दिल्ली और उत्तर प्रदेश की सरहद पर स्थित ग़ाज़ीपुर के कूड़े के पहाड़ में दो दिन से आग लगी हुई है। इस पहाड़ के एक तरफ गौतमबुद्धनगर, बुलंदशहर, मथुरा, अलीगढ़ आदि हैं तो दूसरी तरफ गाजियाबाद, मेरठ, बागपत हैं। इन्हीं जगहों पर 26 अप्रैल को मतदान होना है। कचरे में लगी आग लोकसभा चुनावों की प्रगति के लिए अच्छा मुहावरा जान पड़ती है। पहले चरण के मतदान के बाद आकार ले रही चुनावी फिजा में भी आग लगाने की कोशिशें अचानक परवान चढ़ी हैं। दोनों मौसमी आग हैं। आग बुझाने की कोशिशों में हवा देने वाले अनजाने में धुआं दूर-दूर तक फैला रहे हैं।
लोकसभा चुनाव के प्रथम चरण का मतदान हो चुका है लेकिन अबकी बार पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में मतदान प्रतिशत में गिरावट दर्ज की गई है। उत्तर प्रदेश की आठ सीटों सहारनपुर, कैराना, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, नगीना, मुरादाबाद, रामपुर और पीलीभीत पर 19 अप्रैल को वोटिंग हुई थी। मतदान प्रतिशत के कम होने से सभी दल चिंतित हैं क्योंकि इसमें यह नहीं पता चल पा रहा कि किस वर्ग का वोट कम हुआ है।
अगर चौक-चौराहों पर चल रही चर्चाओं की बात करें, तो भारतीय जनता पार्टी के समर्थकों के क्षेत्र में वोट डालने वालों की कतारें कम नजर आई हैं जबकि सबसे अधिक जोश गठबंधन के समर्थकों में नजर आया है। इन आठ सीटों में बहुजन समाज पार्टी कुछ सीटों पर काफी मजबूत थी। लोगों का कहना है कि अबकी बार दलितों ने पिछली बार के मुकाबले ज्यादा वोटिंग की है।
मतदान प्रतिशत में इस गिरावट ने भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व को भी कहीं न कहीं परेशान किया है, ऐसा पहले चरण के बाद का चुनाव प्रचार खुद गवाही दे रहा है। चुनावी बिगुल बजने के बाद से अब तक सभी नेता संयमित थे और कोई धार्मिक या साम्प्रदायिक बात सामने नहीं आ रही थी। पहले चरण के इस मतदान प्रतिशत में गिरावट की बात सामने आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने राजस्थान की एक रैली में 21 अप्रैल को जो कहा, उससे भाजपा के पुराने अंदाज में लौटने के संकेत मिल रहे हैं। यह उसकी मजबूरी से उपजी छटपटाहट हो सकती है।
जहरीले बोल, आयोग गोल
राजस्थान के बांसवाड़ा की रैली में अपने संबोधन में हिंदुओं को कांग्रेस से डराते हुए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मुसलमानों पर ‘घुसपैठिया’ और ‘जिनके ज्यादा बच्चे होते हैं’ जैसी टिप्पणी की। जब इस पर बयान पर चौतरफा बवाल मचा और चुनाव आयोग को शिकायतों के साथ पुलिस में भी शिकायत दर्ज हुई, तब अगले ही दिन अलीगढ़ में प्रधानमंत्री ने मुसलमानों के विकास और तरक्की की बात कर दी। दिलचस्प है कि बांसवाड़ा में कही मोदी की बात को उसी दिन अमित शाह ने छत्तीसगढ़ के कांकेर में दुहरा दिया।
इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि पहले चरण के मतदान ने भाजपा में खलबली पैदा कर दी है। यदि भाजपा के वोटर में उत्साह नहीं है, उदासीनता है तो फिर आने वाले चरणों में यह संदेश उसके लिए बड़ा नुकसानदेह साबित होगा और भाजपा पहले से कम सीटों पर सिमट जाएगी। दूसरे चरण में भी यदि यही रवैया भाजपा के वोटर ने अपनाया तो अगले चरणों में चुनाव प्रचार कितना ध्रुवीकरण लेकर आएगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।
यह इसलिए भी चिंताजनक है क्योंकि नरेंद्र मोदी के राजस्थान में मुसलमानों पर दिए भाषण पर केन्द्रीय चुनाव आयोग ने घोषित रूप से कोई टिप्पणी करने से ही इनकार कर दिया है जबकि 17000 से ज्यादा नागरिकों ने इस मामले में आयोग से मोदी की शिकायत की थी।
UP : दूसरा चरण, आठ सीटें
दूसरे चरण का मतदान 26 अप्रैल को होना है। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में द्वितीय चरण में जिन आठ सीटों पर चुनाव होगा उनमें अमरोहा को छोड़ कर सभी सीटें 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के कब्जे में गई थीं। इस बार फिर इन सीटों पर भाजपा का कब्जा बरकरार रहेगा यह कहना अभी जल्दबाजी होगी क्योंकि इस बार नए समीकरण हैं और पिछली बार वाली मोदी लहर दिखाई नहीं दे रही है। बेशक, चुनाव को हिंदू-मुसलमान पर लाने की कवायद भाजपा की ओर से शुरू हो चुकी है लेकिन उसका वोटिंग पर असर क्या होगा, यह देखा जाना बाकी है।
इस बार यूपी में दूसरे चरण की हर सीट पर नए-नए दावों के साथ कैंडिडेट मेहनत में लगे हुए हैं। हर लोकसभा क्षेत्र दूसरे लोकसभा क्षेत्र से भिन्न माहौल रखता है, तो आइए सीटवार विश्लेषण में देखते हैं कि 26 अप्रैल को होने वाले मतदान की पृष्ठभूमि क्या है और इन सीटों पर नतीजे की संभावनाएं क्या हैं। एक-एक कर के हम आठ सीटों का हाल बताएंगे।
बागपत
राजधानी दिल्ली से सटा जाटलैंड का अंग और पूर्व प्रधानमंत्री व भारत रत्न चौधरी चरण सिंह की कर्मस्थली बागपत में चुनावी बिसात बिछाई जा चुकी है। बागपत लोकसभा सीट का एक इतिहास रहा है कि यहां सदा से जाट बिरादरी का उम्मीदवार ही कामयाब होता रहा है। चौधरी चरण सिंह से लेकर चौधरी अजीत सिंह तक इस सीट का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं। बागपत लोकसभा क्षेत्र में तीन जिलों की पांच विधानसभाएं हैं जिनमें मेरठ की सिवालखास, गाजियाबाद की मोदीनगर और बागपत जिले तीन विधानसभाएं बागपत, बड़ों, छपरौली हैं।
लोकसभा चुनाव 2019 में चुनावी समीकरण यहां अलग थे। पिछली बार राष्ट्रीय लोक दल (रालोद), समाजवादी पार्टी (सपा) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) का गठबंधन था और इनका अकेली भाजपा से मुकाबला था। इस बार भाजपा-रालोद का चुनावी गठबंधन है और सपा-कांग्रेस मिलकर चुनाव लड़ रही हैं जबकि बसपा अकेले मैदान में ताल ठोक रही है। प्रत्याशियों की बात करें तो सटीक जातीय समीकरणों के आधार पर यहां उम्मीदवार खड़े किए गए हैं। रालोद-भाजपा गठबंधन में यह सीट रालोद के खाते में गई है और उसने डॉ. राजकुमार सांगवान को मैदान में उतारा है, जो उच्च शिक्षित व्यक्ति हैं और पीएचडी किए हुए हैं। वे बिरादरी से जाट हैं। परंपरा के अनुसार जाट होने के नाते उनके जीतने की उम्मीद ज्यादा है, लेकिन सपा-कांग्रेस गठबंधन के उम्मीदवार को भी कम नहीं आंका जा सकता। गाजियाबाद की साहिबाबाद विधानसभा से विधायक रहे पंडित अमरपाल शर्मा को सपा ने अपना उम्मीदवार बना कर ब्राह्मण कार्ड खेल दिया है।
बागपत सीट पर ब्राह्मण मतदाताओं की संख्या अच्छी-खासी बताई जाती है। बताया जा रहा है कि ब्राहमण भाजपा से नाराज हैं। उत्तर प्रदेश के असंबली चुनावों में भी ब्राह्मणों के भाजपा से नाराज होने की बात खूब चली थी, लेकिन नतीजा सामने है। इसलिए अबकी अगर वाकई यह बात सच हुई, तो उस स्थिति यह नाराजगी भाजपा के खिलाफ वोटों में तबदील हो जाएगी। फिर गठबंधन उम्मीदवार उसे अच्छी टक्कर देने की स्थिति में होंगे क्योंकि मुस्लिम मतदाताओं का एकतरफा रुझान तो गठबंधन की ओर ही है और बागपत में मुसलमनों की संख्या भी सबसे ज्यादा पांच लाख के आसपास है।
बसपा ने हालांकि गुर्जर बिरादरी के एक एडवोकेट प्रवीण बंसल को टिकट देकर मुकाबले में बने रहने का अच्छा प्रयास किया है, मगर बागपत में बसपा कभी कुछ खास नहीं कर सकी है इसलिए मुख्य मुकाबला भाजपा और सपा-कांग्रेस गठबंधन के बीच ही रहेगा। बागपत सीट में एक विधानसभा मेरठ जिले की है जहां भाजपा के ठाकुर विधायक संगीत सोम मुजफ्फरनगर के भाजपा प्रत्याशी संजीव बालियान का खुल कर विरोध कर चुके हैं। देखना ये है कि इस नाराजगी और विरोध का कितना प्रभाव आसपास की लोकसभा सीटों पर पड़ेगा।
बागपत के एक मुस्लिम बहुल गांव असारा में कॉलेज संचालक अनस खान बताते हैं कि सपा-कांग्रेस गठबंधन और भाजपा ही मुकाबले में रहेंगी और मुसलमानों का एकतरफा रुझान गठबंधन के साथ ही रहेगा।
मेरठ
ऐतिहासिक और क्रांतिकारी जिले मेरठ में लोकसभा चुनाव के परिणाम बदलते रहते हैं। वैसे तो पिछले तीन लोकसभा चुनावों में भाजपा ही यहां अपना कब्जा बरकरार रखे हुए थी, लेकिन इस बार उम्मीदवार बदलने से परिस्थितियां भी बदली हुई हैं। 1952 के बाद से पहली बार ऐसा हुआ है कि कोई मुस्लिम प्रत्याशी मुख्य पार्टी से मुकाबले में नहीं है। इसका असर यह है कि परंपरागत हिंदू ध्रुवीकरण होने की उम्मीदें ध्वस्त हैं, जो भाजपा को परेशान किए हुए हैं।
वैसे तो खुद भाजपा ने इस सीट पर उम्मीदवार बदल कर अपनी परेशानी बढ़ाई है। तीन बार के सांसद रहे लोकप्रिय वरिष्ठ नेता राजेंद्र अग्रवाल का टिकट काटकर रामायण सीरियल में राम का किरदार निभाने वाले अरुण गोविल को भाजपा मैदान में लाई है। अरुण गोविल मूलतः मेरठ के हैं लेकिन उन पर बाहरी होने का ठप्पा लग चुका है जिसे नकारते हुए हर जगह वे यही बता रहे हैं कि मैं पूर्ण रूप से मेरठी हूं। अरुण गोविल का व्यवहार राजनीतिक न होकर फिल्मी दुनिया वाला है जो लोगों को भा नहीं रहा।
पिछले दिनों अपने प्रचार में वे अपने वाहन पर भगवान राम की एक तस्वीर लेकर चल रहे थे। इसकी शिकायत कई लोगों ने चुनाव आयोग में की थी जिसके बाद उन्हें आयोग ने नोटिस थमाया था। उसके बाद से गोविल का चुनाव प्रचार थोड़ा ठंडा पड़ गया है। ऊपर से सरधना विधायक संगीत सोम के पार्टी विरोधी सुर भी कहीं न कहीं भाजपा के लिए दिक्कत अवश्य खड़ी करेंगे।
दूसरी ओर उनके सामने सपा-कांग्रेस गठबंधन में सपा के टिकट पर महिला उम्मीदवार मेरठ की पूर्व मेयर सुनीता वर्मा हैं जो हस्तिनापुर विधानसभा के पूर्व लोकप्रिय विधायक योगेश वर्मा की पत्नी हैं। सुनीता वर्मा दलित हैं और मुसलमानों में अच्छी पैठ रखती हैं। मेरठ सीट पर मुस्लिम और दलित मिलकर नौ लाख के आसपास बैठते हैं और जैसी हवा भी है, उम्मीद की जा रही है कि मुसलमानों का एकतरफा समर्थन सुनीता वर्मा को रहेगा। ऐसे में यदि दलितों का बड़ा हिस्सा भी इन्हें मिल गया तो गठबंधन यह सीट आराम से निकाल रहा है।
पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा कैंडिडेट हाजी याकूब कुरैशी कुछ हजार वोटों से यहां हार गए थे। इस बार मोदी लहर भी दिखाई नहीं दे रही जो भाजपा के वोटरों में जोश भर सके। इसके बरखिलाफ सपा-कांग्रेस गठबंधन को लेकर जोश है और किसान-मजदूर भी भाजपा से नाराज चल रहे हैं। यदि यह नाराजगी वोटों में तबदील हुई तो भाजपा को यह सीट गंवानी पड़ सकती है।
बसपा ने इस बार एक त्यागी को टिकट देकर भाजपा को नुकसान पहुंचाने का दांव चला है। बसपा कैंडिडेट देवव्रत त्यागी यदि त्यागी ब्राह्मण वोट (जो कि भाजपा से नाराज बताए जाते हैं) अच्छी खासी संख्या में लेने में कामयाब होते हैं तो भाजपा यकीनन हार जाएगी।
मेरठ निवासी मुहम्मद अफजल का कहना है, ‘’अबकि बार भाजपा की जीत आसान नहीं है। सपा- कांग्रेस गठबंधन प्रत्याशी के समीकरण बहुत मजबूत हैं और वह जीतने की मजबूत स्थिति में है।‘’
गाजियाबाद
उत्तर प्रदेश की सबसे बड़ी लोकसभा दिल्ली से सटी गाजियाबाद की है। गाजियाबाद अब अत्याधुनिक और संपन्न लोगों का गढ़ बन चुका है। यहां 29 लाख से ज्यादा मतदाता हैं। पिछले 30-40 बरस में बसी आवासीय कालोनियों की वजह से यहां की आबादी और मतदाताओं की संख्या में बेतहाशा वृद्धि हुई है। पिछले कई चुनाव से ये भाजपा का अभेद्य गढ़ बना हुआ है।
पिछले लोकसभा चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार और पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह ने सपा के उम्मीदवार को तीन लाख वोटों से हराया था। पिछले सभी चुनावों के रिकॉर्ड देखते हुए कहा जा सकता है कि इस बार भी भाजपा को हराना यहां एक बड़ी चुनौती है, बस हार-जीत के अंतर को कम करने पर संतोष किया जा सकता है।
लोकसभा चुनाव 2024 वैसे तो अब तक शांत है लेकिन गाजियाबाद में प्रमुख दलों ने जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए उम्मीदवार मैदान में उतारे हैं। भाजपा ने भारी उलटफेर करते हुए दो बार के सांसद और पूर्व केन्द्रीय मंत्री वीके सिंह का टिकट काटकर उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री और गाजियाबाद नगर विधायक अतुल गर्ग को उम्मीदवार बनाया है जिस पर राजपूत वोट बहुत नाराज़ बताया जा रहा है, लेकिन गाजियाबाद में बनिया वोटों की संख्या भी बहुत है। नई कालोनियों में भाजपा के परंपरागत वोटर भी बहुत हैं, इसलिए भाजपा के लिए कोई खास चुनौती यहां नजर नहीं आ रही।
कोई बड़ा चमत्कार हो जाए तो कुछ नहीं कहा जा सकता क्योंकि सपा-कांग्रेस गठबंधन में कांग्रेस के हिस्से में आई इस सीट पर कांग्रेस ने अपनी प्रवक्ता और गाजियाबाद के एक पुराने ब्राह्मण कांग्रेसी परिवार से एक महिला डॉली शर्मा को टिकट देकर ब्राह्मणों पर पकड़ बनाने के साथ भाजपा के इस गढ़ को भेदने का प्रयास किया है। भाजपा के लिए चुनौती बनने के लिए बसपा ने नाराज राजपूतों का फायदा उठाने की मंशा से यहां एक राजपूत उम्मीदवार नंद किशोर पुंडीर को मैदान में उतार दिया है। पहले चरण के मतदान से ठीक पहले राहुल गांधी और अखिलेश यादव ने गठबंधन की प्रेस कांफ्रेंस गाजियाबाद में ही की थी।
गाजियाबाद लोकसभा क्षेत्र में मुस्लिम, राजपूत, ब्राह्मण, और अनुसूचित जाति लगभग बराबर संख्या में हैं। बाकी जातियों की संख्या भी कम नहीं है। मुख्य मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच बताया जा रहा है लेकिन लगभग पांच लाख राजपूत और इतने ही दलितों के सहारे बसपा भी ताल ठोकने में पीछे नहीं है। जातिगत समीकरणों के हिसाब से यहां तीनों प्रमुख दलों का मुकाबला बराबर नजर आता है लेकिन संघ के काडर और भाजपा के हिंदुत्व का गहरा असर होने के कारण गाजियाबाद का मतदाता भाजपा को ही समर्थन देता रहा है।
गाजियाबाद में राज्य की सबसे बड़ी विधानसभा साहिबाबाद भी आती है जिसमें साढे दस लाख वोट हैं और जिस पर भाजपा विधायक सुनील शर्मा ने बड़े भारी अंतर से जीत दर्ज कराई थी। गाजियाबाद शहरी क्षेत्रों में भाजपा का बहुत वोट है, हालांकि देहात के इलाकों की विधानसभाएं जैसे लोनी, मुरादनगर, धौलाना आदि में दूसरे दलों की हिस्सेदारी हो सकती है।
गौतमबुद्ध नगर
उत्तर प्रदेश की दूसरी सबसे बड़ी लोकसभा गौतमबुद्ध नगर है। यानी प्रदेश की कमर्शियल राजधानी नोएडा और ग्रेब्टर नोएडा में द्वितीय चरण में मतदान होना है, जो गौतमबुद्ध नगर में आते हैं। गौतमबुद्ध नगर लोकसभा बहुत विशाल क्षेत्र में फैली हुई है। यह दिल्ली के बॉर्डर से लेकर खुर्जा विधानसभा तक है। नोएडा, दादरी, सिकंदराबाद, जेवर, और खुर्जा पांच विधानसभाओं पर आधारित गौतमबुद्ध नगर लोकसभा में 23 लाख से अधिक मतदाता अपने मताधिकार का इस बार प्रयोग करेंगे।
गाजियाबाद की तरह नोएडा को भी भाजपा का अभेद्य दुर्ग कहा जाए तो इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं है। जब से यह लोकसभा 2009 में सृजित हुई, यहां से बसपा के सुरेंद्र नागर और फिर दो बार भारतीय जनता पार्टी के डॉक्टर महेश शर्मा विजयी रहे हैं। महेश शर्मा नोएडा के कैलाश अस्पताल के मालिक हैं और काफी लोकप्रिय शख्स हैं। लिहाजा इस बार भी बहुत ज्यादा परिवर्तन की उम्मीद नहीं की जा सकती, लेकिन सभी दलों ने बहुत सोच-समझ कर अपने-अपने प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं।भाजपा ने अपने परंपरागत प्रत्याशी पूर्व केंद्रीय मंत्री डॉक्टर महेश शर्मा पर ही विश्वास जताया है जबकि सपा-कांग्रेस गठबंधन की ओर से गिरीश नागर मैदान में उतारे गए हैं जो इलाके के प्रसिद्ध बाल रोग विशेषज्ञ हैं। बहुजन समाज पार्टी ने भी जाति के गणित को ध्यान में रखकर अपने प्रत्याशी राजेंद्र सिंह सोलंकी को मैदान में उतारा है।
गौतमबुद्ध नगर लोकसभा में पांच विधानसभाएं हैं जिनमें दो सिकंदराबाद और खुर्जा बुलंदशहर जिले से आती हैं। इस बार भाजपा अपने तेवर में कहीं दिखाई नहीं पड़ रही है। राजपूतों की नाराजगी भी कहीं न कहीं देखी जा रही है। राजपूतों की भाजपा से नाराजगी पर उसके प्रत्याशी महेश शर्मा के भाषण का एक वीडियो पिछले दिनों वायरल हुआ था जिसमें उन्होंने कहा था: “जो योगी मोदी को अपना नहीं समझते वह अपने बाप को भी अपना नहीं समझते। वह देश का गद्दार है।”
गौतमबुद्ध नगर लोकसभा क्षेत्र में जातिगत समीकरण की बात करें तो यहां चार लाख के आसपास ठाकुर और इतने ही ब्राह्मण हैं। साढ़े तीन लाख मुस्लिम और इतने ही गुर्जर हैं। इतने ही दलित वोटर भी हैं। इसके अलावा अन्य वोटर भी काफी संख्या में हैं। इन्हीं समीकरणों को ध्यान में रखते हुए सपा-कांग्रेस गठबंधन और बसपा ने अपने प्रत्याशियों को उतारा है जबकि भाजपा अब तक यह सीट नोएडा की आवासीय कॉलोनियों में रहने वाले मतदाताओं की भारी संख्या के आधार पर जीतती रही है। आवासीय सोसायटियों में रहने वाले पढ़े-लिखे शहरी मतदाताओं को भाजपा का हिंदुत्ववादी एजेंडा सदा भाता रहा है, इसलिए उनका वोट कहीं और जाने की ज्यादा गुंजाइश नहीं है। देहाती इलाकों में इस एजेंडे पर भाजपा को ज्यादा समर्थन नहीं मिल पाता इसलिए वहां जातिगत समीकरण और उम्मीदवार की अपनी पकड़ ही रंग दिखा पाती है।
बुलंदशहर
बुलंदशहर सुरक्षित सीट पर भी 26 अप्रैल को वोट डाले जाएंगे। बुलंदशहर लोकसभा क्षेत्र में पांच विधानसभाएं आती हैं जिनमें बुलंदशहर, अनूपशहर, डिबाई, सियाना और शिकारपुर शामिल हैं। 17 लाख से अधिक मतों वाली इस सुरक्षित लोकसभा सीट पर भाजपा का पिछले दो चुनाव में कब्जा रहा है और दोनों बार उसका मुकाबला बहुजन समाज पार्टी से हुआ था। इस बार भी भाजपा ने अपने सांसद डॉक्टर भोला सिंह पर ही विश्वास जताकर उन्हें मैदान में उतारा है जबकि कांग्रेस और समाजवादी पार्टी गठबंधन के तहत यह सीट कांग्रेस के खाते में गई है और कांग्रेस ने शिवराम वाल्मीकि को अपना कैंडिडेट बनाया है। बसपा ने अपने मुकाबले को बरकरार रखने के लिए नगीना से सांसद गिरीश चंद्र जाटव को बुलंदशहर में लाकर बड़ा दांव खेल दिया है।
बुलंदशहर लोकसभा क्षेत्र में लोध और मुस्लिम वोट बड़ा उलटफेर करते रहे हैं। दोनों की लगभग बराबर संख्या है और इतने ही दलित मतदाता भी इस क्षेत्र में रहते हैं। अन्य जातियां भी ठीकठाक संख्या में हैं जो परंपरागत रूप से भारतीय जनता पार्टी के पक्ष में मतदान करती रही है़ं। इसलिए पिछले दो बार से भारतीय जनता पार्टी के डॉक्टर भोला सिंह बड़े अंतर से चुनाव जीतते रहे हैं। पिछली बार यहां बसपा की ओर से मेरठ की हस्तिनापुर सीट के विधायक रहे योगेश वर्मा उम्मीदवार बनाए गए थे (जिनकी पत्नी सुनीता वर्मा अबकी मेरठ से गठबंधन की ओर से चुनाव लड़ रही हैं)। योगेश वर्मा को डॉक्टर भोला सिंह ने बड़े अंतर से पराजित किया था।
कांग्रेस प्रत्याशी शिवराम वाल्मीकि को लेकर इलाके के लोग असमंजस में हैं कि कांग्रेस ने कोई मजबूत उम्मीदवार मैदान में क्यों नहीं उतारा है। शिवराम वाल्मीकि के बारे में बताया जा रहा है कि इन्हें लोग बहुत पहचानते नहीं है़ं। इसके बावजूद चूंकि सपा-कांग्रेस गठबंधन का इस बार प्रभाव है और मतदाता इस गठबंधन को ही भाजपा का मुख्य विरोधी मानकर चल रहे हैं इसलिए इन्हें वोट तो अच्छा-खासा मिलेगा।
बसपा के गिरीश चंद्र अगर बढ़िया चुनाव लड़े और दलितों को अपने पक्ष में एकतरफा खड़ा कर ले गए, साथ ही सपा-कांग्रेस गठबंधन के प्रत्याशी को मुस्लिम और भाजपा से नाराज ठाकुर और जाट वोट मिल जाएं, तो गठबंधन भाजपा को शिकस्त देने की स्थिति में आ सकता है। अगर बसपा व कांग्रेस के प्रत्याशी दोनों बराबर रह जाते हैं तब डॉक्टर भोला सिंह पिछली बार की तरह बहुत अच्छे मतों से जीत जाएंगे।
मथुरा
धार्मिक दृष्टि से उत्तर प्रदेश में अतिमहत्वपूर्ण तीर्थनगरी मथुरा में लोकसभा चुनाव बहुत जोरों पर चल रहा है जहां द्वितीय चरण में ही मतदान होना है। पिछले दो चुनाव से फिल्मी दुनिया की ड्रीमगर्ल हेमामालिनी यहां से भाजपा की सांसद रही हैं जो बड़े अंतर के साथ अपने प्रतिद्वंदियों को पराजित करती रही हैं। 2019 में वह तीन लाख से ज्यादा मतों से जीती थीं और 2014 में भी उन्होंने जयंत चौधरी को बड़े अंतर से हराया था।
भाजपा ने अपनी सांसद हेमामालिनी को तीसरी बार मौका दिया है जबकि सपा-कांग्रेस गठबंधन के तहत यह सीट कांग्रेस के हिस्से में गई है और कांग्रेस ने प्रदेश में पदाधिकारी मुकेश धनगर को अपना उम्मीदवार घोषित किया है। साथ ही बहुजन समाज पार्टी ने इस सीट पर जाटों का दबदबा देखते हुए पूर्व राजस्व अधिकारी सुरेश सिंह को उम्मीदवार बनाया है।
इस सीट पर लगभग 16 लाख से अधिक मतदाता हैं और इसमें जाट और मुसलमान साढे़ तीन लाख के आसपास बराबर संख्या में बताए जाते हैं। धनगर बिरादरी के लोग भी डेढ़ लाख के आसपास हैं। मथुरा सीट से अक्सर जाट ही सांसद बनते रहे हैं। हेमामालिनी, अभिनेता धर्मेंद्र की पत्नी होने के नाते जाट होने का दवा करते हुए यहां वोट मांगती रही हैं। पिछले चुनाव में रालोद ने भाजपा के खिलाफ चुनाव लड़ा था लेकिन इस बार तो वह भाजपा के साथ ही है, इसलिए उम्मीद की जा रही है कि इस बार भी जाट भाजपा के साथ रहेंगे।
किसान आंदोलन के बाद हालांकि जाटों का एक बहुत बड़ा वर्ग भाजपा से नाराज चल रहा है। क्या वह चुनाव में भाजपा से दूरी बनाए रखेगा? यह देखने वाली बात होगी। यदि बसपा मजबूत चुनाव लड़ गई तो भाजपा और कांग्रेस में कांटे की टक्कर होने की बहुत उम्मीद रहेगी। यदि मुस्लिम, धनगर और भाजपा से नाराज जाट और राजपूत व अन्य सपा और कांग्रेस के वोटर सुरेश धनगर के पीछे लामबंद हुए तो हेमामालिनी को कड़ी टक्कर का सामना करना पड़ सकता है।
मथुरा सीट पर वैसे तो कहीं भी भाजपा का धार्मिक एजेंडा अभी तक सुनाई नहीं दे रहा है लेकिन हो सकता है ‘मथुरा अभी बाकी है’ वाला पुराना नारा चुनाव चढ़ते-चढ़ते सामने आ जाए और ध्रुवीकरण की कोशिशें की जाएं। जिस तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इसकी शुरुआत 20 अप्रैल के अपने भाषण से की है, मथुरा में हिंदुत्ववादी एजेंडे पर चुनाव को लाने की कवायद मुमकिन लगती है।
अलीगढ़
पूरी दुनिया में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी (एएमयू) और बेहतरीन ताले बनाने के लिए प्रसिद्ध अलीगढ़ लोकसभा क्षेत्र में भी 26 अप्रैल को वोटिंग होनी है। एएमयू होने के नाते इस शहर पर मुसलमानों का अतिरिक्त प्रभाव तो नजर आता है लेकिन चुनाव में भारतीय जनता पार्टी यहां अपना झंडा गाड़ती रही है। इसीलिए इसमें कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि ठीक एक दिन पहले बांसवाड़ा में मुसलमानों को ‘घुसपैठिया’ कहने वाले प्रधानमंत्री का स्वर यहां 22 अप्रैल को आकर नरम हो जाता है और वे सऊदी अरब की सरकार से भारतीय मुसलमानों के लिए हज का कोटा बढ़वाने का श्रेय लेते नजर आते हैं।
बहरहाल, अलीगढ़ के सांसद सतीश चंद्र गौतम दो बार से काफी मतों से विजयी होते आ रहे हैं। इस बार फिर भाजपा ने उन्हें अपना उम्मीदवार बनाकर इस सीट को अपने कब्जे में रखने का मजबूत प्रयास किया है, लेकिन जो खबरें प्रथम चरण के चुनाव में दूसरे लोकसभा क्षेत्रों से मिलीं कि राजपूतों ने पंचायतें करके भाजपा के उम्मीदवारों का विरोध किया है उसी तर्ज पर अलीगढ़ में भी राजपूत भाजपा उम्मीदवार का विरोध कर रहे हैं। खबर यह भी मिल रही है कि ब्राह्मण समाज ने भी भाजपा के प्रत्याशी का विरोध करने का फैसला ले लिया है और खुल के बसपा के ब्राह्मण प्रत्याशी के पक्ष में या गए हैं।
सपा-कांग्रेस गठबंधन के तहत यह सीट सपा के खाते में गई है। समाजवादी पार्टी ने चौधरी बिजेंद्र सिंह को अपना उम्मीदवार बनाया है जबकि बहुजन समाज पार्टी जो पिछले चुनाव में उपविजेता रही थी उसने अपना उम्मीदवार हितेंद्र कुमार उर्फ बंटी उपाध्याय को बनाकर जातिगत समीकरण साधने का प्रयास किया है। बसपा प्रत्याशी को मिल रहे समर्थन की प्रतिक्रिया में भाजपा के कार्यकर्ताओं ने उनकी गाड़ी पर हमला किया, ड्राइवर को पीटा और इसके खिलाफ मुकदमा भी हुआ है।
अलीगढ़ लोकसभा क्षेत्र में मुसलमान लगभग चार लाख से ज्यादा बताए जाते हैं, जो यहां की आबादी का करीब 19 प्रतिशत बैठता है। इनके अलावा ठाकुर, जाट व दलित भी काफी संख्या में हैं। सपा ने एक बार सांसद रहे चौधरी बिजेंद्र सिंह को टिकट देकर अलीगढ़ सीट पर कब्जा करने की जो कोशिश की है वह उसमें कामयाब हो सकती है क्योंकि इलाके के लोगों का कहना है कि चौधरी बिजेंद्र सिंह खुद तो जाट हैं लेकिन इनकीअलीगढ़ के तमाम वर्गों में पकड़ रहती है।
भाजपा को यहां अंदरूनी विरोध का सामना भी करना पड़ रहा है। एटा से सांसद और पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह के पुत्र राजवीर सिंह उर्फ राजू भैया का समर्थन बसपा कैंडिडेट बंटी उपाध्याय के साथ बताया जा रहा है। यदि इस बात में सच्चाई है तो फिर सतीश चंद्र गौतम का चुनाव फंस सकता है। इस बात को पक्का करते हैं अलीगढ़ निवासी और मुस्लिम शिक्षा क्षेत्र में बड़ा काम करने वाले समाजसेवी डॉक्टर इदरीस कुरैशी, जिनका दावा है कि अलीगढ़ सीट सपा-कांग्रेस गठबंधन को ही जा रही है क्योंकि सतीश चंद्र गौतम को पार्टी के अंदर और बाहर दोनों तरफ भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है। दूसरी ओर गठबंधन प्रत्याशी चौधरी बिजेंद्र सिंह जाट होने के साथ-साथ तमाम वर्गों पर अपनी पकड़ रखते हैं।
अलीगढ़ लोकसभा क्षेत्र में हर बार अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का नाम भाजपा के लोगों द्वारा सांप्रदायिक माहौल बनाने के लिए प्रयोग किया जाता रहा है, लेकिन यूनिवर्सिटी के स्थापना दिवस पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के संबोधन के बाद इसमें भारी कमी आई है। कम से कम इतना तो हुआ है कि अलीगढ़ के भाजपा नेता अब यूनिवर्सिटी को अपने भाषणों में नहीं घसीट रहे हैं। बाकी कसर प्रधानमंत्री ने यहां मुसलमानों के हित की बात कर के पूरी कर दी है, जिससे भाजपा का मतदाता भ्रम में है कि वह बांसवाड़ा में उनके जताए मुस्लिम-द्वेष को सही माने या मुस्लिम हितैशी बोल को।
अमरोहा
लोकसभा चुनावी संग्राम के द्वितीय चरण में अमरोहा चुनावी युद्ध के लिए तैयार है। इस बार पिछली बार की तरह बहुजन समाज पार्टी इस सीट पर काबिज रह पाएगी यह कहना बहुत मुश्किल है। अमरोहा के सांसद कुंवर दानिश अली जो बसपा के टिकट पर निर्वाचित हुए थे कांग्रेस का दामन थाम चुके हैं। उन्हें बसपा ने निष्कासित कर दिया था। वह कांग्रेस के टिकट पर फिर से चुनाव मैदान में हैं।
बसपा ने यहां जो उम्मीदवार उतारा है वे बाहरी होने के कारण ज्यादा पहचान वाले नहीं बताए जाते। बसपा प्रत्याशी डाक्टर मुजाहिद हुसैन गाजियाबाद में डासना कस्बे के रहने वाले हैं। बसपा का मानना है कि इस बार फिर अमरोहा को वही जीतेगी लेकिन जमीनी हालात से इस बात में दम नहीं लग रहा है। इसकी वजह यह भी है कि पिछली बार बसपा प्रत्याशी दानिश अली को बसपा के परंपरागत दलित वोटों के अलावा मुस्लिम वोट भी काफी तादाद में मिला था, लेकिन इस बार मुसलमानों का रुझान सपा-कांग्रेस गठबंधन की ओर ज्यादा है और कांग्रेस ने सांसद दानिश अली को मैदान में उतार कर मुसलमानों के वोटों को ज्यादा से ज्यादा अपने पक्ष में करने का मंसूबा बना लिया है।
भाजपा ने अपने पुराने उम्मीदवार करण सिंह तंवर को ही फिर मैदान में भेजा है। करण सिंह तंवर गुर्जर समाज से हैं। उन्हें हसनपुर इलाके में खड़गवंशी समाज का विरोध झेलना पड़ रहा है। यदि खड़गवंशी समाज भाजपा से अलग होकर कांग्रेस को सपोर्ट करता है तो दानिश अली दोबारा जीतने में कामयाब रहेंगे क्योंकि इस समाज के डेढ़ लाख वोट बताए जाते हैं। यदि बसपा और कांग्रेस प्रत्याशियों में वोटों का बराबर बंटवारा हुआ तो भाजपा शायद बाजी मार ले जाएगी। भाजपा कैंडिडेट करण सिंह तंवर सभी नाराज वर्गों को साध पाने में कितना कामयाब होते हैं वही उनकी जीत सुनिश्चित करेगा। कांग्रेस प्रत्याशी को जीतने के लिए भी हिंदुओं के एक बड़े वर्ग का समर्थन मिलना जरूरी है, लिहाजा दानिश अली का भी यह चुनाव नए सिरे से एक इम्तिहान होगा।
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