चुनाव से व्यवस्था को बदलने आए प्रशांत किशोर की सियासी बस क्यों छूट गई?

Prashant Kishor, November 20, 2025, Gandhi Ashram
Jan Suraaj founder Prashant Kishor holds a silent introspection of Bihar election results, at Bhitiharwa Gandhi Ashram in Bihar
भारतीय राजनीति के पारंपरिक अखाड़े के लिहाज से बीते कुछ दशकों में प्रशांत किशोर शायद अपने किस्‍म के इकलौते बाहरी हैं जो इतने धूम-धड़ाके और खर्चे-पानी के साथ पार्टी बनाकर चुनाव लड़ने उतरे। बाकी बाहरियों से उलट, न तो उनके पास नरेंद्र मोदी जैसा संघ-पोषण था और न ही अरविंद केजरीवाल जैसी एनजीओ की पृष्‍ठभूमि। उन्‍होंने कुछ नेताओं के लिए चुनावी रणनीति जरूर बनाई थी, लेकिन अपने मामले में गच्‍चा खा गए। क्‍यों? गोविंदगंज सीट की दिलचस्‍प कहानी के सहारे केवल एक दाने से पूरा भात कच्‍चा रह जाने का आकलन कर रहे हैं अंकित दुबे

प्रकाश झा की फिल्म ‘राजनीति’ में एक डायलॉग था, “राजनीति पब्लिक ट्रांसपोर्ट की बस नहीं है कि हाथ दिया और रोक कर बैठ गए…!” जन सुराज के संस्‍थापक और मुखिया प्रशांत किशोर ने या तो यह फिल्‍म नहीं देखी है या फिर इस बुनियादी बात को वे समझे नहीं या जान-बूझ कर नजरअंदाज किया होगा। चाहे जो हो, उनके जोश और जज्‍बे की चाहे जितनी भी तारीफ कोई कर ले, मगर सच यह है कि पिछले साल गांधी जयन्‍ती पर स्‍थापित उनकी राजनीतिक पार्टी अपने तेरहवें महीने में प्रवेश करते ही  तेरहवें दिन न तीन में बची न तेरह में। चौदह नवंबर को घोषित बिहार विधानसभा चुनाव के परिणामों में उनके 238 में से 236 उम्मीदवार (99 प्रतिशत से ज्‍यादा) अपनी जमानत तक नहीं बचा सके।


प्रशांत किशोर की ‘जन सुराज’: गांधी के नाम पर एक और संयोग या संघ का अगला प्रयोग?


प्रशांत अकेले नहीं हैं। हर चुनाव में कोई न कोई ऐसा होता है जो राजनीति को सरकारी बस सेवा समझ कर रोकने के लिए हाथ दे देता है। किसी के लिए बस रुकती ही नहीं, किसी को मंजिल से पहले ही पैदल कर देती है, जबकि कुछ यात्री हादसे का शिकार हो जाते हैं। इस चुनावी देश में ज्यादातर लोग यह समझने को तैयार नहीं होते कि जिस तरह ड्राइवर गाड़ी चलाने का काम करता है, इंजीनियर सड़क और पुल बनाते हैं, दर्जी कपड़े सिलता है, उसी तरह राजनीति नेता करते हैं, डॉक्टर, विद्वान और गणितज्ञ नहीं। हां, किसी नेता के पास इनमें से किसी क्षेत्र की विशेषज्ञता हो तो अलग बात है।

प्रशांत किशोर फेल हो गए हैं। चुनावी राजनीति में इसे फेल हो जाने से कम कुछ भी कहना एक उभरते हुए राजनीतिक दल के हिसाब से नाइंसाफी होगी। कुछ लोग कह रहे हैं कि हर सीट पर उन्‍हें कम से कम पांच हजार वोट आए हैं। यह आधा सच है। कई सीटों पर इससे ज्‍यादा भी आए हैं और कई जगह इससे कम। फर्ज कीजिए कि जन सुराज चुनाव में नहीं होता, तो क्या इन विधानसभा क्षेत्रों में तीसरे, चौथे और पांचवें नंबर पर आने वाले उम्मीदवार को उतने वोट नहीं मिलते?

तकरीबन सभी सीटों पर प्रशांत किशोर की पार्टी की चुनावी विफलता को समझने के लिए केवल एक विधानसभा क्षेत्र का दृष्‍टान्‍त काफी होगा।


Govindganj-14 assembly seat highlighted in the Bihar political map
Map of Bihar Assembly constituency 14-Govindganj

बिहार के 243 विधानसभा क्षेत्रों में एक क्षेत्र है गोविंदगंज (14), जो पूर्वी चंपारण जिले में पड़ता है। यहां से राष्‍ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के घटक दल लोक जनशक्ति पार्टी (रामविलास) के प्रदेश अध्यक्ष राजू तिवारी ने बड़े अंतर से महागठबंधन में कांग्रेस के उम्मीदवार शशिभूषण राय उर्फ़ गप्पू राय को हराया है। दो महीने पहले किसी ने इसकी उम्मीद नहीं की थी क्‍योंकि पिछले चुनाव के प्रदर्शन के हिसाब से राजू तिवारी तीसरे स्‍थान पर थे। यहां से भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के सुनील मणि तिवारी विधायक थे, जिन्होंने कांग्रेस के बृजेश पाण्डेय को हरा कर इस ब्राह्मण-बहुल सीट पर अपनी पार्टी को पहली जीत दिलाई थी।

इस सीट पर 1952 से 1985 के कालखंड में (बीच के दो चुनाव को छोड़ दें) कांग्रेस का विधायक ही रहा था। उसके बाद लगातार चालीस साल तक यहां से कांग्रेस हारती रही। इसलिए उसने इसे “कमजोर सीट” कहकर अबकी लड़ने से मना कर दिया था। लिहाजा महागठबंधन में इस सीट से कौन लड़ेगा, यह तय नहीं था। यादव–मुस्लिम मतदाताओं की संख्या कम होने के चलते राष्‍ट्रीय जनता दल (राजद) भी यहां से लड़ने की हिम्मत नहीं कर रही थी। विपक्षी गठबंधन में अन्य दलों के जनाधार की स्थिति भी कमजोर ही थी।

अंततः यह सीट कांग्रेस को ही मिली। उसने दो बार से हार रहे बृजेश पाण्डेय को तीसरी बार नहीं उतारा, उनके बजाय गप्पू राय को अपना उम्मीदवार बनाया। उधर चिराग़ पासवान ने सत्तारूढ़ गठबंधन में दबाव बनाकर भाजपा से उसकी जीती हुई सीट ले ली और राजू तिवारी यहां से एनडीए के प्रत्याशी तय हुए।

चूंकि चुनाव त्रिकोणीय होना था, तो सबकी नजरें जन सुराज के टिकट की घोषणा पर टिकी थीं। क्षेत्र की पूर्व विधायक मीना द्विवेदी का नाम जन सुराज के पांच संभावित उम्मीदवारों में सबसे आगे चल रहा था। इसका स्पष्ट कारण था कि एनडीए और महागठबंधन दोनों के प्रत्याशी मीना द्विवेदी से कई बार हारते रहे थे। वे तीन बार गोविंदगंज की विधायक रहीं, मगर 2015 से उन्होंने चुनावी राजनीति से अवकाश ले लिया था।

जनसुराज ने अपनी स्‍थापना के समय से ही मीना द्विवेदी को अपने साथ जोड़ने की कोशिश की थी, मगर जनता दल यूनाइटेड (जदयू) को लेकर उनकी वफ़ादारी के आगे पार्टी उन्हें मनाने में सफल नहीं हो पा रही थी। उनके पुराने कार्यकर्ताओं और संबंधियों के नेटवर्क का इस्तेमाल करके दबाव बनाया गया था। आख़िरकार, कई कोशिशों के बाद द्विवेदी ने अपने परिवार का तीस साल पुराना संबंध जेडीयू से तोड़ कर इस्तीफा दे दिया और जन सुराज का दामन थाम लिया।


Prashant Kishor welcoming Meena Dwivedi into Jan Suraj, September 2025
मीना द्विवेदी को पीला गमछा पहनाकर पटना में अपनी पार्टी की सदस्यता दिलवाते प्रशांत किशोर, सितम्बर 2025

जनसुराज के संभावित प्रत्याशियों में उनके शामिल होते ही क्षेत्र में सरगर्मी तेज हो गई। क्षेत्र में घूमते हुए उन्हें लोगों की अच्छी प्रतिक्रिया मिली। जैसे ही इस सीट पर एनडीए के राजू तिवारी और महागठबंधन के गप्पू राय को उतारा गया, मतदाताओं के मन में स्पष्ट हो गया कि जन सुराज ने दोनों की सही काट खोज निकाली है। मगर काश, कि जनभावना के अनुसार पार्टियां फैसले करतीं! समय बीतता गया, जन सुराज ने दो सूचियां जारी कर दीं मगर गोविंदगंज को लेकर कोई घोषणा नहीं की। यहां पहले से घोषित दोनों प्रमुख गठबंधनों के उम्मीदवारों ने अपना-अपना नामांकन भी भर दिया। दोनों के कार्यकर्ताओं ने अपनी अपनी साइड पकड़ी और बीच के लोग, जो जनसुराज के कार्यकर्ता हो सकते थे, पार्टी की ओर से अनिर्णय और देरी से तंग आकर दोनों खेमों में अपनी-अपनी जगह बनाने लगे।

प्रचार रफ्तार पकड़ चुका था। लोग पूछ रहे थे- जन सुराज का प्रत्याशी कौन है? यदि मीना द्विवेदी का नाम स्पष्ट है तो ऐलान क्यों नहीं हो रहा? पार्टी सूत्रों से संपर्क करने पर मालूम हुआ कि गोविंदगंज सीट फंस गई है। क्यों? नाम जाहिर न करने की शर्त पर बताया गया कि मांझी सीट से चुनाव लड़ रहे पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने अपने सजातीय को टिकट देने के लिए पार्टी में वीटो कर दिया है। बहरहाल, 18 अक्‍टूबर की सुबह मीना द्विवेदी को फोन आता है कि परचा दाखिल करने संबंधी औपचारिकता पूरी कर के पटना आइए। बाकी प्रत्याशियों को भी बुलाया गया।

पार्टी के अंदरूनी सूत्रों के मुताबिक योजना यह थी कि सबको साथ बैठा कर मीना द्विवेदी की वरिष्ठता और शानदार चुनावी रिकॉर्ड को देखते हुए उन्हें टिकट देने का ऐलान किया जाना था और बाकी को उनका सहयोग करने को कहा जाना था। उनके अलावा किसी दूसरे दावेदार ने कभी विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ा था जबकि मीना कई बार जीती थीं और मौजूदा दोनों गठबंधनों से लड़ रहे उम्मीदवारों को बारी-बारी से हरा भी चुकी थीं। इसलिए सब कुछ साफ लग रहा था।

इससे पहले कि मीना द्विवेदी समेत सभी नेता पटना पहुंचते, रास्ते में ही गोविंदगंज सीट से कमलेश कांत गिरि को उदय सिंह द्वारा जन सुराज का टिकट दिए जाने की तस्‍वीर सामने आ गई। बाजार पहुंचने से पहले ही लूट हो चुकी थी! सभी लोग पटना पहुंचे और आनन-फानन में हुए इस फैसले की प्रशांत किशोर के सामने कड़ी आलोचना की। प्रशांत काफी असहज नजर आ रहे थे। गिरि किसी को स्वीकार नहीं थे। उनका विरोध होने लगा। एक तो वे बाहरी थे, दूसरे जातिगत समीकरणों में फिट नहीं हो रहे थे। ब्राह्मण–भूमिहार बहुल इस सीट पर गिरि उम्मीदवार देने पर यहां के प्रभावी समुदाय बुरी तरह से चिढ़ गए। इस बात से प्रशांत किशोर भी वाकिफ थे।

पटना से लौटने पर मीना द्विवेदी के पास पटना के पार्टी दफ्तर से फोन आया कि गिरि को सिंबल लौटाने को कहा गया है, प्रत्याशी मीना को ही बनाया जाएगा। अबकी मीना द्विवेदी ने कड़े शब्दों में पार्टी को मना कर दिया। बाद में डैमेज कंट्रोल की कोशिश के तहत पार्टी ने क्षेत्र से जिला पार्षद रहे ब्राह्मण समाज के कृष्णकांत मिश्र को पार्टी का सिंबल दे दिया। गोविंदगंज की सीट पर अब जन सुराज के दो उम्मीदवार थे।

दीपावली के दिन जब नामांकन की आखिरी तारीख थी, दोनों ने नामांकन भर दिया। बाद में मालूम चला कि कमलेश कांत गिरि को लिफाफे में जो सिंबल दिया गया था वह खाली था- मतलब सिंबल था मगर सिंबल पर गिरि का नाम और क्षेत्र का नाम नहीं था। ऐसे में उन्होंने कलम से खाली स्थानों को खुद भर दिया। अब दोनों उम्मीदवारों की वैधता का फैसला रिटर्निंग ऑफिसर के हाथों में था।


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तभी एक नाटकीय घटनाक्रम में मनोज भारती के नाम की एक चिट्ठी वायरल हुई, जो उन्होंने रिटर्निंग ऑफिसर को लिखी थी। उसमें पार्टी की ओर से साफ किया गया था कि कृष्णकांत मिश्र नहीं, बल्कि कमलेश कांत गिरि ही पार्टी के प्रत्याशी हैं। छंटनी में कृष्णकांत मिश्र के पास सही सिंबल होने के चलते पार्टी का चुनाव चिह्न दिया गया जबकि कमलेश कांत गिरि को निर्दलीय माना गया। इस किरकिरी के बाद मीना द्विवेदी ने चुनाव ही नहीं लड़ा, कमलेश कांत गिरि ने अपना नामांकन वापस ले लिया और इस घटनाक्रम से यह भी तय हो गया कि अब कृष्णकांत मिश्र को किसी से कोई सहयोग नहीं मिलेगा।

जो चुनाव त्रिकोणीय होना था और जिसमें जन सुराज के जीतने की संभावना थी वह दुतरफा हो गया। जन सुराज के कृष्णकांत मिश्र घूमते रह गए, मगर कुछ न हुआ। उन्हें दस हजार से भी कम वोट आए और जमानत जब्त हो गई। कांग्रेस हार गई और राजू तिवारी जीत गए। जो नहीं होना था, वह हो गया।

सवाल उठता है कि वे कौन लोग थे जिन्होंने प्रशांत किशोर के फैसले को बदलवा दिया? पार्टी अपने पहले चुनाव में ही किसी को टिकट देने के लिए किसी की ब्लैकमेलिंग से क्यों हार गई? किन परिस्थितियों में आम राय बनाने से पहले ही किसी एक को सिंबल दे दिया गया? जब सिंबल दे दिया गया, तब वह खाली क्यों था? फिर दूसरे प्रत्याशी को दूसरा सिंबल देने वाले लोग कौन थे? और अंत में- जब दूसरे प्रत्याशी को सही सिंबल मिल गया तब पहले के पक्ष में पत्र लिखवाने वाले लोग कौन थे?

सबसे बड़ा सवाल यह है कि अपनी चुनावी रणनीति से सबको घेरने वाले प्रशांत किशोर खुद अपनी पार्टी में कैसे घिर गए? अब चुनाव बीत चुके हैं तो इन सवालों पर शायद आत्ममंथन और बातचीत होगी ही, लेकिन बीते वर्षों में तमाम लोगों को लोकप्रिय नेता बना चुके एक चुनावी रणनीतिकार की यह निजी चुनावी विफलता आने वाले चुनावों और चुनाव लड़ने के आकांक्षियों के लिए एक सबक जरूर हो सकती है। इस सबक की जड़ें बिहार के इतिहास में बहुत पीछे तक जाती हैं।



प्रशांत किशोर बिहार के होते हुए भी मगध साम्राज्य का वह प्रसंग भूल गए जब महापद्मनंद की सत्ता को उखाड़ने के लिए पहले उसी सत्ता से कुछ लोगों को तोड़कर चाणक्य अपने साथ ले आए थे। मंत्री शकटार और राक्षस इसके उदाहरण हैं। उन्होंने नंद का साथ छोड़कर चंद्रगुप्त के लिए चाणक्य का साथ दिया। राजनीति का यह सामान्य नियम है कि किसी की सत्ता तभी गिरती है जब उसमें बैठे कुछ लोग उसको गिराने वालों के साथ हो जाएं।

इस बात की अनगिनत नज़ीरें हैं- ए.ओ. ह्यूम, एनी बेसेंट, मैडलिन स्लेड, सी.एफ. एंड्रयूज़ और कैथरीन मैरी हिलमैन- जिन्होंने अंग्रेज होते हुए भी भारत के लोगों की स्वाधीनता का समर्थन किया, जिसके बाद ब्रिटिश सत्ता का भारत पर आधिपत्य बनाए रखना और अधिक वैध नहीं रह सका। स्‍वतंत्र भारत में इमरजेंसी के बाद इंदिरा गांधी से असहमत लोगों को जनता पार्टी ने अपने साथ जोड़ा और चुनावी जीत हासिल की। हाल-हाल तक देखें, तो पूर्वोत्तर में कांग्रेस को मात देने के लिए भाजपा ने हिमंता बिस्‍वा सरमा जैसे पुराने कांग्रेसियों को अपनी ओर किया। ममता बनर्जी के विरुद्ध भाजपा तभी मजबूत होकर खड़ी है जब शुभेंदु अधिकारी जैसे उनके पुराने विश्वस्त पाला बदल चुके हैं।

ऐसे ढेरों समकालीन उदाहरण हैं। कश्‍मीर से लेकर कर्नाटक तक राष्‍ट्रीय स्‍वयंसेवक संघ और भाजपा का सियासी इतिहास अपने विरोधी को पहले सटाकर बाद में निपटाने का रहा है। खुद प्रशांत ने ऐसे कई दांव में अपने सियासी ग्राहकों का साथ दिया है जब तक वे कंपनी चलाते थे। मगर एक चुनावी पार्टी बनाकर बिहार की सत्ता और व्यवस्था को बदलने चले प्रशांत किशोर ने इस अहम सियासी नज़ीर पर ध्‍यान नहीं दिया। नतीजा- राजनीति की बस उनकी सवारियों को बैठाए बगैर पटना से छूट गई।



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