जिस देश में तकरीबन हर नया सामाजिक-राजनीतिक उद्यम महात्मा गांधी के चेहरे और नाम के सहारे शुरू करने की परंपरा-सी बन चुकी हो, वहां प्रशांत किशोर अपवाद कैसे रह सकते थे। लिहाजा, किन्हीं कारणों से पटना का गांधी मैदान उन्हें नहीं मिला तो क्या हुआ, दो अक्टूबर की तारीख ही उनके लिए काफी थी। पटना भर में लगे पीले बिलबोर्डों और होर्डिंगों में गांधी का चेहरा तो श्रीगणेश के लिए था ही। तो, बारह साल पहले जिस दिन अरविंद केजरीवाल ने अपनी पार्टी लॉन्च की थी, उसी गांधी जयन्ती पर प्रशांत ने भी अपने राजनीतिक दल की औपचारिक घोषणा कर डाली।
औपचारिक इसलिए, क्योंकि पार्टी का ‘डोमेन नेम’ तो पहले ही तय किया जा चुका था। दो अक्टूबर को तो बस जनता के सामने हुंकारी भरवाते हुए ‘होस्टिंग’ लेने का कर्मकांड संपन्न किया गया। ठीक वैसे ही, जैसे केजरीवाल ने पार्टी बनाने का फैसला पहले ही कर लिया था, लेकिन अन्ना हजारे का मन रखने के लिए जबरन एक फोन सर्वे करवाया, असहमतों का नाम सूची में से कटवाया और साठ सहमतों का सम्मेलन बुलवाया था।
कहते हैं कि बारह साल में काल का पहिया एक चक्कर पूरा घूम जाता है। गांधी की छवि ओढ़े अन्ना के नाम से चर्चित हुए भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन के साथ 2011 में शुरू हुई केजरीवाल की राजनीति को आज महात्मा गांधी का चेहरा तक गवारा नहीं। दिल्ली में चल रही खड़ाऊं सरकार की तस्वीर जब पिछले दिनों खड़ाऊं मुख्यमंत्री आतिशी सिंह ने खुद जारी की, तो पीछे की दीवार से गांधी गायब दिखे। प्रशांत किशोर ने भी पार्टी बनाने से पहले बिहार में पदयात्रा की, पिछले दो वर्षों तक बिहार के गांव-गांव और कस्बों में जनसंवाद किया तथा गांधी-टैगोर के विचारों का खूब हवाला दिया। शराबबंदी खत्म करने वाली उनकी राजनीति हालांकि गांधी के आदर्शों से स्पष्ट उलट दिखती है, जिसके चलते बिहार के कुछ नेताओं ने उन्हें आड़े हाथों लिया है।
प्रशांत किशोर शराब की बिक्री से आने वाले राजस्व से बिहार की शिक्षा व्यवस्था सुधारने की बात कर रहे हैं। आम आदमी पार्टी के राज में सरकारी शिक्षा व्यवस्था तो दिल्ली में भी सुधरी है, लेकिन शराब की बिक्री केजरीवाल की सरकार को ठीकठाक महंगी पड़ गई। हो सकता है कि प्रशांत के पास ऐसे हादसों की कोई काट पहले से हो। आखिर, वे सक्रिय राजनीति में बाहर से आने वाले टेक्नोक्रेटों की बिरादरी में केजरीवाल की अगली पीढ़ी के नुमाइंदे हैं और खुद केजरीवाल सहित हर रंग की सियासत को अपनी पेशेवर सेवाएं दे चुके हैं।
जन सुराज का पहला काज
यह ठीक ही हुआ कि प्रशांत किशोर को पार्टी लॉन्च करने के लिए पटना का गांधी मैदान नहीं मिला और वेटनरी कॉलेज के मैदान में उन्हें आयोजन करना पड़ा। तमाम दावों के बावजूद वेटनरी कॉलेज का मैदान खचाखच नहीं भर सका था। प्रशांत के भाषण और कार्यकारी अध्यक्ष की घोषणा के वक्त ग्राउंड में कुर्सियां खाली पड़ी थीं। ऐसे में गांधी मैदान की कल्पना कर पाना आसान है।
वेटनरी कॉलेज के मैदान में घुसते ही दोनों ओर लगे बड़े-बड़े स्विस टेंट देखने में काफी आकर्षक लग रहे थे, लेकिन यह भीड़ को अधिक से अधिक दिखाने की रणनीति मालूम पड़ रही थी। रणनीति बनाना तो वैसे भी प्रशांत का पेशा रहा है। दुनिया उनको ‘चुनावी रणनीतिकार’ के तौर पर ही जानती है, जिन्होंने कभी नरेन्द्र मोदी को सत्ता के शीर्ष तक पहुंचाने में भूमिका अदा की तो कभी नीतीश कुमार के साथ जाकर मोदी को ही पटकनिया दे दी; कभी वे राहुल गांधी और अखिलेश यादव के लिए रणनीति बनाने लगे, तो कभी केजरीवाल और ममता बनर्जी को फिर से सत्ता में लाने में सेवा दी और दक्षिण में जाकर जगनमोहन रेड्डी के चुनावी कैंपेन को भी मैनेज किया।
बहरहाल, वो साल दूसरा था ये साल दूसरा है। अब प्रशांत ने अपनी भूमिका में बदलाव किया है। अब वे नेता बनने की राह पर हैं। अब वे दूसरों के लिए मंच, माला, माइक, टेंट, भीड़ और वोट का इंतजाम करने-करवाने के बजाय यह सब खुद के लिए ही करेंगे। इस काम के लिए उन्होंने “जन सुराज” नाम की पार्टी बनाई है, जिसकी घोषणा के लिए दो अक्टूगर को सजाए गए विशाल मंच तक पहुंचने की कोशिश में कई बार जनसुराज के तनखैया वॉलंटियरों से टकराना पड़ा। काले-काले कपड़े पहने जनसुराज के ये वॉलंटियर किसी राजनीतिक पार्टी के कार्यकर्ता के बजाय बाउंसर ज्यादा लग रहे थे।
मुख्य मंच के अगल-बगल दो और मंच लगाए गए थे। बताया गया कि अग़ल-बगल वाले मंच पर करीब तीन से चार हजार लोगों के बैठने के लिए कुर्सियां लगाई गई हैं. हालांकि अग़ल-बगल से लेकर मुख्य मंच तक दिखने वाले चेहरों में टिकटार्थियों की भीड़ और होड़ ज्यादा दिख रही थी। प्रायः इस तरह की पार्टियों के शुरुआती दिनों में ऐसी भीड़ आम होती है। इस भीड़ में लाए गए कई लोगों, खासकर औरतों को, यह पता तक नहीं था कि वे किसका भाषण देखने-सुनने आई हैं (या लाई गई हैं)।
पार्टी के एजेंडे से लेकर उसके पहले कार्यकारी अध्यक्ष का नाम घोषित करते हुए प्रशांत का विशेष जोर इस बात पर रहा कि ‘जनसुराज’ ने प्रशांत किशोर से भी काबिल व्यक्ति को अपना कार्यकारी अध्यक्ष चुना है, जो कि ‘दलित’ भी हैं। ‘दलित’ पर उनका अपेक्षाकृत ज्यादा जोर बहुतों को उस दिन खटका। इसके अलावा, उन्होंने एक और खटकने वाला शब्द कहा था।
नेतरहाट और आइआइटी से पढ़ाई करने के बाद भारतीय विदेश सेवा की मार्फत चार देशों में भारत के राजदूत रह चुके मनोज भारती को सबसे रूबरू कराते हुए प्रशांत ने पहले तो कहा कि वे ‘काबिल होने के बावजूद दलित भी हैं’; फिर एक बात और कही कि यह (मनोज भारती) उनके पहले ‘नमूने’ हैं। जैसे कोई व्यापारी अपने उत्पाद की ब्रांडिंग करता है, ठीक उस शब्दावली में उन्होंने एक राजनीतिक पार्टी के अध्यक्ष का परिचय करवाया। लोगों ने वाजिब सवाल उठाया- यह व्यक्ति ‘नमूना’ क्यों है और ‘साथी या सहयोगी’ कब तक बन पाएगा?
क्या यह सवाल महज भाषा के लापरवाह बरताव का था? क्या यह प्रशांत के पेशेवर अतीत से उपजा संकट है? या इसका कोई वैचारिक संबंध भी है उनकी राजनीति या व्यक्तित्व के साथ? प्रशांत की भाषा और शब्दों के चयन पर वरिष्ठ पत्रकार पुष्य मित्र कहते हैं, “प्रशांत की भाषा में हाल के दिनों में लगातार गिरावट आई है। उसमें अहंकार बहुत ज्यादा दिखता है, जैसे उनको लगता हो कि वे कुछ भी कर सकते हैं। जैसे, वे बार-बार कहते हैं कि वे पीएम और सीएम बनाते हैं, किसी को भी कहीं से कहीं ले जा सकते हैं। इस बीच अपने संबोधन में वे तू-तड़ाक भी काफी कर रहे हैं, यहां तक कि लालू और नीतीश के लिए भी, जबकि प्रशांत किशोर ही इकलौते शख्स हैं जिन्हें नीतीश कुमार ने सीएम हाउस के भीतर रखा।‘’
भाषा को एकबारगी किनारे भी रख दें, तो कुछ लोग इसे पहचान की राजनीति और हालिया राजनीतिक दौर की जरूरत से जोड़ कर देख रहे हैं। कुछ जानकार लोगों ने प्रशांत किशोर की वैचारिकी पर भी गंभीर सवाल उठाए हैं, जो इस मामले में उन्हें अरविंद केजरीवाल के बराबर लाकर खड़ा कर देती है, लेकिन आरंभिक विश्वसनीयता का सवाल उन्हें अरविंद से भी कमजोर बनाता है।
संयोग या संघ का प्रयोग?
प्रशांत और अरविंद की राजनीति की तुलना करते हुए टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज के पूर्व चेयरपर्सन प्रोफेसर पुष्पेन्द्र कुमार कहते हैं, ‘’अरविंद केजरीवाल नौकरशाही छोड़ते हुए एनजीओ सेक्टर में दाखिल हुए, उसके बाद वे राइट टु इन्फ़ॉर्मेशन कैंपेन का हिस्सा रहे और बाद के दिनों में भ्रष्टाचार-विरोधी मुहिम का हिस्सा होते हुए राजनीति में दाखिल हुए। मतलब, कि अरविंद की एक तरह की क्रेडिबिलिटी, इतिहास या फिर कहें कि क्लीन स्लेट रही। प्रशांत किशोर के पास यह क्रेडिबिलिटी नहीं है। उन्होंने हर तरह की आइडियोलॉजी की पार्टियों से पैसे लेकर उनके लिए कन्सल्टेंसी और कैंपेनिंग का काम किया।‘’
पुष्पेन्द्र कुमार मानते हैं कि प्रशांत किशोर का राजनीति में प्रवेश नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय पटल पर लॉन्चिंग के साथ हुआ था, भले ही लोगों को आज ऐसा दिख रहा हो जब उन्होंने अपनी राजनीतिक पार्टी लॉन्च की है। अगर यह बात सच है, तो दिलचस्प संयोग भी है। याद करें, मोदी की लॉन्चिंग राष्ट्रीय स्तर पर 2013 में हुई थी जब उन्हें भाजपा की राष्ट्रीय कार्यकारिणी में प्रधानमंत्री पद का प्रत्याशी बनाया गया था, लेकिन प्रशांत किशोर दो साल पहले ही मोदी के लिए काम करना शुरू कर चुके थे जब तीसरे कार्यकाल में मुख्यमंत्री बनने के लिए मोदी ने उनकी पेशेवर सेवाएं ली थीं। तब हालांकि प्रशांत को लोग जानते नहीं थे। उन्हें पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर लोगों ने तब जाना जब सिटिजंस फॉर अकाउंटेबल कैम्पेन (कैग) नाम का एक चुनाव-प्रचार समूह बनाकर उन्होंने मोदी को प्रधानमंत्री बनाने का पेशेवर अभियान भाजपा के लिए मैनेज किया।
अब यहां से ठीक बारह साल पीछे चलते हैं जब नरेंद्र मोदी पहली बार अक्टूबर 2001 में गुजरात के मुख्यमंत्री बने थे। यह मोदी का पहला सार्वजनिक और निर्वाचित पद था। उस समय केजरीवाल क्या कर रहे थे? वे नवंबर, 2000 में ही सरकारी सेवा से दो साल का अध्ययन अवकाश लेकर देश से बाहर चले गए थे। उसी दौरान उन्होंने ‘परिवर्तन’ नाम का संगठन बनाया और सूचना के अधिकार पर काम शुरू किया। जब गुजरात में फरवरी 2002 के अंत में दंगा हुआ, उस वक्त अरविंद देश से बाहर थे और उनकी अपंजीकृत ‘परिवर्तन’ संस्था भारतीय जनसंचार संस्थान, दिल्ली से पांच-पांच हजार रुपये में कार्यकर्ताओं की कैंपस भर्ती कर रही थी। यानी, नरेंद्र मोदी को जब वास्तव में पहली बार 2002 के दंगे के चलते राष्ट्रीय स्तर पर लोगों ने पहचाना, उस समय केजरीवाल विदेशी धरती से अपनी लॉन्चिंग में लगे हुए थे। इस तरह, नरेंद्र मोदी की पहली (2002) और दूसरी (2014) लॉन्चिंग से दो बाइ-प्रोडक्ट निकले- केजरीवाल और किशोर। क्या यह महज संयोग है? इसका राजनीतिक मतलब क्या है?
पुष्पेन्द्र इसे समझाते हैं, ‘’प्रशांत किशोर के नाम के किसी भी डिस्कोर्स में आने की शुरुआत नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय राजनीति में एंट्री के साथ-साथ होती है- मतलब, कि प्रशांत किशोर भाजपा और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के हिन्दुत्ववादी एजेंडे को सफल बनाने की कोशिशों के साथ आ रहे हैं, जैसा आरोप सेकुलर और लिबरल तबके के लोग उन पर लगाते हैं। वे एक ऐसे व्यक्ति की इमेज और इलेक्शन मैनजमेंट का हिस्सा रहे जिसके दामन पर 2002 में हुए गुजरात दंगे के निशान चस्पां हैं।‘’
शायद इसीलिए प्रशांत किशोर अपनी राजनीतिक धारा के सवाल पर खुद कोई स्पष्ट राय रखने से अब तक बचते रहे हैं। गांधी जयंती पर अपने राजनीतिक दल की घोषणा के दौरान उन्होंने इसके विचार को मानवतावादी बताया था। इस मानवतावाद की कलई प्रशांत की घोषणाओं पर दूसरों की प्रतिक्रिया से बेहतर खुलती दिखाई देती है। शराबबंदी को एक झटके में हटा देने वाले उनके बयान पर जहां बिहार के स्थापित दलों के नेतागण उन्हें घेरने की कोशिश में लगे हैं, वहीं आरएसएस के मुखपत्र पांचजन्य के सोशल मीडिया अकाउंट ‘एक्स’ से उनका बयान बिना किसी टिप्पणी के एक सामान्य समाचार की तरह ट्वीट हुआ।
क्या यह भी संयोग माना जाए? अन्ना आंदोलन के दौरान सात दिन तक प्रबंधन का पूरा काम आरएसएस और दिल्ली के व्यापारी वर्ग ने किया था, यह बात अब छुपी हुई नहीं है। इस बारे में तो बहुत से लोगों के पास अब भी संघ की जारी की हुई चिटि्ठयां मिल जाती हैं जिसमें उसने अपने स्वयंसेवकों को अन्ना आंदोलन में इतजाम आदि करने को कहा था। जिस दिन अन्ना हजारे गिरफ्तार हुए, उस दिन दिल्ली की तिहाड़ जेल के बाहर कुछ टेम्पो आंदोलनकारियों को पानी की बोतलें मुफ्त में बांट रहे थे। यह टेम्पो एक स्थानीय भाजपा विधायक के यहां से आया था। इतना ही नहीं, कपिल सिब्बल के चुनाव क्षेत्र में आम आदमी पार्टी के जो लड़के घर-घर घूम कर रायशुमारी करवा रहे थे, उन्हें हरिद्वार से गायत्री परिवार वाले प्रणव पंड्या ने भेजा था।
बिहार में आज तक भाजपा की सरकार अकेले न बन पाने के पीछे कई कारण काम करते रहे हैं, लेकिन इस दिशा में प्रयोग भी पिछले वर्षों में खूब हुए हैं। प्रदेश की राजनीति में बीते विधानसभा चुनाव से ठीक पहले ‘प्लूरल्स’ नाम की एक पार्टी आई थी। पार्टी के चेहरे के तौर पर उसकी नेता पुष्पम प्रिया चौधरी ने तमाम असेंबली सीटों पर उम्मीदवार भी खोज लिए थे। चुनाव लड़ने के बाद हालांकि खुद उनकी जमानत जब्त हो गई थी। गांधी जयंती के दिन प्रशांत किशोर की रैली पर बिना नाम लिए चौधरी ने तंज कसते हुए एक ट्वीट किया था।
उससे पहले आम आदमी पार्टी के प्रयोग का सिरा बिहार में भी पहुंचा था। दिल्ली में पहली बार सरकार बनाने के बाद आम आदमी पार्टी ने 2014 में पूरे देश में चुनाव लड़ना तय किया था। उस समय बिहार में भी कई उम्मीदवार पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े थे। उनमें से कुछ कालकवलित हो गए, जैसे बिहार सरकार में पूर्व मंत्री रहीं परवीन अमानुल्ला और औरंगाबाद लोकसभा से चुनाव लड़ने वाले दूसरे प्रत्याशी, तो कई लोग संगठन से बाद तक जुड़े भी रहे। यह बात अलग है कि आम आदमी पार्टी दिल्ली और पंजाब के झंझटों से कभी इतना मुक्त ही नहीं हो पाई कि बिहार में संगठन बना के विधानसभा चुनाव लड़ पाती।
इसी संदर्भ में सूबे में आम आदमी पार्टी के प्रवक्ता बबलू प्रकाश और मीडिया प्रभारी राजेश सिन्हा से हमने प्रशांत किशोर और उनकी राजनीति पर सवाल पूछा। उनका कहना था, ‘’अभी तो देखना होगा कि वे क्या कर पाएंगे। जब हम पहली बार रोड पर खड़े होते थे तो देखने वालों की भीड़ लग जाती थी। हर सीट पर पार्टी से लड़ने वाले ढेरों उम्मीदवार थे। आज भी जब हम सड़क पर (टोपी पहनकर) उतरते हैं, तो चारों तरफ से प्रशंसक घेर लेते हैं। कहते हैं कि हमें यहां की राजनीति में दखल देना चाहिए। प्रशांत के लिए शायद सब कुछ ऐसा न हो। उन्हें दिखाना होगा कि वे किस मॉडल पर राजनीति करना चाहते हैं। जैसे हमने दिखाया कि राजनीति का मॉडल कैसा होगा, बच्चों की पढ़ाई-लिखाई कैसे होगी। हम वेलफेयर स्टेट चलाना चाहते हैं।‘’
उन्हें दिखाना होगा कि वे किस मॉडल पर राजनीति करना चाहते हैं। जैसे हमने दिखाया कि राजनीति का मॉडल कैसा होगा…
- बबलू प्रकाश (बाएं), प्रवक्ता, और राजेश सिन्हा, मीडिया प्रभारी, ‘आप’ (बिहार)
दिलचस्प है कि दिल्ली और पंजाब के ‘वेलफेयर स्टेट’ का हरियाणा में प्रचार करते हुए मनीष सिसोदिया का एक भाषण आम आदमी पार्टी, बिहार के अकाउंट से दो अक्टूबर को ही ट्वीट हुआ, जिसमें अरविंद केजरीवाल को ‘’आधुनिक गांधी’’ लिखा गया था।
तीसरे विकल्प का सवाल
चौतरफा गांधी के नाम, तस्वीर और विरासत की दुहाई देने वाले प्रशांत किशोर का राजनीतिक मॉडल आखिर क्या है? उनकी विचारधारा क्या है? इस सवाल के विस्तार में जाने के लिए फॉलो-अप स्टोरीज ने बिहार के कुछ चर्चित और प्रखर बुद्धिजीवियों से बात की।
हमने लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार दोनों के साथ काम कर चुके राजनीतिक विश्लेषक और लेखक प्रेम कुमार मणि से इस बारे में बातचीत की, जो तीसरी राजनीतिक ताकत के उभार को बिहार के लिए जरूरी मानते हैं। मणि कहते हैं, ‘’लालू और नीतीश कुमार की पार्टियां थकान बिंदु पर पहुंच चुकी हैं। वहां सुप्रीमो कल्चर हावी हो गया है। एक दौर में भले ही इनकी शुरुआत सोशलिस्ट कल्चर से हुई हो लेकिन धीरे-धीरे यहां जातिवाद ही हावी होता चला गया। ऐसे में एक नए दल की बिहार को जरूरत थी। चूंकि जो आम तौर पर युवा होता है वह जातिनिरपेक्ष होता है, नौकरी और रोजगार का सवाल उसके लिए जाति और पहचान से कहीं बड़ा सवाल होता है, तो प्रशांत किशोर एक नए नेता और दल के रूप में सामने आ रहे हैं। वे रोजी और रोजगार के साथ ही पलायन पर बात कर रहे हैं। लोगों को यह बात अच्छी ही लगेगी। मैं उनकी बातों को बिना किसी पूर्वाग्रह के देखना चाहता हूं।‘’
कुछ और लोग भी प्रशांत किशोर को तीसरे विकल्प के रूप में देख रहे हैं। पूर्व पत्रकार और जनसंपर्क अधिकारी के तौर पर पटना में कार्यरत रविशंकर उपाध्याय सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म फेसबुक पर लिखते हैं- ‘’प्रशांत किशोर की असल परीक्षा अब शुरू हो रही है, लेकिन बिहार की ठहरी हुई राजनीति में उन्होंने एक हलचल तो ला ही दी है। आख़िर जनता के सामने विकल्पों की उपलब्धता होने से राजनीति थोड़ी और जिम्मेदार तो होती ही है।‘’
विकल्प वाली बात को पटना यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर अखिलेश कुमार भी मानते हैं, जो बीते लोकसभा चुनाव में अररिया लोकसभा चुनाव से निर्दलीय प्रत्याशी रह चुके हैं। राजनीति को सिर्फ सैद्धांतिक तौर पर देखने के बजाय वे व्यावहारिक स्तर पर भी देख-समझ रहे हैं। इसलिए प्रशांत की राजनीति को लेकर उनकी कुछ चिंताएं भी हैं। वे कहते हैं, ‘’मेरी कुछ चिंताएं हैं। प्रशांत किशोर की टीम से संपर्क करने वाले लोगों से भी वो बातें मैंने कही हैं। जैसे, मैंने कहा कि बिहार की राजनीति में एक तरह का वैक्यूम तो है, तो पहले उसको पाटना चाहिए। लोकशाही पर राजशाही हावी हो रही है क्योंकि इसमें धनबल की आमद बढ़ी है। पहले ऐसा देखने में आता था कि कई लोग सरकार से बाहर रहने के बावजूद नीति-निर्माण में हस्तक्षेप कर सकते थे, लेकिन हालिया दिनों में ऐसा कम से कमतर हुआ है।‘’
राजद अब बढ़ती नहीं दिख रही, तो वहीं नीतीश के बाद उनकी पार्टी में कोई क्लियर लीडरशिप ट्रांसफ़र नहीं दिख रहा। इसका फायदा प्रशांत को मिल सकता है।
- प्रेम कुमार मणि, राजनीतिक विश्लेषक
अगर प्रशांत किशोर वाकई नया विकल्प लेकर आ रहे हैं, तो लोग उनसे किस आधार पर जुड़ेंगे? रोजी-रोजगार का सवाल तो तेजस्वी यादव ने भी पहले उठाया ही था? प्रेम कुमार मणि इस संदर्भ में कहते हैं, ‘’तेजस्वी ने भी मंडल की पॉलिटिक्स को किनारे रखते हुए नौकरी और रोजगार को अपना प्लैंक बनाया। इसका उन्हें फ़ायदा भी मिला। पिछले विधानसभा चुनाव (2020) में तेजस्वी को उनके आधार वोट बैंक के इतर भी युवाओं ने वोट किया, लेकिन सरकार में शामिल होते ही लालू प्रसाद हावी हो गए। कैबिनेट के गठन में कोई नयापन नहीं दिखा, जैसे ललित यादव या सुरेंद्र यादव आख़िर कौन सा नयापन ले के आए? तेजस्वी जहां पिछले चुनाव में लालू प्रसाद की राजनीति से जरा अलग भी हुए थे कि लालू प्रसाद ने फिर से उन्हें पीछे धकेल दिया। पीछे देखने पर पाएंगे कि राजद के साथ अतिपिछड़ा या दलित वर्ग का जुड़ाव था, लेकिन धीरे-धीरे वे अलग होते गए। इसका असर हाल के चुनाव में भी दिखा। राजद अब बढ़ती नहीं दिख रही, तो वहीं नीतीश के बाद उनकी पार्टी में कोई क्लियर लीडरशिप ट्रांसफ़र नहीं दिख रहा। इसका फायदा प्रशांत को मिल सकता है।’
राजद और जदयू के बरअक्स चुनावी फायदे को पुष्य मित्र भी गिनवाते हैं, ‘’अभी तो चुनाव में वक्त है, लेकिन प्रशांत की सक्रियता का सीधा फायदा बिहार के मुसलमानों को मिल रहा है। जो दल (राजद) उन्हें लगभग अपना बंधुआ मान चुका था उसने भी उनको उचित जगह और सम्मान देना शुरू कर दिया है। मुसलमानों की बार्गेनिंग पॉवर बढ़ी है।‘’
तो क्या राजनीतिक विकल्प का मामला राजद और जदयू से छिटके वोटबैंक को बस अपने पाले में कर लेने का मसला है, किसी राजनीतिक विचारधारा या मॉडल का नहीं? पुष्पेन्द्र कुमार इस बारे में बहुत साफ समझ रखते हैं, ‘’उनके लिए राजनीति विचार के बजाय प्रबंधन का मामला अधिक है। वे देश के अलग-अलग हिस्सों में विभिन्न विचारों पर चलने वाली पार्टियों की सरकारों को बनाने और बिगाड़ने में भूमिका अदा करते रहे- मतलब, कि वे वैचारिक धरातल पर एक-दूसरे के खिलाफ रहने वाली पार्टियों के लिए समान रूप से पैसा लेकर काम करते रहे हैं। प्रशांत जनमत को बनाने और बिगाड़ने के लिए टेक्नोलॉजी और सूचना टूल्स का इस्तेमाल करने में माहिर हैं।‘’
अखिलेश कुमार ‘प्रबंधन’ वाली बात को थोड़ा खोलकर समझाते हैं, ‘’हम शुरू से ही देखते रहे हैं कि अलग-अलग धाराओं की पार्टियों के काडर हुआ करते थ। वे अपने तरीके से प्रचार-प्रसार किया करते थे, लेकिन इनके साथ हजारों की संख्या में लोग तनख्वाह पर काम कर रहे हैं। मतलब कि पार्टी की स्थापना से पहले से लोग पैसा लेकर इनके लिए काम कर रहे हैं। यदि यह मॉडल सक्सेसफुल रहा तो कॉर्पोरेट के लिए यह एक मॉडल हो जाएगा क्योंकि उसके पास तो अथाह पैसा है। पार्टियां फिर सीईओ कल्चर से चला करेंगी।‘’
प्रशांत किशोर की उम्मीदवारों के चयन पर की गई यह घोषणा अखिलेश कुमार की आशंकाओं की पुष्टि करती है। प्रशांत ने कहा है कि उनकी पार्टी में चुनाव लड़ने के लिए उम्मीदवारों का चयन अमेरिका के राष्ट्रपति चुनाव की तर्ज पर किया जाएगा। अखिलेश कहते हैं, ‘’यह तो सामान्य समझ वाली बात है कि पैसा इन्वेस्टमेंट करने वाला फिर पैसा वापसी सुनिश्चित करना चाहता है। तो फिर जनकल्याणकारी सरकारों वाला मॉडल कोई क्यों चलाएगा?’’
भारत के प्रातिनिधिक लोकतंत्र को अमेरिकी तर्ज पर प्रत्यक्ष बनाने और प्रेसिडेंशियल उम्मीदवार की तर्ज पर प्रधानमंत्री प्रत्याशी पहले से तय करने के मामले में भाजपा और नरेंद्र मोदी की लगातार आलोचना होती रही है। संवैधानिक प्रावधानों के उल्लंघन की स्थिति यहां तक पहुंच चुकी है कि 2024 का आम चुनाव जीतने के बाद भाजपा के संसदीय दल की बैठक ही नहीं हुई जिसमें संसदीय दल का अध्यक्ष चुना जाना था। ऐसे में प्रशांत किशोर का उम्मीदवार चयन में सीधे अमेरिकी मॉडल लागू करना चिंताजनक है।
चुनाव दूर हैं तो उम्मीदवारों को चुनने की प्रक्रिया भी अभी जुबानी जमाखर्च से ज्यादा नहीं है, लेकिन फिलहाल बिहार में सबसे ज्यादा चर्चा जन सुराज के कार्यकारी अध्यक्ष को लेकर है जिन्हें जोर देकर ‘दलित’ बताया गया है।
विकल्प की राजनीति
बिहार की राजनीति में जाति और पहचान कई बार जीने और मरने का सवाल बन जाती है। यहां किसी दौर में जातिगत पहचान के आधार पर सेनाएं बनीं, तो बाद के दिनों में पार्टियों के गठन को भी जातिगत पैमाने पर ही दर्ज किया गया। ऐसे में जातिगत पहचान को जोर से पकड़े रहने के खेल को प्रशांत भलीभांति समझते हैं।
आखिर यूं ही नहीं है कि प्रशांत किशोर को बिहार की मुख्य विपक्षी पार्टी राजद ‘प्रशांत किशोर पांडे’ साबित करने पर तुली हुई है। मतलब, कि मूल नाम से अधिक जोर ‘उपनाम’ पर है। वे भी भरपूर पलटवार कर रहे हैं- कभी लालू-राबड़ी राज को लेकर लालू प्रसाद पर तीखे हमले करना तो कभी तेजस्वी को नौवीं फेल कह के बार-बार उकसाने की सायास कोशिशें करना। ऐसे में यह सवाल उठ रहा है कि अपनी पार्टी के कार्यकारी अध्यक्ष की ‘दलित पहचान’ पर जोर देना कहीं उनकी सोची-समझी रणनीति तो नहीं है?
इस पर पुष्पेन्द्र कुमार कहते हैं, ‘’बिहार या फिर कहें कि हिन्दी पट्टी में जातिगत पहचान एक बड़ा मुद्दा है, जबकि दिल्ली में सक्रिय पार्टियों के लिए खुले तौर पर ऐसा बोलने की ज़रूरत नहीं होती। यहां ऐसी पार्टियां पहले से ही सक्रिय हैं जो जातियों के सवाल और अस्मिता की पॉलिटिक्स पर मुखर रही हैं।‘’
वे कहते हैं कि “दिल्ली में भले ही टिकट बंटवारे के दौरान तमाम पहचानों- चाहे जाट-गुर्जर या पूर्वांचली हो फिर दलित-मुसलमान या फिर सिख- उनका भरपूर खयाल रखा जाता है, लेकिन सार्वजनिक रूप से पब्लिक वेलफेयर को ही मुद्दा बनाया जाता है, जैसे बिजली, पानी, शिक्षा, आदि”। प्रशांत से उलट, अरविंद केजरीवाल जाति के इस खेल को बहुत महीन ढंग से खेलते रहे हैं। मसलन, दिल्ली की मुख्यमंत्री बनाई गईं आतिशी के नाम से मारलेना हटाकर सिंह या आशुतोष के नाम में गुप्ता जोड़ने का काम ऐन चुनावों से पहले किया गया था। उसी तरह, अरविंद केजरीवाल अकसर वाल्मीकि बस्ती से चुनावी अभियान शुरू करते देखे गए हैं।
बिहार की स्थिति हालांकि दूसरी है। यहां दलित पहचान के साथ पहले से ही कई दल सक्रिय हैं। जैसे, दुसाध (पासवान) पहचान के साथ चिराग पासवान और पशुपति पारस की पार्टी है, तो मुसहर-भुंइया (माँझी) पहचान के साथ पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम माँझी और उनके मंत्री बेटे संतोष सुमन की पाटी। इसके अलावा, उत्तर प्रदेश से सटे इलाके में बसपा का भी दलितों (विशेषतया चमारों) में एक तरह का असर देखा जाता है। इसलिए शायद प्रशांत किशोर को खुलकर गांधी जयंती पर अपने मंच से अपने कार्यकारी अध्यक्ष को ‘दलित’ बोलना पड़ा होगा क्योंकि उनकी दलित पहचान को उनके गांव-घर से बाहर के लोग शायद ही जानते रहे हों।
पुष्पेन्द्र आगे कहते हैं, ‘’मुझे प्रशांत की राजनीति में विरोधाभास नजर आता है। वे गांधी की तस्वीरों का इस्तेमाल करते हुए शराबबंदी को झटके से खत्म और पढ़ाई-लिखाई को बेहतर करने की बात कह रहे हैं। गांधी कहते थे कि साधन और साध्य के बीच साम्य जरूरी है। इसलिए, सिर्फ व्यवस्था परिवर्तन की बातें हों ऊपर-ऊपर और फिर वही तमाम चेहरे उनके इर्द-गिर्द दिखें जो पहले से ही किन्हीं पार्टियों में रहे हों या फिर वे नौकरशाह जो अब तक वर्तमान व्यवस्था के ही पोषक रहे हों?”
उनके लिए राजनीति विचार के बजाय प्रबंधन का मामला अधिक है… प्रशांत जनमत को बनाने और बिगाड़ने के लिए टेक्नोलॉजी और सूचना टूल्स का इस्तेमाल करने में माहिर हैं।
- प्रोफेसर पुष्पेन्द्र कुमार
शराबबंदी खत्म करने वाली बात प्रेम कुमार मणि को भी नागवार गुजरी है, ‘’राज्य में शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए शराबबंदी को झटके से खत्म कर देने वाली उनकी बात से मेरी सहमति नहीं है। यह पॉपुलिस्ट तौर-तरीका है। यह कुछ-कुछ वैसा ही है कि जैसी बातें नरेंद्र मोदी पूर्व में करते रहे हैं, कि सरकार बनते ही सबके खाते में 15-15 लाख आ जाएंगे।‘’
अखिलेश कुमार सीधे सवाल उठाते हैं कि शराबबंदी बंद करवाने के पीछे ‘’कहीं कोई बड़ी लॉबी तो सक्रिय नहीं जो उनकी पार्टी की लॉन्चिंग और सफलता के लिए काम कर रही हो’’? वे कहते हैं, ‘’प्रशांत की राजनीतिक यात्रा को देखने पर हम पाते हैं कि वे भाजपा की मदद करते रहे हैं। उनके हालिया हमले और बयानबाजी देखने पर हम पाते हैं कि वे एनडीए से मुकाबले की बात कह रहे हैं, मतलब कि राज्य की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी (राजद) को अपना प्रतिद्वंदी तक न मानना… और मीडिया उनके बयान को खासा तवज्जो भी देती है!’’
जनता का विवेक
प्रशांत किशोर के ट्विटर अकाउंट में महात्मा गांधी की तस्वीर के साथ उनका एक कथन लगा हुआ है। इस अकाउंट से जुलाई के बाद उन्होंने एक भी ट्वीट नहीं किया है। अपने परिचय में खुद को गांधी के प्रति श्रद्धा रखने वाला और जनता के विवेक पर भरोसा करने वाला उन्होंने लिखा है। वे लगातार अपने इंटरव्यू में दावा कर रहे हैं कि आगामी चुनाव में जनता अपनी पसंद से जन सुराज के उम्मीदवार को चुनेगी, पहले की तरह डर से नहीं।
पालीगंज के अरविंद शर्मा (बाएं) और खगड़िया के महंत पुलकित गोस्वामी
गांधी जयंती पर प्रशांत किशोर की सभा में आई ‘जनता’ की राय उनके बारे में मिश्रित ही सुनाई दी। पटना के बिहटा इलाके से ताल्लुक रखने वाले आलोक कुमार (55) का कहना था कि सभा में टिकटार्थियों और उनके द्वारा लाए गए लोगों की भीड़ ज्यादा थी। मुजफ्फरपुर के गायघाट की रहने वाली नीरा देवी (50) ने अपना दुख-सुख साझा करते हुए कहा, ’’वोट लेने से पहले तो सारे नेता एक ही जैसी बातें करते हैं कि ये देंगे और वो देंगे लेकिन वोट लेने के बाद वही कहानी… जनता की कहीं कोई पूछ नहीं होती।‘’
रैली में आए खगड़िया के महंत पुलकित गोस्वामी (70) का मानना है कि जनसुराज नई बात लेकर सामने आ रहा है। वे मानते हैं कि अबकी बिहार में कुछ तो नया और अच्छा होगा क्योंकि प्रशांत किशोर पढ़े-लिखे और समझदार व्यक्ति हैं। पालीगंज के रहने वाले अरविंद शर्मा (60) कैमरे पर कहते हैं कि बिहार को बदलाव की जरूरत है, जात-पात टूटेगा लेकिन कैमरा बंद होते ही कहते हैं कि बिहार के भीतर जाति ही यथार्थ है और लड़ाई अब भी भाजपा और लालटेन (राजद) के बीच ही रहने वाली हे।
सभा में ऐसे लोगों की भीड़ अधिक है जिनकी दाल किन्हीं और दलों में नहीं गल रही। दाल यहां भी नहीं गली तो फिर से वे अपनी पुरानी जगहों को लौट जाएंगे।
– बिलाल, आसिफ और सैयद, छपरा
छपरा के एकमा से प्रशांत को देखने-सुनने आए बिलाल अहमद (32), आसिफ खान (30) और सैयद अली (30) की मानें तो सभा में ऐसे लोगों की भीड़ अधिक आई या लाई गई है जिनकी दाल किन्हीं और दलों में नहीं गल रही। वे मानते हैं कि इनकी दाल यहां भी नहीं गली तो फिर से वे अपनी पुरानी जगहों को ही लौट जाएंगे।
मतलब पुनर्मूषको भव? हमारे यह पूछने पर उधर से जवाब आया, ‘’जी हां, ये बिहार है…।‘’