धरती को बचाने के नाम पर सियासत और पूंजी का हरा-भरा गठजोड़

Green Capitalism, Painting by Kartik Tripathi
Green Capitalism, Painting by Kartik Tripathi
पूंजीवाद के इस दौर में सार्वजनिक समस्‍याओं के समाधानों की विडम्‍बना यह है कि जिसने बीमारी पैदा की है दवा भी वही दे रहा है। वह बीमारी से भी पैसा कमा रहा है और दवा से भी। पूंजीवाद के फैलाये प्रदूषण से नष्‍ट हो रही धरती के लिए पूंजीपतियों द्वारा पैदा किया गया हरित पूंजीवाद का नुस्‍खा ऐसा ही टोटका है, जो जलवायु परिवर्तन के अपराधबोध से नागरिकों को भर के उन्‍हीं की जेब लूटता है। सरल शब्‍दों में आलोक राजपूत का विश्‍लेषण

जलवायु परिवर्तन को राजनीतिक विरोधियों का महज शिगूफा करार देने वाले डोनाल्ड ट्रम्प ने अपने लंगोटिया पूंजीपति एलन मस्क के खुल्लमखुल्ला सहयोग से अमेरिका में पिछले दिनों नई सरकार का गठन किया है। सत्ता में आने के बाद से ही ट्रम्प और मस्क लगातार प्रचारित कर रहे हैं कि सरकारी नीतियां बनाने की प्रक्रिया में पिछली सरकारों से उलट उनकी नई सरकार अमेरिकी करदाताओं का पैसा बहुत कार्यकुशलता के साथ खर्च करना चाहती है। अमेरिकी धन को समझदारी से सही स्थान पर खर्च करने के अपने इसी उद्देश्य-पूर्ति की लिए ट्रम्प प्रशासन बरसों से चली आ रही शिक्षा एवं स्वास्थ्य संबंधी कई कल्याणकारी योजनाएं एक-एक कर के बंद कर रहा है।  

अमेरिकी जनता के धन को सही जगह पर लगाने की दलील के सहारे ही ट्रम्प ने सत्ता में आने के तुरंत बाद जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए विभिन्न राष्ट्रों के बीच हुई पेरिस संधि से भी किनारा कर लिया था। वैसे भी, औद्योगिक प्रदूषण की वजह से पृथ्वी का बढ़ता हुआ तापमान, दुनिया के रेगिस्तानी क्षेत्रों में बढ़ती हुई मूसलाधार बारिश या भारत में हीटवेव की चेतावनी सरीखे जलवायु परिवर्तन के संकेत ट्रम्प के लिए राजनीतिक शिगूफे से ज्‍यादा कुछ नहीं हैं। उसके बावजूद, यह उतना स्‍वाभाविक नहीं है जितना दिखता है।

चूंकि औद्योगिक प्रदूषण जलवायु परिवर्तन का मुख्य कारण है इसलिए बड़े-बड़े उद्योगपतियों का जलवायु परिवर्तन पर अपनी जिम्मेदारी से कतराना बहुत ही स्वाभाविक बात है। ट्रम्प और उनके सहयोगी एलन मस्क जिस तरीके से जलवायु परिवर्तन को रोकने में अपनी जिम्मेदारी से कटने का प्रयास कर रहे हैं, ऊपरी तौर पर वह भी स्‍वाभाविक लग सकता है। इसके विपरीत, तथ्य कुछ और ही हैं। जलवायु परिवर्तन संबंधी जिम्मेदारियों से कन्नी काटने वाला पूंजीपतियों का गिरोह एक तरफ तो जलवायु परिवर्तन को रोकने के नाम पर हरित पूंजीवाद के नारे से पेट भर के पैसा कमा रहा है; दूसरी तरफ वह हरित पूंजीवाद के अफसाने का इस्तेमाल कर के अपनी जिम्मेदारी दूसरों के माथे मढ़ने का कुटिल खेल भी खेल रहा है।

औद्योगिक क्रांति के शुरुआती दिनों से ही एक बात सर्वविदित है, कि पूंजीपतियों के कारखानों से होने वाले प्रदूषण से पृथ्वी की जलवायु बदलती जा रही है। जलवायु परिवर्तन पर लगाम कसने के लिए पिछले कुछ वर्षों से कारखानों के संचालन के लिए जरूरी ऊर्जा की पूर्ति हेतु पूंजीपति धुआंरहित अक्षय ऊर्जा के स्रोतों की वकालत कर रहे है। अक्षय ऊर्जा की वकालत को ही हरित पूंजीवाद कहते हैं। ऊपरी तौर पर बेहद सकारात्मक जान पड़ने वाला यह हरित पूंजीवाद वास्तव में अंदर से खोखला है।

हरित पूंजीवाद के इस खेल को समझने के लिए हमें यहां किसी जटिल अकादमिक बहस की जरूरत नहीं है। हमारे रोजमर्रा के अनुभवों से ही हरित पूंजीवाद के झोल को बखूबी समझा जा सकता है।

बाजार में बिकने वाली फ्रूटी के टेट्रा पैक और उसे पीने के लिए कागज की बनी स्ट्रॉ का उदाहरण लें। कुछ साल पहले तक फ्रूटी या ट्रॉपिकाना जैसे पेय को उनके टेट्रा पैक से पीने के लिए कंपनियां ग्राहकों को प्लास्टिक की स्‍ट्रॉ दिया करती थीं। यदि आपने गौर किया हो, तो पिछले कुछ वर्षों में प्लास्टिक की स्ट्रॉ कागज़ की स्ट्रॉ में बदल दी गई है। कंपनियों द्वारा प्लास्टिक की स्ट्रॉ की जगह कागज की स्ट्रॉ लाने के पीछे की कहानी यह है कि कुछेक साल पहले अपने औद्योगिक उत्पादों में प्लास्टिक की वस्तुओं का अधिक मात्रा में प्रयोग करने को लेकर कंपनियों की तगड़ी आलोचना होने लगी थी। इसी वजह से बहुत सी अंतरराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने उत्पादों की पैकिंग के लिए प्लास्टिक की जगह कागज का प्रयोग करने का निर्णय लिया।

ट्रम्प द्वारा अमेरिकी जनता के पैसे को सही जगह पर खर्च करने का हवाला देते हुए जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए विभिन्न राष्ट्रों के बीच हुई पेरिस संधि से अमेरिका को अलग कर लेने का निर्णय जिस तरह हमें जायज लग सकता है; उसी तरीके से मात्र एक छोटी सी स्ट्रॉ को प्लास्टिक की जगह कागज का बना के जलवायु परिवर्तन को रोकने का हरित पूंजीवादी प्रपंच भी हमें पहली नजर में तार्किक जान पड़ता है। पहली नजर में उचित दिखने वाली ये तमाम हरकतें जलवायु परिवर्तन को रोकने के बजाय पूंजीपतियों के कुकर्मों पर परदा डालने में कहीं ज्‍यादा उपयोगी साबित हुई हैं।

जैसे, पेरिस संधि की अवहेलना कर के अमेरिकी करदाताओं का जितना पैसा बचाने की बात ट्रम्प कर रहे हैं, पूरी संभावना है कि आने वाले समय में अमेरिकी नागरिकों को उससे कही ज्‍यादा पैसा जलवायु परिवर्तन से उपजे हीटवेव से बचने के लिए एयर कंडीशनर या इलेक्ट्रिक कारों के ऊपर खर्च करना पड़ा सकता है। ठीक वैसे ही यह भी एक तथ्य है कि पूंजीपतियों के कारखानों से उत्पन्न प्रदूषण से जितना जलवायु परिवर्तन होता है उसके महज एक प्रतिशत को भी हरित पूंजीवाद के अंतर्गत प्लास्टिक की स्ट्रॉ को कागज़ की स्ट्रॉ से विस्थापित करने की कार्यवाही के माध्यम से कम नहीं किया जा सकता।

कागज की स्ट्रॉ प्लास्टिक की स्ट्रॉ की तुलना में जलवायु परिवर्तन के भीषण कुचक्र पर तो रत्ती भर लगाम नहीं ही लगाती है, लेकिन कागज की स्ट्रॉ को सूखे कचरे की जगह गीले कचरे में फेंक देने पर खुद नागरिकों को अपराधबोध से भर दिया जाता है- कि जैसे अपने कचरे को ठीक से ठिकाने न लगाने की गलती के चलते खुद देश के नागरिक ही मुख्य रूप से जलवायु परिवर्तन के लिए उत्तरदायी हैं, कारखानों से निकलने वाले अपशिष्ट से नदी-पोखरों को दिन-रात दूषित करने वाले पूंजीपति नहीं!

किसी हद यह बात तार्किक भी है कि यदि देश के सभी नागरिक अपने-अपने घर के कचरे को गीले कचरे और सूखे कचरे में विभाजित करने लगें तो जलवायु परिवर्तन पर शायद थोड़ी-बहुत रोक लगाई भी जा सकती है, लेकिन इस तर्क से बड़ा तर्क दूसरी व्‍यावहारिक बात में छुपा है। वो यह, कि यदि दिल्ली के प्रदूषण से निपटने की प्राथमिक जिम्मेदारी बड़े-बड़े उद्योगों के मालिकों की है तो हरियाणा या पंजाब के किसानों द्वारा गेहूं की फसल काटने के बाद खेतों में बची ठूँठ को जलाने से पैदा हुए धुएं को दिल्ली के प्रदूषण के लिए प्राथमिक तौर पर जिम्मेदार ठहरा दिया जाना कहां तक उचित है?

बात सिर्फ इतनी नहीं है कि सामान्य नागरिकों को प्रदूषण फैलाने के अपराधबोध से भरकर जलवायु परिवर्तन को रोकने की अपनी प्राथमिक जिम्मेदारी से पूंजीपति बच निकलते हैं। हरित पूंजीवाद की पूरी संरचना का ठीक से विश्लेषण करने पर यह भी पता चलता है कि धुएं जैसे अपशिष्ट पदार्थों का उत्सर्जन करने वाले जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा के विभिन्न स्रोतों को धीरे-धीरे धुआंरहित सौर या पवन ऊर्जा से विस्थापित करने की पूरी प्रकिया में देश-दुनिया के कई पूंजीपति बहुत तगड़ा मुनाफा भी कमा रहे हैं।

चौंकाने वाली बात यह है कि वर्तमान में प्रदूषणरहित अक्षय ऊर्जा के व्यापार से एकतरफा मुनाफा कमाने वाले पूंजीपति वे ही हैं जिन्हें भारी मात्रा में प्रदूषण फैलाने वाले जीवाश्म ईंधन का प्रयोग कर के जलवायु परिवर्तन की रफ्तार बढ़ाने का मुख्य आरोपी भी माना जाता है। यहां पर हम एक बार फिर से अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के बाएं हाथ एलन मस्क का उदाहरण ले सकते हैं।

मस्क स्पेसएक्स नाम की एक कंपनी के मालिक हैं। यह कंपनी मंगल ग्रह पर रॉकेट भेजने की अपनी वैज्ञानिक परियोजना के लिए भारी मात्रा में जीवाश्म ईंधन फूंकने और अंततः उस ईंधन के जलने से उत्सर्जित अपशिष्ट से जलवायु परिवर्तन को बढ़ाने के चलते पूरी दुनिया में बदनाम है। स्पेसएक्स का मालिक होने के अतिरिक्त एलन मस्क टेस्ला नाम की एक दूसरी कंपनी भी चलाते हैं। यह कंपनी पेट्रोल या डीजल से नहीं, बल्कि प्रदूषणरहित बैटरी-आधारित ऊर्जा से चलने वाली कारों का निर्माण करती है। गौर करने वाली बात यह है कि कुछ दिन पहले स्पेसएक्स ने अंतरिक्ष में फंसे कुछ यात्रियों को वापस धरती पर लाने में अपनी सुविधाएं देकर दुनिया भर में वाहवाही बटोरी थी; वहीं दूसरी ओर मस्क की कंपनी टेस्ला द्वारा उत्पादित प्रदूषणरहित कारों की सार्वजनिक मंच से प्रशंसा करके ट्रम्प ने उन्‍हें हरित पूंजीवाद के मसीहा के तौर पर स्थापित करने की कोशिश की।

इस संदर्भ में रिपोर्टर्स कलेक्टिव की एक रिपोर्ट का संदर्भ लें, तो ‘चित भी मेरी पट भी मेरी’ के मुहावरे को फलीभूत करने वाले एलन मस्क के भारतीय समकक्ष गौतम अदाणी ने कुछ ही दिन पहले सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी की मदद से कथित रूप से एक घोटाला कर के भारत के बहुत सारे सौर ऊर्जा संयंत्रों का एकमुश्त ठेका प्राप्त कर लिया था।

जैसे, एक दक्षिणपंथी अर्थशास्त्री सिगरेट बनाने वाली कंपनियों पर लोगों की सेहत खराब करने के आरोप के चलते इन कंपनियों पर अतिरिक्त टैक्स लगाने की कार्यवाही पर तर्क दे सकता है कि चूंकि सिगरेट पीने से नागरिकों की आयु कम हो जाती जिससे दीर्घकालिक तौर पर राज्य को नागरिकों के स्वास्थ्य पर कम पैसा खर्च करना पड़ता है, इसलिए सिगरेट निर्माताओं के ऊपर अतिरिक्त टैक्स लगाने के बजाय उचित होगा कि राज्य सिगरेट बनाने वाली कंपनियों को आयकर में छूट प्रदान करे; ठीक वैसे ही हरित पूंजीवादियों के लिए हरित पूंजीवाद के फायदे गिनाकर मुनाफे के लिए तर्क गढ़ना बहुत आसान काम है। ऊपरी तौर पर सैद्धांतिक तर्क प्रतीत होने वाले हरित पूंजीवाद के कुतर्कों को समय रहते बेपर्द किया जाना बहुत जरूरी है।

पारंपरिक पूंजीवाद की ही तरह चूंकि हरित पूंजीवाद भी मुनाफे के गणित पर टिका हुआ है, इसलिए वर्तमान में भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के सबसे पुराने अमेरिका जैसे लोकतंत्र के लिए भी हरित पूंजीवाद बेहद हानिकारक सिद्ध हो रहा है। जब वर्तमान में हरित पूंजीवाद से होने वाले लाभों की चर्चा बहुत जोर-शोर के साथ की जा रही है, समय रहते यह जरूरी है कि जनता के बीच इस बात की समझ विकसित की जाय कि प्रथमदृष्टया लाभकारी प्रतीत होने के अतिरिक्त हरित पूंजीवाद किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए बहुत सारी समस्याएं खड़ी कर सकता है।


[आवरण चित्र: कार्तिक त्रिपाठी]


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