ये वो गुजरात नहीं है जिसे कभी हिन्दू राष्ट्र की प्रयोगशाला कहा गया था…

Dhai Akhar team reaches Kim
मध्‍य प्रदेश में अपना खास मुकाम हासिल करने के बाद ‘ढाई आखर प्रेम के’ नामक सांस्‍कृतिक यात्रा जब गुजरात पहुंची तो यात्रियों के मन में संदेह, भय और उत्‍तेजना मिश्रित भाव था। साबरमती से शुरू होकर जत्‍था जैसे-जैसे आगे बढ़ता गया, मन में एक नया सवाल घुमड़ता रहा कि ये तो 2002 वाला गुजरात नहीं है और शायद वैसा बनाया भी नहीं जा सकता, जैसी इसकी छवि है। समूची यात्रा में आयोजक, भागीदार और दस्‍तावेजकार के रूप में निरंतर शामिल रहे विनीत तिवारी का संस्‍मरणात्‍मक रिपोर्ताज

मध्य प्रदेश की यात्रा समाप्त करने के बाद मैं और निसार अली 3 जनवरी 2023 को इंदौर से अहमदाबाद पहुंचे। जैसा गुजरात के साथियों से बातचीत में तय हुआ था, गुजरात में “ढाई आखर प्रेम” यात्रा साबरमती से शुरू करके दांडी तक निकालनी थी।

दोपहर में जब हम साबरमती आश्रम पहुंचे तो निसार अली और मेरे साथ में कॉमरेड रामसागर सिंह परिहार, साथी कवि ईश्वर सिंह चौहान और कवि व लेखक साथी करतार सिंह थे। हम दो को छोड़ तीनों स्थानीय सदस्य प्रगतिशील लेखक संघ की गुजरात इकाई के पदाधिकारी हैं और अच्छे लेखक हैं। हमें लग रहा था कि हम पांच लोग क्या ही करेंगे गुजरात में यात्रा के उद्घाटन की रस्म। ये रस्म अदायगी भर न बन जाए। लेकिन साथी ईश्वर सिंह चौहान साथ लाई फूल-मालाएं गांधीजी की मूर्ति के बगल में रखते हुए आत्मविश्वास से बोले – अरे चिंता की कोई बात नहीं, अभी सब हो जाएगा। 

साबरमती आश्रम  पर्यटकों के लिए भी बहुत आकर्षण का केन्द्र रहता है। बहुत बड़ा परिसर है। कहां गांधी जी रहे थे, कहां उनकी रसोई थी, कहां वे चरखा कातते थे, कस्तूरबा का कमरा कौन सा था, वग़ैरह सभी कुछ संजो कर रखा है। गांधी जी के जीवन की मुख्य घटनाओं को दर्शाने वाली एक बड़ी प्रदर्शनी भी स्थायी तौर पर लगी हुई है। पीछे कभी पतली-सी रेखा में बहने वाली साबरमती नदी में अब नर्मदा नदी का पानी भरा जाता है जिसकी वजह से अब वह स्वस्थ नदी दिखाई देती है लेकिन दरअसल साबरमती नदी को परजीवी बनाकर नर्मदा नदी का स्वास्थ्य भी बिगाड़ा जा रहा है।



परिसर में तीन-चार सौ लोग तब भी घूम ही रहे थे। निसार ने ढपली बजाना और “वैष्णव जन तो तेने कहिए रे” गाना शुरू कर दिया। तुरंत ही आठ-दस लोग ढपली की आवाज सुनकर नजदीक आ गए जिन्हें ईश्वर सिंह जी ने आग्रह से आगे बुला लिया पुष्पांजलि अर्पित करने हेतु। गांधी जी पर पुष्प चढ़ाने में किसे आपत्ति होती। एक परिवार दिल्ली से आया था। उनमें से किसी को मोबाइल पकड़ा दिया गया तस्वीरें खींचने के लिए। तुरंत ही परिहार जी और करतार सिंह जी ने “ढाई आखर प्रेम” का बैनर खोल दिया। मुझे लग रहा था कि ढपली और शोरगुल सुनकर सिक्योरिटी गार्ड आएंगे, लेकिन हमने सोचा कि जब तक आएंगे तब तक एक गीत तो हो चुका होगा और गुजरात जत्थे का उद्घाटन भी। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बल्कि उम्मीद से ज्‍यादा ही लोग आ गए। तस्वीर खिंचवाने को भी। एक लड़का और लड़की स्पेन से आए हुए थे। उन्हें भी अंग्रेजी में लव, ह्यूमैनिटी बोल-बोलकर बुला लिया। इस तरह सम्मानजनक संख्या के साथ गुजरात जत्थे का उद्घाटन हुआ। तभी एक महिला आकर हम लोगों से पूछने लगी कि आप कहां से आए हैं? हमने बताया। हमारी “ढाई आखर प्रेम” की यात्रा की बात सुनकर वो बोलीं, “आइए, आपको मैं आश्रम घुमाती हूं।

कहां तो हमें लग रहा था कि सिक्योरिटी वाले निकाल देंगे और कहां हमें विशिष्ट स्वागत मिलने लगा। वे उस घर में ले गईं जहां गांधी जी और कस्तूरबा रहा करते थे। उस जगह को काका साहेब कालेलकर ने ह्रदय-कुंज का नाम दिया था। यहां गांधी जी 1918 से 1930 तक रहे। फिर उन्होंने दांडी यात्रा शुरू की और घोषित करके निकले कि अब स्वराज हासिल किए बिना वे इस आश्रम में नहीं लौटेंगे। फिर कभी वे जीते-जी साबरमती वापस नहीं आ सके। वहां रहते हुए उन्होंने काका साहेब कालेलकर की मदद से गुजरात विद्यापीठ की स्थापना की। काकासाहेब गुजरात विद्यापीठ के कुलपति भी रहे। काकासाहेब थे तो मराठी लेकिन गांधी जी उन्हें सवाई गुजराती कहते थे, मतलब गुजरातियों से भी एक पाव ज्‍यादा गुजराती।

कुछ विशिष्ट कमरों में आम दर्शकों को बाहर से ही देखने की अनुमति थी। उन कमरों में जाली वाला दरवाजा लगा हुआ था और दरवाजों पर ताला, लेकिन उन्होंने हमारे लिए सभी ताले खोल दिए। गांधी जी जिस कमरे में बैठकर चरखा चलाते थे और उनके निजी सचिव महादेव भाई देसाई जिस जगह बैठकर चौकी पर गांधी जी के कहे अनुसार दस्तावेज और पत्रादि लिखते थे, वो जगहें भी उन्होंने दिखाईं। उन्होंने बताया कि उनका नाम लता बहन है और वे वहां चरखा चलाना सिखाती हैं। उन्होंने यह भी बताया कि गांधी जी ने अपने जीवन में जिन-जिन चरखों को चलाया उनमें से भी 20 चरखे वहां सहेजे हुए हैं। तस्वीरें आदि खींचने और खिंचवाने के बाद हम लोग आश्रम से यात्रा के अच्छे उद्घाटन का अहसास लिए रुखसत हुए। लता बहन ने यह भी बताया कि महादेव भाई जिस चौकी पर कॉपी-किताब रखकर लिखते-पढ़ते थे, उसे किसी कर्मचारी ने चुरा लिया था लेकिन बाद में उसका ह्रदय परिवर्तन हो गया तो उसने स्वयं ही वह चौकी लौटा दी थी।  



इस कार्यक्रम के उपरान्त हमें सरदार वल्लभ भाई पटेल स्मारक में अहमदाबाद के श्रमिक संगठनों और सांस्कृतिक संगठनों द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में जाना था जिसमें केमिकल मजदूर पंचायत के साथी आशिम रॉय, गुजराती साहित्य अकादमी से सम्मानित वरिष्ठ कवयित्री सरूपबेन ध्रुव और अन्य साथी मिलने वाले थे। साथी रामसागर सिंह परिहार ने सभा का संचालन किया और सभा की अध्यक्षता की सरूपबेन ध्रुव ने। इस सभा में अंबेडकरवादी, गांधीवादी और वामपंथी राजनीतिक और सामाजिक-सांस्कृतिक कार्यकर्ता मौजूद थे। हुज़ैफ़ा, नट्टू और उनके साथियों ने क्रान्तिकारी गीत प्रस्तुत किए। निसार अली ने मुझे ही साथ में लेकर कुछ गीत आदि गाये।

दरअसल गुजरात के जत्थे में शामिल होने के लिए पटना इप्टा के चार साथी आने वाले थे। आना तो उनको सुबह ही था, लेकिन उनकी ट्रेन काफी देर से पहुंची और वे लोग जब अहमदाबाद पहुंचे तो सरदार पटेल स्मारक पर कार्यक्रम समाप्त हो रहा था। इप्टा बिहार के साथी पीयूष मधुकर अपने साथियों फ़िरोज़, राजन और संजय के साथ आए और हम सभी छारानगर की ओर निकल गए। बहरहाल, सरूपबेन और आशिम रॉय के प्रेरक सम्बोधनों और बढ़िया सांस्कृतिक प्रस्तुतियों के बाद हम लोग रात करीब आठ बजे छारानगर पहुंचे जहां करीब 20 बरस बाद जाने का मुझे रोमांच भी हो रहा था।   

अहमदाबाद के छारानगर का इतिहास काफी दिलचस्प है और लोगों को जानना चाहिए। छारानगर दरअसल डिनोटिफाइड ट्राइब की छारा प्रजाति के लोगों की बस्ती है, जो कि एक सैटलमेंट के तहत यहां बसाये गए थे। यानी एक तरह से उन्हें खुली जेल में रखा गया था। पहले इनको अपराधी सूची के तहत सूचीबद्ध किया था इसलिए इनको नोटिफाइड कहा गया था।

दरअसल 1857 के आजादी के संघर्ष में घुमंतू जनजातियों के लोगों की विद्रोहियों को गोपनीय सूचनाएं और अन्य मदद पहुंचाने में बड़ी भूमिका रही थी, इसलिए अंग्रेजों ने अनेक जनजातियों को अपराधी घोषित कर दिया था। सन 1871 से 1947 के बीच करीब 150 समुदायों को अपराधी प्रजाति के तौर पर सूचीबद्ध किया गया था जो आजादी के बाद 1952 में उस सूची से निकाले गए। तो पहले उन्हें सूचीबद्ध यानि नोटिफाई किया गया और बाद में उन्हें सूची से बाहर यानि डीनोटिफाई किया गया। इसीलिए इनका नाम डीएनटी पड़ गया। लेकिन डिनोटिफाइड कहने से उनके जीवन पर कोई फर्क नहीं पड़ा, उनसे वैसा ही भेदभाव भरा बर्ताव किया जाता रहा। तो डिनोटिफाइड ट्राइब्स को कोर्डन ऑफ किया जाता था, मतलब उन्हें एक सुरक्षा घेरे में या पहरे में रखा जाता था। पहले उनके साथ बहुत अमानवीय स्थितियां होती थीं, उन्हें जंजीरों से भी बांधा जाता था, लेकिन बाद में उनको धीरे-धीरे रहने की जगह के लिए एक घेरा तय कर दिया गया और वे लोग एक घेरे में रहने लगे।



छारानगर सरकारी जमीन मानी जाती है। काफी बरसों से, लगभग 80-100 वर्षों से वे यहां रह रहे हैं, अपने पुरखों के जमाने से, लेकिन वे जमीनें अभी भी उनके नाम पर नहीं हैं जहां वे रह रहे हैं। दूसरी बात, अधिकतर डीएनटी लोगों के दिमाग में यह भर दिया जाता है कि तुम जिस समुदाय के हो उसका कर्त्तव्य ही छल-कपट और अपराध करके आजीविका चलाना है। मध्य प्रदेश में कंजर, पारधी और बंजारे भी इसी तरह नोटिफाइड जनजाति थे। छाराओं के बारे में भी यही कहा जाता है कि अगर वे बिना चोरी, ठगी, लूट के मेहनत करके घर चलाएंगे तो अपशगुन होगा। उनको यही समझाया गया था इसलिए वे अपना दायित्व समझते थे कि हमारे जीवन का प्रमुख कर्तव्य यही है कि जीवन में चोरी करके कमाना है और अवैध काम करके खाना है। बाद में चोरी करने से लेकर अवैध शराब बनाने में और अलग-अलग तरह के ग़लत कामों में ये सब लोग शुमार होते रहे।

मेरी जानकारी में 1980-90 के आसपास कुछ लोगों ने डिनोटिफाइड ट्राइब्स के पक्ष में आवाज उठायी और उसे एक आंदोलन की शक्ल दी। ख़ासकर महाश्वेता देवी का नाम सबसे पहले लेना होगा। गुजरात में 1998 में महाश्वेता देवी, गणेश देवी के साथ में इस बस्ती में आईं और उन्होंने यहां ‘बुधन लाइब्रेरी’ की स्थापना की। बुधन एक ऐसा ही डीएनटी समुदाय का व्यक्ति था जिसे पुलिस की हिरासत में पीट-पीटकर कोलकाता में मार दिया गया था। इस पर गणेश देवी की एक प्रसिद्ध मार्मिक किताब “ए नोमैड कॉल्ड थीफ” भी है। उसके बाद से महाश्वेता देवी, गणेश देवी और शायद लक्ष्मण गायकवाड का यहां छारानगर में आना-जाना शुरू हुआ और उन्होंने यहां एक थियेटर शुरू किया। उसकी वजह यह हो सकती है कि नट और तमाशे के काम करने और फिर उन्हीं में से चोरी करके गायब हो जाने, वेष बदलने आदि में ये लोग सिद्धहस्त होते थे। इनमें बला की फुर्ती भी होती थी। वे चोरी करके भागने में निपुण होते थे। चपलता, अभिनय, झूठ, पकड़े जाने पर याचना का नाटक आदि के गुण उनके अंदर होते थे। इनकी जो भाषा होती थी आपस में बात करने की, वो भी कूट भाषा होती थी जिसकी कोई लिपि नहीं होती। उसे वो भान्तु कहते हैं और वह कई भाषाओं का मिलाजुला रूप होती है।

इनमें एक नैसर्गिक प्रतिभा थी कला की – थियेटर की, नृत्य करने की, संगीत की; इस तरह से इन्होंने थियेटर का एक ग्रुप बनाया और बुधन वाचनालय से बुधन थियेटर बना। उसमें पहली पीढ़ी के जो कलाकार थे उसमें दक्षिण छारा नामक कलाकार उभरा, जो अब शायद 45-50 की उम्र का होगा, जिसने बुधन थियेटर में कई नाटक तैयार किए। पहले तो नुक्कड़ नाटकों की शक्ल में ये नाटक बनाते थे, फिर उसके बाद तो प्रोसिनियम बनाना भी शुरू किए। जब प्रोसिनियम बनाया तो वे जर्मनी फेस्टिवल तक गए। एक बार तो मुझे हबीब तनवीर जी ने यह बताया था कि उनका नाटक इनके नाटक के सामने फीका पड़ गया था। जर्मनी में दर्शकों ने बुधन के नाटक को ज्‍यादा प्रतिसाद  दिया था। गणेश देवी और महाश्वेता देवी की अंतरराष्ट्रीय पहचान है, इसलिए बुधन थिएटर को भी अंतरराष्ट्रीय पहचान और अंतरराष्ट्रीय प्रोत्साहन प्राप्त हुआ। महाश्वेता देवी नहीं रहीं, गणेश देवी भी अनेक दूसरे कामों में लग गए लेकिन  वह शम्मा जलती रही और 1998 से हम आज 2024 तक इनका ढाई दशक का सफर देखते हैं।



छारानगर, अहमदाबाद में 3 जनवरी 2024 की रात 8 बजे से 11-11.30 बजे तक हमने जो ‘ढाई आखर प्रेम’ का कार्यक्रम किया था, वह एक ऐतिहासिक परिघटना थी। शुरू से ही मेरी और मनीषी भाई की यह समझ थी कि इस यात्रा में बुधन को जरूर शामिल करना है। यह बहुत जरूरी है कि इस थियेटर के बारे में, बुधन थिएटर के बारे में पूरे देश में ये बात पहुंचे कि हमने जब गुजरात में यात्रा के अपने रास्तों का चयन किया, तो उनमें इस तरह की जगहों पर जाने को हमने प्राथमिकता दी, बजाय कि बड़े मंचों पर जाकर कार्यक्रम करने के! ये जो जगहें हैं, इसमें आम लोग ही दर्शक हैं और आम लोग ही नायक हैं। इस यात्रा के मक़सद को पूरा करने में भी बुधन थिएटर जैसी संस्थाओं से जुड़ाव मददगार होता है।

प्रगतिशील लेखक संघ, गुजरात के महासचिव रामसागर सिंह परिहार ने छारानगर पर रची गई आजादी-पूर्व की एक रचना का परिचय देते हुए कहा, ‘‘छारा लोगों की जीवन-शैली और सरकार के दमन पर आधारित चंद्रभाई भट्ट ने ‘भट्टी’ शीर्षक से उपन्यास लिखा था। यह आजादी के पहले लिखा गया उपन्यास था। उस पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और उसे जब्त कर लिया गया था। यह प्रतिबंध गुजरात के भीतर आजादी के बाद भी जारी रहा। लगभग 1980 के बाद यह प्रतिबंध हटा और अहमदाबाद स्थित पीपुल बुक हाउस ने उसका पुनर्प्रकाशन किया। उसमें कोई परिवर्तन नहीं किया गया था। उपन्यास में उस समय वहां की जीवन-शैली और पुलिस का दमन-चक्र विस्तार से वर्णित किया गया है। इन डीएनटी लोगों के लिए निर्धारित चारदीवारी से जो लोग निकलते थे, उनका नाम लिखा जाता था। कभी-कभी तो पुलिस उनके साथ-साथ जाती थी यह देखने कि वे कहां जा रहे हैं। वे जब लौटकर आते थे, तब उनका नाम फिर से दर्ज होता था। यह पूरी प्रक्रिया उस उपन्यास में चित्रित की गई है। ‘भट्टी’ शीर्षक सतत जलने वाली प्रक्रिया का प्रतीक है।‘’

वर्तमान पीढ़ी भी बहुत कुछ लिख और रच रही है, यह छारानगर के कार्यक्रम में दिखाई दिया। ये न सिर्फ अपनी भाषा भान्तु में, बल्कि हिंदी में भी गीत और नाटक लिख रहे हैं। 



पहली दफा मुझे और जया मेहता को गणेश देवी ही करीब 20 बरस पहले छारानगर लेकर आए थे। तब हमने इंदौर इप्टा की तरफ से एक नाटक बनाया था ‘धरती पर कहां है हमारी जगह’, जो आदिवासियों के आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक विस्थापन पर आधारित था। यह शुरू होता था बिरसा मुंडा से और खत्म होता था कलिंगनगर के मारे गए आदिवासियों पर। गणेश देवी ने वह नाटक देखा था इसलिए बुधन थियेटर से हमारा परिचय करवाया था। तब से यह लगभग तीसरी पीढ़ी है जो थियेटर भी कर रही है, गीत, कविताएं और फिल्मों में भी जगह बना रही है।

बीस बरस बाद ‘ढाई आखर प्रेम’ की यात्रा के तहत यहां आने पर यह देखकर बहुत अच्छा लगा कि एक पूरी नई पीढ़ी उस परम्परा को नई ऊर्जा के साथ संभाले हुए है और आगे बढ़ा रही है। साथ ही यहां के अनेक लोग, जैसे आतिश इन्द्रेकर, रॉक्सी गागडेकर, उनकी छारा समुदाय से सम्बद्ध जीवनसाथी कल्पना गागडेकर गुजराती फिल्मों में स्थापित अभिनेत्री बन गई हैं। ये फिल्मों में भी काम कर रहे हैं। इन्होंने नए तरह का संगीत तैयार किया है। एक संगीत ऐसा भी है, जो सिर्फ शराब बनाने वाले उपकरणों से बनाया गया है, जो वहां के एक साथी ने तैयार किया है।

उमेश सोलंकी ने “परंपरा” कविता सुनाई। आतिश इन्द्रेकर ने राजेश जोशी की कविता “मारे जाएंगे” सुनाई। अनीश छारा ने एक कविता सुनायी ‘जाड्डा’, जो भान्तु भाषा में थी। इसमें बताया गया था कि जो ठंड पड़ती है वह उनके घरों पर क्या और कैसा असर डालती है। यह विरल अनुभव है बाकी मध्यवर्गीय कविता से। वैशाख रतनबेन ने लम्बी कविता “जम्हूरियत मटनमार्ट” सुनाई जो बहुत ताकतवर, मारक और साहसी कविता थी। गुजरात के वरिष्ठ कवि साहिल परमार और साथी ईश्वर सिंह चौहान ने भी कविताएं पढ़ीं। मैंने भी एक कविता “जब वो सत्रह बरस का हुआ” सुनाई और पीयूष, संजय, राजन और फ़िरोज़ ने गीतों की प्रस्तुति दी। निसार अली ने बिहार के संजय को अपना नया सोमारू बना लिया था और उन्होंने मिलकर समां बांध दिया।  

छारानगर का अनुभव काफी जबर्दस्त था। सब लोगों से बहुत आत्मीयता से मिलना हुआ। हमारे साथ जो कलाकार थे उनसे भी सब बहुत अच्छी तरह मिले। अहमदाबाद के साथी मनीषी जानी और उनकी जीवनसाथी रूपा मेहता, जो 1974 में गुजरात में हुए नवनिर्माण आंदोलन के सक्रिय कार्यकर्ता रहे, जिसका एक बहुत सकारात्मक और प्रगतिशील चेहरा था। रूपा जी दूरदर्शन गुजरात की निदेशक भी थीं और उन्होंने भी छारानागर पर केंद्रित अनेक कार्यक्रम किए थे। साथी रामसागर सिंह परिहार, करतार सिंह, आशिम रॉय भी कार्यक्रम में पूरे समय उपस्थित रहे।



कार्यक्रम लगभग रात 11.30 बजे तक चलता रहा। उसके बाद जो पता चला, वह हास्यास्पद भी है और करुणास्पद भी कि हमें वापस लौटने के लिए टैक्‍सी नहीं मिली तो वहां के लोगों ने हंसते हुए बताया कि ओला-उबर वाले इस इलाके में आने से डरते हैं। वहां से बाइक से कुछ दूर तक छोड़ने पर ही ओला-उबर मिल पाएगी। रात को यहां आने की कोई हिम्मत नहीं करता। दरअसल अभी भी ऐसा नहीं है कि समूचे छारा समुदाय के लोग उस दलदल से बाहर आ गए हैं। एक छोटा हिस्सा सजग हो गया है, मगर अब भी समुदाय के बहुत से युवा नशे में, अवैध शराब और अन्य अवैध धंधों में लिप्त हैं।

छारानगर से लगा इलाका नरोदा पाटिया का है। बताते हैं कि जब 2002 में मुसलमानों का संहार किया गया था तब आदिवासियों और दलितों में से कुछ लोगों को मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया था। इन्हीं को मोहरा बनाया गया था। बाद में जब गिरफ्तारियां हुईं, तब भी यही लोग पकड़कर जेलों में ठूंस दिए गए थे। उदित राज ने उस वक्‍त पूरे आंकड़े देकर बताया था कि कैसे दलितों और आदिवासियों को मुसलमानों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया और जब दुनिया को दिखाना पड़ा कि गुनहगारों को पकड़ा गया है तो इन्हीं दलितों और आदिवासियों को पकड़कर जेलों में डाल दिया गया।

छारानगर में जिन लोगों से हम मिले, चाहे वे वरिष्ठ हों या युवा, सब बहुत समझदार थे। उन्हें इस्तेमाल नहीं किया जा सकता और वे दुनिया को बेहतर बनाने वाली कोशिशों में शामिल हैं। वे नफरत की साजिशों को पहचानते हैं और मोहब्बत से इन साजिशों को काटने का हुनर भी जानते हैं।

बुधन थियेटर ढाई आखर प्रेम यात्रा का जरूरी पड़ाव था। उम्मीद है कि इप्टा के साथ बुधन का रिश्ता गाढ़ा होगा और दूर तक चलेगा।

इन दिनों कॉमरेड होमी दाजी के भतीजे और हमारे दोस्त फ़रोख दाजी और उनकी पत्नी अर्चना वाजपेयी अहमदाबाद में ही रह रहे हैं, तो मैंने उन्हें पहले ही कह दिया था कि मैं तुम्हारे साथ रुकूंगा। संसाधनों की कमी तो थी ही। वैसे भी फिजूलखर्ची नहीं करनी थी। और नए अनुभव भी करने थे। इन तीनों वजहों से शबनम हाशमी की संस्था “अनहद” से जुड़े अहमदाबाद के साथी देव देसाई ने बिहार के चारों साथियों और निसार अली के रुकने का इंतजाम एक अभियान के तहत एक परिचित जया बहन के घर कर दिया था।

“मेरे घर आके तो देखो” अभियान बहुत ही प्यारी सोच का अभियान है जिसमें एक जाति या समुदाय के लोग दूसरी जाति या समुदाय के परिवार के साथ जाकर के मिलते-जुलते हैं। संभव हो तो एक-दो दिन रहते भी हैं ताकि उन्हें यह पता चल सके कि एक-दूसरे के बारे में जाति या धर्म को लेकर जो दुर्भावनाएं निजी स्वार्थ की वजह से या राजनीतिक दल अपने स्वार्थ की वजह से फैलाते हैं, वे धारणाएं दरअसल कितनी ग़लत हैं।

तो छारानगर से बिहार के चारों साथी और निसार अली रास्ते में खाना खाकर जया बहन के घर रात 12:00 बजे  पहुंचे तब जाकर उनका आपस में परिचय हुआ। मिले-जुले और सो गए। सुबह जब चार बजे स्टेशन जाने के लिए उठे तो देखा जया बहन ने इतनी सुबह गर्म पराठों का नाश्ता तैयार करके रखा हुआ है। ट्रेन में बैठकर निसार अली ने जया बहन के लिए एक प्यारी-सी चिट्ठी लिखी।

सुबह 6:00 बजे ट्रेन थी किम के लिए। हम लोग अलग-अलग ठिकानों से स्टेशन पर पहुंचे और देखा कि रामसागर सिंह परिहार सबसे पहले से वहां मौजूद हैं। ट्रेन में ही हमें जानकारी मिली कि सुरेंद्रनगर और भरूच के इलाके की मूंगफली स्वाद में सबसे अच्छी होती है। दो-ढाई घंटे के रास्ते में हम लोगों ने सौ-एक रुपये की मूंगफली खा लीं।  

किम हम लोग करीब 11-11:30 बजे पहुंचे होंगे। एक छोटा-सा स्टेशन था। हमें बहुत सम्मान के साथ स्टेशन पर किम के लोगों ने लिया और हमें लेकर किम एजुकेशनल सोसाइटी के भवन में पहुंचे। वह एक स्कूल का काफी बड़ा प्रांगण था। वहां हमारी मुलाकात उत्तम भाई से हुई। वे इस स्कूल और कॉलेज को चलाने वाली सोसाइटी के मंत्री हैं। इसके पहले मैं उनसे सिर्फ़ जूम पर ही मिला था। वे मनीषी भाई के परिचित थे। मनीषी भाई एक-दो माह पहले ही कहीं पैर में गंभीर चोट खा गए थे वरना पूरी यात्रा में साथ रहते, लेकिन वे अहमदाबाद में रहते हुए भी पूरी फिक्र से आगे की यात्रा को और हम सबके बंदोबस्त को देख रहे थे।  

उत्तमभाई हमें दरवाजे पर ही स्वागत करने के लिए मिले। अंदर से गाने की मधुर आवाज आ रही थी। हम लोग स्कूल के अंदर पहुंचे तो देखा कि तीन तरफ से चारमंजिला भवन से घिरे बीच के मैदान में क़रीब हजार-डेढ़ हजार बच्चे बैठे हैं और तीन नौजवान सामने बने मंच पर गीत गा रहे हैं – कबीर के भजन, गांधी जी को पसंद थे, वो भजन और रामायण के कुछ पद। हम लोगों ने बैठकर तन्मयता से गीत सुने। फिर भोजनावकाश में सबसे परिचय हुआ।



मुम्बई से आए नौजवान गायक का नाम था फ़राज़ ख़ान। उनके साथ तबले पर रौशन गाइकर और बांसुरी पर उत्कर्ष थे।  परिचय होने पर पता चला कि फ़राज़ ख़ान बुनियादी तौर पर लखनऊ से हैं और उनके साथी उत्कर्ष इंदौर से संगीत में शिक्षा-दीक्षा हासिल कर रहे थे। भोजन के बाद फिर हम लोगों के कार्यक्रम शुरू हुए। अब फिर जो हजारेक बच्चे सुन रहे थे, वो अलग थे। शिक्षक भी अलग थे। यह दूसरी शिफ्ट के थे। बिहार के साथी साथ होने से हम लोगों के गीतों के कार्यक्रम काफी अच्छे हो गए थे। नाचा गम्मत करने के लिए निसार अली को भी अब साथी कलाकार सोमारू की कमी नहीं थी।

हमारी मुलाकात वहीं किम में ही पारुल बहन से हुई जिनसे उत्तमभाई ने मिलवाया। वे बड़ौदा से आई थीं और वहां से निकलने वाली एक सर्वोदयी गांधीवादी पत्रिका “भूमिपुत्र” के संपादक मण्डल का हिस्सा थीं। शाम को भी वहां कार्यक्रम हुआ। शाम के कार्यक्रम में वे बच्चे अपने पालकों को लेकर आए थे जिन्हें दिन के कार्यक्रम अच्छे लगे थे। मतलब एक ही दिन में हमने करीब दो हजार से ज्‍यादा दर्शकों तक अपनी बात पहुंचाई थी। शाम को यूं तो दर्शक और श्रोता कम थे लेकिन जो थे, वे 10 बजने पर भी हिलने को तैयार नहीं थे। एक और, एक और की फरमाइश चल पड़ती। इस तरह एक दिन में हम लोगों ने किम में तीन कार्यक्रमों की प्रस्तुतियां दीं। जगह एक ही थी, लेकिन दर्शक अलग-अलग। कार्यक्रम भी लगभग एक ही थे, बस संबोधन अलग-अलग थे।

किम में ये प्रयोग बहुत सफल रहा। बच्चों के साथ बच्चों की तरह बातें करते हुए उन्हें धीरे-धीरे प्रेम और इंसानियत के मर्म तक पहुंचाया और अपने दोस्तों-पड़ोसियों से लेकर फिलिस्तीन और रूस-यूक्रेन युद्ध के बारे में भी समझाया।  कहने के लिए तो हम किम में कुल 24 घंटे ही रुके लेकिन उत्तमभाई, उनके परिवारजनों और उनके साथियों से ऐसी गहरी दोस्ती हो गई मानो हम सब एक-दूसरे को पहले से जानते हों। किम में उत्तमभाई के साथ दो दिलचस्प क़िस्से हुए। शाम को जब अंतिम कार्यक्रम हुआ तो बिहार के साथियों ने नाटक खेलने की इच्छा जाहिर की। इप्टा के राष्ट्रीय महासचिव तनवीर अख़्तर का निर्देशित और समरेष बसु की कहानी पर आधारित नाटक था– ख़ुदा हाफ़िज़। वह नाटक मेरा पहले से देखा हुआ नहीं था।  साधारण रूप से मैंने पूछा कि किस विषय पर है तो उन्होंने कहा कि सांप्रदायिक सद्भाव पर।



अब सांप्रदायिक सद्भाव पर नाटक है लेकिन सांप्रदायिक सद्भाव के अंतिम संदेश तक पर पहुंचने के पहले नाटक सांप्रदायिक विद्वेष की घटनाओं से होकर भी गुजरेगा ही। और जब वे घटनाएं आती हैं तो जो नाटक में हंगामा मचता है। यही हुआ। एक दंगे के दृश्य को दर्शाने के लिए पार्श्व से तेज आवाज में नारे आते हैं– “अल्लाहो अकबर”, “नारा-ए-तकबीर” और “हर हर महादेव” “जय श्री राम” इत्यादि। माइक पर इतनी तेज आवाज में नारे सुनकर मेरे होश थोड़े-थोड़े उड़ने को तैयार थे। मुझे लग रहा था कि कहीं नाटक के नारे सुनकर बाहर के लोग ये न सोचें कि दंगा हो गया है, और फिर वाकई ही दंगा शुरू हो जाए या वैसा न भी हो तो भी कोई पुलिस को खबर दे दे और हमारी यात्रा ऐसी ही हालत में समाप्त करनी पड़ जाए, और ये भी मुमकिन है कि कुछ दिन तक जेल की हवा खिला दी जाए। 

वर्ष 2002 में गुजरात नरसंहार के समय मुझे कितने ही लोगों ने सगर्व बताया था कि कैसे वे खुद ही हिन्दू बस्तियों में “मारो-कापो-बालो” (मारो-काटो-जलाओ) और “अल्लाहो-अकबर” “नारा-ए-तकबीर” के नारों से भरी हुई कैसेट माइक पर चला देते थे जिससे हिन्दू आबादी को लगे कि मुसलमानों का झुंड हमला करने आ रहा है और दंगाइयों के जरा से उकसावे पर वे आत्मरक्षा में पास की मुस्लिम बस्ती पर हमला बोल देते थे। इसी तरह मुस्लिम बस्तियों के पास वो “जय श्री राम” और अन्य नारे लगवाते थे जिससे मुस्लिम समुदाय भी उत्तेजित होकर कुछ करे जिसका बहाना बना कर उन पर पुलिस की कार्रवाई करवाई जा सके।

मैं तो जेल जाने की आशंका के साथ तैयार होकर गुजरात आया था लेकिन मुझे लगा कि उत्तमभाई और बिहार से आए युवा साथी इसके लिए तैयार हैं या नहीं। मैंने उत्तमभाई की ओर देखा कि अगर वे इशारा करें तो मैं नाटक के साथियों को रोकने या नारे वग़ैरह की आवाज कम करने को कहूं लेकिन उत्तमभाई बिल्कुल अविचलित, चेहरे पर सौम्य शांति लिए नाटक देखे जा रहे थे। बाद में रात के खाने के वक्‍त मैंने उनसे पूछा भी कि आपको बाद में कोई दिक्कत तो नहीं होगी? वे बोले कि किम में 2002 में भी कोई दंगा-फसाद नहीं हुआ था, आप चिंता न करें। इस स्कूल और कॉलेज को मिलाकर यहां 2000 से ज्‍यादा विद्यार्थी हैं और उनमें सब मिले-जुले हैं। बच्चों के मां-बाप भी मेरे विचार को अच्छी तरह जानते हैं कि मेरे जीवन का उद्देश्य लैंगिक, जातिगत, धार्मिक और आर्थिक भेदभाव को समाप्त करना है।

दूसरी बात ये थी कि किम एजुकेशनल सोसाइटी के भवन के प्रवेश द्वार पर ही डॉ. नरेंद्र दाभोलकर, कॉमरेड गोविन्द पानसरे, प्रोफेसर एम.एम. कलबुर्गी और गौरी लंकेश के चित्र लगे हैं। मैं जब उत्तमभाई का इंटरव्यू ले रहा था तो उन्होंने कहा कि वैसे तो मेरी कोई महत्त्वाकांक्षा नहीं है लेकिन फिर भी मेरी इच्छा है कि इन चारों के साथ मेरी फोटो भी टंगे। 


उत्तमभाई के साथ लेखक विनीत तिवारी

वे बोले कि गांधी जी और अन्य महान क्रांतिकारियों और स्वतंत्रता सेनानियों के कारण हमें 1947 में स्वतंत्रता मिल तो गई लेकिन हमारी जनता उस आजादी का सही-सही महत्त्व नहीं समझती थी। हममें जातिवाद, धर्मांधता, अशिक्षा, पितृसत्ता, सामंतवाद, आदि अनेक बुराइयां थीं और अब भी हैं। इसी वजह से गांधी जी को शहादत देनी पड़ी। हमारे देश की जनता को हमें इतना समझदार बनाना होगा कि उसे कोई जाति या धर्म या भाषा या क्षेत्रीय विभिन्नता को मुद्दा बनाकर भड़का न सके। हमें अपने देशवासियों को अधिक जिम्मेदार, काबिल और परिपक्व बनाना होगा। तो ऐसे में अनेक लोगों को अपनी जान देकर जनता की मानसिकता को सुधारने के लिए तैयार रहना होगा। मैं तैयार हूं। उन्होंने कहा कि गुजरात ने दो महान लोग इस देश को दिए हैं और दो बेकार लोग। हम लोग देश को इन बेकार लोगों से जरूर मुक्त कराएंगे। कुल मिलाकर उत्तमभाई से मिलना, और वो भी उन जैसे शख्‍स से गुजरात में मिलना एक अविस्मरणीय अनुभव तो बना ही, साथ ही लगा कि एक बहुत समझदार और लंबे वक्‍त साथ चलने वाले साथी से मुलाकात हुई हो।

जब हम किम कस्बे में टहलने गए तो देखा कि अनेक दुपहिया वाहनों पर, यहां तक कि साइकिलों पर भी आगे एक सवारी के बराबर क़द की ऊंची उलटे वी आकार की एक मुड़ी हुई पतली सी छड़ लगी हुई है।  हमने पूछा कि ये क्या है तो पता चला कि पतंग उड़ाने के मामले में गुजरात अव्वल है। और आजकल चीनी मांजे से जो पतंग उड़ाई जाती है वह बहुत बारीक होता है। उस पर बारीक कांच की परत चढ़ी होती है। वह अक्सर लोगों को दिखता नहीं है और दुपहिया वालों के गले में मांजा उलझ जाता है और उससे गला भी कट जाता है। एक अनुमान के मुताबिक ऐसे हादसों में सैकड़ों लोगों की जानें जा चुकी हैं। ये वी आकार की छड़ उस मांजे को गले तक पहुंचने से रोकने का काम करती है।      

5 जनवरी 2024 की सुबह ढाई आखर प्रेम यात्रा के सहयात्री किम से सुबह 10.30 बजे सूरत के लिए निकले। किम में हमारे मेजबान उत्तमभाई परमार ने हमारी आगे सूरत, नवसारी और दांडी तक की यात्रा के लिए एक छोटी बस का इंतजाम तो ही कर दिया था, साथ ही नवसारी में संजय भाई देसाई से कार्यक्रम आयोजित करने के लिए कहा था। किम से जत्थे में बड़ौदा से आईं पारुलबेन दांडीकर भी साथ हो लीं और गायक फ़राज़ और उनके संगतकार साथी उत्कर्ष और रौशन गाइकर भी। इस तरह हम वाहन सारथी जीतू भाई सहित 12 लोग दोपहर करीब 12 बजे सूरत में नवसर्जन संस्था में पहुंचे। यह संस्था बच्चों के अधिकारों और कचरा-पन्नी बीनने वाले मजदूरों को संगठित करने का काम करती है।

वहां कच्चे सूत की माला पहनाकर सूरत शहर के गणमान्य वरिष्ठजनों ने यात्रियों का स्वागत किया। इनमें विभिन्न गांधीवादी, सर्वोदयी सामाजिक संस्थाओं के प्रतिनिधि तो थे ही, कुछ साथी भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, शांति एवं एकजुटता संगठन (एप्सो), प्रगतिशील लेखक संघ, एटक और इंटक एवं भारतीय महिला फेडरेशन के भी प्रतिनिधि थे। 

सबसे व्यक्तिगत परिचय हुआ और फिर छत्तीसगढ़ के कलाकार निसार अली ने “दमादम मस्त कलंदर” गीत गाया। यात्रा के उद्देश्यों और पूरी योजना तथा अब तक की यात्रा के अनुभवों को संक्षेप में रखते हुए मैंने कहा कि यह यात्रा इस उद्देश्य के साथ की जा रही है कि श्रम, ज्ञान और प्रेम के बीच बढ़ती जा रही दूरी को कम किया जा सके और सूफी तथा संत कवियों के सैकड़ों वर्षों पुराने इंसानियत के संदेशों को लोगों को याद दिलाया जाए। इस प्रक्रिया में 17-18 राज्यों की यात्रा ने हमें इस अनुभव से समृद्ध किया है कि लोग बुनियादी तौर पर प्रेम, आपसी सद्भाव और इंसानियत के पक्षधर हैं। नफरत की ताकतें बहुत थोड़ी हैं लेकिन वे विध्वंस की पक्षधर होने से अधिक ताकतवर नजर आती हैं। 

इप्टा बिहार के साथी पीयूष मधुकर ने अपने साथियों फ़िरोज़, राजन और संजय के साथ तीन राज्यों की यात्रा के अपने अनुभव साझा किए। यात्रा में सूरत में बिहार के मंसूर ख़ान नादान भी जुड़ गए जो सूरत में ही नौकरी करते हैं। प्रलेस गुजरात के महासचिव रामसागर सिंह परिहार ने यात्रा के गुजरात पड़ाव की जानकारी दी। फ़राज़ ने अपना लिखा और कंपोज किया हुआ एक वीडियो गीत प्रोजेक्टर से दिखाया जो सर्वधर्म समभाव और सद्भाव पर आधारित था और जिसके बोल थे- “आओ दुनिया को सिखाएं कुछ ऐसा कलाम, कोई कहे नमस्ते तुमको और तुम कहो वाले-कुम-अस्सलाम।”  

सूरत की यात्रा के कार्यक्रमों के मुख्य योजनाकार श्री किशोरभाई देसाई और अतुल पाठकजी ने प्रेम की यात्रा के यात्रियों के लिए स्वागत शब्द कहे। इस आत्मीय  स्वागत कार्यक्रम में प्रोफेसर सूर्यकांत भाई शाह, नाटू भाई, चंद्रकांत भाई राणा, पद्माकर परसोले, लक्ष्मण भाई सुखाड़िया, मुम्बई से चारुल जोशी, राजेश हजीरावाला, मयूराबेन ठक्कर, महेश पटेल, विजय शेनमारे, जयमिन्द देसाई, उर्मिलाबेन राणा, दीपिका पाठकजी, समीर मैकवान, कमलेश त्रिवेदी आदि उपस्थित थे। सुगीत पाठकजी ने सभा का संचालन किया।



शाम को हम सूरत से नजदीक के एक गांव भीमराड पहुंचे तो भाजपा के कार्यकर्ता और गांव के पूर्व सरपंच तथा पूर्व पार्षद बलवंत भाई पटेल ने हमें बताया कि जब गांधी जी ने दांडी में सत्याग्रह किया था तब उनके बेटे रामदास गांधी यहां सत्याग्रह कर रहे थे। जब गांधी जी ने दांडी में नमक कानून तोड़ा था तो भीमराड में रामदास गांधी ने भी नमक कानून तोड़ा था। वे भी 6 अप्रैल 1930 को छह महीनों के लिए गिरफ्तार हुए थे। रामदास गांधी ने ही गांधी जी को मृत्योपरांत अग्नि दी थी। बलवंत भाई ने बताया कि वे भाजपा के होने के बावजूद गांधी जी को बहुत मानते हैं और भीमराड को इतिहास में उचित जगह दिलवाने के लिए काफी समय से आन्दोलनरत थे। आखिरकार सरकार वहां दांडी जैसा ही एक स्मारक और आश्रम बनाने के लिए तैयार हो गई है। साथ ही रामदास गांधी की याद में एक विश्वस्तरीय स्टेडियम भी वहां बनाया जा रहा है। इसके लिए सरकार ने 13 करोड़ रुपये स्वीकृत भी कर दिए हैं और वहां निर्माण कार्य भी शुरू हो गया है।

भीमराड में बलवंत भाई, जीतूभाई पटेल आदि के साथ ही वहां भी अनेक वरिष्ठ गांधीवादी, वामपंथी और पारुल बहन के जानने वाले जुटे। अच्छी सभा हुई। एक सुखद आश्चर्य के तौर पर वहां हिमाचल प्रदेश की कॉमरेड सपना से मुलाक़ात हुई। पता चला कि सपना ने कॉमरेड सुगीत पाठकजी से शादी कर ली है और सूरत के कॉलेज में पढ़ा रही हैं। दिन में सूरत के कार्यक्रम के समय उसका कॉलेज था इसलिए वे शाम के कार्यक्रम में भीमराड आ गईं। सबसे मिलकर बहुत खुशी हुई और हम लोग कार्यक्रम समाप्त करके नवसारी की ओर बढ़ गए। वहीं मुंबई से हमारे जत्थे मे शरीक होने आईं फ़राज़ खान की शरीके हयात सादिया शेख भी हमसे आकर जुड़ गईं।

सूरत से नवसारी और दांडी तक की यात्रा की पूरी योजना उत्तमभाई के साथ पारुल बहन ने ही बनाई थी। भीमराड से रात करीब 10 बजे हम नवसारी पहुंचे। रात का खाना वहीं था। जैसे ही हम लोग नवसारी में वहां पहुंचे जहां रुकना था, तो जो देखा तो विह मेरे जीवन का पहला अनुभव था।

पारुल बहन ने हमें नहीं बताया था कि उन्होंने हमारे रुकने का जहां प्रबंध किया है वह मूक-बधिर बच्चों के स्कूल का कैंपस था। अपने कैंपस में मेहमानों के आने से वो वैसे ही रोमांचित और उत्साहित थे जैसे हम जब बच्चे थे और कोई घर आता था तो हमें एक अलग ही खुशी होती थी जो बेफिक्री की होती थी, प्यार की होती थी और अगर मेहमान कोई खास हो तो कहना ही क्या! कहने की जरूरत नहीं कि देश में सांस्कृतिक यात्रा निकालने वाले, प्यार-मोहब्बत जिन्दाबाद, अमन और इंसानियत जिन्दाबाद के नारे भी गाते हुए लगाने वाले और राम-कृष्ण, कबीर, तुलसी, गुरुनानक और बुल्ले शाह की आवाज लोगों को सुनाने वाले हम उन बच्चों के लिए खास ही थे। उनके हॉस्टल में बनी खिड़कियों से वे हमें देख रहे थे और उनके मुंह से जैसी आवाजें निकल रही थीं, वे उनकी निरीहता से ज्‍यादा उनका उत्साह और रोमांच व्यक्त कर रही थीं, लेकिन साथ ही उन्हें देखकर हमें निरीहता का एहसास हो रहा था। उन्हीं में से कुछ 10-15 समझदार और बड़े बच्चों ने ही हमें खाना परोसा-खिलाया। बिहार के साथी संजय, फ़िरोज़ और राजन उन बच्चों से इशारों में काफी बात करने की कोशिश कर रहे थे। 



पारुल बहन ने संस्था के ट्रस्टी जयप्रकाश भाई से मिलवाया जो रात के उस वक्‍त भी अगवानी के लिए वहां मौजूद थे। उन्होंने बताया कि मानव कल्याण ट्रस्ट की स्थापना गांधीवादी महेश भाई कोठारी के प्रयासों से 1970 में आठ ऐसे विशिष्ट बच्चों के साथ हुई थी जो सामान्य नहीं कहे जा सकते थे। आज संस्था में ऐसे 700 से अधिक बच्चे हैं जिन्हें पूरी तरह पहली से 12वीं तक निशुल्क शिक्षा, भोजन, आवास एवं उनकी रुचि और क्षमतानुसार प्रिंटिंग प्रेस, रसीद बुक स्टाम्पिंग, फिजियोथेरेपी, हैंडमेड पेपर बनाना, सिलाई, कढ़ाई, ब्यूटी पार्लर, कंप्यूटर, सॉफ्ट टॉय बनाने आदि का प्रशिक्षण दिया जाता है ताकि वे अपने पैरों पर खड़े हो सकें। यहां के अनेक लड़के-लड़कियां पोस्ट ग्रेजुएट भी हुए हैं और वे सभी धीरे-धीरे कंप्यूटर पर काम करना सीखते जा रहे हैं। संस्था में 100 कंप्यूटर हैं। इस सबसे बड़ी बात ये है कि इन बच्चों पर होने वाले कुल खर्च का मुश्किल से 10-15 प्रतिशत हिस्सा ही उन्‍हें सरकार से मिल पाता है, शेष वे समाज के सहयोग से चलाते हैं।

नवसारी स्थित इस कैंपस में मूक-बधिर एवं मानसिक रूप से विशिष्ट क्षमता वाले बच्चे रहते हैं और इस कैंपस का नाम ममता मंदिर है। दृष्टिबाधित बच्चों के लिए नवसारी से सवा सौ किलोमीटर दूर एक और केन्द्र है जिसे प्रज्ञा मंदिर कहते हैं। उन्होंने बताया कि अनेक बार इन बच्चों के माता-पिता इस आर्थिक स्थिति में भी नहीं रहते कि वे आकर छुट्टियों में अपने बच्चों को घर ले जा सकें, तो ऐसे में वे अपनी ओर से ही उन्हें सहायता भी मुहैया कराते हैं।    

हमने भी बच्चों से इशारों से काफी बातें कीं। सबसे अच्छा लगा उनके शुक्रिया कहने का तरीका जिसमें वे दिल पर हाथ रखकर हल्का-सा आगे झुक जाया करते थे। उस झुकने ने मुझे अनेक बार अधिक मनुष्य बनाया।

अगले दिन सुबह 6 जनवरी 2024 को हम दांडी जाने से पहले फिर उन बच्चों से नाश्ते और चाय पर मिले। हमने आपस में तय किया कि उनके लिए हमें जरूर कुछ प्रस्तुति देना चाहिए। गीत और नाटक के संवाद तो उन्हें सुनाई ही नहीं देंगे। बाँसुरी की मीठी तान, तबले की थाप और मधुर धुनों का भी उन पर कोई असर नहीं होगा। फिर भी सोचा कि कुछ न कुछ तो करेंगे ही। लगा कि जिस प्रेम की बात करते हम देश-दुनिया में घूम रहे हैं, उस प्रेम की सबसे ज़्यादा जरूरत जिन लोगों को है, उन्हें हम प्यार किस भाषा में समझाएं? निसार से बात की और कहा कि तुम नाटक करना और उनके साथ उनकी जो शिक्षिकाएं होंगी, वे उन्हें इशारों से नाटक में जो कहा जा रहा है, वह समझाएंगी। 

यह नाटक दांडी से लौटकर खेलने का हमने तय किया और 6 जनवरी की सुबह नवसारी से दांडी के लिए निकल गए। वहां विनय मंदिर स्कूल में स्कूल के गांधीवादी ट्रस्टी 94 वर्षीय धीरूभाई मिले। उन्‍होंने हम लोगों के लिए कहा कि देश में अनेक यात्राएं निकल रही हैं लेकिन आप लोगों की यात्रा इन स्कूली बच्चों के बीच में प्रेम और इंसानियत के बीज बोकर जा रही है। इसका महत्त्व बहुत बड़ा और दूरगामी है। सूरत से कॉमरेड विजय शेनमारे, कॉमरेड अतुल पाठकजी और कॉमरेड सुगीत पाठकजी भी सुबह दांडी आ गए थे। वहां अनेक कार्यक्रम प्रस्तुत करने के बाद हम लोग दांडी स्मारक गए जहां यात्रा समाप्त की गई। 

स्मारक की ओर से डॉ. कालूभाई धनगर ने हमें पूरे इतिहास का विहगावलोकन करवाया। उन्होंने बताया कि 12 मार्च 1930 को गांधी जी ने साबरमती से अपने 80 विश्वसनीय साथियों के साथ जो पदयात्रा शुरू की थी वह 24 दिन बाद 6 अप्रैल 1930 को लगभग 390 किलोमीटर दूरी तय करके दांडी पहुंची जहां गांधी जी ने एक चुटकी नमक उठाकर कानून तोड़ा था जिसके बाद देश भर में अनेक जगह नमक कानून तोड़ने की सांकेतिक घटनाएं और विरोध प्रदर्शन हुए। गांधी जी जब दांडी पहुंचे तो उस मौके पर उन्हें और उनके साथियों को समंदर किनारे बने अपने बंगले मे रुकने के लिए सिराजुद्दीन वसी नामक एक सेठ ने आमंत्रित किया। सिराजुद्दीन वसी एक वोहरा मुसलमान थे जो मुंबई के सेठ होने के साथ ही कांग्रेस में भी सक्रिय थे। इस बात के अर्थ भी दूरगामी थे कि इस देश के नमक को अंग्रेजों से आजाद करवाने में हिंदुओं और मुसलमानों की साझा भूमिका थी।

जब गांधी जी दांडी यात्रा के लिए अपने साथियों को चुन रहे थे तो उन्होंने 78 पुरुष साथियों को चुना था (आज गांधी जी होते तो शायद वे भी महिलाओं को यात्रा में जरूर साथ लेते) लेकिन बाद में दो लोगों की जिद के आगे गांधी जी को झुकना पड़ा और उन्हें अपने साथ लेना पड़ा। इस तरह गांधी जी के साथ 80 साथी साबरमती से दांडी तक साथ रहे। कालूभाई ने यह भी बताया कि जब गांधी जी ने नमक कानून तोड़ा तब नमक पर अंग्रेज सरकार ने 1400 फीसदी कर (टैक्स) लगा रखा था। विडंबना यह है कि आज भी नमक लोगों का नहीं हो सका है, उस पर पूरी तरह कॉर्पोरेट का कब्‍जा है। गांधी जी के साथ रास्ते मे पड़ने वाले गांवों के लोग भी जुड़ते गए और दांडी तक पहुंचते-पहुंचते उनकी तादाद हजारों में हो गई थी। कालूभाई ने बताया कि जब गांधी जी ने दांडी की यात्रा शुरू की तो उनकी आयु 61 वर्ष थी और उन्होंने अपने सहयात्रियों में से सबसे युवा जिसे चुना था, उसकी आयु 61 के ठीक उलट 16 वर्ष थी।



दांडी में अब एक राष्ट्रीय स्मारक बन चुका है जिस पर टिकट भी लगता है और जो पर्यटन की जगह भी है लेकिन अब चूंकि समंदर को आगे तक मिट्टी से पूर दिया गया है इसलिए जिस जगह गांधी जी ने नमक उठाकर कानून तोड़ा था, स्मारक उससे करीब 200-300 मीटर आगे बना है। एक प्रदर्शनी भी वहां लगी है जिसमें दांडी यात्रा के बारे में फिल्‍म चलती रहती है। एक दिलचस्प काम वहां यह किया है कि जो लोग दांडी यात्रा के आंदोलन के प्रति श्रद्धाभाव से आते हैं तो उनके लिए समंदर के पानी से दो मिनट में नमक बनाने वाले बिजली के यंत्र लगे हैं जिस पर वे अपने आप नमक बनाकर दांडी की याद के तौर पर ले भी जा सकते हैं और साथ ही स्मारक के कर्मचारी उन्हें कांच की छोटी शीशियों में भरकर देते हैं। यह नमक निशुल्‍क होता है, बस कांच की शीशी और कॉर्क का 20 रुपया लेते हैं।

कालूभाई ने मुझसे आगंतुक पुस्तिका मे अपनी टिप्पणी लिखने का अनुरोध किया जिसमें मैंने “ढाई आखर प्रेम” के गुजरात जत्थे की तरफ़ से लिखा कि गांधी जी, भगत सिंह और अंबेडकर के सपनों का भारत बनाने की लड़ाई भी जारी रखनी है और शोषण के खिलाफ दांडी जैसी यात्राएं भी।

यहां एक और बात उल्लेखनीय है कि दांडी राष्ट्रीय स्मारक बनाने की परियोजना की जब शुरुआत हुई तो उसमें कैसे क्या बनाया जाएगा, उसकी भी विस्तृत योजना बनी। अंततः इस परियोजना को मूर्त रूप देने की जिम्मेदारी आइआइटी मुंबई की एक टीम को दी गई जिसमें एक प्रोफ़ेसर की भूमिका प्रमुख थी क्योंकि उन्होंने अनेक अंतरराष्ट्रीय प्रदर्शनियों आदि को प्रस्तुत किया था। उन्होंने दो-तीन वर्षों तक शोध किया कि गांधी जी के साथ जो 80 साथी थे उनके आदमकद पुतले बनाकर उन्हें चलने की मुद्रा में गांधी जी के साथ दिखाया जा सके। उन अस्सी में से करीब 50 पदयात्री तो बीस से तीस बरस की उम्र के बीच के थे और आठ तो बीस बरस से भी कम उम्र के। उनमें से अनेक की कोई तस्वीरें नहीं थीं, अनेक की थीं तो बहुत बुढ़ापे की थीं। वो दांडी यात्रा के वक़्त कैसे लगते थे, उसके बारे में अलग-अलग स्रोतों से संभव सामग्री को तलाश किया और फिर मुंबई में नौ विदेशी मूर्तिकारों सहित 40 शिल्पकारों के समूह ने गांधी जी के 80 साथियों के पुतले तैयार किए।

मुंबई के उन आइआइटी प्रोफेसर का नाम था प्रोफेसर कीर्ति त्रिवेदी। स्ट्रक्चरल डिजाइनिंग की दुनिया में उनका बड़ा नाम हैं लेकिन उसके साथ ही वे ऐसे व्यक्ति भी हैं जिन्होंने कभी जीवन में खादी के कपड़ों के अलावा कुछ नहीं पहना। मतलब उनका एक लगाव गांधी जी के विचारों से है। लेकिन वो कैसे है? वो ऐसे, कि कीर्ति जी गांधी जी के करीबी रहे काशीनाथ त्रिवेदी जी के बेटे हैं और इंदौर के रहने वाले हैं जो अब सेवानिवृत्ति के बाद इंदौर में ही रह रहे हैं और मध्य प्रदेश की यात्रा की शुरुआत में खादी पर उन्होंने आंखें खोलने वाला व्याख्यान भी दिया था।

यहीं रामसागर सिंह परिहार जी ने और एक महत्त्वपूर्ण बात बताई कि गांधी जी के 80 साथियों में से एक का गांधी जी से मतभेद हुआ था जिसका नाम था जयंती पारेख। उन्होंने 1934 में गांधी जी का संगठन छोड़ दिया था और वे भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी में शामिल हो गए थे। वे गुजरात में पार्टी के प्रकाशन गृह से भी जुड़े थे। आजादी के बाद भी जब कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध जारी रहा था तो जयंती पारेख को अन्य लोगों के साथ पकड़कर 1949 में साबरमती जेल में डाल दिया गया था। आजाद भारत की साबरमती जेल में वहां वे अपने राजनीतिक कैदी के अधिकारों के लिए लड़े और साबरमती जेल में आजाद भारत की पुलिस द्वारा चलाई गई गोली से मारे भी गए। यह इतिहास गूगल पर भी ढूंढना मुमकिन नहीं है, लेकिन यह कम्युनिस्ट पार्टी के दस्तावेजों में शामिल है।

दांडी से लौटकर हम अपने ठिकाने ममता मंदिर पर खाना खाने आए और बहुत सारे मूक-बधिर बच्चे हमें देखते और प्रसन्न होते रहे। शाम को नवसारी शहर में रोटरी क्लब और “रंगत संस्था” द्वारा हम लोगों का एक और कार्यक्रम आयोजित किया गया था। फ़राज़ आदि साथी उसी कार्यक्रम की तैयारी के सिलसिले में निकल गए थे। हमने स्कूल के संचालक महोदय को कहा कि हम इन बच्चों के लिए कुछ प्रस्तुत करना चाहते हैं। उनकी आंखों में मानो आंसू आ गए। तुरंत ही बच्चों को एक हॉल में लाने के निर्देश दिए गए। 

सड़कपार ममता मंदिर का ही एक और स्कूल था जो मानसिक रूप से विशिष्ट बच्चों का था। वे भी हम लोगों की प्रस्तुति देखने बुला लिए गए। उनमें काफ़ी मंगोल बच्चे भी थे। निसार ने अपना उस्ताद-जमूरे शैली वाला नाचा गम्मत का नाटक “चालाक शिकारी” किया। बच्चे दो सेकंड निसार को देखते और फिर अपनी शिक्षिका को हाथों से समझाते हुए देखते। फिर हंसते। कितना समझे, कितना नहीं, लेकिन खुश बहुत हुए, ताली बजाई और लाइन से अपनी शिक्षिकाओं के साथ चले गए। 



निसार, संजय और राजन जब ड्रेस बदलकर थोड़ी देर तक बाहर नहीं निकले तो मैं अंदर बुलाने गया। फ़िरोज़, राजन और संजय फफक-फफक कर रो रहे थे। निसार और पीयूष खुद भी भावुक हो रहे थे लेकिन इन युवा कलाकारों को समझाते भी जा रहे थे। एक तरफ पूरे हाथ-पैर और सभी अंग चुस्त-दुरुस्त होने पर भी लोग कहीं डिप्रेशन में आ जाते हैं तो कहीं-कहीं तो कोई जिंदगी ही खत्म कर लेते हैं। लेकिन ये बहादुर जिंदगी और ज़िंदादिली से भरे हुए, बिना सुने और बिना बोले भी जिंदगी को भरपूर प्यार कर लेना चाहते हैं। इन बच्चों के सामने कुछ परफॉर्म करना और उनकी अवश स्थिति को महसूस करना हमें बहुत लाचार बना रहा था। क़ुदरत की इस नाइंसाफी पर युवा मन वाले संजय, राजन और फ़िरोज़ का रोना थम नहीं रहा था। हमारे दिल और आंखें भी भर आए थे लेकिन बच्चे इतने खुश थे कि सेल्‍फी खिंचवाने के लिए भी तुरंत दौड़कर आ गए। जिंदगी कैसी पहेली है ये तो नहीं पता, लेकिन ऐसी हालत में उनके बीच होकर लग रहा था कि एक आंख में दुख के और दूसरी आंख में उनके साथ हो पाने की खुशी के और उन्हें थोड़ा-सा खुश कर पाने की खुशी के आंसू भरे हों।    

वहां से अपने मन जैसे-तैसे संभालकर हम नवसारी शहर के कार्यक्रम के लिए पहुंचे। यह गुजरात यात्रा का हमारा अंतिम कार्यक्रम था। रंगत और रोटरी क्लब की ओर से संजयभाई देसाई ने सबका स्वागत किया। यहां से रात में ही हमें सूरत पहुंचकर अपने-अपने अलग-अलग गंतव्यों के लिए निकालना था। वहां अच्छा कार्यक्रम हुआ। कार्यक्रम के उपरांत शहर के प्रबुद्ध सांस्कृतिक लोग हम सबके साथ तस्वीरें खिंचवाने लगे। पारुल बहन के बारे में भी यहीं ठीक से परिचय हुआ।

उनके माता-पिता दांडी में ही रहते थे। पिता का नाम मोहन दांडीकर था और उन्होंने ही मंटो को सबसे पहले गुजराती भाषा में अनुवाद किया था और पुस्तक प्रकाशित की थी। उन्हें हिन्दी के प्रसिद्ध उपन्यासकार गिरिराज किशोर के महत्त्वाकांक्षी उपन्यास “पहला गिरमिटिया” के लिए अनुवाद का केन्द्रीय साहित्य अकादमी सम्मान भी प्राप्त हुआ था। सन 2020 में उनका देहांत हो गया था। 


मध्य प्रदेश: एक यात्रा के बहाने श्रम, प्रेम और ज्ञान की साझा संस्कृति के जिंदा होने की शिनाख्त


कार्यक्रम में शामिल होने के लिए पारुल बहन की दोस्त डॉक्टर राधिका भी वलसाड से आ गईं थीं। उन्होंने वहीं हमें वलसाड आकर कार्यक्रम करने का आमंत्रण भी दे दिया। एक सज्जन ने मुझे इशारे से एक तरफ बुलाया जहां वे और पारुल बहन खड़े थे। उन्होंने कहा कि मैं वैसे तो रोटरी क्लब का भी पदाधिकारी हूं और आरएसएस का भी (उन्होंने किसी पद का नाम लिया था जो मुझे याद नहीं रहा), लेकिन लोगों को जगाने का सही काम तो आप लोग कर रहे हो। मुझे लगा कि कटाक्ष कर रहे हैं और जरूर कुछ अप्रिय सवाल करेंगे। मैं मन ही मन उस स्थिति के लिए तैयार होने लगा और जवाब सोचने लगा। लेकिन अगले ही क्षण वे बोले कि मैं आप लोगों को एक बूंद बराबर सहयोग करना चाहता हूं।

मैंने पारुल बहन की ओर सवालिया नजरों से देखा तो उन्होंने आंखों में ही सहमति की आश्वस्ति दी। उन्होंने जेब से पर्स निकालकर उसे पूरा खाली करने पर हाथ में जो चार हजार रुपये आए, उन्हें मेरे हाथों में रख दिया। मुझे लगा – ये गुजरात कभी भी वो गुजरात नहीं बन सकता जिसकी कुख्याति देश भर में हिन्दू राष्ट्र की प्रयोगशाला के तौर पर की गई है, जब तक इस गुजरात में साथी रामसागर सिंह परिहार, सरूपबेन ध्रुव, आशिम रॉय, मनीषी भाई, अतुल पाठकजी, उत्तमभाई परमार, पारुल बहन, देव देसाई, धीरू भाई, कालू भाई, जयप्रकाश भाई, किशोर भाई और उनके जैसे हजारों बहादुर लोग जिंदा हैं जो इंसानियत और प्यार से भरे हुए हैं।

वहां से हमने पारुल बहन, फ़राज़, सादिया और रोशन से विदा ली। वो लोग दांडी में पारुल बहन के घर रुककर अगले दिन निकलने वाले थे। रामसागर सिंह परिहार जी भी अहमदाबाद के लिए रवाना हो चुके थे। उत्कर्ष हमारे साथ ही इंदौर आने वाला था। गुजरात यात्रा को कामयाबी से सम्पन्न करने के बाद लौटते हुए मैं और निसार और बिहार के साथी इतने प्यार और संतोष से भरे हुए थे जो अनेक भव्य कार्यक्रमों के बाद भी हासिल नहीं होता है।


सभी राज्यों के कार्यक्रमों की विस्तृत रिपोर्ट और वीडियो तथा फोटो dhaiaakharprem.in वेबसाइट पर जाकर देखे जा सकते हैं


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