यूनीक आइडेंटिफिकेशन (यूआइडी)/आधार संख्या से जुड़े मुकदमे में 24 अगस्त, 2017 को नौ जजों की संविधान पीठ द्वारा दिए गए 547 पन्ने के ऐतिहासिक एकमत फैसले में ‘जनगणना’ का संदर्भ तीन बार आया है। इसका मुख्य आदेश जस्टिस डीवाइ चंद्रचूड़ द्वारा लिखा गया था। इसी मुकदमे में पांच जजों की संविधान पीठ द्वारा 26 सितंबर, 2018 को दिए गए 1448 पन्ने के फैसले में ‘जनगणना’ शब्द नौ मौकों पर आया है। मुख्य आदेश जस्टिस एके सीकरी (अब अवकाश प्राप्त) ने लिखा था, उसे परिपुष्ट करने वाला आदेश जस्टिस अशोक भूषण (अवकाश प्राप्त) ने लिखा और असहमति वाला आदेश डॉ. चंद्रचूड़ ने लिखा था।
आदेश में यह मानते हुए कि आधार परियोजना से जुड़ी कुछ चिंताएं भारत में पहली बार सामने आई हैं, जनगणना पर विदेशी अदालतों की तुलनात्मक सुनवाइयों और आदेशों का जिक्र करना इसमें उपयुक्त समझा गया क्योंकि आधार कानून के तहत वर्णित आगामी डिजिटल जनगणना के कई उपाय विदेशों के समान हैं।
डॉ. चंद्रचूड़ का 481 पन्ने का लिखा आदेश जर्मन संघीय गणराज्य की संघीय संवैधानिक अदालत के एक आदेश का हवाला देता है जो जर्मन संघीय जनगणना कानून, 1983 को दी गई चुनौती से संबंधित है, जिसने निरंतर जनगणना का मार्ग प्रशस्त किया था। उनका आदेश बाद में 13 नवंबर, 2019 को पांच जजों की संविधान पीठ द्वारा रोजर मैथ्यू बनाम साउथ इंडियन बैंक के केस में दिए गए आदेश से परिपुष्ट होता है। ध्यान देने वाली बात है कि जस्टिस भूषण का लिखा आदेश भी निरंतर जनगणना के मामले में जर्मन कोर्ट के आदेश को संज्ञान में लेता है।
उक्त जर्मन कानून के तहत नागरिकों की मूलभूत निजी जानकारी संग्रहित की जानी थी जिसमें आय के स्रोत, पेशा, पूरक रोजगार, शैक्षणिक पृष्ठभूमि और काम के घंटे शामिल थे। कानून में कुछ ऐसे विशेष प्रावधान थे जो जनगणना के इन आंकड़ों को स्थानीय सरकारों को सौंपने की व्यवस्था करते थे जिसका उद्देश्य स्थानीय नियोजन, सर्वे, पर्यावरण संरक्षण और निर्वाचन जिलों का पुनर्गठन था। जर्मन अदालत ने स्थानीय सरकारों को आंकड़ों के हस्तांतरण वाला प्रावधान इस आधार पर समाप्त कर दिया कि इससे अधिकारियों को जनगणना के आंकड़े मकानों के पंजीयन से मिलाने की सहूलियत मिल रही थी। जर्मनी की अदालत ने माना कि जनगणना के आंकड़ों और निजी पंजीकरण का मेल विशिष्ट व्यक्तियों की पहचान को सहज बना देगा, जो सूचना के मामले में लोगों के आत्मनिर्णय के अधिकार के प्रतिकूल होगा।
जर्मनी की अदालत ने ऐसा करते हुए कहा कि आंकड़े के स्वतंत्र टुकड़ों को ‘दूसरे संग्रहित आंकड़ों के साथ मिलाकर व्यक्तियों की पूर्ण या आंशिक प्रोफाइल गढ़ी जा सकती है, खासकर तब जब व्यक्ति-केंद्रित एकीकृत सूचना प्रणाली विकसित की जानी हो’। यह एक ऐसा तंत्र खड़ा कर देगा जहां संबंधित व्यक्ति के पास ‘उसके सत्व और अनुप्रयोग को नियंत्रित करने का कोई साधन नहीं रह जाएगा’। अदालत ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया कि निजी या परिस्थितगत तथ्यों के बारे में व्यक्तियों के बयानात संग्रहित करने के प्रौद्योगिकीय साधन को ऑटोमैटिक डेटा प्रसंस्करण के साथ जोड़ा जा सकता है, जिसका अर्थ यह होगा कि व्यक्तियों के डेटा के प्रसंस्करण की सीमा असीमित है और दूरी चाहे कितनी भी हो, किसी का भी डेटा पलक झपकते ही निकाला जा सकेगा।
आगामी जनगणना पहली डिजिटल जनगणना होने वाली है और स्व-गणना का इसमें एक प्रावधान होगा। डेटा संग्रहण के लिए मोबाइल ऐप्स और जनगणना संबंधित विभिन्न गतिविधियों की निगरानी और प्रबंधन हेतु जनगणना का पोर्टल विकसित किए जा चुके हैं। सरकार ने 2021 में जनगणना कराने की अपनी मंशा 28 मार्च, 2019 की गजेट अधिसूचना में व्यक्त कर दी थी। उसके तुरंत बाद 31 जुलाई, 2019 को नागरिकता अधिनियम के अंतर्गत एक अधिसूचना गजेट में प्रकाशित की गई जिसके तहत जनगणना के पहले चरण के साथ जनसंख्या रजिस्टर को भी अद्यतन और तैयार किया जाना था, यानी मकानों की सूची और गणना, हालांकि कोविड-19 महामारी के आ जाने से 2021 की जनगणना, राष्ट्रीय जनसंख्या पंजीयक का अद्यतनीकरण और संबंधित फील्ड गतिविधियां अगले आदेश तक टाल दी गई हैं।
नित्यानंद राय, केंद्रीय गृह राज्य मंत्री, लोकसभा में 7 फरवरी, 2023
UPA का अधूरा एजेंडा
जस्टिस एके सीकरी ने अपने आदेश में यूआइडी/आधार परियोजना के मूल स्रोत को खंगालते हुए योजना आयोग की प्रोसेसेज कमेटी का संदर्भ दिया है जिसे 3 जुलाई, 2006 को गठित किया गया था। इसका काम गरीबी रेखा से नीचे जीने वाले परिवारों के लिए यूनीक आइडेंटिफिकेशन के माध्यम से बनाए गए कोर डेटाबेस में डेटा को अद्यतन करने, बदलने, जोड़ने और मिटाने की एक प्रक्रिया पर सुझाव देना था। इस कमेटी ने 26 नवंबर, 2006 को एक परचा प्रकाशित किया जिसका शीर्षक था ‘स्ट्रैटेजिक विजन: यूनीक आइडेंटिफिकेशन ऑफ रेजिडेंट्स’। यह उन शुरुआती दस्तावेजों में एक है जिसमें यूआइडी का जिक्र आता है।
यह 14 पन्ने का एक दस्तावेज है जिसे कथित रूप से विप्रो लिमिटेड ने तैयार किया था और योजना आयोग की प्रोसेसेज कमेटी को सौंपा था। इसे प्रोसेसेज कमेटी ने नहीं बनाया था, जैसा कि जस्टिस सीकरी अपने आदेश में लिखते हैं। यह दस्तावेज यूआइडीएआइ के चुनावी डेटाबेस के साथ करीबी संबंध को प्रस्तावित करता है। इसी स्ट्रैटेजिक दस्तावेज के आधार पर तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने 4 दिसंबर, 2006 को विशेषाधिकार प्राप्त मंत्रियों का एक समूह गठित किया। इसमें तत्कालीन संचार एवं सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री ए. राजा, यूआइडी के प्रभारी मंत्री और अन्य लोग शामिल थे। इसीलिए, यूआइडी/आधार परियोजना के मूल स्रोत को लेकर तथ्यात्मक रूप से गलतबयानी बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है।
विप्रो के बनाए इस दस्तावेज में चुनावी डेटाबेस के इस्तेमाल का जो जिक्र किया गया है, वह आज भी एजेंडे पर है। गौरतलब है कि वोटर आइडी को यूआइडी/आधार के साथ जोड़ने के कई आक्रामक प्रयास किए जा चुके हैं। जस्टिस सीकरी का आदेश विप्रो लिमिटेड का जिक्र तक नहीं करता जिसने यह दस्तावेज बनाया था, हालांकि यह दस्तावेज न्यायिक प्रक्रिया के तहत सरकार ने ही कोर्ट में जमा कराया था। अदालती सुनवाई से पहले तक यह विजन डॉक्युमेंट सार्वजनिक दायरे में उपलब्ध ही नहीं था। इस दस्तावेज का विजन स्टेटमेंट यानी दृष्टिकोण वक्तव्य कहता है: ‘’आम लोगों को विभिन्न कल्याणकारी व निजी सेवाओं की सक्षम, पारदर्शी, विश्वसनीय और प्रभावी डिलिवरी के लिए देश के सभी निवासियों का एक यूनीक आइडेंटिफिकेशन सिस्टम बनाना।‘’
इस दस्तावेज के मुखपृष्ठ पर कुछ संस्थानों और निजी फर्मों के नाम छपे हैं: नेशनल इंस्टिट्यूट फॉर स्मार्ट गवर्नमेंट, डिपार्टमेंट ऑफ इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी, विप्रो कंसल्टिंग तथा उन राज्यों के नाम जहां यूआइएडीआइ परियोजना के पाइलट (प्रायोगिक चरण) के डिजाइन व कार्यक्रम प्रबंधन चरण में विप्रो कंसल्टेंट की भूमिका निभा रहा है। नवंबर 2006 में आया यह पहला दस्तावेज था जो पहली बार यूआइडीएआइ का जिक्र करता है जबकि यूआइडीएआइ का जन्म करीब तीन साल बाद जनवरी 2009 में हुआ।
विप्रो के इस दृष्टिपत्र में चुनावी डेटाबेस के संबंध में जो कुछ कहा गया था, जस्टिस सीकरी के आदेश मे उसकी अनु्गूंज सुनाई देती है जहां यह कहा गया है कि ‘’यूआइडीएआइ को सुझाव देने और उसके काम को आगे बढ़ाने के लिए एक कोर समूह का गठन किया गया… इस कोर समूह की बैठक समय-समय पर होती रही। कोर समूह ने तय किया कि यूआइडीएआइ परियोजना को शुरू करने के लिए 2009 के चुनावी डेटाबेस से आरंभ करना बेहतर होगा।‘’ आदेश में आगे कहा गया है, ‘’इस दिशा में उठाया गया यह कदम और ऐसे ही अन्य कदमों की परिणति 2 जुलाई, 2009 को एक अधिसूचना के जारी होने में होती है जहां श्री नंदन निलेकणि को कैबिनेट मंत्री का दररजा देते हुए आरंभ के पांच वर्षों के लिए यूआइडीएआइ का अध्यक्ष नियुक्त किया गया। उन्होंने 24 जुलाई, 2009 को पदभार ग्रहण किया। इसके बाद 30 जुलाई, 2009 को यूआइडीएआइ पर प्रधानमंत्री की परिषण गठित की गई जिसने अपनी पहली बैठक 12 अगस्त, 2009 को की जिसमें यूआइडीएआइ के अध्यक्ष ने प्रस्तावित यूआइडी परियोजना की व्यापक रणनीति और नजरिये पर विस्तृत प्रस्तुति की।‘’
दिलचस्प है कि इनफोसिस लिमिटेड के सीईओ के पद से इस्तीफा देने और यूआइडीएआइ का अध्यक्ष बनने के महज बीस दिनों के भीतर वे ‘’प्रस्तावित यूआइडी परियोजना की व्यापक रणनीति और नजरिये पर विस्तृत प्रस्तुति’’ देने जितना सक्षम हो गए थे। उनके नियुक्ति पत्र में उन्हें सीईओ, इनफोसिस लिमिटेड संबोधित किया गया था। बाद में निलेकणि की अध्यक्षता वाले टेक्नोलॉजी एडवायजरी ग्रुप (टीएजीयूपी) ने जटिल आइटी सिस्टम्स और परियोजनाओं से निपटने के लिए नेशनल इनफॉर्मेशन युटिलिटीज (एनआइयू) गठित करने की सिफारिश की। इस टीएजीयूपी का संदर्भ विप्रो के बनाए और यूआइडीएआइ द्वारा प्रकाशित यूआइडीएआइ स्ट्रैटजी ओवरव्यू दस्तावेज में आता है।
राष्ट्रीय सुरक्षा का सवाल
यहां एक और ध्यान देने वाली बात है कि इनफोसिस लीडरशिप इंस्टिट्यूट (आइएलआइ) ने 2008 में एक जवाहरलाल नेहरू लीडरशिप इंस्टिट्यूट (जेएनएलआइ) बनाया था। इसका काम भारतीय युवा कांग्रेस और एनएसयूआइ को प्रशिक्षण देना था। मुख्य प्रशिक्षक थे जीके जयराम। जयराम की बेंगलुरु स्थित संस्था इंस्टिट्यूट ऑफ लीडरशिप एंड इंस्टिट्यूशनल डेवलपमेंट (आइएलआइडी) राजीव गांधी फाउंडेशन और राजीव गांधी इंस्टिट्यूट ऑफ कनटेंपररी स्टडीज की परामर्शदाता थी। इसके बाद ‘’हर स्तर पर निर्वाचित पदाधिकारियों (ईओबी) की पहचान और प्रचार करने की एक प्रणाली के तौर पर’’ एक वेब आधारित पहचान (आइडेंटिटी) मंच का गठन किया गया।
इस संबंध में लिए गए संकल्प में कहा गया है, ‘’प्रत्येक ईओबी को एक यूनीक आइडी और पासवर्ड दिया जाएगा ताकि वह संगठन के साथ हर स्तर पर अपने काम को साझा कर सके और जुड़ सके।‘’ युवा कांग्रेस और एनएसयूआइ के प्रशिक्षण के लिए तैनात किए गए मुख्य प्रशिक्षक जयराम पहले यूएस नेवी पोस्ट-ग्रेजुएट स्कूल से स्म्बद्ध थे और एटी एंड टी जैसी अमेरिकी फर्मों में काम कर चुके थे। ध्यान देने वाली बात है कि 2006 में इलेक्ट्रॉनिक फ्रंटियर फाउंडेशन ने एटी एंड टी के खिलाफ एक मुकदमा कर के उस पर आरोप लगाया था कि उसने नेशनल सिक्योरिटी एजेंसी (एनएसए) के एजेंटों को एटी एंड टी के ग्राहकों के फोन और इंटरनेट संचार बिना वारंट टेप करने की अनुमति दी थी, जो फॉरेन इंटेलिजेंस सरवेलांस ऐक्ट 1978 और अमेरिकी संविधान के पहले व चौथे संशोधन का उल्लंघन था।
इससे यह स्पष्ट होता है कि जिन लोगों ने भी तत्कालीन सत्ताधारी नेतृत्व के समक्ष यूनीक आइडेंटिटी का विचार परोसा था वे ऐसी विदेशी रक्षा और निजी फर्मों से सम्बद्ध थे जिनका अतीत दागदार था और गहन पड़ताल की मांग करता था। जस्टिस सीकरी भी मुकदमे के दौरान यूआइडीएआइ के साथ घरेलू और विदेशी निजी फर्मों के कुसंबंधों को भेद नहीं पाए क्योंकि उन्होंने अव्वल तो उस कंपनी का नाम ही अपने आदेश में नहीं लिया जो यूआइडी के रणनीतिक दृष्टिकोण की जनक थी।
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इस संदर्भ में यह भी ध्यान देने लायक बात है कि अगस्त 2016 में भारत के महालेखा परीक्षक और नियंत्रक (कैग) ने रिपोर्ट दी थी कि भारत के तीसरे सबसे बड़े सॉफ्टवेयर निर्यातक विप्रो को यूआइडीएआइ में सक्षक प्राधिकारी की ओर से 4.92 करोड़ रुपये का ‘अवांछित लाभ’ हासिल हुआ है। यूआइडीएआइ द्वारा विप्रो को मई 2011 में एक ठेका दिया गया था जिसके अंतर्गत उसे यूआइडीएआइ के बेंगलुरु और दिल्ली/एनसीआर डेटा सेंटर में सिक्योरिटी सिस्टम इंस्टॉल करने थे। इसके बदले में अवांछित लाभ हासिल करने के साथ ही ऐसा लगता है कि विप्रो ने यूआइडीएआइ परियोजना पर रणनीतिक दस्तावेज तैयार के अपने लिए कारोबारी अवसर सुनिश्चित करने की कोशिश की, जो कि हितों के टकराव का ज्वलंत उदाहरण है।
चूंकि प्रधानमंत्री की यूआइडीएआइ परिषद ही सीधे तौर पर यूआइडी/आधार परियोजना के कार्यान्वयन को देख रही थी, तो यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि उस वक्त प्रधानमंत्री ने कहा क्या था। उन्होंने कहा था, ‘’हम लोग अनिश्चय भरी एक दुनिया में जी रहे हैं, जहां कैग हो या फिर संसदीय समिति, वे सभी घटना घट जाने के बाद ही उसका विश्लेषण करते हैं। उनके पास कहीं ज्यादा तथ्य मौजूद हैं जो उनके पास नहीं थे जिन्होंने फैसले लिए।‘’
यूआइडीएआइ जैसी विवादित संस्था के अस्तित्व के इतने बरस बाद जस्टिस सीकरी को अपने फैसले में विप्रो जैसी निजी कंपनियों के नाम छोड़ने के बजाय कैग से यूआइडीएआइ के काम का विश्लेषण करने और यूआइडीएआइ के प्रमुख पदाधिकारियों द्वारा निजी फर्मों को दिए ठेके के बारे में पूछने को कहना चाहिए था, जो कि बाद में कैग की निगरानी के दायरे में आ ही गए। इस लिहाज से विप्रो का केस हिमखंड की बस सतह भर है, जिसे कैग ने पकड़ लिया।
नागरिकों के डेटा की चोरी को लेकर चिंताओं के चलते कई राज्य सरकारों ने राष्ट्रीय जनसंख्या रजिस्टर के लिए डेटा संग्रहण का काम रोक दिया। डर यह है कि एनपीआर के तहत मांगी गई जानकारी का दायरा बहुत व्यापक है और इसका इस्तेमाल समाज के किसी भी तबके को निशाना बनाने में किया जा सकता है।
जनगणना के नाम पर साजिश?
एनपीआर विरोधी लोगों को इस बात का अहसास नहीं है कि उससे डरने के कुछ और ठोस कारण भी हैं क्योंकि एनपीआर महज जनगणना की कवायद नहीं है बल्कि डेटा एकीकरण का एक वृहद षडयंत्र भी है। एनपीआर का आधार संख्या से जुड़ाव यहां केंद्रीय भूमिका निभा रहा है।
वास्तव में, गृह मंत्रालय के तहत एनपीआर और इलेक्ट्रॉनिक्स व सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय के तहत यूआइडीएआइ के यूआइडी/आधार का सीआइडीआर, दोनों का संयुक्त लक्ष्य एक ऐसा तंत्र विकसित करना है जो मौजूदा और भविष्य के मतदाताओं की एकतरफा जासूसी कर सके। इन मतदाताओं को व्यवस्थात्मक रूप से बाध्य किया जा रहा है कि वे अपनी ही निरंतर और अनंत प्रफाइलिंग और जासूसी की एक अनैतिक व अवैध कवायद के लिए खुद अपनी सहमति दे डालें।
इन दोनों कवायदों ने इस देश में पैदा होने वाले हर बच्चे को संदिग्ध बना डाला है। हर एक नागरिक की एक फाइल बनाई जा रही है जिससे उसे ट्रैक किया जा सके और उसकी प्रोफाइल बनाई जा सके। जिस तरह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अपने विरोधियों को उनकी फाइल पास होने की धमकी देते हैं, उसी तरह यूआइडी/आधार और एनपीआर अपने आप देश के सभी निवासियों की फाइल बना देता है। इस साजिश में बच्चों और नवजात को भी नहीं बख्शा जाता है।
यूआइडीएआइ का गोपनीय दस्तावेज इस बात का खुलासा करता है कि ‘’विशिष्ट पहचान संख्या का प्रयोग सभी सरकारी और निजी एजेंसियां कर सकें, यह सुनिश्चित करने का एक तरीका यह है कि बच्चे के जन्म प्रमाणपत्र में ही उसे डाल दिया जाए। चूंकि जन्म प्रमाणपत्र पहचान का मूल दस्तावेज होता है तो यह संभव है कि उक्त संख्या उस व्यक्ति की जिंदगी के तमाम अहम पड़ावों पर उसकी पहचान के काम आएगी, जैसे स्कूल में दाखिला, टीकाकरण, मतदान, इत्यादि।‘’
ध्यान देने वाली बात है कि आधार डेटाबेस को चुनावी डेटाबेस के साथ मिलाने पर सभी राजनीतिक दलों की सहमति लेने के लिए कभी भी सर्वदलीय बैठक नहीं बुलाई गई। इससे साफ होता है कि कंपनी कानून, 2013 में चुनावी बॉन्ड का प्रावधान और मतदाता पहचान संख्या के साथ आधार संख्या का संगम दरअसल आधार और निर्वाचन डेटाबेस को आपस में मिलाने की ही कवायद है, जो वर्तमान और भविष्य की पीढि़यों के सभी राजनीतिक और नागरिक अधिकार खत्म कर देगा।
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वित्त विधेयक 2017 और 2018 के माध्यम से गढ़े गए अदृश्य दानदाताओं की तनाशाही से इस देश के मौजूदा नागरिकों और भविष्य के भारतीयों को बचा पाने का एक मौका जस्टिस सीकरी ने अपने आदेश में गंवा दिया। इसने राष्ट्रीय सुरक्षा और तकरीबन सभी सार्वजनिक संस्थानों को दांव पर लगा दिया है। अपने आदेश से उन्होंने भारत में रह रहे नागरिकों और निवासियों को एक ऐसे कानूनी तंत्र के भीतर उघाड़ कर अरक्षित बना डाला जहां नकली और अपारदर्शी व्यक्तियों व कॉरपोरेटों को कानूनी सुरक्षा मिली हुई है। उनके आदेश ने यह कह कर ऐतिहासिक भूल कर दी है कि नागरिकों के प्राकृतिक और मानव अधिकार सशर्त बरते जा सकते हैं। सरकारों के नियंत्रण से बाहर जा चुकी प्रौद्योगिकीय कंपनियों ने अपने असीमित और अदृश्य चंदे से राजनीतिक दलों को अपनी कठपुतली बना लिया है। इन्हीं कंपनी के मालिकान की शह पर सरकार लोगों के मानव अधिकारों और प्राकृतिक अधिकारों को दांव पर लगा रही है।
यही वह अनिवार्य वजह है कि राज्यों को यूआइडीएआइ के साथ किए अपने समझौतों को रद्द कर देना चाहिए और आधार व एनपीआर दोनों ही कवायदों को तत्काल रोक देना चाहिए। एक असीमित सरकार को रोकने के लिए यह आवश्यक है- एक ऐसी सरकार तो न तो भारत के संविधान से बंधी होगी न ही किसी किस्म की संवैधानिकता से। आधार डेटाबेस योजना दरअसल छुपी हुई एक अनवरत जनगणना का नाम है, जो जनता की व्यापक निगरानी और जासूसी को अलग-अलग छद्म रूपों में तमाम किस्म के चारे फेंक कर साकार कर रही है।
नागरिकों के डेटाबेस और राष्ट्रीय डेटा परिसंपत्तियों को विदेशी इकाइयों के हाथ में सौंपे जाने की जांच करने के लिए उच्चस्तरीय आयोगों का गठन किए जाने की जरूरत है। नागरिक अधिकारों पर हमले और स्वचालित पहचान, बिग डेटा माइनिंग व आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस के समक्ष विधायिका और न्यायपालिका को पंगु बनाने वाली सत्ता के उभार की मौजूदा सूरत में जस्टिस सीकरी का दिया फैसला संविधान की अवमानना करता है और उसे आत्मार्पित करने वाले भारत के नागरिकों की सम्प्रभुता से समझौता करता है। सात जजों की संविधान पीठ ने यदि उस आदेश को नहीं पलटा, तो भारत की सामाजिक नीतियां भविष्य में बायोमीट्रिक और जेनेटिक प्रणालियों से उपजी नियति तथा घोषित रूप से अलोकतांत्रिक और गैर-जवाबदेह संस्थाओं के मुनाफाखोर मालिकान की नस्ली सोच के अधीन हो जाएंगी।
एक ऐसा देश जहां तीन-तीन प्रधानमंत्रियों की हत्या के लिए और देश की गोपनीय सूचनाओं से छल के लिए कभी किसी खुफिया अधिकारी या प्रमुख को जवाबदेह नहीं ठहराया गया, वहां क्या यह उम्मीद की जा सकती है कि जिन्होंने भी भारत की डेटा सुरक्षा के साथ खिलवाड़ किया है, उन्हें यहां के वर्तमान और भावी नागरिकों, मंत्रियों, जनप्रतिनिधियों, सैनिकों और जजों का संवेदनशील डेटा बाहरियों के हाथों में सौंपने के देशद्रोही कर्म के लिए जिम्मेदार करार दिया जाएगा?