ठीक दस दिन पहले की बात है। किसी आम सुबह की तरह ही लेह की वह सुबह भी थी, लेकिन 5 अगस्त 2019 की सुबह से अलग! पांच बरस हो गए लद्दाख और जम्मू-कश्मीर को केंद्र शासित प्रदेश बने हुए। इत्तेफाक ही कहेंगे कि इन पांच वर्षों में से तीन बार मैं इस जमीन पर 5 अगस्त का साक्षी रहा। अब तक कश्मीर के लोगों को इस दिन को ‘काला दिन’ बताते हुए सुना है, तो सुरक्षाबलों को इस दिन के लिए अतिरिक्त तैयारी करते भी देखा है। लेह का अनुभव हालांकि इस बार अब तक के मेरे अनुभवों से बिलकुल अलहदा रहा।
सुबह साढ़े छह बजे से ही कड़ाके की धूप शहर के ऊपर तन चुकी थी। कैमरे की बैटरी को चार्जिंग पर डालकर मैं फ्रेश होने गया। बाथरूम से बाहर आया तो देखा कि स्टडी टेबल पर ब्रेड-ऑमलेट रखा है। समझ गया कि ताशी ही रखकर गया होगा। कोई दो साल पहले एक प्रोजेक्ट के सिलसिले में मैं ताशी के साथ चुशूल गया था। वहां एक रोज़ नाश्ते पर मुझे टोकना पड़ा कि मुझसे सुबह-सुबह समोसा और चटनी नहीं खाई जाती। तब मुझे ब्रेड-ऑमलेट मिला था।
उस दिन से जब भी मैं लेह जाता हूं, ताशी के यहां ब्रेड ऑमलेट ही मेरा स्थायी नाश्ता बन चुका है। तो नाश्ते के साथ ही मैंने कुछ जरूरी कॉल निपटाईं और पैदल ही हिल काउंसिल के दफ्तर की ओर निकल पड़ा। पोलो ग्राउंड चौक पर दिहाड़ी मजदूरों की भीड़ अपने ‘मालिक’ का इंतजार करती दिखी। भीड़ में मौजूद शक्लें देखकर मुझे अंदाजा हो गया कि ज्यादातर मजदूर उत्तर भारत से ही हैं। तभी एक मजदूर को कहते सुना, “आठ बज गइल भाई, अब आज बेला ही बइठे के पड़ी हो‘’ (आठ बज गए हैं। आज खाली ही बैठना पड़ेगा)। भोजपुरी सुनकर मेरा अंदाजा यकीन में बदल गया।
मैंने एक से पूछा, “कहंवा से बानी रउआ?’’ (कहां से हैं आप)
“बेतिया जिला”, उसने जवाब दिया।
“सब जना बेतिये से?’’ (सभी लोग बेतिया से), मैंने चार-पांच लोगों के उस झुंड की ओर इशारा करते हुए पूछा।
“जी सर, सब बेतिया से”, जवाब मिला।
“आज पांच अगस्त बा नू, हो सकेला कि आज बंदी होई’’ (पांच अगस्त है आज, शायद शहर बंद हो), मैंने दिन भर की उनकी संभावित बेकारी को एक कारण देना चाहा।
मेरी इस बात पर उनका कोई रिऐक्शन नहीं आया। अहसास हुआ कि ‘पांच अगस्त’ को उनमें से किसी ने भी रजिस्टर नहीं किया। मैंने बात बदली। लद्दाख और बेतिया के मौसम का जिक्र छेड़ दिया। फिर चाय पीकर हिल काउंसिल की तरफ बढ़ गया।
दोहरी पहेली
भारत के राजनीतिक इतिहास में 5 अगस्त का दिन एक प्रतीक के रूप में दर्ज हो चुका है। इस दिन कश्मीर में एक ओर जहां विरोध दर्ज करने के लिए कश्मीरी खुद ही अपनी दुकानें बंद रखते हैं, वहीं सुरक्षाबल शहर के हालात को सामान्य दिखाने की भरसक कोशिश में जुटे रहते हैं। इस कोशिश की बेचैनी ऐसी है कि 2022 में पांच अगस्त के दिन लाल चौक पर मैंने जम्मू-कश्मीर पुलिस के एक जवान को एक दुकान का ताला तोड़ते हुए तक देखा है। उन्हें दुकानों के शटर उठाते देखा है।
इधर लेह शहर अपनी स्वाभाविक रफ्तार के साथ दिन में ढल रहा था। सब्जियों-फलों, शॉल-कम्बल की दुकानें सज रही थीं। सड़कों पर झाड़ू लग रही थी। ढाबों के बाहर कहीं बर्तन धुल रहे थे तो कहीं चूल्हा सुलगाने की तैयारी चल रही थी। जगह-जगह पर महिलाएं हाथ देकर गाड़ीवालों से लिफ़्ट मांगती दिख रही थीं। टूर-ट्रैवेल एजेंसियों के एजेंट सैलानियों को जैसे जबरन खारदूंगला, नुबरा, पैंगॉन्ग आदि की टैक्सी में बैठा देने को व्याकुल से थे। गले में कैमरा लटकाए कुछ पर्यटक हिमालय के प्रभाव में बसे शहर के विहंगम दृश्य कैद कर रहे थे। विदेशी सैलानी लद्दाखी दरवाजों और खिड़कियों की नक्काशी को निहारते हुए बेहद प्यारे लग रहे थे।
हिल काउंसिल परिसर के बाहर पार्किंग के पास नीली शर्ट और स्लेटी पैंट पहने एक लद्दाखी लड़की ऊंची आवाज़ में सिद्धू मूसेवाला का एक लोकप्रिय गाना ‘295’ सुन रही थी। उसके पास कुछेक A4 साइज के पोस्टर थे। कई पोस्टरों के नीचे से झांकते एक पोस्टर पर फौजी टोपी जैसा कुछ दिख रहा था। मैंने वह पोस्टर गट्ठर से बाहर खींचा। उस पर “dPal rNgam Duston: Celebrating 50 Years of Tourism” लिखा था।
मेरे पूछे बिना ही उसने कहा, “आज शाम को सिक्स पीएम हमारा पर्फोर्मेंस है। डांस करेगा हम लोग।”
“वाह! ऑल द बेस्ट,” शुभकामना देने के बाद जरा रूककर मैंने पूछा, “295 पर पर्फार्म करोगे आप?”
हंसते हुए उसने कहा, “नहीं, नहीं। हमारा फोक सांग (लोकगीत) पर पर्फार्म करेगा।”
उसे दोबारा शुभकामना देकर मैं लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल के कार्यालय पहुंचा। दाखिल होते ही सामने मुझे पद्मभूषण कुशक बकुल रिनपोछे की प्रतिमा दिखी। मेरे दाईं ओर था लेह हिल काउंसिल कॉम्पलेक्स के उद्घाटन का शिलान्यास पट्ट, जिसके मुताबिक इस परिसर का उद्घाटन जून 2000 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने किया था।
कार्यालय परिसर में घास काटते दो मजदूरों के अलावा एक व्यक्ति चीफ एग्जीक्यूटिव काउंसिलर (सीईसी) के केबिन के बाहर टकरा गया। यह व्यक्ति अगर न टकराया होता तो शायद मेरी समझ यही बनती कि मैं दफ्तर के समय से पहले ही वहां पहुंच गया हूं।
“ऑफिस बंद है क्या?”, मैंने पूछा।
“आज नगम दस्तो है न। सब उधर ही गया है”, उसने कहा। पहली बार किसी के मुंह से rNgam Duston स्थानीय लहजे में सुना, तो लगा कि इस शब्द का सबसे करीबी स्थानीय उच्चारण “नगम दस्तो” ही है।
“सीईसी भी? उनसे मुलाकात कैसे हो सकती है?” पूछकर मैंने टेबल पर पड़ी पत्रिका उठाई। यह पत्रिका लद्दाख सरकार की पिछले चार वर्षों की उपलब्धियों का लेखा-जोखा समेटे हुए थी।
“आज तो मुश्किल है। सीईसी साहब तो पूरे दिन यूटी (केंद्र शासित प्रदेश) फाउंडेशन डे में बिजी होंगे। कल आना आप।” कहकर वह दलाई लामा की तस्वीर को कपड़े से साफ करने लगा।
मिनट भर में उसने मुझे दो बयान दिए थे। दोनों में दो अलग-अलग कार्यक्रमों का जिक्र। अपनी अज्ञानता के कारण मैं कंफ्यूज हो गया था। सो, अज्ञानता को जिज्ञासा का जामा पहनाते हुए मैंने पूछा, “यूटी फाउंडेशन डे को ही नगम दस्तो कह रहे हैं आप?”
उसने मेरी ओर देखा और कहा, “अभी लेह पैलेस में हो रहा है एक कार्यक्रम। एक शाम को होगा एनडीएस ग्राउंड में।”
मैं उससे कुछ और पूछता, कि वह कपड़े का डस्टर लेकर कार्यालय की दूसरी तरफ निकल लिया।
बाहर-बाहर से दफ्तर का एक चक्कर काटकर मैं सड़क की ओर निकल आया। पहाड़ी सड़कों पर चढ़ते-उतरते मेरे फेफड़ों की काफी परीक्षा हो चुकी थी। पास में एक बेकरी दिख रही थी। वहां जाकर मैंने काउंटर पर खड़े शख्स को छेड़ने के लिए कहा, “फाउंडेशन डे स्पेशल खिलाइए कुछ”। उनके चेहरे पर मद्धिम-सी हंसी पसर गई, “मैं आपको नगम दस्तो स्पेशल खिलाता है”, कहते हुए उन्होंने एक चॉकलेट डोनट मेरी तरफ बढ़ाया।
मैंने तुरंत पूछ लिया, “फाउंडेशन डे को ही नगम दस्तो कहते हैं क्या?”
“नहीं, नहीं, नगम दस्तो लद्दाख के हीरोज़ को सेलिब्रेट करने का फेस्टिवल है। फाउंडेशन डे तो 5 अगस्त को होता है”, उन्होंने जवाब दिया।
इस जवाब ने फिर वही दुविधा पैदा की क्योंकि आज तो पांच अगस्त ही था। नगम दस्तो अगर एक फेस्टिवल है तो उसकी तारीख किसी कैलेंडर या पंचांग से तय होती होगी। या यह कोई इत्तेफाक है कि नगम दस्तो और लद्दाख फाउंडेशन डे एक ही दिन पड़ते हैं? 5 अगस्त को?
शायद उन्होंने मेरे चेहरे पर छाये असमंजस को पढ़ लिया था। इस शख्स का नाम था सेरिंग। उम्र चालीस वर्ष के करीब। पिछले बारह साल से वे सोनम नुबरो हॉस्पिटल के उल्टी सड़क पर दुकान करते हैं। सबसे पहले शॉल की दुकान की थी। पिछले तीन वर्षों से बेकरी की दुकान कर रहे हैं।
उन्होंने मुझे समझाया, “लद्दाख में बहुत सारे वॉर हीरो हैं। फोक सिंगर हैं। आर्टिस्ट हैं। राइटर्स हैं। अलग-अलग क्षेत्रों में ब्रिलिएंट काम किया। उन्हें लेह ऑटोनॉमस हिल डेवपलमेंट काउंसिल अवार्ड देती है। उसे हम नगम दस्तो कहते हैं।”
“और यह 5 अगस्त को होता है?” मैंने पूछा।
“जरूरी नहीं। किसी भी दिन हो सकता है”, सेरिंग ने कहा।
वर्ष 2016 में हिल काउंसिल ने dpal-नगम दस्तो की शुरुआत की थी। यह लद्दाख की प्रख्यात हस्तियों को श्रद्धांजलि अर्पित करने और सम्मानित करने का एक वार्षिक आयोजन है। यह कार्यक्रम किसी भी दिन हो सकता है, लेकिन सरकार वर्ष 2022 से 5 अगस्त के दिन ही इसका वार्षिक आयोजन करती आ रही है। उससे पहले 2019 से 2021 तक 31 अक्टूबर को लद्दाख सरकार नगम दस्तो मनाती रही है। 31 अक्टूबर को ही लद्दाख यूटी फाउंडेशन डे कहा जाता रहा है, लेकिन लोगों की स्मृतियों में 5 अगस्त को फाउंडेशन डे और नगम दस्तो के तौर पर दर्ज कराने की कोशिश 2022 से शुरू हुई है।
सतह के नीचे
लेह और करगिल दोनों ही जगहों के लोगों से बातचीत करते हुए मैंने महसूस किया नगम दस्तो को फाउंडेशन डे के साथ मिला देना उन्हें पसंद नहीं आया है। फाउंडेशन डे लोगों में उत्साह भरता हुआ नहीं दिखा।
तेंजिन दाम्दुल कहते हैं, ‘’बतौर लद्दाखी, नगम दस्तो हमारे लिए एक सांस्कृतिक आयोजन है जबकि लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया जाना एक राजनीतिक फैसला है। हमें जम्मू और कश्मीर से अलग करके अपनी नई पहचान दी गई, हमें इसकी खुशी है, लेकिन पहचान देकर पावरलेस (शक्तिहीन) कर देने के खिलाफ हमारा गुस्सा और नाराजगी भी है।”
उनके अनुसार लद्दाख को छठवीं अनुसूची में शामिल किए बिना केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने का कोई लाभ नहीं है। इसके लिए पिछले एक वर्ष से लद्दाख के लोग सड़कों पर हैं। लद्दाख भाजपा में भी कई नेताओं और कार्यकर्ताओं ने छठवीं अनुसूची की मांग को बुलंद किया है।
कांग्रेस के स्थानीय नेता और तिमिस्गाम सीट से हिल काउंसिल के सदस्य ताशी तुन्दुप के मुताबिक, “सरकार अगर यह कहे कि वो फाउंडेशन डे मना रही है तो शायद ही लद्दाख के लोग कार्यक्रमों में शामिल होंगे। यहां बच्चा-बच्चा जागरूक है और वह जानता है कि लद्दाख की मांग पूरी नहीं हुई है, बल्कि पिछले पांच वर्षों में हमारा नुकसान ही ज्यादा हुआ है। नौकरियों में कमी आई है। आउटसोर्स की जा रही हैं ज्यादातर नौकरियां। लद्दाख के युवाओं के लिए लद्दाख स्काउट्स (आर्मी की एक टुकड़ी) में शामिल होना शान की बात होती थी। उसकी बहाली ही नहीं हो रही है।”
दरअसल, केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद हिल काउंसिल जमीन और नौकरियों के मामले में अब हस्तक्षेप नहीं कर सकती। काउंसिल के काउंसिलरों के मुताबिक, लद्दाख को छठवीं अनुसूची का दरजा दिए बगैर केंद्र शासित प्रदेश बनाए जाने से काउंसिल की शक्तियां कम हो गई हैं। हिल काउंसिल नियम तो बना सकती है लेकिन वह गवर्नर पर निर्भर करता है कि वे उसे मंजूरी देते हैं या नहीं।
पहले ऐसी स्थिति नहीं थी। लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल एक्ट, 1995 के जरिये लेह और करगिल में स्थापित ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल एक तरीके से लद्दाख में लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की शुरुआत थी। काउंसिल के बिजनेस रूल के मुताबिक, हिल काउंसिल एक स्वायत्त संस्था है जो अपनी स्थानीयता को केंद्र में रखकर नियम और कानून बना सकती है, साथ ही वह विधानसभा के बनाए कानून पर पुनर्विचार की मांग कर सकती है। हिल काउंसिल के पारित किए नियम एवं कानून को कार्यपालिका मानने को बाध्य है।
पांच अगस्त 2019 को यह स्थिति बदल गई। अब काउंसिलरों का बचा हुआ बजट साल के अंत में सरकार को वापस चला जाता है और अगले साल के बजट में ट्रांसफर नहीं होता बल्कि दोबारा आवंटन होता है। पहले हिल काउंसिल का बजट जम्मू और कश्मीर राज्य के बजट से ही दिया जाता था।
पिछले पांच वर्षों में हमारा नुकसान ही ज्यादा हुआ है। नौकरियों में कमी आई है। आउटसोर्स की जा रही हैं ज्यादातर नौकरियां।
- ताशी तुन्दुप, तिमिस्गाम सीट से हिल काउंसिल के सदस्य
इसी संदर्भ में बीते 2 अगस्त, 2024 को कांग्रेस के सांसद सप्तगिरी उलाका और तनुज पुनिया ने केंद्रीय राज्य जनजातीय कार्य मंत्री दुर्गादास उइके से पूछा था कि क्या सरकार भारतीय संविधान की छठवीं अनुसूची का दायरा लद्दाख तक बढ़ा रही है? इसमें देरी की वजह क्या है? जवाब में केंद्रीय राज्यमंत्री ने बताया कि अनुच्छेद 244(2) के अंतर्गत छठवीं अनुसूची और केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख दोनों ही गृह मंत्रालय के कार्यक्षेत्र के विषय हैं।
मंत्री ने गृह मंत्रालय के हवाले से बताया, “लद्दाख के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद लोकतांत्रिक प्रतिनिधित्व और ऑटोनोमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल की शक्तियां बहाल की जा चुकी हैं।” राज्यमंत्री के मुताबिक, लद्दाख ऑटोनॉमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल एक्ट, 1995 के अंतर्गत लेह और करगिल ऑटोनोमस हिल डेवलपमेंट काउंसिल डिस्ट्रिक्ट प्लानिंग और डेवलपमेंट बोर्ड की तरह काम करने को अधिकृत हैं। वे सरकार के विभिन्न कार्यक्रमों और नीतियों के मद्देनजर अपनी क्षेत्र की जरूरतों को केंद्र में रखकर स्वतंत्र योजनाएं बना सकते हैं। केंद्रीय राज्यमंत्री ने बताया कि वर्ष 2023-24 में हिल काउंसिल का बजट 2019-20 के 183 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 600 करोड़ रुपये कर दिया गया है।
इन दावों से उलट, यहां के लोगों का मानना है कि हिल काउंसिल के पास कोई ताकत नहीं है। लेह के बाजार में रेस्तरां और कैफे चलाने वाले नाम्ग्याल ने बताया, ‘’हमारी जनसंख्या से ज्यादा पर्यटक पहुंच रहे हैं। यह तब तक बुरा नहीं है जब तक हमारे लोगों का हक नहीं मारा जा रहा। लद्दाख के लोकतांत्रिक अधिकार, लद्दाखी संस्कृति और पर्यावरण का संरक्षण जरूरी है। आज बाहर के होटल आ रहे हैं लद्दाख में। वे होटल डीप बोरिंग कर रहे हैं, वेस्टर्न टॉयलेट बना रहे हैं क्योंकि ब्यूरोक्रेसी का उनको सपोर्ट है। हिल काउंसिल के पास पावर नहीं है कुछ करने की। स्थानीय लोगों को पता है कि लद्दाख का पर्यावरण बेहद संवेदनशील है, अगर निर्णय लेने की शक्ति उनके पास होगी तभी लद्दाख बचेगा। यह या तो सिक्स्थ शेड्यूल से संभव होगा या हमें राज्य का दर्जा देना होगा”।
लद्दाख भारत का सबसे ऊंचा पठार क्षेत्र है। हिमालय और कुनलून पर्वत पर फैला यह क्षेत्र पर्यावरण की दृष्टि से बहुत नाजुक है। यहां के लोगों का कहना है कि जो लोग इस क्षेत्र से वाकिफ नहीं हैं, उन्हें इसकी संवेदनशीलता समझ में नहीं आएगी। भारतीय जनता पार्टी, लेह से जुड़े सिंगे आंग्चुक कहते हैं, “उनके (गैर-लद्दाखी लोगों) लिए यह एक फोटोजेनिक पर्यटन स्थल मात्र है। दिल्ली-बॉम्बे के ब्यूरोक्रेट यहां आकर कोई भी फैसला करें, वह किसी भी लद्दाखी को मंजूर नहीं है। हमारे यहां हिल काउंसिल है। उसे वह शक्ति होनी चाहिए कि वह तय करे किस तरह की इंडस्ट्री आएगी लद्दाख में।”
यह बात उन्होंने एक उदाहरण के हवाले से समझाने की कोशिश की, “लद्दाखी औसतन पांच से सात लीटर पानी में गुजारा कर लेता है जबकि बाकी जगहों पर औसतन बीस से तीस लीटर पानी प्रतिव्यक्ति खर्च है। वो अलग बात है कि अब बाकी जगहों पर पानी की अहमियत समझी जा रही है। एक आम समझ है कि लद्दाख को टूरिज्म स्पॉट की तरह डेवलप करना है, उसमें हमें दिक्कत नहीं है। हमें दिक्कत है कि लद्दाख का डेवलपमेंट शहरी लेंस से नहीं किया जाए। लद्दाख का डेवलपमेंट मॉडल यूनीक होना चाहिए। यहां की भौगोलिक स्थितियों और संस्कृति को तवज्जो मिलनी चाहिए।”
उनके साथी स्तांजिन नोर्बू ने हंसते हुए कहा, ‘’हम नहीं चाहते कि यहां भी हर जगह पनीर दोप्याजा सिन्ड्रोम फैल जाए और लद्दाख के खानपान को आउटडेटेड बताया जाने लगे।”
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लेह और करगिल
छठवीं अनुसूची और लद्दाख की अस्मिता के मसले पर लेह और करगिल के लोगों के बीच आम सहमति दिखती है। पूछने पर बेशक वे लेह के छठवीं अनुसूची की मांग को जायज बताते हैं, लेकिन करगिल के लोगों की बातचीत में स्वत: छठवीं अनुसूची का जिक्र कम आता है। इसका कारण है कि करगिल में खुद को उपेक्षित किए जाने की भावना है। उनके मुताबिक इस उपेक्षा का कारण उनका मुसलमान होना है।
करगिल के लोगों में मैंने जम्मू और कश्मीर के प्रति सहानुभूति का भाव पाया जबकि जम्मू और कश्मीर में कारगिल के प्रति यह भावना नहीं दिखी। दरअसल, करगिल शिया मुसलमान बहुल क्षेत्र है। लेह बौद्ध बहुल है। ऐसे में करगिल की आबादी खुद को जम्मू और कश्मीर के करीब ज्यादा पाती है जबकि लेह में बौद्ध धर्म के लोगों को जम्मू और कश्मीर से अलग होना था। उनके तर्कों में मुसलमानों के प्रति सांप्रदायिक सोच की झलक भी मिलती है।
सेना के लिए पोर्टर का काम कर चुके करगिल निवासी हामिद अली कहते हैं, ‘’लद्दाख में अलग-अलग दशकों में जम्मू और कश्मीर से अलग होने की मांग उठती रही है लेकिन 2019 और उसके पहले के कुछेक वर्षों में यह मांग ठंडी पड़ गई थी। फिर अचानक 5 अगस्त 2019 को मालूम हुआ कि सरकार ने लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया है। हमारे लिए यह फैसला किसी आश्चर्य से कम नहीं था।”
वे कहते हैं, “करगिल में तो जश्न के बजाय शॉक लगा था। हमें सरकार की इस दरियादिली पर शक हुआ था। मुझे याद है कि 6-7 अगस्त 2019 को करगिल हिल काउंसिल के कार्यालय पर प्रदर्शन हुए थे।”
करगिल के ही मोहम्मद सलीम जान टूरिस्ट कैब चलाते हैं। उनके अनुसार लेह में उन्होंने अपने धर्म के कारण भेदभाव का अनुभव किया है। वे कहते हैं, “हम लोगों को (करगिल के लोगों) को जैसे लद्दाख में इनविजिबल (नजर से ओझल) कर दिया गया है। लद्दाख का मतलब लेह सा हो गया है। 2019 से ही हम लोग कह रहे हैं कि हिल काउंसिल की शक्तियाँ छीनने से परेशानियां बढ़ जाएंगी, तब हमें कहा जाता था कि करगिल के मुसलमान जम्मू और कश्मीर से अलग होने पर मातम मना रहे हैं।”
लद्दाख जब जम्मू और कश्मीर का हिस्सा था तो बजट बेशक छोटा था लेकिन आज बड़ा बजट होने के बावजूद हिल काउंसिल के पास वित्तीय शक्तियां नहीं हैं।
- सज्जाद करगिली
करगिल के एक राजनीतिक कार्यकर्ता सज्जाद करगिली बताते हैं, “पिछले पांच वर्षों में लद्दाख में एक भी गजेटेड पोस्ट नहीं निकली है। हिल काउंसिल का बिजनेस रूल– हिल काउंसिल ब्यूरोक्रेट्स के अधीन होंगी या ब्योरोक्रेट्स हिल काउंसिल की सुनेंगे– यह अभी तक स्पष्ट नहीं है। लद्दाख जब जम्मू और कश्मीर का हिस्सा था तो बजट बेशक छोटा था लेकिन आज बड़ा बजट होने के बावजूद हिल काउंसिल के पास वित्तीय शक्तियां नहीं हैं।”
उनके अनुसार वित्तीय शक्तियां नहीं होने का मतलब है कि हिल काउंसिल के काउंसिलरों के बजट जो साल में खर्च नहीं होते, वह अगले साल ट्रांसफर नहीं होते बल्कि वह फंड सरकार को वापस चला जाता है। यह महत्वपूर्ण इसलिए है क्योंकि लद्दाख में अमूमन आठ महीने ही काम होता है जबकि चार महीने ठंड और बर्फ़ के कारण काम बंद रहता है।
करगिली की बात ने मुझे लेह में होम स्टे चलाने वाली यांगदोल से बातचीत की याद दिला दी। यांगदोल के बेटे पिछले कई वर्षों से सिविल सर्विस की तैयारी कर रहे थे। यांगदोल ने बताया था, “पिछले पांच वर्षों से पब्लिक सर्विस कमीशन की वैकेंसी ही नहीं आई है। पहले जम्मू और कश्मीर पब्लिक सर्विस कमीशन के तहत वैकेंसियां निकलती थीं। मेरा काबिल लड़का अब होम स्टे में हाथ बंटा रहा है।”
यांगदोल के दर्द और छठवीं अनुसूची पर चल रहे आंदोलन के बावजूद लेह के वे बुजुर्ग लद्दाख को केंद्र शासित बनाए जाने पर एक हद तक संतुष्ट दिखते हैं जिन्होंने लद्दाख की स्वायत्तता के लिए चले आंदोलनों में हिस्सा लिया था। ऐसे ही एक बुजुर्ग, जो लेह की हिल काउंसिल से जुड़े रह चुके हैं, उन्होंने बताया, “हमें खुशी हुई कि किसी सरकार ने आखिरकार हमारी बात सुनी। जम्मू और कश्मीर का हिस्सा रहने पर लद्दाख की अनदेखी होती थी। इसीलिए हम लोगों ने लद्दाख के यूटी बनाए जाने पर खुशियां मनाई थीं।”
इतना कहकर उन्होंने आगे जोड़ा, “जो मेरी उम्र के लोग हैं वे तो खुश होंगे ही। हों भी क्यों न? हमारे वर्षों के संघर्ष के बाद हमें स्वतंत्र पहचान मिली। आज जो लोग छठवीं अनुसूची या राज्य की मांग कर रहे हैं, वह भी सही है। आज वे लड़ेंगे तो कल उन्हें जीत मिलेगी, लेकिन मिलेगी जरूर। अभी हमारा स्ट्रग्ल हाफ-वन (आधी जीत) है।”
‘स्वतंत्रता’ की शाम
उस बुजुर्ग की बताई अधूरी ‘स्वतंत्र पहचान’ का मुजाहिरा लेह में 5 अगस्त 2024 की शाम सांस्कृतिक आयोजन ‘नगम दस्तो’ के आवरण में एनडीएस ग्राउंड में देखने को मिला।
कार्यक्रम के मुख्य अतिथि थे लद्दाख के दूसरे लेफ्टिनेंट गवर्नर बीडी मिश्रा। साथ में लेह हिल काउंसिल के काउंसिलर भी मौजूद थे। तरह-तरह के रंगीन कार्यक्रम हो रहे थे। एनडीएस ग्राउंड में भीड़ तो थी लेकिन गौर से देखने पर मैंने पाया कि भीड़ में सैलानियों की संख्या स्थानीय लोगों की संख्या को पार कर रही थी। दिल्ली से आए एक सैलानी जोड़े के लिए यह कार्यक्रम लद्दाख का ‘स्वतंत्रता दिवस’ कार्यक्रम था। उनकी समझदारी में, “इस तरह का कार्यक्रम अनुच्छेद 370 हटने के बाद ही संभव हो सकता था!”
इसके उलट, भीड़ में मौजूद लेह ओल्ड टाउन क्षेत्र की एक लड़की ने कहा, “मेरी बहन ने नगम दस्तो के कार्यक्रम में भाग लिया है। मैं उसको चीयर करने आई हूं। फाउंडेशन डे का हम लोग को नहीं पता।”
बहरहाल, लेह में एक वरिष्ठ अधिकारी के सहयोग से मुझे विशिष्ट अतिथियों की दूसरी पंक्ति में बैठने की जगह मिल गई थी। गवर्नर बीडी मिश्रा ने अपने संबोधन में नगम दस्तो के बारे में कम और मोदी सरकार के कामों का जिक्र ज्यादा किया। उनके शब्द थे, “भगवान की कृपा से मोदी सरकार मेरी सुनती है। मैं जब भी लद्दाख के बारे उनसे बात करता हूं, प्रधानमंत्री जी बहुत दिलचस्पी से सुनते हैं।‘’
बेशक, दिल्ली सबकी सुनती है, दिलचस्पी से सुनती है। करगिल के पूर्व विधायक, लद्दाख में छठवीं अनुसूची बहाल करने के आंदोलन में अग्रणी नेता और इन दिनों करगिल डेमोक्रेटिक एलायंस के सक्रिय सदस्य असगर अली करबलाई बीते पांच वर्षों में गृह मंत्रालय के साथ पांच बैठकें कर चुके हैं। वे छठवीं अनुसूची के लिए भूख हड़ताल भी कर चुके हैं। लेकिन दिल्ली ने उनके लिए क्या किया?
दिल्ली की सुनवाई, उन्हीं के शब्दों में, “मार्च 2024 की बैठक में गृह मंत्रालय ने आश्वस्त किया था कि लद्दाख को कुछ संवैधानिक सुरक्षाएं दी जाएंगी, लेकिन छठवीं अनुसूची का लाभ नहीं दिया जाएगा, न ही लद्दाख को राज्य का दर्जा दिया जाएगा।”