नया साल शुरू हुए कायदे से पांच दिन भी नहीं हुआ है कि यूपी में एक पत्रकार के ऊपर गाड़ी चढ़ा दी गई है, तो एक संपादक की मोटरसाइकिल को टक्कर मार के उसे बुरी तरह जख्मी कर दिया गया है। दोनों मामले सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा करने से जुड़ी खबरों के उद्घाटन से जुड़े हैं। शामली और मेरठ में राजनीतिक संरक्षण में दबंगों के किए इन हमलों के अलावा ऐसे ही दो केस कसया और हरदोई से भी सामने आए हैं। यूपी में अब पत्रकार मर नहीं रहे। खबरों, उसके बाद होने वाले हमलों और मुकदमों से डर रहे हैं।
योगी आदित्यनाथ के पहले कार्यकाल (2017-22) के दौरान सबसे ज्यादा 12 पत्रकारों की हत्या और करीब 150 के ऊपर हमलों के लिए कुख्यात रहे उत्तर प्रदेश में पिछले साल ऐसी घटनाएं अपेक्षाकृत कम दर्ज की गई हैं। पत्रकारिता पर हमले को बीतेक डेढ़-दो साल में बहुत चतुराई से सरकारी कार्रवाइयों में तब्दील कर दिया गया है। यहां लगातार पत्रकारों पर मुकदमे लिखे जा रहे हैं और प्रेस का गला घोंटने के लिए सरकारी फरमान निकाले जा रहे हैं, लेकिन प्रेस की आजादी पर काम करने वाले संस्थानों द्वारा इनकी रिपोर्टिंग कम हो रही है।
उत्तर प्रदेश में 2017-22 के बीच पत्रकारों पर हुए हमले की रिपोर्ट
उत्तर प्रदेश में पत्रकारिता बीते करीब एक दशक से संकट के दौर से गुजर रही है। कोरोना के दौरान अचानक असहमति की आवाजों पर शिकंजा कसा जाना शुरू हुआ। 2022 आते-आते ऐसा लगा कि विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा सूबा उत्तर प्रदेश पत्रकारिता का ब्लैकहोल बन गया। प्रेस स्वतंत्रता पर तमाम रिपोर्टों में कश्मीर और यूपी की स्थिति एक बताई गई। फिर अचानक योगी आदित्यनाथ के दूसरे कार्यकाल में कुछ बदला। यह बदलाव इतना महीन था कि यूपी में काम कर रहे पत्रकारों के अलावा इसका अहसास बाहर कम ही हुआ।
यहां सवाल पूछने, आलोचनात्मक खबर लिखने और यहां तक की सोशल मीडिया पोस्ट करने पर भी पत्रकारों के खिलाफ मुक़दमे लिखे जाने लगे। भाजपा सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान तो कुछ ऐसे अभूतपूर्व उदाहरण भी सामने आए हैं जिनसे स्पष्ट प्रतीत होता है कि सरकार द्वारा पत्रकारिता पर अब सीधे शिकंजा कसने का प्रयास किया जा रहा है।
पत्रकारिता पर इस तरह का अंकुश का परिणाम है कि आज वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत 150 से 161वें पायदान पर खिसक कर नीचे चला आया है। रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स की 2022 की रिपोर्ट में भारत 180 देशों में 150वें स्थान पर था, वहीं 2023 की आई रिपोर्ट में वह 11 पायदान और लुढ़क गया। सरकार ऐसी रिपोर्टों को नहीं मानती क्योंकि उसे लगता है कि ये विदेशी रिपोर्टें भी सरकार की छवि को धूमिल करने का ही काम कर रही हैं।
चर्चित हमले
करीब 20 करोड़ की आबादी वाला उत्तर प्रदेश देश की राजनीति के लिहाज से सबसे महत्वपूर्ण राज्य है। यहां से 80 सांसद चुनकर लोकसभा में जाते हैं। यहां 403 सीटों वाली विशाल विधानसभा भी है। योगीराज में यूपी विधानसभा की रिपोर्टिंग कभी आसान नहीं रही है। बीते वर्ष 20 फरवरी को विधानसभा कवरेज के दौरान पत्रकारों को वहां तैनात मार्शलों ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा था। पत्रकारों का कहना है कि ऐसे अपमानजनक व्यवहार का कारण उनके द्वारा योगी सरकार के विरुद्ध समाजवादी पार्टी के प्रदर्शन की कवरेज थी। वे कहते हैं कि सरकार नहीं चाहती थी कि विपक्ष की खबर को मीडिया में जगह मिले।
यह अभूतपूर्व घटना उत्तर प्रदेश विधानसभा परिसर के लॉन में हुई थी जिसमें मार्शलों द्वारा मारपीट के दौरान कई पत्रकारों को चोटें आई थीं और मार्शलों द्वारा कथित तौर पर एक प्रेस फोटोग्राफर के चेहरे पर मुक्का मारा गया था। इस घटना में कई मीडियाकर्मियों के कैमरे और अन्य उपकरण क्षतिग्रस्त हो गए थे।
वरिष्ठ पत्रकार सीमाब नक़वी कहते हैं, “ऐसा लगता है कि यह मीडिया को विपक्ष की कवरेज से रोकने के लिए जान-बूझ कर किया गया एक प्रयास था।‘’
घटना के समय वहां ड्यूटी पर मौजूद एक निजी टीवी चैनल के पत्रकार नक़वी बताते हैं कि मार्शलों द्वारा उनको जबर्दस्ती कवरेज करने से रोकने की कोशिश की गई थी। वह कहते हैं कि यह पहला मौका था जब प्रदेश विधानसभा के अंदर पत्रकारों के काम में बाधा डाली गई। इससे पहले विधानसभा में ऐसा नहीं हुआ था।
जिस पत्रकार के चेहरे पर कथित तौर पर मुक्का मारा गया था, वह वरिष्ठ फोटो जर्नलिस्ट विशाल श्रीवास्तव थे। वह एक दशक से अधिक समय से राज्य विधानसभा को कवर कर रहे हैं। इस घटना के बाद श्रीवास्तव का कहना था कि पहले कभी पत्रकारों को इस तरह का अपमान नहीं सहना पड़ा था। श्रीवास्तव ने उस समय यह आशंका जताई थी कि कहीं यह घटना मीडिया पर लगाम कसने की एक मिसाल न बन जाए।
श्रीवास्तव का अंदेशा सच साबित हुआ। उत्तर प्रदेश सरकार के अगस्त 2023 में लाए एक फरमान ने प्रेस जगत में हलचल पैदा कर दी। सरकारी फरमान में कहा गया कि सरकार के विरुद्ध नकारात्मक खबर लिखने पर अखबार को स्पष्टीकरण देना होगा।
अगस्त का फरमान
प्रमुख सचिव संजय प्रसाद द्वारा 16 अगस्त को उत्तर प्रदेश के सभी जिलाधिकारियों और मण्डलायुक्तों को एक आदेश जारी किया गया। यह आदेश ‘कथित’ समाचारपत्रों द्वारा मीडिया सम्बंधी दिशानिर्देशों का ‘सम्यक अनुपालन’ नहीं किए जाने के बारे में था। इसमें कहा गया था कि मीडिया में छापी गई ‘नकारात्मक’ खबरों से शासन की छवि धूमिल होती है इसलिए ऐसे समाचारों के तथ्यों की त्वरित जांच किया जाना आवश्यक है।
प्रदेश के समस्त मंडलायुक्तों और जिलाधिकारियों को आदेश दिया गया कि यदि ऐसा संज्ञान में आता है कि किसी दैनिक समाचारपत्र अथवा मीडिया द्वारा घटना को तोड़-मोड़कर या गलत तत्वों का उल्लेख कर नकारात्मक समाचार प्रकाशित कर योगी सरकार या जिला प्रशासन की छवि को धूमिल करने का प्रयास किया गया है तो संबंधित जिलाधिकारी द्वारा समाचारपत्र के प्रबंधन को स्थिति स्पष्ट करने के लिए पत्र भेजा जाएगा।
दिलचस्प है कि उक्त आदेश में उन फर्जी खबरों के बारे में कोई टिप्पणी नहीं है जो शासन की छवि को गलत तथ्यों के आधार पर चमकाने का काम करती हैं।
अगस्त में आए उक्त आदेश के बाद यह चर्चा तेज हो गई कि लोकसभा चुनाव 2024 से पहले प्रदेश सरकार छोटे-बड़े मीडिया हाउसों पर अंकुश लगाने का प्रयास तेज करेगी। मीडिया प्रतिष्ठानों में आलम यह है कि वे दोनों पक्षों के बयान के बगैर खबर नहीं छापते, जो पत्रकारिता में वाकई एक कसौटी भी है लेकिन केंद्रीकृत सत्ता के दौर में सरकारी पक्ष का बयान लेना आजकल बहुत कठिन हो चला है।
फील्ड में काम करने वाले पत्रकार एकतरफा खबरें प्रकाशित होने का एक मुख्य कारण यह मानते हैं कि मौजूदा सरकार में संबंधित अधिकारी पत्रकारों से न तो मिलते हैं और न ही फोन पर उनके सवालों के जवाब देते हैं। ऐसे में बिना सरकारी बयान के खबरें छापने के अलावा और विकल्प क्या रह जाता है?
लखनऊ की एक वरिष्ठ महिला पत्रकार हाल ही में अयोध्या से एक स्टोरी कर के लौटी हैं। उन्होंने बताया कि जब स्टोरी उन्होंने बीबीसी को छापने के लिए भेजी, तो सरकारी अधिकारी के बयान को जोड़ने के लिए उनसे कहा गया। वे लगातार सरकारी अधिकारी को फोन लगाती रहीं, लेकिन उसने बात करने से यह कहते हुए इनकार कर दिया कि वे बहुत व्यस्त हैं और 22 जनवरी के बाद ही बयान दे पाएंगे।
वे पूछती हैं, ‘’अब मैं क्या करूं? बीबीसी बिना अफसर के बयान के स्टोारी लेगा नहीं। दो और जगहों पर बात की है। वे भी यही कह रहे हैं। बिना बयान के कहीं छाप दिया और मुकदमा हो गया तब कौन बचाएगा?”
बिलकुल यही स्थिति इलाहाबाद के एक और पत्रकार बताते हैं जो किसी खबर पर अंतिम बयान लेने के लिए हफ्ता भर तहसीलदार के दफ्तर दौड़ते रहे और घंटों समय खराब किया, लेकिन वह नहीं मिला।
जनप्रतिनिधियों की दबंगई
ऐसे में कोई पत्रकार अगर सीधे नेता से ही सवाल कर दे, तो उसकी स्थिति और बुरी हो जाती है। इसका एक उदाहरण पिछले साल पत्रकार संजय राणा का केस है। यूपी सरकार के एक मंत्री से विकास के मुद्दे पर सवाल पूछना राणा को बहुत महंगा पड़ गया। मंत्री से सवाल पूछने वाले पत्रकार को भाजपा कार्यकर्ता के साथ मारपीट के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया।
पत्रकार संजय राणा का गुनाह बस इतना था कि उन्होंने मंत्री गुलाब देवी से स्थानीय समस्याओं जैसे सरकारी शौचालय और बारात घर पर सवाल कर दिया था। मामला संभल जिले में 11 मार्च 2023 का है। मंत्री को उनके द्वारा किए गए वादों की याद दिलाने की सजा राणा को यह मिली कि उनको कई महीने तक अदालत के चक्कर लगाने पड़ गए।
राणा ने बताया कि उन्होंने यूपी की भाजपा सरकार की एक मंत्री के दौरे पर उनसे स्थानीय मुद्दों पर सवाल किया और उनको याद दिलाया था कि चुनाव में उन्होंने क्या वादे किए थे, जो अब तक पूरे नहीं हो सके। राणा मुरादाबाद उजाला दैनिक के पत्रकार हैं।
वे कहते हैं, ‘’सवाल करना मेरे काम का एक हिस्सा है। जब मैंने मंत्री से सवाल किया तो मंत्री के समर्थक भड़क गए, जिसके बाद मुझे हिरासत में ले लिया गया जहां करीब 15-16 घंटे रहने के बाद चालान भरने के बाद रिहा किया गया।‘’
उनके अनुसार इस घटना के करीब तीन-चार महीने बाद तक उनको स्थानीय मजिस्ट्रेट की अदालत में पेशी पर जाना पड़ा था।
संजय राणा के मामले में तो प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने भी बयान जारी किया था, लेकिन जनप्रतिनिधियों के कान पर जूं तक नहीं रेंगी। कुछ महीने बाद केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी भी एक पत्रकार के साथ दबंगई करती नजर आईं, जो मामला काफी चर्चित रहा।
अमेठी में 9 जून को दौरे पर गईं स्थानीय सांसद और केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी से दैनिक भास्कर के एक पत्रकार ने सवाल पूछ दिया। मंत्री ने पत्रकार को धमकाते हुए कहा कि वे उसके अखबार के मालिक को फोन कर के कहेंगी। बाद में अखबार ने इस बात का खंडन कर दिया कि उक्त पत्रकार उसके लिए काम करता है, हालांकि वहीं मौजूद एक और पत्रकार ने पुष्टि की कि सवाल पूछने वाले सहित उस पत्रकार दोनों को नौकरी से निकाल दिया गया।
इस मामले का वीडियो सोशल मीडिया में बहुत वायरल हुआ था। एडिटर्स गिल्ड और प्रेस क्लब ऑफ इंडिया ने विशेष रूप से इस घटना पर बयान जारी करते हुए केंद्रीय मंत्री की आलोचना की थी।
पेपर लीक केस
योगी सरकार के दौरान अक्सर पेपर लीक को लेकर सवाल उठते रहे हैं, लेकिन पेपर लीक का उद्घाटन करने वाले तीन पत्रकारों की गिरफ्तारी ने 2023 में सरकार को सवालों के घेरे में खड़ा कर दिया था। मार्च-अप्रैल में इंटरमीडिएट के पेपर लीक मामले में उत्तर प्रदेश पुलिस ने तीन पत्रकारों को गिरफ्तार किया था।
प्रदेश के बलिया जिले में बोर्ड परीक्षाओं के दौरान 30 मार्च 2023 को अंग्रेजी का पेपर लीक होने की खबर तीन पत्रकारों अजीत कुमार ओझा, दिग्विजय सिंह और मनोज गुप्ता ने लिखी थी। ओझा और सिंह हिंदी दैनिक अमर उजाला में पत्रकार थे। सिंह ने इस मामले में पुलिस पर पत्रकारों के साथ बर्बरता करने का आरोप लगाया। ओझा का कहना था कि अपनी असफलताओं को छुपाने के लिए स्थानीय प्रशासन ने पत्रकारों को बलि का बकरा बनाया।
गिरफ्तारी के दौरान ओझा ने पुलिस पर उनके ऑफिस में तोड़फोड़ करने का आरोप भी लगाया था। पत्रकारों की गिरफ्तारी के खिलाफ बलिया पुलिस थाने के बाहर पत्रकारों द्वारा प्रदर्शन भी किया गया था।
इससे पहले आगरा के एक पत्रकार गौरव बंसल को पुलिस ने 24 मार्च को रात के एक बजे चुनाव के दौरान धांधली के आरोप में गिरफ्तार कर लिया था। बंसल ने आरोप लगाया कि पुलिस द्वारा उनको अदालत में पेश किए जाने से पहले हिरासत में बर्बरतापूर्वक मारा गया।
एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने इस मामले का संज्ञान लेते हुए पत्रकार बंसल की गिरफ्तारी की स्वतंत्र जांच की मांग की थी। गिल्ड द्वारा इस बात पर चिंता व्यक्त की गई थी कि दंडात्मक कानून का इस्तेमाल पत्रकारों को संवेदनशील मुद्दों पर स्वतंत्र रूप से खबर करने से परेशान करने और डराने धमकाने के लिए किया जा रहा है।
इस मामले में एडिटर्स गिल्ड ने प्रदेश सरकार से कहा था कि मीडिया के अधिकारों की रक्षा की जाए और पत्रकारों को स्वतंत्र होकर अपना काम करने में परेशान न किया जाए। इसके बाद सरकार ने प्रेस की आजादी पर जबानी जमाखर्च तो खूब किया, लेकिन व्यवहार में उसे नहीं उतारा।
खाली बोल
मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इमरजेंसी की 48वीं बरसी पर 25 जून 2023 को नोएडा में इंडियन एक्सप्रेस दैनिक के दफ्तर आए थे। वहां उन्होंने प्रेस की आजादी पर बड़ी-बड़ी बातें कहते हुए नोएडा की एक अहम सड़क अमलताश मार्ग का नामकरण रामनाथ गोयनका के ऊपर रख दिया। गोयनका इंडियन एक्सप्रेस के मालिक और संपादक थे जिन्होंने इंदिरा गांधी के लगाए आपातकाल में साहसिक पत्रकारिता के प्रतिमान कायम किए थे।
मीडिया की आजादी में रामनाथ गोयनका की भूमिका को याद करते हुए मुख्यमंत्री ने तब कहा था, ‘’मैं पूरी प्रतिबद्धता के साथ यह बात कह रहा हूं और आपको आश्वस्त करना चाहता हूं कि मीडिया के लिए- यानी लोकतंत्र के चौथे खंबे के लिए हमें भी उसके साथ मिलकर काम करने का अवसर मिलना चाहिए।‘’
यह बातें केवल बातें ही रह गईं। नोएडा में जून में मुख्यमंत्री प्रेस की आजादी के बारे में बोलकर लखनऊ पहुंचे, उधर बुंदेलखंड में एक पत्रकार के पिता को अगवा कर के पत्रकार पर मुकदमा दर्ज कर दिया गया। हमीरपुर के राठ में दिनदहाड़े घटी अपहरण की इस घटना में पत्रकार की ओर से क्रॉस एफआइआर भी हुई, लेकिन दो आरोपी अब तक फरार बताए जाते हैं। पत्रकार का परिवार सीसीटीवी कैमरों के साये में लगातार डर में जी रहा है।
अगस्त में शासन ने जब ‘नकारात्मक खबरों’ वाला विवादास्पद फरमान जारी किया, उसी महीने की बात है जब पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर जिले के एक निजी स्कूल में एक टीचर के निर्देश पर एक छात्र को उसके सहपाठियों द्वारा थप्पड़ लगाए जाने की घटना हुई। पीड़ित की धार्मिक पहचान को सोशल मीडिया पोस्ट से उजागर करने (और बाद में डिलीट करने) के आरोप में आल्ट न्यूज के मोहम्मद जुबैर के खिलाफ एफआइआर दर्ज कर ली गई।
ठीक इसके उलट, उक्त घटना के महीने भर पहले मेरठ के पावली खास में जब एक लड़की को माथे पर तिलक लगाने के लिए स्कूल से निकाल दिया गया तब योगी आदित्यनाथ के गुरुभाई होने का दावा करने वाले स्थानीय महंत यशवीर महाराज ने सोशल मीडिया पर न केवल उस लड़की की धार्मिक पहचान जाहिर की बल्कि उसके हाथ में तलवार थमाकर और पगड़ी पहनाकर उसका सार्वजनिक अभिनंदन किया। यशवीर महाराज पर कहीं कोई मुकदमा कायम नहीं किया गया, न इसकी कोई चर्चा ही हुई।
धार्मिक मामलों में सार्वजनिक लेखन को लेकर यूपी सरकार का यही दोतरफा रवैया साल भर पहले कानपुर के एक केस में दिखा था। कानपुर में सांप्रदायिक हिंसा के मामले में प्रदेश की पुलिस ने डिजिटल मीडिया प्लेटफॉर्म मिल्लत टाइम्स के संपादक शम्स तबरेज कासमी के विरुद्ध एक मुकदमा दर्ज किया था। तबरेज पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने जून 2022 में हुए सांप्रदायिक दंगे को दिखाने वाला वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट किया।
मुजफ्फरनगर वाले अगस्त 2023 के केस में जुबैर ने साफ सवाल किया था कि न्यूज चैनल और राजनीति से जुड़े तमाम लोगों ने उस लड़के का वीडियो सोशल मीडिया पर पोस्ट किया था, लेकिन मुकदमा अकेले उन्हीं पर क्यों दर्ज किया गया। जुबैर के अनुसार उन्होंने वीडियो को तुरंत डिलीट कर दिया था। वह कहते हैं कि वीडियो डिलीट करने के बावजूद उनके खिलाफ मुकदमा लिखना यह दर्शाता है कि उनको जान-बूझ कर निशाना बनाया गया।
ऐसा देखा गया है कि पत्रकारों के उत्पीड़न के मामलों में एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया और प्रेस क्लब ऑफ इंडिया जैसे संगठन हस्तक्षेप तो करते हैं, लेकिन उनकी सक्रियता केवल पत्र लिखने तक सीमित रह गई है। शायद यही वजह है कि तमाम कोशिशों के बावजूद पत्रकार उत्पीड़न के मामले लगातार सामने आते रहते हैं। इधर कुछ दिनों से यह भी देखा गया है कि पत्रकार संगठन या तो खामोश हो गए हैं या उनकी बात का असर खत्म हो चुका है।
पत्रकारों का संकट
दशकों से प्रदेश में पत्रकारिता कर रहे वरिष्ठ पत्रकार नावेद शिकोह अफसोस जताते हैं कि अब पत्रकारों का कोई सक्रिय संगठन देखने को नहीं मिलता है। वह कहते हैं कि जो उत्पीड़न हो रहा है उसके लिए सरकार से ज्यादा जिम्मेदार पत्रकार संगठन हैं जो सब कुछ देखते हुए भी खामोश हैं। नावेद कहते हैं कि अब तो पत्रकारों के हक की मांग करते हुए पत्रकार नेता नजर भी नहीं आते हैं।
वे कहते हैं, ‘’अगर कहीं पत्रकार नेता देखने को मिलते हैं तो वह पत्रकारों की समस्याएं उठाने के बजाय मंत्रियों, नेताओं और नौकरशाहों को फूलों के गुलदस्ते पेश करते हुए सोशल मीडिया पर दिखाई देते हैं।‘’
इंडियन फेडरेशन ऑफ वर्किंग जर्नलिस्ट्स के डॉ. उत्कर्ष सिन्हा कहते हैं, ‘’जब 2014 में बीजेपी सत्ता में आई थी, तब इस तरह का कयास लगाया जा रहा था कि यह सरकार मीडिया को नियंत्रित करने का प्रयास करेगी, जो सत्यापित हुआ है। मीडिया घरानों के मालिकों के साथ पत्रकार भी इस वक्त दबाव में हैं। यही कारण है कि अखबारों में पहले जैसे तेवर अब देखने को नहीं मिलते हैं।‘’
डॉ. सिन्हा कहते हैं इसी दबाव के कारण पत्रकारों के उत्पीड़न का मुद्दा मीडिया के बीच भी एजेंडा नहीं बन पा रहा है। उनके अनुसार सरकारी विभागों की यूनियनों की तरह पत्रकारों के संगठन भी निष्क्रिय पड़े हैं। सिन्हा का यह मानना है कि बहुत से पत्रकार नेताओं ने खुद को तो स्थापित तो कर लिया, लेकिन पत्रकारों को उनके हाल पर छोड़ दिया। वे यह भी मानते हैं कि मीडिया में कुछ संख्या उन पत्रकारों की है जो भ्रष्टाचार करते हैं, जिनके कारण वास्तविक पत्रकारों को भी जनता के बीच में समर्थन नहीं मिल पाता है।
सरकारी विभागों की यूनियनों की तरह पत्रकारों के संगठन भी निष्क्रिय पड़े हैं। सिन्हा का यह मानना है कि बहुत से पत्रकार नेताओं ने खुद को तो स्थापित तो कर लिया, लेकिन पत्रकारों को उनके हाल पर छोड़ दिया।
उत्कर्ष सिन्हा, IFWJ
जब मुख्यधारा का मीडिया सत्ता के सुर में सुर मिलाने लगा और उसने सत्ता से सवाल करना बंद कर दिया, तो बड़ी संख्या में पत्रकारों ने अपनी वेबसाइट बनाकर या यूट्यूब चैनल खोलकर पत्रकारिता करना शुरू कर दिया। यह बीते कुछ वर्षों में हुआ है।
इस नए मीडिया पर अभी तक उन पत्रकारों का वर्चस्व ज्यादा है जो सत्ता से सवाल करते हैं या आलोचनात्मक खबरें दिखाते हैं। शायद यही वजह है कि सरकार ने अभी तक इस डिजिटल मीडिया को मान्यता नहीं दी है और डिजिटल मीडिया में काम करने वाले बड़ी संख्या में पत्रकारों को रिपोर्टिंग करने में समस्या हो रही है।
पत्रकार नावेद शिकोह कहते हैं कि डिजिटल मीडिया के पत्रकारों की सबसे बड़ी समस्या यह है कि सरकार द्वारा अभी तक डिजिटल मीडिया को लेकर कोई नियमावली नहीं बनाई गई है। यही वजह है कि डिजिटल पर मीडिया में काम करने वालों का उत्पीड़न प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के पत्रकारों मुकाबले ज्यादा हो रहा है।
इस मुद्दे पर वरिष्ठ पत्रकार रामदत्त त्रिपाठी का कहना है कि पत्रकारों के उत्पीड़न के लिए केवल सरकार नहीं बल्कि मीडिया संस्थानों के मालिक भी जिम्मेदार हैं। बीबीसी के ब्यूरो चीफ रह चुके रामदत्त त्रिपाठी कहते हैं कि पत्रकार अगर ईमानदारी से काम करना भी चाहे तो वह अपने मालिक के दबाव में नहीं कर पाता है।
वह कहते हैं, ‘’यह सत्य है कि नरेंद्र मोदी सरकार के दौर में प्रेस मीडिया भारी दबाव में काम कर रहा है, लेकिन यह दबाव कम हो सकता है अगर मीडिया संस्थानों के मालिक अपने निजी स्वार्थ को छोड़कर पत्रकारिता के प्रति ईमानदार और निष्ठावान रहें।‘’
किस्म-किस्म के हमले
उत्तर प्रदेश में भाजपा सरकार बनने के बाद से अब तक कई वरिष्ठ पत्रकारों पर कानूनी कार्रवाई हो चुकी है। इनमें द वायर के संपादक सिद्धार्थ वरदराजन, सुप्रिया शर्मा, राना अय्यूब, सबा नकवी, मोहम्मद जुबैर और सिद्दीक कप्पन आदि के नाम प्रमुख हैं। गांव-कस्बों में रोजाना पत्रकारों पर हमले हो रहे हैं। इनमें निजी रंजिश से लेकर दबंगों, पुलिस और माफिया ठेकेदारों पर खबर छापने तक मामलों की कीमत पत्रकारों को चुकानी पड़ रही है।
पिछले साल की बात करें, तो कासगंज में एक साथ छह पत्रकारों पर पुलिस ने गैर-जमानती धाराओं में 11 नवंबर को एफआइआर दर्ज की थी। अक्टूबर में बनारस के पत्रकार अमित मौर्य को दबंगों ने सड़क पर पीटा था और मुकदमा दर्ज करवाया था।
मऊ के स्थानीय स्वतंत्र पत्रकार बृजेश यादव के घर 1 अक्टूबर को यूपी पुलिस ने दबिश देकर उनका फोन जब्त कर लिया और उन पर मुकदमा कायम कर जेल भेज दिया। दो दिन बाद वे जमानत पर रिहा हो गए लेकिन उनका आरोप है कि पुलिस उन्हें तरह-तरह से लगातार परेशान कर रही है। बृजेश पिछले डेढ़ दशक से मऊ में विभिन्न राष्ट्रीय अखबारों के लिए काम करते रहे हैं और पिछले कुछ साल से खुद का एक पोर्टल बुलंद आवाज चला रहे हैं।
इसके महीने भर पहले सितंबर में बनारस में लाइव वीएनएस के पत्रकार ओंकार नाथ पर बीएचयू के अस्पताल में जानलेवा हमला किया गया था। ओंकार ने इसका आरोप बीएचयू अस्पताल के निजी बाउंसरों पर लगाते हुए एफआइआर दर्ज करवाई थी।
जुलाई में मथुरा में दैनिक जागरण के वरिष्ठ फोटो पत्रकार कासिम खान के ऊपर जानलेवा हमला हुआ। जुलाई में ही अमेठी में पत्रकार दानिश अंजार को सरेराह दिनदहाड़े पीटा गया।
जून में गोंडा में एक पत्रकार दुर्गा सिंह पटेल को पुलिसवालों ने उनके दफ्तर में घुसकर पीटा। दुर्गा ने थाने के भीतर शराब पार्टी के बारे में ट्वीट किया था। वे न्यूज आवर टीवी में काम करते हैं। उनके खिलाफ एफआइआर भी दर्ज की गई।
जून में कानपुर के ताजा टीवी में काम करने वाले एक पत्रकार रमन सिंह को माफिया के खिलाफ खबर लिखने की कीमत चुकानी पड़ी। स्थानीय पुलिस की साठगांठ से लकड़ी माफिया ने उनके ऊपर हमला किया।
जून में ही उन्नाव के एक पत्रकार मन्नू अवस्थी को दिनदहाड़े गोली मार दी गई। यह मामला 2023 में सबसे ज्यादा चर्चित रहा। मन्नू को लगातार जमीन माफिया की धमकी मिल रही थी और इस संबंध में उन्होंने मार्च में ही पुलिस प्रशासन को चिट्ठी लिखकर दी थी कि उनकी जान को खतरा है लेकिन पुलिस ने इस पर कोई कार्रवाई नहीं की।
इससे पहले मई में हरदोई के चार पत्रकारों के खिलाफ फर्जी मुकदमा लिखा गया। इसके पीछे स्थानीय भाजपा नेताओं का दबाव बताया जाता है।
नया साल शुरू होते ही यूपी में कम से तीन जगह पत्रकारों पर अलग-अलग कारणों से हमले हो चुके हैं। कसया, शामली और मेरठ में पत्रकारों पर हमले किए गए हैं। शामली और मेरठ के मामलों में एफआइआर लिखी जा चुकी है।