जम्मू-कश्मीर को राज्य बनाए बिना हालात ठीक नहीं हो सकते : पूर्व गवर्नर सत्यपाल मलिक से बातचीत

Security guard at Lal Chowk
Security guard at Lal Chowk
जम्मू और कश्मीर के इतिहास में पूर्व गवर्नर जगमोहन के बाद सत्यपाल मलिक ही हैं जिनके जिक्र के बगैर कश्मीर पर आज बात नहीं हो सकती। आज मलिक और मोदी सरकार न सिर्फ दूर हो चुके हैं, बल्कि एक-दूसरे को नापसंद भी करते हैं। व्यवस्था को इतने करीब से देखने, जानने, समझने और खुद अमल में लाने वाले मलिक के लिए क्या बदल गया इन पांच वर्षों में, यह समझने के लिए रोहिण कुमार ने दिल्‍ली में अनुच्‍छेद 370 की पांचवीं बरसी पर उनसे लंबी बातचीत की

आज ही के दिन पांच साल पहले भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की अगुआई वाली केंद्र सरकार ने अपनी मातृ संस्‍था राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) की एक दुर्लभ मांग को पूरा किया था, जब जम्मू और कश्मीर को अनुच्छेद 35(ए) और अनुच्‍छेद 370 के तहत संविधान से मिला विशेष दरजा छीन कर उसे निहत्‍था कर डाला था। यह मांग पूर्ववर्ती जनसंघ और बाद में भाजपा के राजनीतिक एजेंडे में हमेशा से रही थी।

5 अगस्त 2019 को सुबह ग्यारह बजे गृहमंत्री अमित शाह ने लोकसभा में जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन बिल, 2019 पेश किया। बिल के मुताबिक लदाख तथा जम्मू और कश्मीर को अलग कर के दो केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाना था। भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि एक राज्य को केंद्र शासित प्रदेश बनाया जा रहा था, हालांकि ‘पहली बार’ के हवाले से ही प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का महिमामंडन बीते दस वर्षों के दौरान होता रहा है।

इस ऐतिहासिक राजनीतिक परिघटना को मुकम्मल करने के लिए एहतियाती तौर पर जम्मू और कश्मीर में सुरक्षाबलों की बेतरतीब तैनाती की गई। स्थानीय नेताओं (यहां तक कि पूर्व मुख्यमंत्रियों), राजनीतिक कार्यकर्ताओं, युवाओं को नजरबंद किया गया और जेल में डाल दिया गया। यानी, कोविड के चलते मार्च 2020 में लगाए गए देशव्‍यापी लॉकडाउन से सात महीने पहले ही जम्मू और कश्मीर में तालाबंदी कर दी गई।

फैसले के बाद सरकार को कश्मीर में हिंसक विद्रोह की आशंका थी इसलिए माहौल कुछ इस कदर बनाया गया कि जम्मू और लदाख में मानो खुशी की लहर दौड़ गई है, हालांकि श्रीनगर के सौरा के अलावा कहीं भी प्रदर्शन नहीं हुए। कमोबेश शांति ही रही। लोगों के भीतर गुस्सा और अपमान का भाव था, लेकिन वे इसके सार्वजनिक इजहार से बच रहे थे।

इस पूरे घटनाक्रम के दौरान एक शख्‍स, जिसने जम्मू और कश्मीर में केंद्र सरकार का वफादारी से प्रतिनिधित्व किया, वह थे वहां के तत्कालीन गवर्नर सत्यपाल मलिक। सरकार के इस फैसले से काफी पहले ही राज्य में भ्रम और कयासों का बाजार गरम था। मलिक ने राजनीतिक दलों के प्रतिनिधियों तक से सरकार की योजना का जिक्र नहीं किया। स्कूलों की छुट्टियां बढ़ा दी गईं, राज्य में अमरनाथ यात्रा के लिए आए तीर्थयात्रियों और पर्यटकों को वापस जाने का निर्देश जारी कर दिया गया। चारों तरफ अफरातफरी के माहौल के बावजूद सत्यपाल मलिक ने स्थिति स्पष्ट नहीं की।

यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि जम्मू और कश्मीर के इतिहास में पूर्व गवर्नर जगमोहन के बाद सत्यपाल मलिक ही हैं जिनका जिक्र किए बिना कश्मीर के संदर्भ में बात नहीं हो सकती। आज वही सत्यपाल मलिक और मोदी सरकार न सिर्फ दूर हो चुके हैं, बल्कि एक-दूसरे को नापसंद भी करते हैं। व्यवस्था को इतने करीब से देखने, जानने, समझने और खुद अमल में लाने वाले मलिक के लिए क्या बदल गया इन पांच वर्षों में, यह समझने के लिए फॉलोअप स्टोरी ने दिल्‍ली में अनुच्‍छेद 370 की पांचवीं बरसी की पूर्व संध्‍या पर उनसे लंबी बातचीत की। इस चर्चा के प्रमुख और प्रासंगिक अंश हम पाठकों के लिए प्रस्‍तुत कर रहे हैं।


Satyapal Malik, ex-Governor, Jammu and Kashmir
सत्यपाल मलिक, पूर्व गवर्नर, जम्मू और कश्मीर

हमें 5 अगस्त 2019 के आसपास का घटनाक्रम बताइए। केंद्र सरकार की तरफ से गवर्नर को कौन सी सूचना या दिशानिर्देश मिले? यह मैं आपसे इसलिए भी पूछ रहा हूं क्योंकि लेफ्टिनेंट जनरल कंवलजीत सिंह ढिल्लन ने बताया कि गृहमंत्री ने उनसे सुरक्षा तैयारियों के बारे में पूछा था।

पहले दिन से पता था कि सरकार ये करेगी। घोषणापत्र में भी था। बस टाइमिंग का नहीं पता था। मैं वहां लोगों से मिलते रहता था। मैं लोगों को समझाता था कि अलगाववादियों और तुम्हारे नेताओं के बच्चे विदेशों में पढ़ते हैं। तुम्हारे बच्चों को क्या मिलता है?  वे पत्थर फेंकते हैं और मारे जाते हैं। तुम ढाई सौ लड़के लेकर दुनिया की दूसरे नंबर की फौज से लड़ रहे हो। वे इन बातों पर निरुत्तर हो जाते थे। मैं उन्हें कहता था कि लड़कर तुम्हें कुछ नहीं मिलेगा, बातचीत से तुम्हें सब मिल सकता है।  मैंने कश्मीर में ‘सेंस ऑफ फटीग’ (थकाऊ माहौल) पैदा करवा दिया।

मैंने वहां जाते ही प्रेस कॉन्फ्रेंस की थी। उसमें कहा था कि कश्मीर की समस्या पैदा करने में दिल्ली का भी हाथ है। केंद्र सरकार को चुनावों में हेरफेर (नब्बे के संदर्भ में) नहीं करवाना चाहिए था। यासीन मलिक और दूसरे कार्यकर्ता  चुनाव में उम्मीदवार थे। चुनावों में गड़बड़ियां करवा के केंद्र ने इन्हें अलगाववादी और आतंकवादी बना दिया। मेरी प्रेस कॉन्फ्रेंस के बाद हुर्रियत के चीफ ने कहा कि इस गवर्नर ने पचास फीसदी सच बोल दिया है, जिस पर मैंने कहा था कि पचास मैंने कह दिया है, बाकी पचास तुम कह दो।

देखो, मैं जब भी दिल्ली आता था, जम्मू और कश्मीर का अपडेट देता था प्रधानमंत्री को। हमने सक्सेसफुल तरीके से पंचायत चुनाव करवाए थे। मैंने यह भी कहा था उन्हें कि कश्मीर की समस्या हल हो सकती है लेकिन प्रधानमंत्री इंटरेस्टेड नहीं थे।

जब भी होम मिनिस्टर से अनुच्छेद 370 के संदर्भ में बात होती थी, वे कहते थे कि बड़ी दिक्कत होगी सत्यपाल। मैं उन्हें कहता था कि कोई दिक्कत नहीं होगी। आप अपना माइंड मेकअप करो। मैं जम्मू और कश्मीर से राज्य का दर्जा (स्टेटहुड) हटाने के पक्ष में नहीं था, लेकिन गृहमंत्री का कहना था कि अगर स्टेटहुड नहीं हटाएंगे तो जम्मू और कश्मीर पुलिस सीधे हमारे कंट्रोल में नहीं रहेगी।

फिर एक दिन, 4 अगस्त की शाम को मुझे गृहमंत्री का फोन आया- सत्यपाल, ऐसा-ऐसा एक लेटर हमें चाहिए कल सुबह ग्यारह बजे के पहले। चूंकि जम्मू और कश्मीर में चुनी हुई सरकार नहीं थी, गवर्नर काउंसिल ही गृहमंत्री से अनुच्छेद 370 और 35(ए) हटाने की अनुशंसा कर सकती थी (सत्‍यपाल मलिक इतना कहने के बाद वह गोपनीय पत्र दिखाते हैं जिसे लिखकर उन्‍होंने गृहमंत्री से जम्मू और कश्मीर के विशेष प्रावधानों को खत्‍म करने की अनुशंसा की थी)।



फैसला लेने से पहले वहां के निर्वाचित जनप्रतिनिधियों से बातचीत क्यों नहीं हुई? 

वे (जम्मू और कश्मीर के चुने हुए जनप्रतिनिधि) होने ही नहीं देते, इसीलिए उनसे बातचीत नहीं की गई। इन नेताओं ने केंद्र सरकार को पर्याप्त डराया हुआ था कि अगर तुमने अनुच्छेद 35(ए) हटा दिया तो यहां (कश्मीर में) लाश उठाने वाला भी नहीं मिलेगा। मैंने गृहमंत्री को आश्वस्त किया कि आप आगे बढ़ो, मैं देख लूंगा।

पहले कश्मीर में पत्थरबाजी होती थी। मैंने वहां पर दो फ्रंट्स पर काम किया। फौज को कहा कि पत्थर फेंकने वालों को पलटकर गोली मार दो। मैं कोई मुकदमा नहीं होने दूंगा। दूसरा, मैंने बच्चों के लिए हर गांव में एक खेल का मैदान बनवाने के लिए काम किया। मैंने फुटबॉल टूर्नामेंट के लिए दो करोड़ रुपये दिए। एक मैच हुआ स्थानीय टीम का मोहन बगान की टीम से श्रीनगर में, वहां पच्चीस हजार लोग आ गए मैच देखने। उन्हीं दिनों हुर्रियत की मीटिंग हुई। वहां कहा गया कि भई, लड़के तो वहां (फुटबॉल मैच देखने) चले गए। हुर्रियत के चीफ ने कहा कि क्यों नहीं जाएंगे लड़के? न इन्हें तुमने वर्षों से सिनेमा देखने दिया, न फुटबॉल देखने दिया। उन्होंने कहा कि गवर्नर ने सही लाइन ली है। मेरी लाइन थी कि या तो इन्हें (लड़कों को) बॉल दे दो या ये पत्थर उठा लेंगे।

जम्मू कश्मीर के राजनीतिक हलकों में आपकी छवि बहुत अच्छी नहीं मालूम पड़ती। 2018 में भाजपा का पीडीपी सरकार से समर्थन वापस लेना और दूसरे दलों द्वारा सरकार बनाने की कवायद करने के बीच गवर्नर हाउस का कथित रूप से फैक्स मशीन का काम न करना- क्या उस समय केंद्र सरकार की ओर से कोई ऐसा निर्देश था कि सरकार नहीं बनने देना है?

वो ईद का दिन था। मैं दिल्ली से जम्मू गया चार बजे के आसपास। छह बजे मुझे महबूबा मुफ्ती का फोन आया कि हमारे पास बहुमत है। मैंने कहा कि लिखवाकर भिजवाओ। बयान से तो सरकार बनती नहीं है। प्रक्रिया ये है कि बहुमत का दावा करने वाली पार्टी की बैठक हो, सहयोगी दलों की बैठक हो, वहां जब चीजें पास करवा ली जाएं तब गवर्नर को समर्थन पत्र भेजा जाता है। मैंने इनका (महबूबा मुफ्ती और फारुक अब्दुल्ला), दोनों का रात आठ बजे तक इंतजार किया। इन्होंने बयानबाजी के अलावा कुछ नहीं किया। फारुक अब्दुल्ला और गुलाम नबी आजाद दिल्ली में थे। दोनों ने कहा कि वे श्रीनगर जाकर ही तय कर सकेंगे। तो मैं कैसे मान लूं कि महबूबा के पास बहुमत है। जबकि अब्दुल्ला और मुफ्ती दोनों मुझे एक हफ्ते से विधानसभा भंग करने को कह रहे थे। कह रहे थे कि हमारे विधायक तोड़े जा रहे हैं।   

पुलवामा घटना के संबंध में प्रेस ने आपके सनसनीखेज बयान छापे। क्या अब भी आप अपने बयान पर कायम हैं कि प्रधानमंत्री को जब आपने कहा कि यह घटना हमारी चूक का नतीजा है तो उन्होंने आपको ‘चुप रहने’ की हिदायत दी?

पुलवामा की घटना सुबह हो गई थी। प्रधानमंत्री से जब मैंने संपर्क करने की कोशिश की तो मालूम हुआ कि वे अपनी शूटिंग करवा रहे हैं जिम कॉर्बेट में। घटना के बारे में पता तो उन्हें चल ही गया था। मैं बहुत उद्वेलित था। मैंने दो-तीन चैनलों को बयान दे दिया था कि यह हमला हमारी गलती से हुआ है। मुझे शाम को छह बजे प्रधानमंत्री का फोन आया- “क्या हुआ सत्यपाल भाई?” मैंने उन्हें बताया कि हमारे चालीस जवान शहीद हो गए। सीआरपीएफ ने गृह मंत्रालय से पांच एयरक्राफ्ट मांगे थे, हमने नहीं दिए। फौज की इतनी बड़ी टुकड़ी सड़क के रास्ते नहीं जाती। चार महीने तक उनका पत्र (एयरक्राफ्ट संबंधी) गृह मंत्रालय में पड़ा रहा और बाद में मंत्रालय ने मना कर दिया। हमने उन्हें एयरक्राफ्ट दे दिया होता तो यह घटना होती ही नहीं। हमारी गलती से हुई है ये घटना। प्रधानमंत्री ने मुझसे कहा – “चुप रहना, चुप रहना।”

फिर मुझे अजीत डोभाल का फोन आया। उन्हें मुझसे कहा, “सत्यपाल भाई आप चुप रहना। हम लोग जांच करवाएंगे।” लेकिन अगले ही दिन मैंने देखा कि सरकार ने हमले का नैरेटिव पाकिस्तान की तरफ मोड़ दिया है। चुनावी भाषणों में प्रधानमंत्री कहने लगे- “जब वोट देना जाना तो पुलवामा के शहीदों को याद रखना।” जबकि आज तक पुलवामा की जांच का क्या हुआ, किसी को कुछ नहीं पता।  मैं तो विपक्ष को नाकारा समझता हूं, वे इस मुद्दे को उठा नहीं पाए।

इससे ही जुड़ा हुआ सवाल है कि पिछले दो-ढाई वर्षों से आतंक का थिएटर जम्मू में कैसे शिफ्ट हो गया?

हमले तो कश्मीर में भी हो ही रहे हैं। वहां सेना के कैंपों को निशाना बनाया जा रहा है। जम्मू की भौगोलिक स्थिति को समझना जरूरी है। जिन इलाकों (डोडा, रामबान, रेइसी, किश्तवार आदि) में हमले हो रहे हैं वे घने जंगलों वाले इलाके हैं। घुसपैठ में सहूलियत होती है आतंकियों को। दूसरा है कि जम्मू में पहले स्थानीय लोगों का सपोर्ट नहीं था आतंकियों को। आज इन इलाकों में आतंकियों के लिए सपोर्ट है। बिना लोकल सपोर्ट के हमले होना मुश्किल है। लोगों में प्रशासन के प्रति गुस्सा है। लोगों में घर कर गया है कि जम्मू और कश्मीर में भारत एक औपनिवेशिक ताकत है। 



आप जम्मू और कश्मीर के ऐतिहासिक दौर के गवर्नर रहे हैं। हम सामान्य तौर पर मानते हैं कि गवर्नर राज्य में केंद्र का प्रतिनिधि होता है। अपने कार्यकाल में आपको प्रधानमंत्री और उनके मंत्रियों से कश्मीर के मसले पर बातचीत करने के कई मौके आए होंगे। प्रधानमंत्री की अपनी एक मजबूत छवि है। हम जानने चाहते हैं कि प्रधानमंत्री का कश्मीर के मसले पर अप्रोच क्या है?

मोदी जी का कश्मीर के मसले पर कोई अप्रोच नहीं है। वह एक डरपोक और थर्ड ग्रेड प्रधानमंत्री हैं। कश्मीर की अच्छे से जानकारी तक नहीं है उनके पास। अमित शाह प्रो-ऐक्टिव हैं। जब 370 हटा तो उन्होंने मुझसे कहा कि वे पंद्रह दिनों तक सोये नहीं। चूंकि 370 का मसला इतना जटिल है कि इस पर निर्णायक फैसले तक पहुंचने के पहले कानूनी दांव-पेंच की जरूरत थी। वो सब अमित शाह ने किया।

अमित शाह शार्प व्यक्ति हैं। वे सोचते रहते हैं क्या करना है, कैसे करना है। योजना बनाने में, चीजों को समझने में अमित शाह की सक्रिया भूमिका रहती है। मैं प्रधानमंत्री से सबसे कम प्रभावित हूं। उन्हें तो भ्रष्टाचार तक से कोई शिकायत नहीं है। वे बस जिंदगी के मजे ले रहे हैं।

अमित शाह खुद से फैसले लेते हैं या संघ की उसमें कोई भूमिका है?

संघ को तो ये (प्रधानमंत्री और गृहमंत्री) मानते ही नहीं अब। संघ और भाजपा के बीच बहुत मतभेद चल रहे हैं। मोहन भागवत के हालिया बयानों पर गौर कीजिए। केंद्र सरकार ने आरएसएस को खुश करने के लिए ही अभी सरकारी कर्मचारियों को आरएसएस के कार्यक्रमों में शामिल होने पर लगे प्रतिबंध को हटाया है।  

जम्मू-कश्मीर प्रशासन पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगते रहे हैं। क्या आपने अपने कार्यकाल में किसी तरह के भ्रष्टाचार का कोई पैटर्न देखा? या कुछ ऐसी परिस्थितियां हैं वहां कि भ्रष्टाचार सिस्टम में इस कदर शामिल हो जाता है कि वह एक प्रक्रिया लगने लगे?

बिलकुल है। यहां तक कि तबादले में भी भ्रष्टाचार है। अमूमन जम्मू और कश्मीर में एक गजेटेड ऑफिसर के तबादले में पचास लाख तक की घूस ली जाती है। दो मामले तो मेरे सामने आए। सेक्रेट्री ने बताया कि दोनों में डेढ़-डेढ़ सौ करोड़ रुपये तक की कमीशन थी। मैंने कहा, होंगे भई। मैं तो पांच जोड़ी कुर्ते पैजामे में आया हूं और ऐसे ही चला जाऊंगा। मेरी इन चीजों में कोई दिलचस्पी नहीं है। मैंने इन दोनों फाइलों के बारे में प्रधानमंत्री को बताया। नाम बताए उन्हें। एक बार भी उसकी जांच नहीं हुई। 

आपके ऊपर किरू हाइड्रो इलेक्ट्रिक पावर प्रोजेक्ट के संबंध में भ्रष्टाचार के आरोप लगे हैं। सीबीआइ ने  मामले में जांच शुरू की है। आपकी टिप्पणी।

(मुस्कुराते हुए) जिसने इस भ्रष्टाचार के बारे में सरकार को सूचित किया, उसकी ही जांच करवा दी सरकार ने। सीबीआइ ने मेरे दिल्ली, गुड़गांव और बागपत के घरों पर छापा मारा। मेरे सहयोगी का फोन ले गए। उसके घर पर छापा मारा। सीबीआइ को कुछ नहीं मिला लेकिन अपनी तरफ से उन्होंने कोई कसर नहीं छोड़ी। मेरी सुरक्षा वापस ले ली गई। जम्मू और कश्मीर के गवर्नर को घर तक मिलता है। सरकार ने कुछ नहीं दिया। जम्मू और कश्मीर के पूर्व गवर्नर जगमोहन जब मृत्युशैय्या पर थे, तब भी उनकी सुरक्षा में चालीस जवान लगे थे। आज भी एनएन वोहरा (पूर्व गर्वनर) के पास सुरक्षा है। मुझे तो ज्यादा खतरा था। अनुच्छेद 370 हटाया था मैंने। पाकिस्तान से भी खतरा था मुझे। मेरी सुरक्षा में एक सिपाही है।



खतरा महसूस करते हैं आप? सुरक्षा हटा लिए जाने के बाद अपनी सुरक्षा बहाल करने की मांग की?

खतरा तो है ही, लेकिन मैंने सरकार से सुरक्षा हटा लिए जाने बाद सुरक्षा की मांग नहीं की। कोर्ट चला जाऊंगा तो अगले ही दिन सुरक्षा बहाल हो जाएगी। पर मैं खुद को डरा हुआ दिखाना नहीं चाहता कि सत्यपाल मलिक डर गया। 

आपके हिसाब से जम्मू और कश्मीर में हालात बेहतर कैसे हो सकते हैं?

जम्मू और कश्मीर में स्टेटहुड छीन लिए जाने का बड़ा दर्द है। जब अमित शाह ने संसद में बिल पेश किया तो कहा गया था कि फिलहाल के लिए राज्य का दर्जा लिया जा रहा है, इसे जल्द ही बहाल कर दिया जाएगा। एक दिन मैं प्रधानमंत्री से मिला कि साहब कम से कम राज्य का दर्जा वापस कर दो। सदन में गृहमंत्री ने एश्‍योरेंस (भरोसा) दिया था। प्रधानमंत्री ने कहा, कुछ नहीं होता ऐसे एश्‍योरेंस का सत्यपाल भाई। अब सरकार अगर राज्य का दर्जा वापस करेगी तो डर के करेगी। प्रधानमंत्री को डर है कि कहीं उनके साथ कोई अप्रिय घटना न हो जाए। स्टेटहुड की मांग अब लदाख और जम्मू में भी है। जम्मू और कश्मीर में नॉर्मेल्‍सी (हालात सामान्य) स्थापित तभी होगी जब स्टेटहुड वापस होगा। आज भी वहां इमरजेंसी जैसे हालात हैं। जम्मू और कश्मीर में एक हाथ मोहब्बत का और दूसरा हाथ सख्ती का रखना पड़ेगा। सिर्फ सख्‍ती से काम नहीं होगा।



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