पांच साल पहले बिलकुल यही मौसम था जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संसदीय क्षेत्र बनारस में दो तबके भुखमरी की कगार पर पहुंच गए थे। मार्च 2020 में तीसरे हफ्ते की बात है। बनारस के कोइरीपुर से एक खबर आई कि मुसहर बस्ती में तीन दिनों से लोगों के घर के चूल्हे नहीं जले और पेट की आग बुझाने के लिए जंगली घास खाने को मजबूर हैं। बुनकरों को इस हालत में पहुंचने में दसेक दिन और लगे।
समाजवादी पार्टी के मुखिया और पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने 10 अप्रैल को बनारस के चार लाख से ज्यादा बुनकरों की बदहाली का सवाल उठा दिया और इलाके के सांसद यानी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके लिए एक राहत पैकेज की मांग की। जब इसका जवाब नहीं आया तो 15 अप्रैल को नसीर अंसारी ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के नाम और 22 अप्रैल को इदरीश अंसारी ने प्रधानमंत्री के नाम दो खत लिखे। नसीर अंसारी ने भुखमरी की कगार पर पहुंच चुके आठ परिवारों के बाकायदा विवरण मुख्यमंत्री को लिखकर भेजे। ये पत्र जिला खाद्य सुरक्षा सतर्कता समिति के सदस्य डॉ. लेनिन के हवाले से भेजे गए थे।
मुसहरों के मामले में तो प्रशासन ने गजब की कार्रवाई की। उसने मुसहरों के जंगली घास खाने वाली खबर करने वाले पत्रकारों को नोटिस थमा दिया और जिलाधिकारी ने बाकायदा डेमो देकर साबित किया कि उक्त घास जंगली नहीं, खाद्य है इसलिए भुखमरी का सवाल ही नहीं है। बुनकरों के मसले पर अगले छह महीने तक लगातार हस्तक्षेप जारी रहा। सरकार से कोई जवाब न मिलने पर 1 सितम्बर, 2020 से बुनकरों ने अनिश्चितकालीन मुर्रीबंद का ऐलान कर डाला। तब जाकर केंद्र के एमएसएमई मंत्रालय का एक अधिकारी उनसे धरनास्थल पर मिलने आया और धरना उठवाया गया।
मुसहरों की हालत बुनकरों से अपेक्षाकृत नाजुक कही जा सकती है क्योंकि उनके लिए कोई बोलने वाला जनप्रतिनिधि नहीं है, लेकिन बुनकरों के लिए अप्रैल् में अखिलेश यादव से लेकर अक्टूबर में प्रियंका गांधी तक सबने बोला। फिर भी दिल्ली में कोई सुनवाई नहीं हुई। प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में इन दोनों तबकों से जैसा सौतेला व्यवहार किया गया, वह इस तथ्य से और संगीन हो जाता है कि खुद नरेंद्र मोदी के गोद लिए गांव नागेपुर में बुनकर अक्टूबर, 2020 में आंदोलन पर उतर आए थे। मुसहरों के पास इसकी न सहूलियत थी, न ताकत।
आज पांच साल बाद जब बनारस सहित पूरा पूर्वांचल वोट करने जा रहा है, एक बार फिर बुनकरों और मुसहरों की ओर देखना बनता है। हमने प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में दोनों ही तबकों के गांवों में घूम-घूम कर इनकी जीवन स्थितियों को समझने की कोशिश की, कि आखिर प्रधानमंत्री के सांसद रहते हुए इनके जीवन में क्या बदला है। पहले मुसहरों के यहां चलते हैं।
खाली सिलिंडर
यह जगह बनारस जिला मुख्यालय से करीब 25 किलोमीटर दूर सेवापुरी ब्लॉक के खरगूपुर गांव की है, जहां भरी दोपहरी नीम के पेड़ के नीचे बैठी हरी छींटदार साड़ी पहने सुशीला बार-बार पसीना पोंछते दिखी। उसने चुनाव से ही बात शुरू की, ‘’अब चुनाव है तो सब लोग आएंगे। हमारी बात लिखकर ले जाएंगे, लेकिन उससे कुछ होगा नहीं।‘’
पहले ही वाक्य में चुनाव से जुड़ी निराशाजनक नियति का भाव एक स्वर में आ गया था। सुशीला बोली, ‘’वोट मांगने सब आते हैं लेकिन मुसहरों के बारे में सोचता कोई नहीं है।” सुशीला इस बस्ती की अकेली महिला नहीं है जो सरकार से नाराज हो। यहां मुसहर समुदाय के 22 घर हैं। सबकी समस्याएं एक जैसी हैं।
इस बस्ती में कुछ झोपड़े हैं तो कुछ गृहस्थियां तिरपाल तले बसी हुई हैं। एक छोटे से झोपड़ीनुमा कमरे में करीब 14 साल की काजल चूल्हे पर रोटी सेंकते दिखी। धुआं निकलने के लिए कोई खुली जगह नहीं थी। धुआं काजल की आंखों में लग रहा था। पास में एक गैस सिलिंडर रखा हुआ था। मैंने काजल से पूछा- गैस पर खाना क्यों नहीं बनाती? वह बोली, “पैसा रही तब न भराई।‘’
काजल स्कूल नहीं जाती है। कारण वही, पैसा नहीं है। उसकी मां रानी कहती हैं, ‘’रहने को ढंग का घर नहीं, पीने को शुद्ध पानी नहीं, दाल-सब्जी खा नहीं सकते, तो बच्चों को कहां से पढ़ाएं। मोदी जी इतनी महंगाई कर दिए हैं कि कैसे आदमी खाएगा। नमक-रोटी खाकर गुजारा कर रहे हैं।“
दो खबरें
नमक-रोटी सुनकर मुझे कुछ पुरानी घटनाएं बरबस याद हो आती हैं। जैसे मिर्जापुर के दिवंगत पत्रकार पवन जायसवाल की वह कहानी, जिसमें उन्होंने मिड-डे मील में बच्चों के नमक-रोटी खाने की खबर की थी। पवन पर मिर्जापुर के जिलाधिकारी ने मुकदमा दर्ज करवा दिया था। जिलाधिकारी का कहना था कि वह खबर सरकार की छवि खराब करने के लिए की गई साजिश है।
इसी तरह दो साल पहले यूपी विधानसभा चुनाव के दौरान इसी सेवापुरी ब्लॉक के चित्रसेनपुर गांव की एक मुसहर बस्ती में मैंने 14 साल की बच्ची सोनी का वीडियो बनाया था जो अत्यधिक कुपोषित थी। उसे इलाज की सख्त जरूरत थी। सोशल मीडिया पर वह वीडियो वायरल हो गया। बच्ची का जिला अस्पताल में इलाज हुआ, लेकिन बनारस के जिलाधिकारी कौशल राज शर्मा ने अस्पताल में ही भीड़ के बीच मुझे लम्बी फटकार यह कहते हुए लगाई कि ‘’तुम्हारे जैसे पत्रकार चुनाव में अपने चैनल की टीआरपी बढ़ाने के लिए झूठी खबरें चलाते हैं।‘’
बहरहाल, चुनाव खत्म होते ही बच्ची को अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया। कुछ दिनों बाद उसकी मौत हो गई। इसी रिपोर्ट के दौरान हमने पाया था कि चित्रसेनपुर गांव की छतेरी बस्ती के लोग तालाब के गंदे पानी से बर्तन धुलते थे और उसी पानी से नहाते थे। मुसहर बस्ती के कई बच्चे कुपोषित निकले थे। बस्ती में हैंडपंप नहीं था। चुनाव का वक्त था, तो आनन-फानन में प्रशासन ने बस्ती में तुरंत हैंडपंप लगवाया और बस्ती के लोगों को राशन भेजा, साथ ही हेल्थ कैम्प भी लगवाया।
इस हेल्थ कैम्प में 1 मार्च 2022 को 25 बच्चों का वजन नापा गया। दो-तीन लड़कियों की उम्र 12-14 साल के बीच रही होगी, बाकी सभी बच्चे 10 साल से छोटे थे। कुछेक को छोड़कर सभी का वजन सात से 20 किलोग्राम के बीच था। इस कैम्प में 75 लोगों की पांच तरह की जांच हुई। तेरह लोगों को ट्यूबरक्लोसिस के संदेह के आधार पर और के लिए भेजा गया। सात में खून की जबरदस्त कमी पाई गई। इनमें चार महिलाएं और तीन छोटे बच्चे थे जिनका हीमोग्लोबिन सात प्रतिशत से कम निकला था।
मजबूरी की भीख
असेंबली चुनाव के बाद आम चुनाव आ गया, लेकिन हालात नहीं बदले हैं। सात साल की जानकी का वजन 15 किलो था। वह इतनी कमजोर थी कि महज उसे देख कर पसुलियां गिनी जा सकती हैं। जानकी की मां आशा बताती हैं, “बचपन से ही ऐसी है। घर में रोज तो दाल-सब्जी बनती नहीं है। जो बनता है वही खाती है।” जानकी दो भाई और तीन बहनें हैं।
धूल में खेल रही पांच वर्षीय पायल, तीन वर्षीय राधिका, चार वर्षीय निशा, कंचन और आरती कुपोषित हैं। इन सब का नाम आंगनवाड़ी रजिस्टर में दर्ज है। यहां की आंगनवाड़ी प्रभारी ज्योति जायसवाल ने बताया, “जो बच्चियां कुपोषित हैं हम उन्हें हर महीने पोषाहार देते हैं. इनके बच्चे कमजोर होने की मुख्य वजह ये है कि इन बच्चों के जन्म के बीच बहुत अंतर नहीं होता है। कम उम्र में लड़कियों की शादी हो जाती है। अशिक्षा की वजह से कम उम्र में ही कई सारे बच्चे हो जाते हैं। तीस साल की उम्र होते-होते यहां की महिलाएं बहुत कमजोर हो जाती हैं।”
क्या रजिस्टर में दर्ज हर बच्चे को हर महीने पोषाहार मिलता है, इस सवाल के जवाब में वे कुछ देर ठिठक कर कहती हैं, “जितने बच्चों का नाम रजिस्टर में लिखा होता है उतने का राशन ही ऊपर से नहीं आता इसलिए राशन बांटते समय बहुत लड़ाई होती है। ये हर महीने होता है, पर हमारा इसमें कोई उपाय नहीं चलता। जब ऊपर से ही कम आता है तो हम क्या कर सकते हैं।”
ये उस ब्लॉक के बच्चे हैं जिसे नीति आयोग ने 2020 में गोद लिया था और यह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का संसदीय क्षेत्र भी है। वाराणसी जिले में 2019 में चिह्नित अतिकुपोषित बच्चों की संख्या करीब चार हजार थी। वाराणसी में बौनापन 43 फीसदी, कम वजन 46 फीसदी, रुग्णता 24 फीसदी और खून की कमी की दर 60 फीसदी है। यह दर भारत की औसत दर से ज्यादा है, ऐसा इकनॉमिक एंड पॉलिटिकल वीकली का एक अध्ययन बताता है।
वाराणसी जिले के 28 गांवों में मुसहर समुदाय की बस्तियां हैं। यह समुदाय आज भी समाज में सबसे आखिरी पायदान पर है। इसके लोग खेतों में मजदूरी करते हैं, ईंट भट्ठों पर काम करते हैं या मांगकर खाते हैं। इनके पास न तो खुद की जमीनें हैं न ही मकान। इन्हें गांव के अन्दर भी रहने की इजाजत नहीं होती है। ज्यादातर गांव के बाहर बस्तियों में ये बसते हैं। बीते कुछ वर्षों में बनारस के मुसहर समुदाय के कुछ लोगों को प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत मकान जरूर मिले हैं, लेकिन मूलभूत सुविधाएं अब भी कोसों दूर हैं।
इसीलिए ज्यादातर पुरुष मजदूरी के लिए पलायन कर जाते हैं। वे साल के सात-आठ महीने बाहर रहते हैं। औरतें गांव में रहकर मजदूरी करती हैं। कई बार जब मजदूरी नहीं मिलती तो ये गांव में भीख मांगकर अपने बच्चों का पेट भरती हैं। कर्धना प्रतापपुर की 27 घरों वाली बस्ती में पांच घर नट समुदाय के हैं। यहां के नट और मुसहर दोनों भीख मांगकर भरण-पोषण करने को मजबूर हैं। नीतू के पति ईंट-गारा का काम करते हैं, लेकिन उतने से इनकी गुजर-बसर नहीं हो पाती इसलिए नीतू भीख मांगती हैं।
नीतू कहती हैं, “भीख मांगकर खाते हैं। गांव में झाड़ू-पोंछा का काम भी नहीं मिलता। शहर में बच्चों को लेकर कहां रहेंगे जाकर? मुसहरों को जल्दी कोई किराये पर घर भी नहीं देता। राशनकार्ड भी नहीं बना, तो फ्री वाला राशन भी नहीं मिलता।”
यहीं की रहने वाली सुशीला कहती हैं, “40-45 रूपये में चावल एक किलो मिलता है। 30-35 रुपये में आटा मिलता है। रोज-रोज नहीं मोल खरीद पाते तो क्या करें? मांगते हैं। गांव में लोग दे भी देते हैं। अच्छा नहीं लगता भीख मांगना, पर नहीं मांगेंगे तो बच्चे भूखे मरेंगे।”
राशन नहीं मिलता क्या? यह पूछने पर वे बोलीं, “मिलता है पर छह लोगों के परिवार में 35 किलो राशन में पूरा नहीं होता। आंगनवाड़ी में एक महीने बच्चों को राशन मिलता है, फिर तीन-चार महीने नहीं मिलता। किससे शिकायत करें? वो कहते हैं ऊपर से नहीं आता।”
भेदभाव और बेरोजगारी
2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश में मुसहरों की संख्या ढाई लाख थी जबकि जमीन पर उनके बीच काम करने वालों का दावा है कि राज्य में उनकी संख्या करीब चार लाख है, जो महाराजगंज, आजमगढ़, गाजीपुर, गोरखपुर, बलिया, कुशीनगर, जौनपुर, देवरिया, वाराणसी, संत कबीरनगर, मिर्जापुर, अंबेडकरनगर, अमेठी, चंदौली, मऊ, प्रतापगढ़, सोनभद्र और सुल्तानपुर के 18 जिलों में फैली हुई है। अधिकतर इलाकों में मुसहर भूमिहीन मजदूर हैं, जो अपने बच्चों के साथ खेतों और ईंट-भट्ठों पर काम करते हैं। ये आधे साल से ज्यादा बिना काम के रहते हैं।
हमने बनारस की मुसहर बस्तियों का दौरा रेनू गुप्ता के साथ किया था। रेनू मुसहर बस्तियों में पांच साल से काम कर रही हैं। वे मुहिम संस्था से जुड़ी हुई हैं। वे बताती हैं, “पहले से बस्तियां थोड़ा बेहतर तो हुई हैं, लेकिन अब भी बहुत सुधार की जरूरत है। हम तेन्दुई, खरगूपुर, चित्रसेनपुर, कर्धना प्रतापपुर और देवीपुर भट्ठे पर मुसहर बस्तियों के साथ लम्बे समय से काम कर रहे हैं। इनके साथ आज भी बहुत छुआछूत होता है। छुआछूत की वजह से बच्चे स्कूल नहीं पहुंच पाते। बेरोजगारी की वजह से ये अच्छे से खा-पहन नहीं सकते।“
तेन्दुई की मुसरान बस्ती में हमें एक पोस्ट ग्रेजुएट तक पढ़े हुए मुसहर समुदाय के व्यक्ति मिले- उधल वनवासी। उन्होंने बताया, “हमारे मां-बाप ने तो हमें जैसे-तैसे पढ़ाया, लेकिन अभी तक नौकरी नहीं लगी। मुश्किल है बिना रोजगार के जीवनयापन करना।‘’
आवास, पानी की सुविधा नहीं हो पा रही है, बावजूद इसके कि ये प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का क्षेत्र है। हम लोग रोजगार के मुद्दे पर वोट करेंगे, चाहे कोई भी पार्टी दे।
- उधल वनवासी, खरगुपुर ग्रामसभा, सेवापुरी
कर्धना प्रतापपुर में मुसहर बच्चों को पढ़ाने वाली आरती कहती हैं, “यहां बाल विवाह बहुत होता है। छोटे-छोटे बच्चे पढ़ने नहीं आते क्योंकि उनके माता-पिता उन्हें भट्ठे पर काम करने के लिए ले जाते हैं। उनका मानना है कि ये बच्चे थोड़ा काम करेंगे तो कुछ पैसे आएंगे। बहुत समझाने-बुझाने के बाद इतने बच्चे पढ़ने आते हैं।”
क्या यहां आज भी मुसहरों के साथ भेदभाव होता है? इस पर यहीं की रहने वाली पिंकी बोलीं, “आपको हमारी बस्ती के लोगों के साथ भेदभाव देखना है तो आप यहां आकर रहिए कुछ दिन। अगर हम किसी दूसरी जाति के नल पर पानी भरने चले जाएं तो हम तब तक पानी नहीं भर सकते जब तक वो लोग (ऊंची जाति) के लोग न भर लें। हम लोगों की हिम्मत ही नहीं कि बिना उनसे पूछे उस नल से पानी भर सकें।”
बनारस में बीते तीन दशक से लेनिन रघुवंशी और श्रुति रघुवंशी मुसहर समुदाय के लोगों के अधिकारों और हितों के लिए काम कर रहे हैं। डॉ. लेनिन कहते हैं, “बीते दस साल में मुसहर समुदाय की स्थिति पहले से काफी बेहतर हुई है। इससे पहले अगर आप देखते तो आपको अंदाजा होता कि ये किन दुश्वारियों में रह रहे थे। अभी तो इन्हें पक्के मकान भी मिले हैं, राशन भी मिल रहा है, बच्चे स्कूल भी जा रहे हैं। ये पहले से बेहतर खा-पी भी रहे हैं। मुसहरों से ज्यादा खराब स्थिति इस वक्त बनारस में बुनकरों की है।”
उखड़ते करघे
लॉकडाउन के दौरान प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री को बुनकरों की भुखमरी और बदहाली पर बुनकर दस्तकार अधिकार मंच की ओर से भेजे गए पत्र डॉ. लेनिन की ही पहल थे। मुसहरों और बुनकरों दोनों तबकों के बीच सामाजिक-आर्थिक सुधार के कामों पर उनकी संस्था का बराबर अधिकार है, लेकिन वे बुनकरों को लेकर आजकल ज्यादा चिंतित हैं।
आंकड़े इस चिंता की गवाही देते हैं। अस्सी के दशक तक हथकरघा उद्योग बनारस के लाखों बुनकरों को रोजगार देने के साथ-साथ देश ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में बनारसी साड़ी के लिए मशहूर था। एक अनुमान के मुताबिक पिछले वर्ष तक इस उद्योग से बनारस में छह लाख लोग जुड़े थे, जिसमें बड़ी संख्या मुस्लिमों की थी। अभी यह संख्या घटकर चार लाख पर आ गई बताई जाती है। भारी संख्या में कारीगर अलग-अलग शहरों में पलायन कर गए हैं।
2007 के एक सर्वे के मुताबिक़ बनारस में तकरीबन 5,255 छोटी बड़ी हथकरघा इकाइयां थीं, जिनमें साड़ी ब्रोकेड, ज़रदोज़ी, ज़री मेटल, गुलाबी मीनाकारी, कुंदनकारी, ज्वेलरी, पत्थर की कटाई, ग्लास पेंटिंग, बीड्स, दरी, कारपेट, वॉल हैंगिंग, मुकुट वर्क जैसे छोटे मंझोले उद्योग थे। इनमें तकरीबन 20 लाख लोग काम करते थे। इनके जरिये करीब 7500 करोड़ रुपये का कारोबार होता था। इनमें से करीब 2300 इकाइयां पूरी तरह बंद हो चुकी हैं और बची हुई बंद होने की कगार पर हैं।
एक बनारसी साड़ी की लागत न्यूनतम पांच हजार रुपये रुपये से लेकर कई गुना तक हो सकती है। इसे बनाने में 15-20 दिन या कई बार ज्यादा समय भी लग जाता है। पावरलूम से एक महीने में कई दर्जन साड़ियां तैयार हो जाती हैं। यहां के मुकाबले में बेहद सस्ती सूरत की साडि़यों ने पूरे बाजार पर कब्जा जमा लिया है। सूरत की नकली बनारसी साड़ी की बढ़ती मांग के चलते पहले से ही बनारसी बुनकर भुखमरी के कगार पर पहुंच गए थे। आज हालात यह हैं कि बनारस के बाजार में ही 90 फीसदी सूरत की नकली बनारसी साड़ी भरी पड़ी है।
डाउन टू अर्थ की एक रिपोर्ट के मुताबिक 2019 तक दो पावरलूम पर जो बिजली का बिल करीब 1100 रुपये आता था वह 2023 में बढ़कर 37000 रुपये हो गया है। उत्तर प्रदेश में ग्रामीण क्षेत्रों में पांच किलोवाट भार और 0.5 हॉर्सपावर के 57,510 पावरलूम हैं जबकि एक हार्सपावर के 3,131 लूम हैं। वहीं शहरी क्षेत्र में 0.5 हार्सपावर के 176066 और एक हार्सपावर के 14115 लूम हैं। वाराणसी में कुल 30 हजार पावरलूम और सात-आठ हजार हथकरघा हैं। समय के साथ हथकरघे घटते गए हैं।
मालिक-मजूर सब परेशान
तत्कालीन मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव की समाजवादी सरकार ने प्रदेश के बुनकरों को 2006 में सब्सिडी के साथ फ्लैट बिजली रेट का तोहफा दिया था। योजना के तहत 0.5 हॉर्सपावर वाले लूम के लिए बुनकर से 65 रुपये चार्ज किया जाता थे, वहीं एक हॉर्सपावर लूम के लिए बुनकर से 130 रुपये हर महीने लिए जाते थे। दस साल तक बुनकरों को सब्सिडी का लाभ मिला, लेकिन 2015-16 में योजना हथकरघा व वस्त्रोद्योग विभाग के हवाले हो गई।
बनारस में सितंबर 2017 में जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़ा लालपुर में 200 करोड़ रुपये की लागत से तैयार हुए ट्रेड फैसिलिटेशन सेंटर का उद्घाटन किया था, तो लगा कि बुनकरों के ‘अच्छे दिन’ आ गए। बीते कुछ वर्षों में बनारसी बिनकारी का हाल बनारस में अर्पिता हैंडलूम्स के मालिक अवधेश कुमार मौर्य बताते हैं, ‘’बनारसी साड़ियों का मार्केट कम नहीं हो रहा है पर प्रोडक्शन बहुत ज्यादा हो रहा है। मशीनें ज्यादा लग रही हैं। अब कस्टमर को सस्ता चाहिए। सस्ता के चक्कर में लोग अलग-अलग तरह की मशीनों से साड़ी बना रहे हैं जिस वजह से माल भरा पड़ा है। शहर में बड़ी-बड़ी कम्पनियों के मालिकों ने अपना कारोबार शुरू कर दिया है। उनकी करोड़ों की मशीनें हैं। वहां तेजी से साड़ियां बन रही हैं। इस वजह से हमारी साड़ी की कीमत नहीं मिल पाती। बनारस के बुनकर अब खत्म होते जा रहे हैं या पलायन कर रहे हैं।”
बुनकर राजपथ मौर्य अर्पिता हैंडलूम के लिए काम करते हैं और अयोध्यापुर के पुरई गांव में रहते हैं। वे कहते हैं, ‘’नई पीढ़ी अब इस पेशे में नहीं आ रही है। एक समय ऐसा आएगा जब हथकरघा कारीगर आपको बनारस में खोजने पर नहीं मिलेगा। पहले हर आदमी अपने बच्चों को बगल में बैठाकर बनारसी साड़ी बनाना सिखाता था लेकिन अब कोई बच्चा बैठकर नहीं सीखता है। बहुत मेहनत का काम है। आज की पीढ़ी इतने कम पैसे में नहीं कर पाएगी। हम लोगों की मजबूरी थी, तो पूरी जिंदगी इसी में काट दिए।‘’
राजपथ मौर्य की उम्र 65 साल है। वे 45 साल से हथकरघे पर बनारसी साड़ी बना रहे हैं, लेकिन उन्हें दुख इस बात का है कि वे आज तक मजदूर से मालिक नहीं बन पाए। साल का ज्यादा से ज्यादा पचास हजार कमा पाते हैं। इस हिसाब से महीने का चार-पांच हजार की पड़ता है। उनके गांव में अब 20 प्रतिशत का काम ही हथकरघा पर होता है। बाकी 80 फीसदी पावरलूम लग गए हैं।
उन्हीं की तरह राजकुमार शर्मा बीते 40 साल से हथकरघा पर काम कर रहे हैं। उनकी उम्र 55 साल है। वे कहते हैं, “मालिक का काम बढ़े तो हमारा भी दाम बढ़े, लेकिन हमेशा यही कहा जाता है कि मंदी है। हमारी दिन की मजदूरी 250-300 रुपये होती है। अब आठ घंटे काम करने में बहुत थकावट हो जाती है। जवानी में तो बारह घंटा काम कर लेते थे और 500 रूपया कमा लेते थे। अगर मजदूरों को लोन देने का सरकार प्रावधान रखती तो हम अपना काम शुरू कर सकते थे। कभी तो मजदूर से मालिक बनते।”
इन बुनकरों का दुख यह है कि जिंदगी भर मजदूर बनकर रह गए। शहर के भीतर बसे बुनकरों के मोहल्लों में चिंताएं थोड़ा अलग हैं। वहां रोजगार का ही संकट है। वाराणसी के लोहता थाना क्षेत्र के कोटवा गांव में हम टसर बनारसी फार्म चला रहे मोहम्मद शरीफ़ के घर पहुंचे। इनके यहां पांच पावरलूम लगे हैं। बाजार में मंदी की वजह से केवल एक लूम पर ही साड़ी बनने का काम चल रहा था। दूसरा, एक हथकरघे पर धागा चढ़ाया जा रहा था।
शरीफ ने बताया, “बनारसी साड़ियों की मांग तीन-चार महीने नवंबर, दिसंबर, जनवरी और फरवरी तक ज्यादा रहती है। इसी दौरान हमारा काम ठीकठाक चल पाता है। बाकी आठ महीने मंदी रहती है। ऐसे में कारीगरों को बहुत दिक्कत होती है क्योंकि उन्हें रोजगार नहीं मिल पाता है। मंदी में हमसे ज्यादा मजदूरों की समस्या बढ़ जाती है जिस वजह से वे दूसरों शहरों में पलायन कर जाते हैं।”
शरीफ ने बढ़ते बिजली बिल के कारण 2020 में ही सोलर पैनल लगवा लिया था। धूप अच्छी रहे तो दिन में चार-पांच घंटे का बैकअप मिल जाता है। रात में तीन घंटे का बैकअप मिलता है। हर कोई इतने महंगे सोलर नहीं लगा सकता। वे बताते हैं कि उन जैसे छोटे लूम मालिकों पर दो-तीन लाख रूपये बिजली का बिल अब भी बकाया है। वे सरकार से सस्ती और फ्लैट दरों पर बिजली की मांग कर रहे हैं। बीते वर्षों में बिजली दरों में बदलाव के विरोध में बनारस में गांव से लेकर शहर तक छोटे-बड़े बुनकरों ने विरोध प्रदर्शन किए और शासन को पत्र भेजे, लेकिन उसका कोई नतीजा नहीं निकला।
इस गांव की आबादी करीब एक लाख है। यहां हर घर में बनारसी साडियां बनती हैं। नब्बे फीसदी घरों में पावरलूम लगे हैं जबकि दस फीसदी घरों में हथकरघा पर काम होता है। शरीफ कहते हैं, “आजकल कस्टमर के दिमाग में हैंडमेड ज्यादा बैठ गया है पर महंगा होने की वजह से इसे केवल 20-25 फीसद लोग ही खरीद पाते हैं। बाकी लोग पावरलूम की ही साडियां खरीदते हैं।”
गांव के एक हथकरघे पर बड़ी तल्लीनता से धागा चढ़ा रहे 26 वर्षीय कारीगर शोएब ऊर्फ राजू ने सात की उम्र से बिनकारी का प्रशिक्षण लेना शुरू कर दिया था। वे 10 साल की उम्र से यह काम कर रहे हैं। शोएब की चार बहनें और तीन भाई इसी पेशे में हैं। उसकी मां साड़ियों की फिनिशिंग के लिए धागे की कटिंग करती हैं।
धागा लगाते हुए शोएब कहते हैं, “हैंडलूम का कारोबार अब बहुत डाउन हो गया है। हम धागा लगाने का काम करते हैं। इसे ताना बोलते हैं। इसमें 2850 धागे लगते हैं। दिन में सात-आठ घंटे काम करते हैं तब 500 रूपया मिलता है। पहले एक जगह धागा लगाकर ख़त्म करते थे तो दूसरी जगह से धागा लगवाने की डिमांड आ जाती थी। अब जाकर बार-बार पूछना पड़ता है। तागा खत्म होने से मंगाने तक में हफ्ते या पंद्रह दिन तक मालिक लोग टाल देते हैं। इसका मतलब कि बाजार डाउन है।”
और अंत में खुदकशी
क्या बुनकर और क्या गद्दीदार, बनारस में सबका हाल सूरत के नकली माल के आगे आज कमोबेश एक जैसा ही है लेकिन दोनों के बीच जो रिश्ता था वह आज भी नहीं बदला है। बरसों पहले अब्दुल बिस्मिल्लाह के बनारस के बुनकरों पर लिखे उपन्यास ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ का बुनकर और गद्दीदार दोनों अंसारी हैं, लेकिन वहां बुनकर मतीन के लिए मालिक बनने का सपना देखना कितना दुष्कर हो गया था, इसकी तसदीक आज के राजकुमार शर्मा और राजपथ मौर्य करते हैं।
अब मुर्रीबंद भी उतना कारगर नहीं रहा जितना अस्सी या नब्बे के दशक में हुआ करता था क्योंकि शहर में हैंडलूम ही नहीं बच रहे। मुर्रीबंदी का असर हैंडलूम वाले दिनों में होता था। अब इनकी संख्या इतनी नहीं है कि बुनकर सड़क पर निकल आएं और सब काम ठप पड़ जाए। अब तो उलटे उन्हें बिनकारी से ही बीते दो दशकों में बहरिया दिया गया है। नतीजा यह हुआ है कि अब गद्दीदार और पावरलूम मालिक भी अकेले पड़ गए हैं।
जुलाई 2020 में बनारस से एक हृदयविदारक तस्वीर सोशल मीडिया पर आई थी। उसमें एक बुनकर अपने करघे से लटका हुआ दिखाया गया था। बाद में पता चला कि वह तस्वीर बनारस की नहीं, दक्षिण भारत की है। उस समय बहुत से लोगों ने आनन-फानन में उस बुनकर को बनारस का समझ कर श्रद्धांजलि दे डाली थी और काफी आश्चर्य जाहिर किया था, कि ऐसा कैसे हो सकता है। हकीकत यह है कि नरेंद्र मोदी के सांसद बनने के बाद के दो वर्षों में वाकई 50 बुनकरों ने बनारस में अपनी जान दे दी थी। हथकरघा बुनकरों के एक अ्रेड यूनियन के सर्वे में यह बात सामने आई थी।
फिलहाल, बनारस का बुनकर किसी तरह खुद को जिंदगी और मौत के बीच किसी रहस्यमय ताने-बाने के सहारे टिकाए हुए है। उधर, बनारस के मुसहर ठेकेदारों की भट्ठियों में अपनी हड्डियां गला के अगली पीढ़ियों को इसी के लिए तैयार करने में जुटे हैं। अफसोस, कि दोनों ही लोकतंत्र के मौजूदा महापर्व में चल रही बहसों से नदारद हैं, अदृश्य हैं।
क्या चुनाव में आपके मुद्दों पर बात नहीं होती? इस सवाल के जवाब में अर्पिता हैंडलूम के मालिक अवधेश कहते हैं, “बुनकरों का मुद्दा कोई उठाने वाला नहीं है। बुनकर रहें या न रहें किसी सरकार कोई मतलब नहीं।‘’
बुनकर दस्तकार अधिकार मंच के इदरीश अंसारी कहते हैं, ‘’माननीय प्रधानमंत्री जी हमारे यहां से पिछले दस साल से सांसद हैं, लेकिन कहते हुए बेहद बुरा लग रहा है कि उन्होंने बुनकरों के लिए कुछ नहीं किया। समूचे पूर्वांचल के बुनकर परिवार अपना पेट पालने के लिए अब बनारसी हैंडलूम का काम छोड़ पलायन करने को मजबूर हो चुके हैं।‘’
रोजगार का संकट बुनकरों और मुसहरों में बराबर है, चाहे कोई अनपढ़ हो या तेन्दुई मुसरान के स्नातकोत्तर मुसहर उधल की तरह पढ़ा-लिखा। वे कहते हैं, ‘’हम तो उसी पार्टी को वोट देंगे जो हमें रोजगार का भरोसा दिलाएगी।”
सभी वीडियो: नीतू सिंह