Ideas

Pope Francis

अर्थशास्त्र की रोगग्रस्त आत्मा के ‘पापमोचन’ का आह्वान करने वाला एक धर्माचार्य

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कैथोलिक चर्च के सबसे बड़े धमार्चार्य पोप फ्रांसिस का बीते 21 अप्रैल को निधन हो गया। उनके 12 साल लंबे कार्यकाल का एक कम उजागर पक्ष उनके बदलावकारी आर्थिक विचारों में जाहिर होता है, जहां वे मौजूदा दुनिया को चलाने वाले आर्थिक विचार को गरीबों का हत्‍यारा करार देते हैं और अर्थशास्त्रियों से लोकमंगल के लिए काम करने का आह्वान करते हैं। पर्यावरण संकट से लेकर सामाजिक असमानता तक सबकी जड़ अर्थशास्‍त्र में देखने वाले फ्रांसिस की आर्थिक आलोचना पर अंतरा हालदर की टिप्‍पणी

Aristotle

भ्रमित नैतिकता और खंडित नागरिकता के इस दौर में अरस्तू कैसे प्रासंगिक हैं

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एक अच्‍छे जीवन का मतलब क्‍या होता है, इस पर विचार करते हुए अरस्‍तू ने एक रूपरेखा प्रस्‍तुत की थी। नैतिक्र भ्रम और नागरिक विखंडन के हमारे दौर के लिए वह रूपरेखा बहुत प्रासंगिक है। उन्‍होंने पहले ही देख लिया था कि हमारे बीच उभरने वाले तमाम मतभेदों के मूल में दरअसल उद्देश्‍य, आपसदारी और प्रतिष्‍ठा की एक साझा आस छुपी हुई है। इक्‍कीसवीं सदी के इनसानी, समाजी और सियासी संकट पर अरस्‍तू के यहां से एक वैचारिक और व्‍यावहारिक रास्‍ता बता रही हैं अंतरा हालदर

Plato and manuscript from the 3rd century AD, containing fragments of Plato's Republic.

US चुनाव: असमानता और लोकतंत्र के रिश्ते पर 2300 साल पुराने राजनीतिक दर्शन का एक सबक

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अमेरिका के राष्‍ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के प्रत्‍याशी और पूर्व राष्‍ट्रपति‍ डोनाल्‍ड ट्रम्‍प की 5 नवंबर को हुई जीत से कुछ लोग अब तक चौंके हुए हैं। इस जीत के राजनीतिक कारणों से इतर, लोकतंत्र की राजनीति से जुड़ी कुछ पुरानी दार्शनिक स्‍थापनाएं भी हैं जो ट्रम्‍प की वापसी को स्‍वाभाविक रूप से देख-समझ रही हैं। येल युनिवर्सिटी में दर्शनशास्‍त्र के प्रोफेसर जेसन स्‍टैनली ने बहुत संक्षेप में समझाया है कि अमेरिका में चुनावों के रास्‍ते लोकतंत्र का पतन अवश्‍यम्‍भावी क्‍यों था।

Fredric Jameson

फ्रेडरिक जेमसन: पुरानी दुनिया और नए युग के वैचारिक जगत को जोड़ने वाला अंतिम सिरा

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आज से बीसेक दिन पहले फ्रेडरिक जेमसन शायद इकलौते जीवित शख्‍स थे जिन्‍होंने एक सदी के दौरान बदलती हुई हमारी दुनिया को न सिर्फ देखा और महसूस किया था, बल्कि राजनीति, वैचारिकी, संस्‍कृति से लेकर बौद्धिकता के विभिन्‍न क्षेत्रों में हुए बदलावों की सघन पड़ताल करते हुए विपुल लेखन भी किया। वे पुरानी और नई दुनिया के बीच एक वैचारिक पुल थे, जो बीते 22 सितंबर को चल बसे। इस दुनिया को दिए उनके वैचारिक योगदान के आईने में प्रतिष्ठित दार्शनिक स्‍लावोइ ज़ीज़ेक ने उन्‍हें याद किया है। ज़ीज़ेक का जेमसन पर लिखा स्‍मृतिलेख यहां अविकल प्रस्‍तुत है

gayatri chakravorty spivak

JNU विवाद : दक्षिणपंथ की मिट्टी में दफन हो रहा पहचान का कफन

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JNU में कुछ अच्‍छा हो या बुरा, सब कुछ विवाद का विषय बन जाता है। पिछले कुछेक साल से यह रोग इस विश्‍व-प्रसिद्ध युनिवर्सिटी को लग चुका है। कहां तो गायत्री चक्रवर्ती स्पिवाक के यहां आने और उनके दिए व्‍याख्‍यान पर बात होनी चाहिए थी, और कहां एक छात्र की प्रतिवाद में उठी उंगली खबर बन गई। पाले बंट गए। गाली-गलौज शुरू हो गई। बौद्धिक विमर्श की परंपरा वाला एक परिसर आखिर इस पतन तक कैसे पहुंचा? ताजा विवाद के अधूरे पहलुओं पर प्रकाश डाल रहे हैं अतुल उपाध्‍याय

आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के राजकाज के पांच वैश्विक सिद्धांत: AI पर UN की अंतरिम रिपोर्ट

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तेलंगाना में कल्‍याणकारी योजनाओं के लाभार्थियों की पहचान में आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (AI) के इस्‍तेमाल के कारण दस लाख से ज्‍यादा लोग यानी हजारों परिवार भोजन से वंचित रह गए और करीब डेढ़ लाख नए आवेदन खारिज कर दिए गए। सरकारों के राजकाज में AI के प्रयोग का जोखिम अब साफ दिखने लगा है। ऐसे में संयुक्‍त राष्‍ट्र की एक उच्‍चाधिकार प्राप्‍त समिति ने पिछले महीने AI के वैश्विक राजकाज के पांच सिद्धांत अपनी अंतरिम रिपोर्ट में सामने रखे हैं। प्रोजेक्‍ट सिंडिकेट के विशेष सहयोग से इयान ब्रेमर और अन्‍य की रिपोर्ट

Bombard the Media: 1992 के बाद बौद्धिक हस्तक्षेप के संकट पर आनंदस्वरूप वर्मा से बातचीत

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महज तीस साल पहले की बात है जब दो पत्रकारों की पहल पर दिल्‍ली से पांच दर्जन लेखक, पत्रकार और बुद्धिजीवी ट्रेन पकड़ कर प्रतिरोध मार्च निकालने लखनऊ निकल लिए थे। यह 6 दिसंबर, 1992 के ठीक दो हफ्ते बाद हुआ था। सारे अखबारों ने इस प्रतिरोध और सभा की न केवल कवरेज की थी, पूर्व सूचना भी छापी थी। तब देश भर में प्रदर्शन हुए थे। आज ऐसा बौद्धिक दखल नदारद है। क्‍या हुआ है इन तीन दशकों में? दिल्‍ली से लखनऊ गए जत्‍थे के संयोजक वरिष्‍ठ पत्रकार आनंदस्‍वरूप वर्मा से फॉलो-अप स्‍टोरीज के लिए अभिषेक श्रीवास्‍तव की बातचीत

नए दौर के नकली नायक: डॉ. रघुराम राजन

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हर दुनिया में और हर दौर में कुछ ऐसे नायक पैदा होते हैं जो नकली होते हैं। इनका पता समय रहते नहीं लगता। समय बीत जाने के बाद इनकी गांठें खुलती हैं। तब तक बहुत देर हो चुकी होती है। कोरोना महामारी के बाद आज जो नई दुनिया हम अपनी आंखों के आगे बनती देख रहे हैं, उसने भी कुछ नए नायक पैदा किए हैं। ये नायक एकबारगी जनता की बात करते दिखते हैं, लेकिन उनकी प्रेरणाएं और मंशाएं अपने कहे से उलट होती हैं। ऐसे ही व्यक्तियों के ऊपर नए साल में हम ‘नए दौर के नकली नायक’ नाम से एक श्रृंखला शुरू कर रहे हैं। पहली कड़ी मशहूर अर्थशास्त्री डॉ. रघुराम राजन के ऊपर मुशर्रफ अली की कलम से

‘बुराई को रोजमर्रा की मामूली चीज बना दिया गया है और चेतावनी का वक्त जा चुका है’!

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अपने निबंध संग्रह ‘आज़ादी’ के फ्रेंच अनुवाद के लिए अरुंधति रॉय द्वारा 2023 यूरोपियन एस्से प्राइज़ फ़ॉर लाइफ़टाइम एचीवमेंट स्वीकार करते समय लौज़ान, स्विट्ज़रलैंड में दिए गए भाषण के प्रासंगिक अंश। अनुवाद रेयाज़ुल हक़ ने किया है।