पाकिस्तान: क्या सेना ने इस बार इमरान की ताकत भांपने में गलती कर दी है?

1979 में जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दिए जाने के बाद पाकिस्तान की पॉलिटिकल क्लास ने सेना के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं दिखाई थी। बेनजीर भुट्टो की हत्या ने सेना के खौफ को और मजबूत ही किया था, लेकिन इस बार स्थिति उलटी है

रावलपिंडी, 10 मई 2023 पाकिस्तान तहरीक-ए-इन्साफ के सैकड़ों कारकून रावलपिंडी स्थित पाकिस्तानी सेना के मुख्यालय पर प्रदर्शन कर रहे थे। इस बीच लाहौर से खबर आई कि लाहौर छावनी में स्थित कोर कमांडर के घर को आग के हवाले कर दिया गया है। यह पाकिस्तान के इतिहास में पहली बार है जब आर्मी को इस तरह से लोगों के गुस्से का शिकार होना पड़ रहा है। इन प्रदर्शनों का प्रस्थान बिंदु पूर्व प्रधानमंत्री इमरान खान की गिरफ्तारी है।

बीती 10 मई को दोपहर करीब साढ़े बारह बजे इस्लामाबाद हाइकोर्ट के परिसर से पाकिस्तान रेंजर्स के जवानों ने इमरान खान को लगभग अगवा करने के अंदाज में गिरफ्तार किया था।

इमरान पर फिलहाल भ्रष्टाचार के 100 से ज्यादा मामले लंबित हैं। यह गिरफ्तारी जिस मामले से जुड़ी है, उसका संबंध 2019 में पंजीकृत एक संस्था अल-कादिर ट्रस्ट के साथ है। इस ट्रस्ट में इमरान खान और उनकी पत्नी बुशरा दोनों सदस्य हैं। इनके अलावा जुल्फिकार बुखारी और बाबर अवान भी इस संस्था से जुड़े हुए हैं।

इमरान खान पर भ्रष्टाचार के आरोपों के केंद्र में उनके ट्रस्ट को मिली जमीन और पैसा है। ये जमीन और पैसा पाकिस्तान के बड़े पूंजीपति और सबसे बड़ी निजी रियल स्टेट डेवलपमेंट कंपनी बाहरिया टाउन के चेयरमैन मलिक रियाज़ हुसैन का है। इस कंपनी ने अल-कादिर ट्रस्ट को पंजाब के झेलम जिले की सहोवा तहसील में 458 कनाल जमीन दी थी। एक कनाल का मतलब पंजाब में आधा बीघा के आसपास जमीन को समझा जा सकता है। ट्रस्ट को मिली इस जमीन का सरकारी दाम 243 करोड़ पाकिस्तानी रूपए था। इसके अलावा, रियाज़ ने इस ट्रस्ट को 19 करोड़ ब्रिटिश पाउंड की राशि दान में दी थी। कुल मिलाकर जमीन और दान 500 करोड़ पाकिस्तानी रुपए के आसपास बैठता है। यानी इमरान खान के खिलाफ भ्रष्टाचार के तमाम मामलों में यह इकलौता मामला पांच सौ करोड़ का है, जिसमें उनकी गिरफ्तारी हुई है। इस केस में इमरान के खिलाफ 1 मई को कोर्ट ने वारंट जारी किया था। इसी में पेशी के दौरान उन्हें पाकिस्तान रेंजर्स के जवानों ने गिरफ्तार किया था।

इमरान की गिरफ्तारी के बाद उनकी पार्टी पीटीआइ के सदस्यों ने पूरे देश में हिंसक प्रदर्शन किए हैं, जिसमें सेना मुख्यालय से लेकर पाकिस्तान रेडिओ और लाहौर छावनी तक को निशाना बनाया गया। वैसे तो पाकिस्तान में जम्हूरियत बनाम फौजी तानाशाही की लड़ाई बहुत पुरानी है, लेकिन इस देश की स्थापना के बाद से वहां फौज के खिलाफ हुआ यह अपने किस्म का पहला विरोध प्रदर्शन है।  इसलिए इसकी कोई एक सरल व्याख्या मुमकिन नहीं है। पाकिस्तान के ताजा हालात को तह में जाकर समझने का एक अहम सिरा स्टीवन विलकिंसन की किताब “आर्मी एंड नेशन” में मिलता है, जिसमें लेखक विभाजन के बाद भारत और पाकिस्तान की सेनाओं के विकास का विश्लेषण करते हैं।


भारत के बंटवारे के बाद पाकिस्तान को जो सेना मिली थी, उसमें प्रतिनिधित्व के मामले में भयंकर असमानता थी। मसलन, 55 फीसदी आबादी वाले पूर्वी बंगाल का फौज में प्रतिनिधित्व लगभग शून्य था जबकि उसके 90 से 95 फीसदी जवान मात्र 35 फीसदी आबादी वाले पंजाब और उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत से आते थे। इसमें भी पाकिस्तानी पंजाब से आने वाले सैनिक सबसे ज्यादा थे। प्रतिनिधित्व में असंतुलन का असर 1971 के बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में साफ देखा जा सकता है।

पाकिस्तान की जनता ने मार्शल लॉ का पहला स्वाद 1953 में चखा। अब तक पाकिस्तान के नेता न तो कोई आईन बना पाए थे और न ही कोई चुनाव करवा पाए थे। इस बीच लाहौर में दंगों के चलते मार्शल लॉ लगा दिया गया था। मार्च से मई 1953 के बीच लगे मार्शल लॉ के दौरान अपनी बदहाल सड़कों के लिए बदनाम तत्कालीन लाहौर की सड़कों को चमका दिया गया। लोगों को तब मार्शल लॉ बहुत पसंद आया था। यह एक ऐसे सिलसिले की शुरुआत थी जिसे लम्बा चलना था। इसकी शुरुआत अयूब खान से हुई। फिर याहया खान और जिया-उल-हक़ से होते हुए यह सिलसिला परवेज़ मुशर्रफ तक पहुंचा। यह पाकिस्तान के उस खाके के ठीक उलट था जो जिन्ना ने 1948 में खींचा था।

1948 में क्वेटा के स्टाफ कॉलेज में भाषण देते हुए जिन्ना ने साफ किया था कि इस नए मुल्क मे फौज को नागरिक शासन के नीचे रहना होगा। तब उन्होंने पाकिस्तानी सेना के लिए तीन शब्द का एक ध्येय वाक्य दिया था: “इत्तेहाद, यकीन और तंजीम”। 1977 में जब जिया-उल-हक ने पाकिस्तान की बाग़डोर अपने हाथों में ली तो यकीन को धार्मिक अर्थ में परिभाषित करना शुरू किया। यह अफगान जिहाद में अमेरिका के साथ गठजोड़ में उन्हें वैचारिक आधार देता था। जिया के दौर के बाद पाकिस्तानी आर्मी की पकड़ पाकिस्तानी व्यवस्था पर गहरी होती चली गई। 1980 के बाद जो भी सरकारें पाकिस्तान में चुनी गईं उनकी इकलौती मेरिट फौज की पसंदगी थी, चाहे वे नवाज़ शरीफ हों या बेनजीर भुट्टो। 2018 में आए इमरान भी सेना की ही पसंद थे। चुनाव के बाद उनके लिए जरूरी बहुमत का जुगाड़ करने में सेना की अहम भूमिका रही थी।

जिस समय इमरान सत्ता में आए उस समय नवाज़ शरीफ को मुकदमेबाजी के चलते लन्दन शिफ्ट होना पड़ा था। उस समय खान सेना के कंधे पर सवार थे, लेकिन जब इमरान खान ने विदेश नीति से लेकर अर्थव्‍यवस्‍था तक सेना से अलहदा रुख अख्तियार करना शुरू किया तो तनाव की स्थिति पैदा हो गई। इस तनाव के चलते टूटन शुरू हुई खुफिया एजेंसी आइएसआइ के डीजी की नियुक्ति को लेकर। यह बात नवम्बर 2021 की है।

इमरान उस समय सिराजुद्दीन हक्कानी की मध्यस्थता में तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान से शान्ति वार्ता के चलते सुप्रीम कोर्ट की तल्खी का शिकार थे। इसी समय बरेलवी संगठन तहरीक-ए-लब्बैक का पूरे देश में प्रदर्शन जारी था और इमरान आइएसआइ के डीजी की नियुक्ति को लेकर सेना प्रमुख जनरल कमर जावेद बाजवा से सींग फंसाए बैठे थे। हुआ यूं कि बाजवा ने लेफ्टिनेंट जनरल फैज हमीद को डीजी आइएसआइ के पद से हटाकर उन्हें पेशावर का कोर कमांडर बना दिया और उनकी जगह कराची कोर के कमांडर नदीम अंजुम की नियुक्ति कर दी। फैज़ हमीद को खान का करीबी माना जाता था, लिहाजा खान ने इस नियुक्ति का विरोध किया। इसके बाद से सेना ने इमरान के पीछे से अपना हाथ हटा लिया। नतीजा उम्मीद के अनुसार ही रहा। अप्रैल 2022 में इमरान के खिलाफ अविश्वास प्रसताव लाया गया, जिसके बाद उनकी सत्ता से विदाई हो गई।

इमरान ने 2018 में पाकिस्तानी सेना के इशारे पर जिस तरह से नवाज़ शरीफ और उनके खानदान को मुकदमेबाजी में फंसाया था, वो उलटकर उनके ऊपर पड़ गया। शाहबाज शरीफ के प्रधानमंत्री बनने के बाद इमरान एक के बाद एक मुकदमों में फंसते चले गए। तोशखाना केस, अल-कादिर केस सहित उनके ऊपर 100 से ज्यादा मुकदमे दर्ज किए गए। इसमें से 37 मामले भ्रष्टाचार के हैं।

इस बीच इमरान ने दूसरे नेताओं की तरह चुप बैठने के बजाय सरकार और सेना को घेरना शुरू किया। उन्होंने नंबर 2022 में नए चुनाव की मांग को लेकर लाहौर से इस्लामाबाद तक लॉन्ग मार्च का आह्वान किया। इस मार्च के दौरान ही वजीराबाद में उन पर गोली चली। इमरान पर यह हमला अचम्भे में डालने वाला नहीं था। 1979 में जुल्फिकार अली भुट्टो को फांसी दिए जाने के बाद पाकिस्तान की पॉलिटिकल क्लास ने सेना के खिलाफ जाने की हिम्मत नहीं दिखाई थी। बेनजीर भुट्टो की हत्या ने सेना के खौफ को और मजबूत ही किया था, लेकिन इस बार स्थिति उलटी है क्‍योंकि इमरान खान लगातार सेना को निशाने पर लिए हुए हैं। जवाबी हमले में उनकी जिंदगी को निशाना बनाया गया। उनकी दो महिला साथियों के साथ आपत्तिजनक बातचीत सार्वजनिक कर दी गई। इमरान खान और फौज के बीच चल रही जंग में सबसे ताजा कड़ी उनकी गिरफ्तारी है।

ऐसा लगता है कि सेना ने इस बार इमरान की ताकत भांपने में गलती कर दी है। इमरान की गिरफ्तारी के बाद जिस किस्म के हिंसक प्रदर्शन हुए हैं उसकी किसी को उम्मीद नहीं थी। यह पहली बार है कि सेना विरोध के केंद्र में है। इस गिरफ्तारी ने इमरान खान की लोकप्रियता में निश्चित तौर पर इजाफा किया है। नतीजतन फौज को अपने पैर पीछे खींचने पड़े हैं। फौज में युवा अफसरों का एक धड़ा इमरान खान के प्रति वफादारी रखता है। यह पाकिस्तानी फौज के लिए बड़ी चिंता का सबब बना हुआ है।

सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद आखिरकार इमरान खान को छोड़ दिया गया है, लेकिन यह पाक सेना और इमरान के बीच चल रही लड़ाई का अंत नहीं है। आने वाले समय में पाकिस्तान और अधिक अस्थिर हालात का शिकार हो सकता है। और यह भारत के लिए भी कोई अच्छी बात नहीं होगी।


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