प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपने संसदीय क्षेत्र बनारस में थे। उनसे मुलाकात की उम्मीद में गांधीवादी कार्यकर्ता शाम चार बजे तक इंतजार करते रहे, कि उनका सांसद और देश का प्रधान सेवक महात्मा गांधी की विरासत सर्व सेवा संघ को ध्वस्त होने से बचाने की उनकी मुहिम को अपने कान दे और उसे बचा ले। काशी को क्योटो बनाने के अपने ड्रीम प्रोजेक्ट में व्यस्त प्रधानमंत्री ने उन्हें मिलने का समय नहीं दिया। निराश होकर गांधीजन ने उन्हें दिया जाने वाला ज्ञापन माँ गंगा के सुपुर्द कर दिया, ताकि मां गंगा अपने बेटे को खुद वह पत्र पहुंचा दे जो उसके बुलाने पर दस साल पहले इस शहर का संसदीय प्रतिनिधि बनकर आया था।
एक आखिरी उम्मीद में गांधीजन अब सुप्रीम कोर्ट की चौखट पर पहुंचे हैं। आज वरिष्ठ अधिवक्ता प्रशांत भूषण ने सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश चंद्रचूड़ के समक्ष सर्व सेवा संघ को ध्वस्त होने से बचाने की गांधीवादियों की अर्जी दी। प्रधान न्यायाधीश ने सुनवाई के लिए सोमवार 10 जुलाई की तारीख मुकर्रर कर दी है।
बनारस के राजघाट पर महात्मा गांधी की जीर्ण-शीर्ण विरासत सर्व सेवा संघ की इमारत उत्तर रेलवे की ओर से तय तारीख 30 जून 2023 को ही जमींदोज हो जानी थी, लेकिन गांधीजन के आंदोलन ने इसे दो दिन के लिए टाल दिया था। सोमवार 3 जुलाई को यह यथास्थिति कायम रहने की उम्मीद टूट गई जब इलाहाबाद हाइकोर्ट ने गांधीवादियों की याचिका को सुनने से ही इनकार कर दिया। एक आखिरी उम्मीद में देश भर के गांधीजन ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से उनके बनारस दौरे पर मिलने का समय मांगा था।
आज शाम चार बजे तक प्रधानमंत्री की तरफ से बुलावे का इंतजार किया गया। इसके बाद धरनारत लोग एक साथ महिषासुर घाट पर गए और प्रधानमंत्री को दिया जाने वाला मांगपत्र सामूहिक रूप से नदी में प्रवाहित कर दिया। इसके बाद सर्व सेवा संघ ने निर्णय लिया कि राजघाट परिसर पर जारी प्रशासनिक हमले के विरोध में 9 जुलाई को देश भर में सर्वोदय मंडल और सहयोगी संगठन एक साथ सत्याग्रह करेंगे। इस दिन सत्याग्रह के पचास दिन पूरे हो रहे हैं।
अगले ही दिन सुप्रीम कोर्ट में मामले की सुनवाई होना तय है। माना जा रहा है कि सुप्रीम कोर्ट की सुनवाई तक कम से कम सर्व सेवा संघ के ध्वस्त किए जाने की नोटिस पर कार्रवाई नहीं होगी। फिलहाल धरना जारी है।
तीन साल पहले इसी शहर में जब मंदिर तोड़े जा रहे थे, तब भी आंदोलन खड़ा हुआ था। जो लोग आज सर्व सेवा संघ को बचा रहे हैं उनमें कई चेहरे मंदिर बचाओ और धरोहर बचाओ आंदोलन में शामिल थे। काशी विश्वनाथ धाम कॉरीडोर प्रधानमंत्री का ड्रीम प्रोजेक्ट था। काशी विश्वनाथ कॉरीडोर के निर्माण के दौरान ही जिला प्रशासन द्वारा सर्व सेवा संघ की लगभग ढाई एकड़ जमीन कॉरीडोर निर्माण में लगे ठेकेदारों को दे दी गई थी। ठेकेदारों को जमीन देने के लिए जिला प्रशासन ने जबरन कब्जा किया था, ऐसा संघ से जुड़े लोगों का दावा है।
कॉरीडोर का काम समाप्त होने के बाद आज उस जमीन पर काशी रेलवे स्टेशन पर प्रस्तावित इंटर मॉडल स्टेशन की निर्माण सामग्री डम्प कर दी गई है। संघ के लोगों का कहना है कि कमिश्नर कौशल राज शर्मा ने काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के वर्कशॉप के लिए 2 दिसंबर 2020 को यहां की जमीन घेरी थी। वह कब्जा आज भी बरकरार है।
सत्याग्रह अब तक
सर्व सेवा संघ पर कब्जे का ताजा प्रसंग डेढ़ महीने पहले खुला जब 15 मई, 2023 को क्षेत्रीय मजिस्ट्रेट आकांक्षा सिंह भारी पुलिसबल के साथ परिसर में पहुंचीं। कमिश्नर कौशलराज शर्मा के आदेश पर मजिस्ट्रेट, पुलिस अधिकारी और काफी संख्या में पुलिसबल की मौजूदगी में गांधी विद्या संस्थान, उसकी लाइब्रेरी और निदेशक भवन का ताला तुड़वा दिया गया। फिर इन तीनों इमारतों को केंद्र सरकार के अधीन चलने वाले दिल्ली स्थित इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के हवाले कर दिया गया।
इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के मुखिया फिलहाल रामबहादुर राय हैं, जो दिल्ली के पुराने पत्रकार हैं और गाजीपुर के मूलनिवासी हैं। फिलहाल, गांधी विद्या संस्थान सरकारी पहरेदारी में नजरबंद है। आने-जाने वालों पर निगरानी रखने के लिए जिला प्रशासन की तरफ से दो निजी सुरक्षाकर्मियों की तैनाती की गई है।
इस घटना के बाद एक प्रेस विज्ञप्ति में सर्व सेवा संघ ने जानकारी दी कि गांधी विद्या संस्थान का मामला इलाहाबाद उच्च न्यायालय में लंबित है इसलिए इसे किसी दूसरी संस्था को सौंपना गैरकानूनी है। विज्ञप्ति के अनुसार गांधी संस्थान के नियम-कायदों और डीड में साफ तौर पर इस बात का उल्लेख है कि कतिपय कारणों से संस्था अगर विघटित या कहीं स्थानांतरित होती है तो उसकी जमीन सर्व सेवा संघ को वापस हो जाएगी।
इसी प्रकरण में इलाहाबाद हाइकोर्ट के जज आलोक माथुर ने 16 मई 2023 को वाराणसी के कलेक्टर को निर्देश दिया था कि वह दो महीने के भीतर समूचे अभिलेखों की जांच करें और जिस जगह सर्व सेवा संघ स्थापित है, अगर वह जमीन उसी संस्था की है तो उसे लौटा दें। इस फैसले की भनक वाराणसी जिला प्रशासन को लग गई थी, इसलिए उसने हाइकोर्ट के आदेश के एक दिन पहले 15 मई को ही गांधी विद्या संस्थान को जबरन इंदिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र के हवाले कर दिया। सारा संघर्ष यहां से शुरू हुआ।
संपूर्ण क्रांति दिवस के मौके पर 4-5 जून 2023 को सर्व सेवा संघ में देश भर के गांधीवादी बनारस पहुंचे और प्रतिरोध सम्मेलन में कब्जे के खिलाफ मुहिम छेड़ने का निर्णय लिया। साथ ही यह ऐलान भी किया कि जब तक सर्व सेवा संघ की त जमीन और गांधी विद्या संस्थान के भवनों को मुक्त नहीं किया जाता तब तक आंदोलन जारी रहेगा।
बात तब और बिगड़ी जब हाइकोर्ट के 16 मई वाले आदेश पर बनारस के जिलाधिकारी एम. राजलिंगम ने 27 जून को रेलवे के पक्ष में एकतरफा आदेश पारित कर दिया। संघ के लोगों का कहना है कि हाइकोर्ट के निर्देशों के अनुपालन में बनारस के डीएम ने अभिलेखों की कोई जांच-पड़ताल ही नहीं की। बचे हुए अभिलेखों को देने के लिए उनसे समय की मांग की जा रही थी, लेकिन गांधीवादियों के पक्ष को नजरंदाज करते हुए रेलवे के पक्ष में फैसला सुना दिया गया।
इस फैसले से सबसे बड़ी आपत्ति यह है कि जो जमीन विनोबा भावे के जुटाए चंदे से खरीदी गई थी, उसमें जालसाजी के आरोप लगा दिए गए। राजलिंगम ने फैसले में कहा कि ”सर्व सेवा संघ उस जमीन पर अपना स्वामित्व साबित करने में पूरी तरह विफल रहा। अखिल भारतीय सर्व सेवा संघ द्वारा वर्ष 1960, 1961 एवं 1970 के विक्रय पत्रों की वैधानिकता की पुष्टि में कोई प्रामाणिक साक्ष्य/अभिलेख मुहैया नहीं कराया गया। इसलिए वह भूमि उत्तर रेलवे की है।”
इसके तुरंत बाद उत्तर रेलवे ने अफसरों ने आनन-फानन में सर्व सेवा संघ परिसर को ध्वस्त करने की कार्रवाई की नोटिस वहां चस्पा करा दी। इसके खिलाफ सर्व सेवा संघ की ओर से इलाहाबाद हाईकोर्ट में एक याचिका दायर की गई।
अगले दिन 28 जून, 2023 को हुई सुनवाई में कोर्ट ने रेलवे और उत्तर प्रदेश सरकार के अधिवक्ताओं को निर्देश दिया कि वे सर्व सेवा संघ परिसर में ध्वस्तीकरण की कार्रवाई को स्थगित रखें। अगली सुनवाई की तारीख 30 जून 2023 मुकर्रर कर दी गई। अंतत: 3 जुलाई को हाइकोर्ट ने याचिका लेने ही इनकार कर दिया और गांधीवादियों को निचली अदालत में जाने का निर्देश दे डाला।
सर्व सेवा संघ और तमाम गांधीवादी अब सुप्रीम कोर्ट का रुख कर रहे हैं।
कब्जे का अतीत
सर्व सेवा संघ पर कब्जे की कोशिशों का अतीत भी भाजपा की सरकारों से ही जुड़ा रहा है। 1998 से गांधी विद्या संस्थान पर कब्जे की लड़ाई चल रही है। अटल बिहारी वाजपेयी की एनडीए सरकार में मानव संसाधन विकास मंत्री रहे मुरली मनोहर जोशी ने कुसुमलता केडिया नाम की एक महिला को गांधी विद्या संस्थान में नियुक्त करवाया था, जिसका पूरे बनारस में बहुत विरोध हुआ था। गांधी विद्या भवन के तत्कालीन निदेशक प्रो. रामजी सिंह (प्रसिद्ध गांधीवादी एवं पूर्व कुलपति) ने भी इस नियुक्ति का विरोध किया था। 2003 में प्रो. रामजी सिंह और केडिया के बीच का आपसी विवाद बहुत तीखा हो गया था। इसके पीछे केडिया के माध्यम से संस्थापर कब्जा करने की कोशिशें ही थीं।
1963 में सोसाइटी एक्ट के अंतर्गत गांधी विद्या संस्थान का पंजीकरण हुआ था। सर्व सेवा संघ ने अपनी जमीन का एक हिस्सा 30 साल के लिए संस्थान को दे दिया था। हर 30 साल बाद उसका नवीनीकरण होना था। किन्हीं कारणों से नवीनीकरण नहीं हो सका था। इस बात की भनक लगते ही केडिया ने अपने संपर्कों का लाभ उठाते हुए संस्थान का रजिस्ट्रेशन ही रद्द करवा दिया। 2003 से 2007 तक चली लंबी लड़ाई के बाद कोर्ट ने एक अस्थायी संचालन समिति बनाई, जिसका सह-अध्यक्ष बनारस मंडल के कमिश्नर को बनाया गया।
पहले प्रो. कुसुमलता केडिया और रामेश्वर मिश्र पंकज इस संस्थान में घुसाए गए। पंकज भाजपा के कुख्यात नेता कपिल मिश्रा के पिता हैं। वाजपेयी सरकार में सारा विवाद इन्होंने ही खड़ा किया। बोर्ड द्वारा नौकरी से निकालने के बावजूद उनको समर्थन देकर सरकार ने उन्हें बनाए रखा था। उन्होंने यह परिसर उच्च शिक्षा विभाग को दिया, पर वह दो दिन में ही भाग गए। इसके बाद कब्जा कर रहे संस्कार भारती से भी कैम्पस को कब्जामुक्त कराया गया।
फिर यह परिसर एम्बिशन इंस्टिट्यूट को किराये पर दे दिया गया। उसे भी हटवाया गया। पीएसी से भी परिसर को कब्जामुक्त कराया गया। आखिर में तत्कालीन जिलाधिकारी विजय किरण आनंद और यूपी सरकार के एक उच्च शिक्षा मंत्री की मदद से कब्जा कर रहीं प्रो. केडिया से परिसर को मुक्त कराया गया। इन मामलों से जुड़े विवाद आज भी कोर्ट में विचाराधीन हैं।
जमीन किसकी है?
सर्व सेवा संघ जिस जमीन पर है वह उसने 1960, 1961 एवं 1970 में रेलवे से खरीदी थी। इस संबंध में डिवीजनल इंजीनियर उत्तर रेलवे (लखनऊ) द्वारा हस्ताक्षरित तीन रजिस्टर्ड सेल डीड मौजूद हैं। जमीनों की खरीद की ही तरह यह भवन भी तीन बार में बना है।
सर्व सेवा संघ के परिसर प्रबंधक तारकेश्वर सिंह यह जानकारी देते हुए बताते हैं कि 1960 में खरीदी गई जमीन की रकम 26,730 रुपये, 1961 में 3,240 रुपये एवं 1970 में 4,485 रुपये स्टेट बैंक ऑफ इंडिया, वाराणसी के क्रमश: ट्रेजरी चालान नं. 171 दिनांक 5 मई 1959, ट्रेजरी चालान नं. 31 दिनांक 27.04.1961 एवं ट्रेजरी चलान नं. 3 दिनांक 18.01.1968 के माध्यम से भुगतान किया गया है। यह रकम सरकार के खजाने में गई है।
जमीन की सेल डीड
SSS-Land-Deed-1960 SSS-Land-Deed-1961 SSS-Land-Deed-1970-1दिलचस्प है कि रेलवे को इन जमीनों की बिक्री से पहले यह पता ही नहीं था कि ये जमीनें उसकी हैं। आज दशकों बाद उसे इन जमीनों की याद आई है। इस जमीन पर रेलवे की गफलत के संबंध में पूरी कहानी विस्तार से ‘गांव के लोग’ की इस रिपोर्ट में यहां पढ़ी जा सकती है, जिसका स्रोत गांधीजी के शिष्य उद्योगपति जमनालाल बजाज के भतीजे राधाकृष्ण बजाज की (उनकी बेटी नंदिनी मेहता द्वारा लिखी) जीवनी है।
सर्व सेवा संघ के भवन के निर्माण के लिए उस वक्त तलाशी जा रही जमीन के संदर्भ में संघ से जुड़े तत्कालीन लोगों और रेलवे के बीच हुई बातचीत में जीवनी लेखिका नंदिनी मेहता ने पैसे की लेन-देन की आशंका जाहिर की है पर यह भी बताया है कि वे लोग जमीन के बदले रिश्वत देने को तैयार नहीं थे। वरुणा और गंगा के संगम पर बसी इस गड्ढों से भरी जमीन की खरीद के सूत्रधार राधाकृष्ण बजाज की ओर से नियुक्त किए गए एक गांधीवादी कार्यकर्ता सदाशिवराव गोडसे थे।
किताब में सीधे किसी रिश्वत का तो कोई जिक्र नहीं है हालांकि यह जरूर बताया गया है कि गोडसे ने जमीन पाने के रास्ते में नीचे के स्तर पर आने वाली एक-एक बाधा को दूर किया। रिपोर्ट के अनुसार ‘’जिस आदमी से काम करवाना होता, गोडसे पहले उसकी दिक्कतों के बारे में पता करते, फिर उसकी दिक्कतें दूर करवाते और फिर अपने मतलब की बात कहते। इस अनोखी पद्धति से और ऊपरी दबाव के बावजूद बरसों की सतत भागदौड़ के बाद गड्ढों और गंदगी से भरा 10 एकड़ जमीन का टुकड़ा मिला।‘’
जमीन पाने के लिए जमीन-आसमान एक कर देने वाले सदाशिवराव गोडसे को नहीं पता था कि बरसों बाद उनकी मेहनत पर उन्हीं के कुलनाम वाले उस शख्स के वैचारिक वंशज पानी फेर देंगे जिसने गांधी की हत्या की थी।
संदर्भ: विभांशु केशव की रिपोर्ट