैं? किन हालात में जी रहे हैं? या मर रहे हैं? इस बीच उनके साथ क्या-क्या हुआ और पुनर्वास को लेकर किए जा रहे सरकारी दावों और योजनाओं की जमीनी हकीकत क्या है? इन्हीं सवालों की पड़ताल के लिए फॉलो-अप स्टोरीज ने विस्थापन की मार झेल चुके कुछ इलाकों में जाकर लोगों का हाल जानने की कोशिश की।
महरौली: पुरातत्व के मारे लोग
हम सबसे पहले दक्षिणी दिल्ली के लाडो सराय, एमबी रोड पहुंचे। यहां हमारी मुलाकात सड़क किनारे फुटपाथ पर रह रहे कुछ लोगों से हुई। पहले यहीं एमबी रोड पर उनकी झुग्गियां हुआ करती थीं। यहां वे बरसों से रह रहे थे। जी-20 के दौरान चलाए गए अतिक्रमण हटाओ अभियान में उन्हें अवैध करार दिया गया, यहां से हटा दिया गया और उनके घर उजाड़ दिए गए।
लाडो सराय में यह विध्वंस अभियान महरौली पुरातत्व पार्क के अंतर्गत आने वाले स्मारकों और पुरातात्विक सर्किट को सुरक्षित और संरक्षित करने के लिए चलाया गया था। महरौली में हुए विध्वंस को जी-20 में आए प्रतिनिधियों के लिए नियोजित हेरिटेज वॉक से जुड़ा हुआ माना जाता है।
उजाड़े गए घरों में से एक घर कविता का भी था, जो उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ की रहने वाली हैं। कविता यहीं फुटपाथ पर झाड़ू बनाकर बेचती हैं। झाड़ू दिल्ली की सत्ताधारी आम आदमी पार्टी का चुनाव चिह्न है। पहले यहीं उनका अपना एक घर था जिसमें वे अपने परिवार के साथ रह रही थीं। घर उजड़ने के बाद कविता का परिवार अब फुटपाथ पर ही तिरपाल डालकर रहने को मजबूर है। यहां उनके पास न कोई सुविधा है और न ही कोई सुरक्षा।
तीस साल की कविता का परिवार यहां करीब चालीस साल से रह रहा है। वे बताती हैं, ‘’हम मेहनत-मजदूरी करके अपना गुजारा कर लेते थे, लेकिन इन लोगों ने हमारा घर ही उजाड़ दिया। हमें पहली बार करीब साल भर पहले हटाया गया था, फिर जी-20 में हटाया। अब यहां फुटपाथ से भी भगा रहे हैं। कहते हैं कि रोड पर गंदगी मचा रखी है, जाओ भागो यहां से।‘’
कविता कहती हैं, “हमारे पास पैसा-कौड़ी नहीं है। हम कहां जाएं? जैसा है वैसे में ही गुजारा कर रहे हैं। अब कमरे का किराया देने के लिए भी तो पैसा होना चाहिए!“
कविता का पति सूरज विकलांग है, वह ज्यादा काम नहीं कर सकता। ऐसे में कविता ही काम करके घर चलाती हैं। कविता के दो बच्चे हैं। वह कहती हैं, ‘’बच्चे यहीं रोड पर खेलते रहते हैं… इतनी गाड़ियां चलती हैं कि हमेशा डर लगा रहता है।‘’
उनसे कुछ ही दूरी पर फुटपाथ पर 70 साल के सुधीर मिले। उनका बचपन से लेकर जवानी और अब बुढ़ापा लाडो सराय के इसी इलाके में रहते हुए गुजरा है। मूल रूप से रांची के रहने वाले सुधीर बरसों पहले अविभाजित बिहार से दिल्ली आ गए थे। वह खुद को बिहार का निवासी ही बताते हैं।
सुधीर ने बताया, ‘’झुग्गी उजाड़े जाने के बाद कई लोग आए और ये कहकर हमसे कागजात और अंगूठा लगवाकर ले गए कि आपकी सुनवाई होगी और रहने के लिए जगह वापस दी जाएगी, लेकिन उनमें से कभी कोई वापस लौटकर नहीं आया।‘’
एमबी रोड से हम महरौली के काले महल इलाके में पहुंचे जहां बीते साल फरवरी में कई घरों को उजाड़ा गया था। यहां हमारी मुलाकात इकबाल से हुई। वे कई पीढ़ी से यहां रह रहे हैं। इकबाल पूछते हैं, “अगर हमारी झुग्गी अवैध थी तो इतने साल तक इसे हटाने के लिए कोई क्यों नहीं आया?”
इकबाल याद करते हैं कि जिस दिन तोड़फोड़ की कार्रवाई हुई थी उस दिन डीडीए वाले बुलडोजर और भारी संख्या में पुलिस के जवानों के साथ आए थे। वे कहते हैं, ‘’उन लोगों ने केवल उन्हीं झुग्गियों को तोड़ा जो गरीबों और मजदूरों की थीं। इसी बस्ती में कई रसूख वाले लोगों ने सरकारी जमीन पर अतिक्रमण करके अपने पक्के मकान बना रखे हैं लेकिन उनके थोड़े बहुत छज्जे और जंगले वगैरह ही तोड़े गए, जिनकी उन्होंने अब फिर से मरम्मत करवा ली है।‘’
जी-20 के दौरान महरौली बस टर्मिनल के आसपास भी कई घरों को अवैध बताकर उन पर बुलडोजर चलाया गया था। वहां पहुंचने पर हमने देखा कि एक प्लॉट पर बिखरी ईंटों और पत्थरों के ढेर के नीचे बहुत सारा घरेलू सामान दबा पड़ा था। पास बैठे कुछ लोगों से पूछने पर पता चला कि यहां फहीमन का घर हुआ करता था। अब मलबे में तब्दील हो चुके इस घर के एक तरफ महरौली का डाकघर है तो दूसरी तरफ और कुछ मकान हैं।
फहीमन के बारे में पूछने पर आसपास के लोगों ने बताया कि घर उजड़ने के बाद से वह अपने पति के साथ कुतुबमीनार के पास हाजी अली मस्जिद के बाहर चाय की दुकान लगाती हैं। जब हम हाजी अली मस्जिद के पास पहुंचे तो शाम का समय था और काफी अंधेरा हो गया था।
सत्तर साल की फहीमन और उनके पति इज्राईल ग्राहकों को चाय आदि देने में व्यस्त थे। कुछ देर इंतजार करने के बाद हमारी बातचीत शुरू हुई।
हाजी अली मस्जिद के पास अपने चाय की दुकान पर फहीमन और उनके टूटे हुए मकान का मलबा
फहीमन ने हमें बताया कि पहले उनका अपना मकान था जिसमें उन्होंने कुछ कमरे किराये पर लगा रखे थे। उसी से परिवार का गुजारा चलता था। वह कहती हैं, “जीवन में जो कुछ भी कमाया वो सब मकान में लगा दिया। लेकिन अब जब घर तोड़ दिया है तो इस उम्र में भी कमाना पड़ रहा है।“
तुगलकाबाद: रहस्यमय चुप्पियों का गढ़
जी-20 के दौरान चलाए गए विध्वंस अभियान से तुगलकाबाद में सबसे अधिक संख्या में लोग प्रभावित हुए थे। यहां के बाशिंदों को 11 जनवरी को बेदखली का नोटिस मिला था। यहां की बंगाली कॉलोनी में मई 2023 में हुए डिमोलिशन ने हजारों लोगों की जिंदगियों को बदल कर रख दिया। इस विध्वंस अभियान ने ढाई लाख से अधिक पुरुषों, महिलाओं और बच्चों को विस्थापित कर दिया।
फरवरी 2023 में दिल्ली उच्च न्यायालय के एक आदेश के बाद तुगलकाबाद में डिमोलिशन अभियान चलाया गया था। इस आदेश में दिल्ली हाइ कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) को ‘अनधिकृत निर्माण’ हटाने और प्रभावित लोगों के लिए पुनर्वास की सुविधा प्रदान करने का निर्देश दिया था। स्थानीय लोगों का कहना है कि इसके बाद करीब 5000 झुग्गियों को उजाड़ा गया।
इस जगह को बंगाली बस्ती के नाम से जाना जाता है। यह इलाका दक्षिणी दिल्ली के सांसद भाजपा नेता रमेश बिधूड़ी के संसदीय क्षेत्र में आता है। बिधूड़ी का निजी आवास भी इस बस्ती से कुछ ही दूरी पर है। बंगाली बस्ती पहुंचने के लिए मैंने बस स्टैंड से ऑटो रिक्शा लिया। जब रिक्शाचालक राजा को मैंने डिमोलिशन वाली जगह पर चलने के लिए कहा, तब उन्होंने बताया कि उनका घर भी इसी बस्ती में था जिसे बाकी घरों के साथ तोड़ दिया गया।
राजा किराये पर ऑटोरिक्शा चलाते हैं। ऑटो का किराया देने के बाद दिन का 300-400 रुपया बच जाता है, उसी से उनके घर का खर्चा चलता है। विस्तार से बातचीत के दौरान राजा बताते हैं, “पांच साल पहले हम किराये पर रहते थे, लेकिन यहां के एक लोकल डीलर ने हमसे कहा कि जितना पैसा तुम किराये में भरते हो उतना पैसा किश्तों में यहां दे दो, तुम्हारा अपना एक घर होगा। सबको ऐसा ही बोलकर जमीन बेची गई थी। किसे पता था कि पांच साल बाद ऐसा हो जाएगा। जिस समय हमारे घर टूट रहे थे उस समय उनमें से कोई नहीं आया जिन्होंने हमें जमीन बेची थी।”
जब मैंने राजा से डीलर के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा, “नाम तो ऐसे नहीं बता सकते क्योंकि उनके बहुत सारे लड़के यहां घूमते रहते हैं जो लोगों को डराते-धमकाते हैं।“
जिस जगह पर पहले बंगाली बस्ती थी अब वहां दूर-दूर तक सिर्फ ईंट-पत्थर, मलबे और मिट्टी के ढेर दिखाई देते हैं। इस जगह को अब बुलडोजर से समतल किया जा रहा है और ट्रकों से मिट्टी लाकर यहां डाली जा रही है। मैंने जब वहां चल रहे बुलडोजर की वीडियो बनाने के लिए कैमरा ऑन किया तो वहां ड्यूटी कर रहे दो गार्ड आ गए और कहने लगे कि आपको बात करनी है तो बाहर जाकर लोगों से बात कीजिए, यहां का वीडियो मत बनाइए। फिर उनमें से एक गार्ड ने अपना मोबाइल निकालकर मेरा ही वीडियो बनाना शुरू कर दिया। इसकी वजह पूछने पर उन्होंने कहा कि ‘’आप अपना काम कीजिए और हमें भी अपना काम करने दीजिए।‘’
यहीं हमारी मुलाकात रईसन से हुई। वे अपने उजड़े हुए घर पर मिट्टी पड़ते हुए देख रही थीं। वह बताती हैं, “अभी हम किराये पर एक छोटा-सा कमरा लेकर रह रहे हैं। महीने के पांच हजार रुपये तो किराये में ही चले जाते हैं। किराया टाइम से नहीं दें तो मकान मालिक सामान बाहर फेंकने की धमकी देते हैं। हम खाएं या नहीं खाएं, चाहे बच्चों को भूखा रखें लेकिन किराया टाइम पर देना ही पड़ता है। बहुत मजबूर हैं, क्या करें?”
वे पूछती हैं, ‘’अब छोटे-छोटे बच्चों को लेकर कहां जाएं? कई लोग तो अपने गांवों से सब कुछ बेचकर यहां आकर बस गए थे, वे कहां जाएं? रहने के लिए छत तो चाहिए न, अब छत नहीं रहेगी और उतना किराया नहीं दे पाएंगे तो लोग क्या करेंगे? पांच-छह महीने हो गए अभी तक कोई मदद के लिए नहीं आया। अब तो किसी से मदद की उम्मीद भी नहीं रही। मर जाएंगे लेकिन ये सब कभी भूल नहीं पाएंगे!”
बात करते हुए रईसन भावुक हो उठती हैं, लेकिन अपनी बात जारी रखती हैं, ‘’एक महीने तक हम ऐसे ही टूटे हुए घरों में जैसे-तैसे रह रहे थे। जब यहां मिट्टी डालने का काम शुरू हुआ तो पुलिसवाले आए और हम लोगों को मार-मार कर भगाया। वही लोग पहले हमसे पैसा खाकर गए और वही लोग आकर अब मार रहे हैं। हम लोग तो उनको जानते भी हैं। अब करें तो करें क्या? गरीब आदमी का कुछ नहीं होता!“
यहां हमें एक और महिला मिली। नाम नहीं छापने की शर्त पर उन्होंने बताया, “जिस दिन घर तोड़े जा रहे थे उस दिन बारिश हो रही थी। वैसे तो सरकारी काम का टाइम शाम को पांच बजे तक होता है लेकिन यहां सात बजे के बाद तक बुलडोजर चलता था। डेढ़-दो दिन में ही सारे 5000 घरों को तोड़ दिया।‘’
‘’हम वह दिन कभी नहीं भूल सकते”, ऐसा कहते हुए वे एक दिन की घटना सुनाती हैं जब सब लोगों का सामान बिखरा पड़ा था, फिर भी वे लोग घर तोड़ते रहे थे। उसी बीच एक लड़की अपने घर के अंदर घुस गई। वे बताती हैं कि उसे जबरदस्ती खींचकर बाहर लाया गया और उसके घर पर बुलडोजर चला दिया गया। लड़की वहीं पर खड़ी रोती रही।
वह हमें यह सब सुना रही थीं, तभी पीछे से गार्ड आ जाते हैं। महिला कैमरे के सामने से हट जाती हैं और कहती हैं, ‘’दीदी मत कीजिए ये सब, कोई फायदा नहीं है।‘’
राजा से लेकर रईसन और इस महिला तक हमें किसी अदृश्य ताकत का डर लगातार यहां दिख रहा था। तुगलकाबाद में हमने जितने लोगों से बात की, इस बात पर गौर किया कि लोग किसी डर की वजह से खुलकर बात नहीं कर पा रहे थे। कई लोगों से पूछने पर पता चला कि बंगाली बस्ती के ज्यादातर लोगों को किसी डीलर ने यह भरोसा दिलाकर मोटी रकम वसूल ली थी कि अभी किश्तों में पैसे देते जाओ फिर यह जमीन तुम्हारी अपनी हो जाएगी। कई लोग तो घर तोड़े जाने तक भी हर महीने किश्तों में उक्त डीलर को पैसा दे रहे थे।
तुगलकाबाद की उजड़ चुकी बंगाली बस्ती में अपने घरों के मलबे पर बैठे हुए लोग और निर्जन प्रसार
कौन है वह डीलर? जब मैंने उनसे डीलर का नाम जानने की कोशिश की तो हर किसी ने यही कहा कि वे उसका नाम नहीं बता सकते, उन्हें यहीं पर रहना है। ऐसा कहते हुए उनके चेहरों पर डर साफ नजर आ रहा था। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि इस वसूली में डीलर्स को यहां की स्थानीय थाना पुलिस और नेताओं का कथित संरक्षण प्राप्त था।
थोड़ा विस्तार से चीजों को समझने के लिए हमने दक्षिणी दिल्ली से भाजपा सांसद रमेश बिधूड़ी के निजी आवास पर जाकर उनसे सम्पर्क करने और इस बारे में बातचीत करने की कोशिश की। वहां हमसे कहा गया कि इस समय नेताजी किसी से नहीं मिलते हैं। हमने अगले दिन टेलीफोन के जरिये भी उनसे बात करने की कोशिश की, लेकिन हमें तुगलकाबाद के लोगों की चुप्पियों का कोई जवाब नहीं मिला।
वसंत विहार: आपदा मोचन की विडंबना
2023 की गर्मियों में दिल्ली की चौहद्दी पर विध्वंस अपने चरम पर था। जून में वसंत विहार के प्रियंका गांधी कैंप में ऐसी ही कार्रवाई राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (एनडीआरएफ) की ओर से की गई थी। जिसका काम आपदा में राहत पहुंचाना है, उसकी पैदा की हुई आपदा में करीब 250 परिवार बेघर हो गए थे।
जब हम एनडीआरएफ की आपदा से प्रभावित हुए लोगों को ढूंढते हुए वहां पहुंचे, तो हमारी मुलाकात रामकली से हुई। रामकली पहले इसी प्रियंका गांधी कैंप में रहती थीं। अब वह पास ही के एक इलाके कुसुमपुर पहाड़ी पर किराये के मकान में रहती हैं। रामकली बताती हैं कि जब उनके घर तोड़े जा रहे थे तब उनसे यह कहा गया था कि उन्हें इसके बदले दूसरी जगह दी जाएगी। उन्हें अब तक कोई मदद नहीं मिली है।
रामकली के पांच बच्चे हैं। उनके पति की कुछ साल पहले मौत हो चुकी है। ऐसे में रामकली ही बेलदारी का काम करके बच्चों का भरण-पोषण करती हैं। वह बताती हैं “मजदूरी के काम का कुछ भी फिक्स नहीं है। कभी काम मिल जाता है तो कभी बिना काम के ही रहना पड़ता है। इतनी कम कमाई में किराया देना बहुत मुश्किल हो जाता है। यहां तो हमें पानी भी खरीद कर लाना पड़ता है।“
प्रियंका गांधी कैंप में रहने वाले ज्यादातर लोग आसपास के इलाकों में मजदूरी करते हुए अपना परिवार चलाते थे। उनके बच्चे आसपास के स्कूल में पढ़ाई करते थे और ज्यादातर औरतें आसपास के घरों में ही काम करती थीं। बस्ती उजाड़े जाने की वजह से बच्चों की पढ़ाई छूट गई, लोगों और महिलाओं का काम छिन गया है और वे बेरोजगार हो गए। ऐसे में कई लोगों के लिए किराये पर रहना तो दूर, उन्हें दो जून की रोटी भी मुश्किल से मिल पाती है।
इसी तरह का एक परिवार हमें सुधा का मिला। प्रियंका गांधी कैंप का मकान तोड़े जाने के बाद सुधा अब अपने परिवार के साथ मुनिरका के कुली कैंप में किराये के कमरे में रहती हैं। वह पास के घरों में झाड़ू-पोछा का काम करती हैं। सुधा की दो बेटियां हैं दिशा और आकांक्षा। आकांक्षा सातवीं में पढ़ती है।
वह बहुत गुस्से में कहती है, “उन्होंने हमारी किताबें भी दबा दीं और हमें वहां से भगा दिया। वहां हमारा अपना घर था और हम आराम से रहते थे लेकिन अब यहां हमें बहुत दिक्कत होती है। सरकार तो कहती थी कि जहां झुग्गी वहीं मकान, लेकिन अब न तो हमारी झुग्गी रही और न ही मकान…।”
सरकार तो कहती थी कि जहां झुग्गी वहीं मकान, लेकिन अब न तो हमारी झुग्गी रही और न ही मकान…!
–आकांक्षा, कक्षा 7 की छात्रा
आकांक्षा जिस सरकारी योजना की बात कर रही है, उसका नाम ही है जहां झुग्गी वहीं मकान। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने यह योजना को 2021 में एक ड्रीम प्रोजेक्ट की तरह शुरू किया था और 2025 तक दिल्ली को झुग्गीमुक्त करने का लक्ष्य रखा था। इस योजना के तहत आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए 237 एकड़ जमीन पर 89400 फ्लैट बनाए जाने थे। दिल्ली एमसीडी के पिछले चुनाव में भारतीय जनता पार्टी ने भी एक ‘वचनपत्र’ जारी कर के वादा किया था कि दिल्ली की झुग्गियों में रहने वाले सभी लोगों को वह घर और साफ पानी उपलब्ध कराएगी। इस योजना और सरकारी वादों की कागजी और जमीनी हकीकत कुछ और ही है।
कहीं और बसाये जाने के सवाल पर सुधा कहती हैं, “हमारा घर उजाड़कर कहा कि तुम लोग रैन बसेरा चले जाओ, लेकिन यह सब जानते हैं कि रैन बसेरों में बच्चों को लेकर रहना बिलकुल सेफ नहीं है। जब हमारे घर टूट रहे थे तो हम प्रमिला टोकस (स्थानीय विधायक) के घर भी गए थे लेकिन उन लोगों ने गेट तक नहीं खोला। पहले हमें यह कहा गया था कि आपको यहां से हटाकर दूसरी जगह बसाया जाएगा। हमसे बिजली का बिल, आधार कार्ड, सब डॉक्युमेंट्स के साथ दस्तखत भी लिए गए थे लेकिन 15 दिन बाद उसी नाम से घरों के आगे खाली करने के नोटिस लगा दिए।‘’
सुधा गुस्से में कहती हैं “अब किसी को वोट नहीं दूंगी। जब ये वोट मांगने आएंगे तब इनसे पूछूंगी कि उस समय आप कहां थे जब हमें सड़क पर फेंक दिया था। इन्होंने हमारे बच्चों को रुलाया है, हम बहुत दुखी हैं। मैंने बच्चों के पेट काट-काट कर घर बनवाया था लेकिन इन लोगों ने सब उजाड़ दिया।“
प्रियंका गांधी कैम्प में ही तोड़े गए घरों के बीच मोहम्मद जुम्मन का घर था। जुम्मन अब अपने परिवार के साथ इसी कैंप से सटी एमसीडी की एक पुरानी बिल्डिंग में रहते हैं। वह बिहार के रहने वाले हैं और कमाई के सिलसिले में बरसों पहले दिल्ली आ गए थे। अपने परिवार के साथ वह करीब 20 साल से प्रियंका गांधी कैंप में रह रहे थे।
जुम्मन बताते हैं, “डिमोलिशन से पंद्रह दिन पहले हमारे घरों के आगे नोटिस चिपकाए गए थे पर हमारे पास इसके अलावा कोई दूसरा ठिकाना ही नहीं है तो इसे छोड़कर कहां जाते? जिस दिन डिमोलिशन की कार्रवाई हुई थी उस दिन हमें अपना सामान निकालने का भी टाइम नहीं दिया। हमारे बच्चों की किताबें भी घर के सामान के साथ मलबे में दबा दी गईं। अब हम एमसीडी के एक प्रोजेक्ट में मजदूरी का काम कर रहे हैं इसलिए इस बिल्डिंग में रहने को जगह मिल गई है, लेकिन यहां भी न बिजली है और न ही पानी की कोई सुविधा।‘’
जुम्मन की बेटी नूरजहाँ ग्यारहवीं में पढ़ती है। बीते साल 16 जून को जब यहां बुलडोजर चले, तब बहुत से मीडिया संस्थानों ने इसे कवर किया था। उस समय नूरजहाँ का एक वीडियो सोशल मीडिया पर बहुत वायरल हुआ था। अपने मोबाइल पर बेटी का वायरल वीडियो दिखाते हुए जुम्मन बताते हैं कि सोशल मीडिया पर लाखों लोगों ने इस वीडियो को देखा था और शेयर किया था।
अपने तोड़ दिए गए घर का वीडियो दिखाते हुए जुम्मन भावुक हो जाते हैं, ‘’इसके बावजूद हकीकत यह है कि हमारे जीवन में कुछ नहीं बदला, न कोई मदद मिली।‘’
प्रियंका गांधी कैम्प के मकानों को खाली करने के लिए एनडीआरएफ की ओर से जो नोटिस लगाए गए थे उन पर लिखा था:
“यह जमीन राष्ट्रीय आपदा मोचन बल (एनडीआरएफ) को आवंटित की गई है और 1 जुलाई 2020 को इसका कब्जा आवासीय और शहरी कार्य मंत्रालय L&DO विभाग द्वारा एनडीआरएफ को दिया गया। उक्त जमीन पर कब्जा लेते समय पाया गया कि लगभग 2500 वर्ग मीटर में 97 झुग्गियां बनाकर कुछ लोग अवैध रूप से अपने परिवार के साथ रह रहे हैं। चिन्हित परिवारों को सूचित किया जाता है कि 15 जून 2023 तक एनडीआरएफ की भूमि पर आपके द्वारा किए गए कब्जे को छोड़ना सुनिश्चित करें।”
नोटिस की अवधि पूरी होने के अगले ही दिन यानी 16 जून 2023 को एनडीआरएफ ने प्रियंका गांधी कैंप पर बुलडोजर चलवा दिया, हालांकि नोटिस के मुताबिक एनडीआरएफ को जुलाई 2020 में ही इस जमीन का कब्जा मिल गया था लेकिन यह डिमोलिशन अभियान ऐसे समय में चलाया गया जब शहर भर में जी-20 के लिए किए जा रहे सुंदरीकरण के नाम पर बस्तियों को उजाड़ा जा रहा था।
एनडीआरएफ के नोटिस में केवल 97 झुग्गियों का जिक्र किया गया था, लेकिन वहां के निवासियों का कहना है कि यहां करीब 250 परिवारों के घर थे। इस कैंप का नामकरण इस क्षेत्र की विधायक प्रमिला धीरज टोकस ने करवाया था। उन्होंने कहा था, ‘’तुम यहां घर बनाओ और आराम से रहो, यहां से तुम्हें कोई नहीं हटाएगा।‘’ लोग बताते हैं कि इतना सब होने के बाद वे एक बार मिलने तक नहीं आईं।
वसंत विहार का प्रियंका गांधी कैंप जो अब NDRF का कैंप बन चुका है
इस बारे में जानकारी के लिए जब हमने प्रमिला टोकस से बात करने की कोशिश की तो उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया।
मुनिरका के कुली कैंप में हमारी मुलाकात सुषमा, रेखा और प्रिया से हुई। सुषमा बताती हैं कि जी-20 के वक्त उनकी बस्तियों को हरे परदे से ढंक दिया गया था। वे कहती हैं, ‘’वे हमें कहीं नहीं निकलने देते थे, यहां तक कि हमें छतों पर भी नहीं जाने देते थे। नीचे रहो, बाहर मत आओ… हमें काम पर भी नहीं जाने देते थे। इन लोगों ने हमें बहुत तंग किया। उन्हें बस गरीबी छुपानी थी, किसी को इस बात से कोई मतलब नहीं था कि जनता यहां कितनी दिक्कत में है।‘’
चूल्हे पर रोटी सेंकती हुई रेखा उनकी बात को आगे बढ़ाती हैं, “सरकार गरीबी नहीं हटाना चाहती, वह गरीबों को हटाना चाहती है। इनका काम है गरीबी मत हटाओ, गरीबों को ही हटा दो। अब यहां गरीब दिखेंगे ही नहीं, सब भगा दिए जाएंगे।“
राजघाट: मूल से उखड़ी एक बस्ती
जी-20 शिखर सम्मेलन के लिए प्रगति मैदान मुख्य आयोजन स्थल था। ऐसे में यमुना खादर और राजघाट का इलाका जी-20 में आए विदेशी प्रतिनिधियों के यात्रा मार्ग के करीब था। राजधानी के सुंदरीकरण अभियान के तहत इन इलाकों में रह रहे लोगों की बस्तियों पर भी बुलडोजर चला और उन्हें वहां से हटा दिया गया। राजघाट की मूलचंद बस्ती डिमोलिशन से प्रभावित जगहों में से एक है। मूलचंद बस्ती में करीब 600 मकान ढहाए गए थे।
जब हम मूलचंद बस्ती पहुंचे तो हमारी मुलाकात यहां रहने वाली रेखा राजपूत से हुई। रेखा बताती हैं, “हमारे बड़े-बुजुर्ग यहां 1913 से रहते आए हैं। यहां सबकी खेतीबाड़ी थी और अपने मकान थे। पिछले साल 21 मार्च को प्रशासन के लोग बुलडोजर लेकर आए और यहां तोड़फोड़ करनी शुरू कर दी। जब हमने उन्हें रोकने की कोशिश की तो उन्होंने महिलाओं और लड़कियों के साथ भी मारपीट की। जब हमने उन्हें कहा कि हम सालों से यहीं रह रहे हैं अब रहने के लिए कहां जाएं तो उन्होंने कहा कि चाहे कहीं भी जाओ लेकिन यहां से चले जाओ, दोबारा यहां दिखने नहीं चाहिए।”
रेखा बताती है कि 21 मार्च को बस्ती में तोड़फोड़ करने के बाद 27 मार्च को वे लोग फिर से आए और उनके खेतों में खड़ी फसलों पर मिट्टी डालनी शुरू कर दी। वे बताती हैं, ‘’…और हमारी गाय-भैंस और बकरी को भी एमसीडी की गाड़ी में डालकर ले गए। जो लोग यहां से नहीं जा रहे थे उनके सामान को भी उन्होंने उठाकर गाड़ी में रख दिया। हमें आज तक नहीं पता कि हमारे जानवर कहां गए।”
सरकार पाकिस्तान में रहने वाले लोगों को भारत में रहने के लिए जगह देने की बात करती है लेकिन हम लोग तो यहीं के हैं, सौ साल से हम जिस जगह पर रह रहे हैं वहां से हमें हटाया जा रहा है।
रेखा, मूलचंद बस्ती, राजघाट
रेखा का परिवार अब बाकी लोगों के साथ यहीं तिरपाल डालकर रह रहा है। उनके पड़ोस में ही रह रही 55 वर्षीय मुथरा देवी बताती हैं, “हम लोग बारिश के समय भी ऐसे ही रहे। तिरपाल से बारिश का पानी अन्दर टपकता रहता था। अब कल-परसों ही रात में बकरी चुराने के लिए चोर आ गए तो उनसे बकरी छुड़ाते समय उन्होंने बेटे को चाकू से मारा और उसके हाथ पर चोट आ गई।‘’
मुथरा देवी के बेटे कँवरलाल के हाथ में चोरों के चाकू मारने से गहरी चोट आई है। वे आजकल काम पर नहीं जा पा रहे हैं। कँवरलाल कहते हैं, “मोदीजी कहते हैं कि हर आदमी के पास पक्की छत होगी लेकिन हमारे पास तो कहीं जगह भी नहीं है।”
मुथरा देवी कहती हैं, ‘’अगर हमारे पास कहीं और मकान होता, जगह होती तो हम क्यों इनका इतना सहते, क्यों रहते यहां ऐसे! अगर हमारा भी कोई अपना ठिकाना होता तो चले जाते, कहां जाएं… जाएं तो जाएं कहां? जन्म से तो यहां रह रहे हैं, हमारे सास-ससुर तो बूढ़ा हो होके यहीं मर गए। हमारा तो सब कुछ यहीं पर है लेकिन इन लोगों ने सब कुछ बर्बाद कर दिया।‘’
यहां के परिवार चोरों के डर से रात में सो नहीं पाते हैं। रात में चोर आकर परेशान करते हैं और दिन में सरकारी अफसर बुलडोजर लेकर आ जाते हैं। पहले यहां ये लोग खेती करके कमाते-खाते थे। अब पूरे इलाके में गड्ढे खोद दिए गए हैं।
मुथरा देवी पूछती हैं, ‘’बेटा मेहनत-मजदूरी करके जो भी कमाकर लाता था, उसी से परिवार का पेट पलता था लेकिन अब वह भी हाथ लेकर बैठ गया है। खर्चा कैसे चलाएं?“
कहीं और बसाये जाने के सवाल पर रेखा कहती हैं, “हमें यहां से किसी न किसी तरह बस उजाड़ने की बात की जाती है लेकिन बसाने की बात कोई नहीं करता। सरकार गरीबों को पक्के मकान देने की बात करती है लेकिन हम तो केवल रहने के लिए जमीन का एक टुकड़ा मांग रहे हैं। घर हम उसमें खुद ही बना लेंगे।”
रेखा और मुथरा देवी समेत यहां रहने वाले सभी लोग बहुत जोर देकर कहते हैं कि उनके परिवार कई पीढ़ियों से यहीं रह रहे हैं। इस दावे के बारे में जब हमने उनसे जमीन से जुड़े कागजात मांगे, तो रेखा ने हमें वोटर आइडी कार्ड, आधार कार्ड, राशन कार्ड समेत कई सारे डॉक्युमेंट दिखाए जिन पर मूलचन्द बस्ती, दरियागंज का पता था। इन कागजों में अंग्रेजों के समय की लगान की पर्चियां, गिरदावरी और रेखा द्वारा विभिन्न मंत्रियों को अलग-अलग समय में लिखे गए पत्र भी शामिल थे।
रेखा राजपूत: सारे कागज दिखाए, कोई काम न आया
रेखा बताती हैं, ‘’घर उजाड़ते समय जब मैंने उन्हें ये कागज दिखाए तो हमें कहा कि इसे लेकर कोर्ट में जाओ, वहीं आपकी सुनवाई होगी। कोर्ट में भी हमारे पक्ष में कोई सुनवाई नहीं होती है।‘’
यह ‘डोमिसाइड’ है!
यह सिर्फ उन लोगों की कहानियां हैं जिन तक हम जनवरी में पहुंच पाए। दिसंबर 2022 में भारत को जी-20 की अध्यक्षता मिलने के बाद से दिल्ली में लाखों घर और झुग्गियां जमींदोज हो चुकी हैं। डिमोलिशन अभियान में हटाए गए लोगों को अवैध और अतिक्रमणकारी बताया गया था, जबकि इन सभी लोगों के पास आधार कार्ड, राशन कार्ड, पंजीकृत बिजली मीटर, मतदाता पहचान पत्र जैसे सभी जरूरी दस्तावेज हैं और ये लोग मतदान भी करते हैं। झुग्गियों में रहने वाले ये लोग दिल्ली जैसे बड़े शहर में मानव श्रम की जरूरतों को पूरा करके इसकी अर्थव्यवस्था को चलाए रखने में बड़ी भूमिका निभाते हैं।
इन बेघर हुए लोगों में ज्यादातर ऐसे लोग हैं जो रोजी रोटी कमाने के लिए बरसों पहले दिल्ली आ कर बस गए थे और यहां मेहनत मजदूरी करके अपना परिवार चलाते थे। सुंदरीकरण के नाम पर बुलडोजर की कार्रवाई ने लाखों लोगों की जिंदगियों को हमेशा के लिए बदल कर रख दिया है। उनका अब तक कोई पुनर्वास नहीं किया गया है। कई लोग दिल्ली से वापस अपने गांव लौट चुके हैं, बाकी दिल्ली की सड़कों पर बिखरे पड़े हैं। कुछ लोग अब किराये पर कमरे लेकर रहने लगे हैं, लेकिन कई अब भी टूटे हुए मकान के मलबे पर तिरपाल डालकर जाड़े की रातें काट रहे हैं। बड़ी संख्या में लोग खुले आसमान के नीचे फुटपाथ और फ्लाइओवरों के तले जीने को मजबूर हैं।
खुले में जिंदगी: मूलचंद बस्ती और मुनिरका की तस्वीरें
इन बेघर बेसहारा लोगों को आसरा देने के लिए दिल्ली में शहरी आश्रय सुधार बोर्ड (डूसिब) नाम की एक एजेंसी काम करती है। खुद डूसिब का अनुमान है कि राजधानी दिल्ली में करीब छह लाख झुग्गियों में 30 लाख लोग रहते हैं जो दिल्ली की कुल आबादी का एक बड़ा हिस्सा है। हर साल बड़ी तादाद में लोग रोजगार की तलाश में दिल्ली-एनसीआर क्षेत्र में आकर बस जाते हैं और इनमें एक बड़ा हिस्सा बिहार, उत्तर प्रदेश से आए लोगों का है। ऐसे में उनको बसाना दिल्ली जैसे सघन आबादी वाले राज्य के लिए बेशक एक चुनौती भरा काम है।
सवाल यह है कि आखिर लोगों के विस्थापित होने और बार-बार बसने-उजड़ने के पीछे कौन जिम्मेदार है और इसका समाधान निकालने के लिए हमारी सरकारों की तैयारी क्या है?
सुप्रीम कोर्ट की स्टेट लेवल शेल्टर मॉनिटरिंग कमिटी के मेंबर डॉक्टर इंदु प्रकाश सिंह बताते हैं, “डूसिब का काम मुख्य रूप से राजधानी दिल्ली में स्लम में रह रहे लोगों के जीवन की गुणवत्ता में सुधार लाना और उन्हें पुनर्वास प्रदान करना है, लेकिन जी-20 के समय हुई डिमोलिशन कार्रवाई के दौरान डूसिब ने विस्थापित लोगों को बसाना तो दूर, इसके बिलकुल उल्टा काम करते हुए कई रैन बसेरों को ध्वस्त कर दिया और सरकार इन सबसे बेघर हुए लोगों के लिए वैकल्पिक आश्रय या जगह उपलब्ध कराने में विफल रही है।“
वे कहते हैं, “जब आप घरों को ध्वस्त करते हैं, तो आप अतीत को ध्वस्त करते हैं, वर्तमान को कुचलते हैं और भविष्य को नष्ट करते हैं। यह डोमिसाइड है! चाहे यह जी-20 के नाम पर हो, सुंदरीकरण के नाम पर या जो भी हो, यह एक आपराधिक कृत्य है।‘’
सभी तस्वीरें और वीडियो: सौम्या राज