तेलंगाना के लोकप्रिय जनगायक गदर (गुम्माडि विट्ठल राव) का 77 वर्ष की अवस्था में 6 अगस्त को निधन हो गया। गदर नक्सल आंदोलन की धारा से आते थे और तेलंगाना राज्य के आंदोलन से उनका गहरा नाता था। कालांतर में उनका न केवल नक्सल आंदोलन, बल्कि 2014 में बने तेलंगाना राज्य की सरकार और उसके मुख्यमंत्री केसीआर से भी मोहभंग हो गया। आज से बमुश्किल पंद्रह-बीस साल पहले अमेरिका के खिलाफ उनका गीत हिंदी पट्टी के कार्यकर्ताओं की जुबान पर हुआ करता था, लेकिन धीरे-धीरे हिंदीभाषी क्षेत्र में जन आंदोलनों के कमजोर पड़ते जाने के साथ गदर को भुला दिया गया।
गदर 2006 में साम्राज्यवाद विरोधी एक रैली में हिस्सा लेने के लिए दिल्ली आए थे और रामलीला मैदान के मंच से उन्होंने अपने गीतों से मैदान में मौजूद पचास हजार के आसपास लोगों को हिला दिया था। यही वह समय था जब डेढ़ साल पहले माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर और पीपुल्स वॉर ग्रुप का विलय हुआ था और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) अस्तित्व में आई थी। उस समय भारत में अतिवाम राजनीति नई अंगडाई ले रही थी। नेपाल में माओवादी आंदोलन से भी इसे ऊर्जा मिल रही थी।
दो साल बाद गदर राजनीतिक बंदियों की रिहाई के खिलाफ बनी कमेटी के उद्घाटन की बैठक में हिस्सा लेने फिर दिल्ली आए, लेकिन तब तक राजनीतिक परिस्थितियां काफी बदल चुकी थीं। छत्तीसगढ़ में माओवादियों और आदिवासियों के खिलाफ राज्य के समर्थन से सलवा जुडुम नाम का छद्म अभियान शुरू हो चुका था और दमन की आहट हरियाणा, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र और दिल्ली तक पहुंच चुकी थी।
गदर इसके बाद तेलंगाना तक ही सीमित रहे। 2012 के दिसंबर में पुरुषोत्तम के 12वीं शहादत दिवस पर हैदराबाद के प्रेस क्लब में आयोजित ‘तेलंगाना राज्य आंदोलन और हिंसा’ पर आयोजित एक सम्मेलन में गदर ने साफ कहा था कि तेलंगाना का राज्य जनता के संघर्षों के आधार पर बनना चाहिए, राजनीतिक लॉबींग से नहीं। उन्होंने वहां मौजूद संघर्षरत समूहों से आह्वान किया था कि वे मिलकर तेलंगाना राज्य को खड़ा करें।
इस सम्मेलन के सात महीने बाद जुलाई 2013 में कांग्रेस कार्यसमिति ने अलग तेलंगाना राज्य का प्रस्ताव पास किया और फरवरी 2014 में इस बिल को संसद में पेश किया गया। मई 2014 में केंद्र में सरकार बदली और जून 2014 में अंतत: तेलंगाना राज्य का गठन हुआ- लेकिन आंदोलनों की जमीन पर नहीं। गदर इससे खुश नहीं थे। 2018 में पहली बार उन्होंने खुलकर मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के खिलाफ मोर्चा खोल दिया और कहा कि राज्य में सामंतवाद की वापसी हो चुकी है।
दो साल बाद हैदराबाद के निगम चुनावों के दौरान गदर का रुख केसीआर के प्रति थोड़ा नरम हुआ था और इस बारे में अटकलें लगाई जा रही थीं, लेकिन वे वापस अपने रूप में लौट आए जब मई 2023 में कांग्रेस के नेता भट्टी विक्रमार्का की एक पदयात्रा में शामिल होते हुए उन्होंने मुख्यमंत्री राव को ‘खबरदार’ कहते हुए चेतावनी दे डाली कि वे किसानों की जमीनों को हाथ न लगाएं। उनका आरोप था कि केसीआर ने गरीबों की जमीनें लूटी हैं और लोग केसीआर की सरकार को उखाड़ फेंकेंगे। गदर ने यहां तक कह डाला कि केसीआर की मौत अमर नायकों के जैसी होगी।
विडम्बना ही कहेंगे कि इस बयान के तीन महीने बाद गदर की जब मौत हुई, तब केसीआर की सरकार ने उन्हें राजकीय सम्मान देकर विदा किया। इतना तो निश्चित है कि गदर ऐसा कभी नहीं चाहते रहे होंगे।
गदर बरसों पहले से इस बात को समझते थे कि इस जनतंत्र में सभी राजनीतिक दलों की स्थिति एक जैसी है और असली बदलाव जनता के आंदोलन से ही आना है, राजनीतिक दलों के चुनाव से नहीं। गदर की 2006 में दिल्ली यात्रा के दौरान रामलीला मैदान के मंच के पीछे इस लेखक ने उनसे लंबी बातचीत की थी, जिसके विवरण अब गुम हैं लेकिन उस समय राष्ट्रीय सहारा में प्रकाशित कुछ अंश यहां दोबारा बिंदुवार प्रकाशित किए जा रहे हैं।
एक ऐसे समय में जब एनडीए सरकार के खिलाफ पुरानी यूपीए के बजाय इंडिया नाम का नया सियासी गठबंधन बन चुका है और लोकसभा चुनाव सिर पर हैं, गदर की कही यह बात याद रखनी चाहिए कि यूपीए ठीक है या एनडीए, यह तुलना करना ऐसे ही हुआ जैसे कि एक हिरन से पूछा जाए कि शेर अच्छा है या चीता!
गदर से 2006 में हुई बातचीत के मुख्य अंश
दिन-प्रतिदिन बढ़ता उपभोक्तावाद और बाजारीकरण खुद-ब-खुद क्रांति का आधार रच रहा है। यह एक ऐसा रुझान है जो आबादी के मुश्किल से दस फीसदी लोगों को व सतही तौर पर अच्छा लगता है, लुभाता है। इसमें राष्ट्रीय बुर्जुआ भी शामिल है। एक उदाहरण लीजिए। हमने पेप्सी-कोक को अपने देश में आने दिया। इसके आने से चार किस्म के पेय पदार्थों के सामने संकट खडा हो गया। पेप्सी ने गन्ने का रस, देशी शीत पेयों, नारियल पानी आदि को हटा केर अपनी जगह बनाई। अब पेप्सी के खिलाफ लोग संगठित भी होंगे।
दिल्ली में जो राज चल रहा है, वह इस किस्म की नई अर्थव्यवस्था को स्वीकार करता है। पिछले राज में भी ऐसा ही था। इसलिए यह तुलना फिजूल है कि यूपीए ठीक है या एनडीए। ये ऐसे ही हुआ जैसे कि एक हिरन से पूछा जाए कि शेर अच्छा है या चीता। इस तरह की सरकारें जब नई अर्थव्यवस्था को मंजूरी देती हैं, तो इसका अर्थ यह होता है कि वे क्रांति के लिए भी स्पेस बना रही हैं। भले ही उन्हें इसका अंदाजा न हो। इन सरकारों द्वारा विश्व बैंक की अर्थव्यवस्था को अपनाने से जो व्यवस्था का संकट गहराता जा रहा है, उसकी प्रतिक्रिया में संघर्ष बहुत जरूरी है। हथियार तो सिर्फ एक साधन होता है, असली चीज तो जनता का विद्रोह है!
हमारे छह लाख दो हजार गांवों में अस्सी फौसदी भारत बसता है। लोगों के पास खाने को नहीं है। जनता तो पहले से ही जगी हुई है। मैं मानता हूं कि कम्युनिस्ट पार्टियों के अंदर कुछ खामियां हैं। संगठनों के अंदर सैद्धांतिक स्तर पर भी कमी है। इसीलिए इतना सम्रय लग रहा है। वस्तुगत हालात भी इसके अनुकूल हैं, सिर्फ थोड़ी हिचक है।
भारत की कम्युनिस्ट पार्टियों में सारो टूट तो इसी बात को लेकर थीं कि संसदीय रास्ता चुना जाए या नहीं। भारत में एक व्यक्ति, एक वोट की प्रणाली है, लेकिन पैसा, अपराध और मीडिया के प्रभाव में ऐसा नहों हो पाता। अगर एक व्यक्ति एक वोट की प्रणाली को ठीक से लागू किया जाए तो हमें क्या आपत्ति हो सकती है। लेकिन अमेरिकी लोकतंत्र के ढांचे में यह कभी संभव नहीं हो सकता। जब स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव भारत में संभव हो जाएंगे, तब हम देखेंगे कि हमें क्या करना है। इस बारे में अभी से कुछ भी कहना ठीक नहीं होगा।
अभी हमारा मूल लक्ष्य बचे हुए गांवों की ओर जाकर जनता को अपने साथ जोड़ना है। असली मामला जनता के संगठित होने का है।