वहां भी दिल धड़कते हैं मोहब्बत सांस लेती है: गुजरात में IPTA का गठन

Cultural performance in Daman, Gujarat
Cultural performance in Daman, Gujarat
आम लोग सीधे-सरल और सच्चे होते हैं और उन्हें गीत संगीत कलाएं भाती हैं, न कि झूठ, धोखा, नफ़रत और हिंसा। आम लोग बहकाये जाते हैं निजी स्वार्थों की खातिर, लेकिन भीतर से उन्हें भी सुकून और इंसानियत की ही तलाश होती है। चाहे वो गुजरात हो या धरती पर मौजूद कोई और जगह। साल भर पहले ‘ढाई आखर प्रेम के’ नामक सांस्‍कृतिक यात्रा से उपजे इस अनुभव को अबकी उत्‍तरायण ने और गाढ़ा किया, जब गुजरात के वलसाड़ में इप्टा की तदर्थ समिति का गठन हो गया। साल भर में गुजरात की दूसरी सांस्‍कृतिक यात्रा पर विनीत तिवारी का रिपोर्ताज

यात्राओं का महत्त्व इसलिए भी होता है कि आप दूर की अनेक सच्चाइयों को अपनी ख़ुद की आंखों से देख सकते हैं। सच और झूठ और अफ़वाह में फ़र्क़ कर सकते हैं। अलग माहौल में सब्र रखना मजबूरी में भी सीखना पड़ता ही है। नयी ज़ुबान, नये दृश्य, नये आसमान, नये नदी-तालाब, पेड़-पौधे, और भी बहुत कुछ नया अनुभव मिलता है।

गुजरात मध्य प्रदेश से लगा हुआ ही है। मतलब इतना दूर भी नहीं है कि बिल्कुल ही अलग और नया दिखे सबकुछ। वैसे भी फ़िल्मों, टेलिविज़न और यात्रा के सुविधाजनक साधनों ने जगहों को पहले से नज़दीक तो लाया ही है। लेकिन हम जैसे जो लोग हैं, वो गुजरात को सिर्फ़ जगहों की वजह से नहीं याद रखते। हम उन्हें लोगों और घटनाओं की वजह से भी याद रखते हैं। वहीं से महात्मा गांधी, सरदार पटेल, विक्रम साराभाई, दीना गांधी पाठक और केतन मेहता भी आते हैं और वहीं से अंबानी, अडानी, हर्षद मेहता और कुछ ऐसे भी लोग आते हैं जिनका नाम लेने से भी ज़ायक़ा ख़राब हो जाता है।

वैसे तो यह केवल गुजरात के बारे में ही सच नहीं है लेकिन फिर भी फ़िलहाल यह गुजरात के मामले में ज़्यादा प्रासंगिक है गोधरा कांड और उसके बाद हुए सांप्रदायिक नरसंहार के कारण गुजरात की छवि कुछ ऐसी बनी है मानो वहां आम इंसानों के मानसिक साम्प्रदायीकरण और ध्रुवीकरण की प्रक्रिया पूर्ण हो चुकी हो और एक तरह से वहां इंसानियत अपनी लड़ाई लंबे वक़्त के लिए हार चुकी हो।

पिछले बरस जब भारतीय जन नाट्य संघ (इप्टा) द्वारा ‘ढाई आखर प्रेम’ यात्रा निकाली गई और गुजरात में यात्रा को संभव करने की ज़िम्मेदारी मुझे दी गई तो गुजरात के बारे में बनी यह सोच भ्रामक साबित हुई। ऐसे ख़ास लोगों से मिलना हुआ जो इंसानियत और साहस की मिसाल हैं और ऐसे आम लोगों से भी मिलना हुआ जो सांप्रदायिक सोच के दायरे से बाहर सोचते हैं। और तभी ख़ुद अपने ऊपर यह तोहमत भी लगायी कि लोगों पर से यक़ीन तो कभी भी नहीं खोना चाहिए।

लोगों पर यक़ीन न होता तो क्या गांधी जी नोआखली जाते? और नोआखली जाकर उनका भी लोगों पर भरोसा बढ़ ही होगा। बर्टोल्ट ब्रेष्ट की कविता से यह विचार भी याद आया कि आप शासक दूसरा चुन सकते हैं, रणनीति दूसरी चुन सकते हैं, लेकिन जनता और हालात चुनने का विकल्प हमारे पास नहीं होता। जो लोग हैं और जो हालात हैं, उन्हीं में प्रगतिशील आंदोलन की संभावनाएं बनानी होती हैं। और तभी से गुजरात में इप्टा की इकाई बनाने की इच्छा जागी थी।

मेरे जानते पिछले क़रीब 20-25 वर्षों से तो इप्टा के राष्ट्रीय सम्मेलनों में मैंने गुजरात का प्रतिनिधित्व नहीं देखा था। पहले भी कभी रही हो तो मेरी जानकारी में नहीं है। गुजरात में इप्टा की इकाई बनाने की इच्छा को पंख लगा दिए वलसाड़ की चिकित्सक डॉ. राधिका टिक्कू ने जिन्होंने पिछले एक वर्ष में हर महीने बिना नागा याद दिलाया कि आपको वलसाड़ आना है सांस्कृतिक कार्यक्रम लेकर।


ये वो गुजरात नहीं है जिसे कभी हिन्दू राष्ट्र की प्रयोगशाला कहा गया था…


जब कोई काम सामूहिकता में किया जाना हो तो उसमें वक़्त लगता है। कविता-पाठ करने जाना है, भाषण देने जाना है तो उसमें इतनी समस्या नहीं आती, एकल नाटक में भी उतनी समस्या नहीं आती लेकिन नाटक करने जाना है तो एक दिन के प्रदर्शन के पीछे जो मेहनत और भागदौड़ होती है, वो अपने आप में एक थका देने वाला काम होता है। नाटक करने के लिए कलाकार इकट्ठे करना, उन सबको एक वक़्त पर रिहर्सल के लिए इकट्ठा करना, बीच में विवशताओं के चलते क़िरदार बदलना, आनन-फ़ानन दूसरा व्यक्ति उस क़िरदार के लिए तैयार करना, यह सभी चीज़ें यह सोचने पर मजबूर कर देती हैं कि फिर नाटक करना ही क्यों, जबकि आज के दौर में बेहतरीन फ़िल्में मौजूद हैं।

और यह कोई एक नाट्य समूह की समस्या नहीं है बल्कि देशभर में फैले हज़ारों नाट्य समूहों की यही समस्याएं हैं। इप्टा या इप्टा जैसे समूहों के साथ ये थोड़ी ज़्यादा हैं क्योंकि यहां नाटक सिर्फ़ मनोरंजन नहीं, बल्कि सामाजिक सोद्देश्यता के साथ और वैचारिक प्रतिबद्धता के साथ किया जाता है, और इसीलिए इसे सरकारी या ग़ैर सरकारी या पूंजीपतियों का समर्थन या वित्तीय सहायता मिलना तो दूर, आमतौर पर सरकारों का कोपभाजन बनना पड़ता है।

फिर भी, बेहतर दुनिया का एक ख़्वाब है जिसकी तामीर के लिए जुनून की तरह लोग ‘जनता का नाटक’ करते हैं, सरकारों और संसाधनों की परवाह किये बिना करते हैं, और एक-दो नहीं, हज़ारों लोग करते हैं। इसीलिए इप्टा सिर्फ़ एक नाटक करने वालों का संगठन मात्र न रहकर एक सांस्कृतिक आंदोलन कहलाता है।

बहरहाल, तमाम बदलावों के बाद वलसाड़ में इप्टा की प्रस्तुतियों की एक तारीख़ तय हुई। मुसीबतें आती गईं और सबने मिलकर हमेशा की तरह अलग-अलग तरह से सहयोग करके मुश्किलों से पार पाया। तय हुआ कि हरिशंकर परसाई की जन्मशताब्दी का मौक़ा है इसलिए उनकी कहानी ‘सदाचार का तावीज़’ पर ही नाटक करेंगे और जनगीतों की तैयारी करेंगे।


'Sadachar Ka Tabeez' play performance in Valsad, Guarat
सदाचार का तावीज़का मंचन

साथी सारिका श्रीवास्तव ने नाटक तैयार करने की ज़िम्मेदारी ली। तय तो हो गया लेकिन जिन साथियों से नाटक में काम करने और गुजरात चलने की भरपूर उम्मीद थी, उनमें से एक-दो को छोड़ लगभग सभी जाने की स्थिति में नहीं थे। नये कलाकार ढूंढने की क़वायद शुरू हुई। सारे संपर्क टटोले गए। समुद्र मंथन जैसी इस प्रक्रिया में जो मिले, उनके साथ सारिका ने रिहर्सल शुरू की। तारीख़ नज़दीक आती जा रही थी। सभी पात्र मिलने पर कुछ संतोष हुआ ही था कि तीन-चार दिन के अंदर फिर तीन पात्र आकस्मिक परिस्थितिवश बदल गए। लगा कि शायद ही हो पाये अब। एक सप्ताह में नये लोगों के साथ कैसे नाटक तैयार हो सकेगा? नाटक तैयार करने में अजय मंसूरिया, अथर्व शिंत्रे, अनिल भाटिया, अशोक शर्मा, गीता कश्यप, और शब्बीर हुसैन पूरी ताक़त से लगे हुए थे। इनमें से अथर्व को छोड़ बाक़ी सभी इप्टा के लिए और हमारे लिए बिल्कुल नये लोग थे। लेकिन अपनी-अपनी परेशानियों के बावजूद नाटक के अनुशासन और नाटक के प्रति प्रतिबद्धता के साथ जुटे हुए थे।

सारिका ने और मैंने फिर हिम्मत बटोरी और तय किया कि ज़रूरत पड़ी तो हम भी मंच पर उतर आएंगे, लेकिन अन्य व्यस्तताओं और कामों के चलते यह व्यावहारिक नहीं था। याद आया कि नज़दीक ही उज्जैन में चित्रकार साथी मुकेश बिजौले ने सरकारी नौकरी से स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ले ली है ताकि अब वो पूरा वक़्त कला के लिए समर्पित कर सके। मुकेश को फ़ोन लगाया। बुरी बात ये थी कि वो असम में था। उसे वहां के कलाकार समूह ने सम्मानित करने के लिए आमंत्रित किया था। अच्छी बात ये थी कि वो अगले ही दिन की फ्लाइट से इंदौर आकर उज्जैन जाने वाला था। जब उसे नाटक में एक क़िरदार निभाने को कहा तो हंसने लगा। बोला – विनीत भाई, 33 साल से मंच पर नहीं चढ़ा हूं और अब 4-5 दिन में कैसे तैयार कर सकूंगा? मैंने कहा कि तुम आ जाओ, बाक़ी देखेंगे। इस तरह नाटक के कलाकार पूरे हुए।

अब जनगीतों का क्या होगा? हारमोनियम और ढोलक के बिना जनगीत जमते नहीं हैं। इप्टा इंदौर के साथियों में से जो हारमोनियम और ढोलक, तबला बजाना जानते हैं, वे उपलब्ध नहीं थे। किसी भी नये वादक का हमारे साथ तालमेल बैठना भी इतना जल्द मुमकिन नहीं था। तुरंत दिमाग़ में बत्ती जली और ढोलक के लिए अशोकनगर इप्टा के ऑल राउंडर साथी रतनलाल पटेल और हारमोनियम के लिए जगत जीजी रामदुलारी जीजी का नाम याद आया। अचानक से 7-8 दिन का समय निकालकर चलने की मानसिकता भी बनाने में वक़्त लगता है, लेकिन एक ऐतिहासिक काम का हिस्सा होने और मुझ पर विशेष स्नेह होने के चलते बिना देर किये अगले ही दिन दोनों साथी क़रीब 350 किलोमीटर का सफ़र करके इंदौर पहुंच गए।

फिर क्या था। बरसों से बंद पड़े गले खोले गए और बेलगाम दौड़ते गलों को थोड़ा क़ाबू में किया गया। ठोक-ठाककर लय और सुर साधे गए और इस तरह कुछ जनगीत भी तैयार हो गए।

13 जनवरी 2025 को इंदौर से सुबह रवाना हुए और 14 घंटे के सड़क के सफ़र में नाटक और जनगीतों की तीन रिहर्सल भी कर ली गईं। जो आत्मविश्वास अब तक सिर्फ़ ऊपर से मज़बूत था, उसमें अंदर भी मज़बूती आती महसूस हुई। आधी रात जब वलसाड़ पहुंचे तो डॉ. राधिका ने अपने डॉक्टर बेटे पुरविल और गायिका बेटी हीया के साथ हमारा स्वागत किया और जहां हमें रात रुकने का इंतज़ाम किया, उससे तो दिन भर की थकान उतार गई।

दरअसल वो रात पूनम की या उसके एकाध दिन आगे-पीछे की रात थी। चांद पूरा था, या लगभग पूरा। और छत पर जाकर देखा तो खजूर के पेड़ के पीछे से चांदनी की रोशनी की एक पगडंडी थरथराती नज़र आ रही थी। दो सेकंड आंखें गड़ाकर देखा तो समझ आया कि वो समंदर था। बमुश्किल 100 मीटर दूर। फिर बस सुबह का इंतज़ार था। सुबह हुई और हम सब समंदर किनारे पहुंचे हुए थे।   

14 जनवरी 2025 को डॉ. राधिका हमें सुबह 10 बजे वलसाड़ शहर से क़रीब 30 किलोमीटर दूर मौजूद धरमपुर में केडी स्कूल लेकर गईं। वहां हम साथियों ने नाटक ‘सदाचार का तावीज़’ और जनगीतों की प्रस्तुति दी। केडी स्कूल के बच्चों ने भी गुजराती में कबीर का एक भजन सुनाया जो स्वाभाविक रूप से बहुत मीठा और अलग था। बच्चों को नाटक भी पसंद आया और जनगीत भी।


KD School, Dharampur, Gujarat
धरमपुर में केडी स्कूल

यह एक अलग तरह का स्कूल है जहां परीक्षाओं और पास-फेल का झंझट नहीं होता बल्कि उन्हें जीवन जीने के लिए आवश्यक कौशल और आत्मविश्वास और आत्म सम्मान से रहना सिखाया जाता है। आम तौर पर यहां वे बच्चे पढ़ते हैं जो या तो औपचारिक स्कूलों में फेल हो चुके होते हैं या जिनके माता-पिता आर्थिक अभाव के कारण बच्चों को पढ़ने नहीं भेजते। यह स्कूल आर्च संस्था द्वारा चलाया जाता है जो शिक्षण के साथ-साथ कौशल सिखाने और आसपास के गांवों में स्वास्थ्य सेवाएं और जागरूकता फैलाने का काम करती है। यहां हमारी आत्मीय मुलाक़ात आर्च संस्था की संस्थापिका अपर्णा कड़ीकर और जनशिक्षक सुदर्शन जी से हुई। मंच व्यवस्था से लेकर भोजन व्यवस्था तक के सभी काम बच्चे ही करते हैं। बच्चों द्वारा की गई व्यवस्था और व्यवहार आत्मीय और सराहनीय था। विशाल आम के पेड़ के नीचे नाटक का मंचन करना हमारे लिए एक नया अनुभव था।

चौदह जनवरी मकर संक्रान्ति का दिन होता है और पूरे गुजरात में उत्सव का बहुत ज़बरदस्त माहौल रहता है। डॉ. राधिका ने कहा कि हम दमन से लगभग 60 किलोमीटर दूर हैं। वहां अच्छा माहौल होगा, हम लोग वहां चलते हैं। शाम होते-होते हम लोग दमन में समंदर किनारे पहुंचे जहां स्थानीय और बाहर के पर्यटकों की काफ़ी चहल-पहल थी और आसमान में सैकड़ों पतंगें उड़ रही थीं। थोड़ी देर नज़ारे देखने के बाद डॉ. राधिका ने तजवीज किया कि क्यों न हम जनगीत गाते हुए समंदर किनारे घूमते लोगों के बीच एक रैली निकालें। हम थोड़ा पसोपेश में थे।

उधर जब तक हम सोचते तब तक मुकेश अपनी स्केच बुक लेकर बीच रास्ते पर खड़ा होकर सामने मौजूद लोगों से भरे दृश्य का स्केच बनाने लगा। तुरंत ही उसके आसपास 15-20 नौजवानों और आते-जाते उत्सुक लोगों की भीड़ लग गई। सही मौक़ा पाकर हमने इप्टा का बैनर फैलाया और जनगीत गाने शुरू कर दिए। जब सुनने वाले 25-30 लोग इकट्ठा हो गए तो हमने रैली की शक्ल में गाते-गाते चलना शुरू कर दिया और क़रीब एक किलोमीटर तक चले। लोग हमें देखते, कुछ लोग तस्वीर लेते, लेकिन किसी ने रोका नहीं, किसी ने पकड़कर देशद्रोही नहीं कहा। धुकधुकी फिर भी लगी हुई थी क्योंकि हमारे साथ नये लोग ज़्यादा थे जिन्हें ऐसी परिस्थितियों का कोई अनुभव नहीं था। हमने वलसाड़ वापस पहुंचकर चैन की सांस ली लेकिन राधिका जी को जैसे कोई तनाव था ही नहीं।

15 जनवरी 2025 को सुबह 9 बजे से मानव सेवा ट्रस्ट, अटार के वृद्धाश्रम में नाटक का मंचन और जनगीतों की प्रस्तुति दी। जब हम वहां पहुंचे तो एक वृद्ध सज्जन से प्रेक्षागृह का रास्ता पूछा। उन्होंने थोड़ा रुखाई से पूछा कि क्या नाटक है, कौन-सी संस्था का है, आदि। हमने जवाब में कहा कि इप्टा, और उनका स्वर अचानक ही सम्मानपूर्ण हो गया। बोले “अरे वाह-इप्टा, चलो, मैं भी आता हूं।” उनका यह प्रतिसाद देखकर हम लोग इप्टा के गौरवपूर्ण अतीत के प्रति सम्मान से भर उठे। वहां क़रीब 100 महिला-पुरुष थे। केतुल देसाई ने सभी कलाकारों का स्वागत सम्मान किया। हमने नाटक किया जो काफ़ी पसंद आया। अंत में “फिर सुबह होगी” फ़िल्म के साहिर के गीत “आसमां पे है ख़ुदा और ज़मीं पे हम” गीत गाया तो उसके बाद तो श्रोताओं में से अनेक ने माइक संभाल लिया और अपने ज़माने के पुराने हिन्दी सिनेमा के गीत गाने और नाचने लगे। दो महिलाओं  ने भी गीत गाये और माहौल बहुत ही खुशनुमा बन गया। वहां रह रहे वृद्धों में जीवन के प्रति ग़जब का उत्साह देखने को मिला।


Cultural performance at Manav Seva Trust, Atar, Gujarat
मानव सेवा ट्रस्ट, अटार के वृद्धाश्रम में नाटक का मंचन और जनगीतों की प्रस्तुति

15 जनवरी 2025 की दोपहर को हम गुजराती के प्रसिद्ध लेखक संत कवि साई मकरंद देव और उनकी पत्नी कुंदनिका कपाड़िया की संस्था नंदीग्राम में गए। मकरंद भाई दवे ने आजादी के आन्दोलन में 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शरीक होने के लिए अपनी पढ़ाई छोड़ दी थी। उन्होंने अपने जैसी ही बहुत समर्थ लेखिका कुंदनिका कपाड़िया से विवाह किया था। अपने जीवन की शुरुआत में ही वे आध्यात्म की ओर उन्मुख हो गए थे लेकिन उन्होंने कर्त्तव्यपथ नहीं छोड़ा। वर्ष 1987 में उन्होंने वलसाड़ में नंदीग्राम संस्था की स्थापना की। उन्हें सरकार ने 25 एकड़ की बंजर ज़मीन रियायती दामों पर दे दी थी। उस 25 एकड़ में फैले परिसर में उन्होंने जैविक खेती, औषधीय पौधों की खेती आदि करने के साथ ही आसपास के आदिवासी ग्रामीणों को शिक्षा एवं स्वास्थ्य की सुविधा देने के लिए भी स्कूल और आयुर्वेदिक अस्पताल का निर्माण किया।

यह एक क़िस्म का कम्यून ही है। अब यह पूरा क्षेत्र हर-भरा, प्राकृतिक रूप से सुवासित और गहरी शांति से पूर्ण लगता है। मकरंद भाई और कुंदनिका बहन, दोनों ही सक्रिय कार्यकर्ता और दार्शनिक कवि थे। मकरंद भाई ने 50 से अधिक किताबें लिखीं और उन्हें गुजराती के सर्वोच्च पुरस्कार मिले। कुंदनिका बहन ने भी अनेक कहानियों की पुस्तकें लिखीं और उनके उपन्यास भी बहुत चर्चित रहे तथा उन्हें भी गुजराती के सर्वोच्च साहित्यिक सम्मान प्राप्त हुए। हम लोगों ने नंदीग्राम में उनके उस घर को देखा जहां वे दोनों रहा करते थे। उनके संगी-साथियों ने उनके घर को बहुत प्यार से ठीक वैसा ही रखा है जैसा वे जब रहते थे, तब रहा करता था। उनके बैठने की जगह, उनके लिखने की जगह, उनके खाने की टेबल, विश्व साहित्य से भरा उनका पुस्तकालय, उनका झूला, उनका ध्यान स्थल और उनका रसोईघर भी। किसी लेखक को इतना प्यार और सम्मान आमतौर पर तभी मिलता है जब वो निजी लेखन से आगे बढ़कर टॉलसटॉय या रवीन्द्रनाथ ठाकुर की तरह समाज में कुछ बदलाव लाने का काम करता है। प्रसंगवश यह भी उल्लेखनीय है कि मकरंद भाई दवे ने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की गीतांजलि पढ़ने के लिए बांग्ला भाषा भी सीखी थी।

हमने उनके द्वारा लिखे साहित्य, कवि दम्पत्ति के समाधि स्थल, साधना पथ, कमल तालाब, विक्रमशिला, सभी कॉटेज और खेती आदि का सभी साथियों के साथ अवलोकन किया। वहां मकरंद भाई और कुंदनिका बहन की जीवनशैली से जुड़े कई स्मृतिचिह्न देखने को मिले। इस आश्रम के हर्शिदा महेंद्र भाई वैद्य, अमी पारिख जी आदि ने इप्टा के सभी साथियों का तहेदिल से स्वागत सत्कार किया।

15 जनवरी की शाम वलसाड़ में राधिका जी द्वारा बनायी गई बुध सभा के दस वर्ष पूर्ण होने के उपलक्ष्य में सांस्कृतिक कार्यक्रम का आयोजन किया गया था। जब हम कार्यक्रम स्थल पर पहुंचे तो देखा कि वो दो मंजिल का एक बंगला था जिसमें लगभग 50 फ़ीट गुणा 60 फ़ीट की जगह खाली थी जिसमें दर्शकों के बैठने के लिए नीचे दरियां भी थीं और बुजुर्गों के बैठने के लिए क़रीब 100 कुर्सियाँ भी लगाई हुई थीं। ऊपर और सामने से पूरा खुला हुआ था और चारों तरफ़ रिहायशी अपार्टमेंट बने हुए थे। मुझे लगा कि हमारे जनगीतों और नाटक से जरूर ही आसपास रहने वाला कोई न कोई सांप्रदायिक मानसिकता वाला आपत्ति लेगा और पुलिस-वुलिस भी आ जाए तो कोई बड़ी बात नहीं। डरने की तो हरगिज़ कोई बात नहीं थी लेकिन जिस तरह गुजरात कि छवि बनी है उसमें यह शंका निर्मूल भी नहीं थी, लेकिन आशंका निर्मूल साबित हुई और यहां भी नाटक और जनगीतों की प्रस्तुति बहुत प्रभावी ढंग से हुई जिसे दर्शकों ने बेहद सराहा। राधिका जी अपनी पूरी ऊर्जा और आत्मविश्वास से भरी हुईं जीवंत संचालन कर रहीं थीं। यहां आयोजक के रूप में उनके साथ उनके पति डॉक्टर राहुल टिक्कू, मीना शाह, दक्षा बुलसारा, महेश देसाई, किरण जोशी, चित्रा पंड्या, रमेश चापानेरिया आदि सक्रिय थे।



साथ ही बुध सभा के अन्य कलाकारों ने भी गायन और नृत्य कला का प्रदर्शन किया। उन कलाकारों में डॉक्टर राहुल टिक्कू, तनुजा टंडेल, मनीष पटेल, तरुण पटेल, रश्मि परमार, उर्वशी, योगी और मनीषा ने प्रस्तुतियां दीं। इस सांस्कृतिक आयोजन की मेजबानी श्री दिनेश देसाई जी ने की जो दरअसल उस बंगले के मालिक थे और जो इस तरह के कार्यक्रमों के लिए निस्संकोच और निडरता से अपना स्थान निःशुल्क उपलब्ध करवाते थे। उम्र उनकी 85 से 90 के बीच रही होगी। गले में वे एक छोटी-सी डुगडुगी लटकाये थे और जब किसी का नाम स्वागत के लिए पुकारा जाता तो वे ख़ुश होकर डुगडुगी बजाते। वहां माइक आदि की अच्छी व्यवस्था थी लेकिन अचानक बीच में लाइट चली गई। दर्शकों ने मोबाइल कि रोशनी से उजाला किया और बिना माइक के जब हमने इंदौर के हमारे कवि-संगीतकार-गायक दोस्त उत्पल बैनर्जी से सीखा नज़ीर अकबराबादी का ‘आदमीनामा’ गाया तो श्रोता मंत्रमुग्ध रह गए और समाप्त होने पर देर तक तालियाँ बजाते रहे। हमने फ़ैज़, कबीर, शशिप्रकाश, मधू मंसूरी, शैलेन्द्र, साहिर और विनय-चारुल के अनेक गीत गाये और श्रोताओं ने भी अच्छा प्रतिसाद दिया। अच्छे दर्शक और श्रोता हों तो कार्यक्रम का रंग दोगुना गाढ़ा हो जाता है।

अगले दिन हमने वलसाड़ को शुक्रिया अदा कर विदा ली और 16 जनवरी को नज़दीक स्थित नवसारी ज़िले में स्थित दांडी में विनय मंदिर स्कूल में पहुंचे। यह स्कूल धीरू भाई ने अनेक दशकों पहले शुरू किया था और पिछली बार की यात्रा में उनसे बहुत प्रेरक उद्बोधन भी सुनने का अवसर मिला था। उनका जन्म गांधी जी की दांडी यात्रा के वर्ष 1930 में ही हुआ था। अब उनकी आयु 95 हो चुकी है। जब हम वहां पहुंचे तो पता चला कि कुछ दिन पहले फिसल जाने के कारण उन्हें चोट लग गई थी और वे नवसारी स्थित अस्पताल गए हुए थे। हमारा स्वागत स्कूल के प्रिंसिपल योगेश भाई और उनके सहयोगियों ने किया।

मैं यहां पिछली यात्रा के दौरान भी आया था इसलिए योगेश भाई को मैं याद भी था। उन्होंने कहा, हमारे यहां परीक्षाएं शुरू हो रही हैं लेकिन चूंकि हमें राधिका बहन ने बताया कि विनीत भाई इप्टा की टीम के साथ आ रहे हैं तो हमने एक घंटे का समय आपके लिए निकाल लिया है। तो सूत की माला का संक्षिप्त स्वागत स्वीकार कर बिना समय नष्ट किए हमने एक घंटे में नाटक का मंचन किया और जनगीतों की प्रस्तुति दी। स्कूली बच्चों को देखकर सारिका ने तुरंत ही सफ़दर हाशमी की कविता ‘ये कैसा है घोटाला’ का साभिनय पाठ प्रस्तुत किया। बच्चों को सभी कार्यक्रम बहुत पसंद आए।

दांडी नमक सत्याग्रह के लिए विख्यात है और 1930 में कैसे दांडी में नमक कानून तोड़ा गया, इसकी एक बहुत सुंदर प्रदर्शनी दांडी स्मारक में बनायी गई है जिसको देखना कुछ-कुछ उस वक़्त में पहुंचने जैसा अनुभव देता है। यहां दांडी यात्रा में शामिल रहे गांधी जी के सभी 80 सहयात्रियों की बहुत आकर्षक आदमक़द मूर्तियां भी लगी हैं और गांधी जी की एक विशाल मूर्ति भी जिसमें गांधी जी बिल्कुल तनी हुई पीठ के साथ बैठे हैं। जहां समंदर किनारे गांधी जी ने नमक उठाकर कानून तोड़ा था, उस जगह से समंदर काफ़ी आगे खिसक गया है। जब गांधी जी सत्याग्रहियों के साथ दांडी पहुंचे थे तो उनके रात रुकने के लिए तत्कालीन वोहरा धर्मगुरू ने समंदर के बिल्कुल सामने मौजूद अपना बंगला सभी के लिए खोल दिया था, जिसे बाद में सरकार को स्मारक के तौर पर दान कर दिया।


Cultural performance at Dandi School, Gujarat
दांडी स्कूल में नाटक और गीतों की प्रस्तुति

कुल मिलाकर उस जगह को देखने का एहसास बहुत अच्छा होता है लेकिन फिर प्राइवेट सिक्युरिटी कंपनी के उद्दंड बाउन्सर गार्ड और 20-20 रुपये में बेचा जाता 5-10 ग्राम समंदर का ‘दांडी’ ब्रांड नमक ये एहसास करवा देता है कि हमारा वक़्त अलग है। ऐसा लगने लगता है कि यह गांधी जी के आंदोलन का उत्सव नहीं, बल्कि उन्हें अपराधस्वरूप दी गई जेल है। ईस्ट इंडिया कंपनी और अँग्रेज़ चले गए हैं लेकिन कॉर्पोरेट का क़ब्ज़ा देश पर आज भी क़ायम है। और गांधी भले हमारे पास आज नहीं हैं लेकिन ऐसे बहुत सारे आंदोलनों से देश की जनता को सच्चे अर्थों में आज़ादी और विकास दिलाने की लड़ाई अब भी बाक़ी है।

गुजरात का यह कार्यक्रम अन्य कार्यक्रमों से हमारे लिए अलग महत्त्व का था। अव्वल तो यह लोगों में हमारे यक़ीन को पुख्ता करने वाला था। आम लोग सीधे-सरल और सच्चे होते हैं और उन्हें गीत संगीत कलाएं भाती हैं, न कि झूठ, धोखा, नफ़रत और हिंसा। आम लोग बहकाये जाते हैं निजी स्वार्थों की खातिर, लेकिन भीतर से उन्हें भी सुकून और इंसानियत की ही तलाश होती है। चाहे वो गुजरात हो या धरती पर मौजूद कोई और जगह।

हमें लगता था कि हम एक अभियान पर निकले हैं। इस अभियान को कामयाब करने में सूरत के किशोर भाई देसाई और अपर्णा बहन कड़ीकर ने गुजरात में विशेष सहयोग किया, वहीं इप्टा के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष राकेश (लखनऊ) और राष्ट्रीय महासचिव तनवीर अख्तर (पटना), इप्टा इंदौर के साथी जया मेहता, प्रमोद बागड़ी और अशोक दुबे का हौसले भरा हाथ हमेशा पीठ पर बना रहा। अशोकनगर इप्टा के साथी तो हमेशा की तरह हर मुश्किल में कोई न कोई रास्ता निकाल लेने में मदद करते ही हैं और इस बार फिर ये एतबार मज़बूत हुआ।

देश-विदेश में प्रसिद्ध चित्रकार दोस्त मुकेश बिजौले मेरे कहने पर 33 वर्ष बाद फिर एक बार मंच पर चढ़े, वो एक अनकहा संबल है जो जिस भी तरह की ज़रूरत हो, चुपचाप अपनी आश्वस्तिदायक उपस्थिति का एहसास दे देता है कि चिंता मत करना, मैं भी हूं। रवि शंकर को कोई रोल नहीं दिया गया था लेकिन इप्टा के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के चलते वो भी 1000-800 किलोमीटर से दौड़ा चला आया और बदले में हमेशा की तरह ज़्यादातर डांट उसी के हिस्से में आयी। और पूरे कार्यक्रमों का सूत्र अगर गुजरात में राधिका जी नहीं संभालतीं और इंदौर में सारिका अपने एक-एक मिनट को झोंक न देती तो जो हुआ, वो होना मुमकिन नहीं था।


Dr. Radhika Tikkoo and Dinesh Bhai Desai with Vineet Tiwari in Gujarat
डॉ. राधिका टिक्कू, विनीत तिवारी और दिनेश भाई देसाई

अब यह सभी हमराही हैं इसलिए इनका शुक्रिया नहीं कहता, बस ‘इप्टा ज़िन्दाबाद’ कहता हूं। उन कलाकारों का ज़रूर बहुत शुक्रिया और शुभकामनाएं जिन्होंने इप्टा के साथ नयी पहचान बनायी है और जिन्हें इस यात्रा से इप्टा की विचारधारा और उद्देश्य की थोड़ी झलक मिली है, वे जीवन में इस दुनिया को थोड़ा बेहतर और अधिक मानवीय बनाने के इस लगातार अभियान के सहयात्री बनें।

इस सांस्कृतिक यात्रा की सबसे बड़ी सफलता यह रही कि गुजरात में वलसाड़ में राधिका जी के सहयोग और नेतृत्व में इप्टा की तदर्थ समिति का गठन कर लिया गया जिसे निकट भविष्य में पूर्ण इकाई बनाकर गुजरात के अन्य ज़िलों में भी इप्टा की इकाइयों का गठन करने की कोशिशें तेज़ की जाएंगी। इस पूरी यात्रा का संयोजन डॉक्टर राधिका ने अपने साथियों की सहायता से किया था। पूरे समय वे ऊर्जा और उत्साह से भरी हुईं सुबह से रात तक हमारे साथ रहीं। उन्होंने बिना थके और बिना तनावग्रस्त हुए सभी चीजों का ध्यान रखा। उनके साथ गुजारे आत्मीयता से भरे पल हमेशा अविस्मरणीय रहेंगे।


(इस यात्रा वृत्तान्त को लिखने में रामदुलारी शर्मा जीजी से प्राप्त नोट्स और रवि शंकर तिवारी की तस्वीरों की मदद ली गई है, उनका धन्यवाद)


More from विनीत तिवारी

वहां भी दिल धड़कते हैं मोहब्बत सांस लेती है: गुजरात में IPTA का गठन

आम लोग सीधे-सरल और सच्चे होते हैं और उन्हें गीत संगीत कलाएं...
Read More