अब यह बात स्थापित हो चुकी है कि भारत मंदी की चपेट में आ रहा है। तमाम उद्योगपतियों से लेकर बड़े औद्योगिक घरानों तक ने बयान जारी कर इस विषय पर सरकार का ध्यान आकृष्ट करने की असफल कोशिश की है। टेक्सटाइल और चाय उद्योग ने मंदी की खबरें न दिखाए जाने से तंग आ कर विज्ञापन ही दे डाला। अर्थशास्त्री रघुराम राजन ने भी इस विषय को मुखर तौर से उठाया है। याद रहे कि राजन ही थे जिन्होंने 2007-08 की आर्थिक मंदी से साल भर पहले ही अमरीकी बैंकरों को चेता दिया था। मंदी से औद्योगिक उत्पादन लगातार गिर रहा है और नौकरियां जा रही हैं। बेरोज़गार हो चुके मज़दूर पैसे की तंगी से व्याकुल हैं पर सरकार पर कोई असर होता नहीं दिख रहा।
पिछले माह वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही का अंत हुआ और इस माह की शुरुआत से ही औद्योगिक इकाइयों के आंकड़े आने लगे। चूंकि मंदी (रिसेशन) के आंकड़े इतने व्यापक रूप से मौजूद हैं इसलिए हर एक का विस्तृत वर्णन करने से खास लाभ नहीं, फिर भी परिप्रेक्ष्य स्थापित करने के उद्देश्य से बड़े आंकड़ों का जिक्र कर देना उचित होगा।
इसी माह आयी राजस्व विभाग की रिपोर्ट के मुताबिक राज्यों के राजस्व में भारी गिरावट दर्ज हुई है, जो कई राज्यों के लिए 20 फीसदी तक है। सबसे बडी विसंगति यह है कि जिन राज्यों में औद्योगिक कार्य सबसे कम होते हैं, उन्हीं ने सबसे ज़्यादा कर्ज़ राजकोष में जमा किया है। इनमें बिहार, झारखंड, असम, उत्तराखंड प्रमुख हैं, जबकि दक्षिण भारत के कमोबेश विकसित राज्य सबसे कम राजस्व की उगाही कर पाये हैं।
शेयर बाज़ार में लिस्टेड सभी कम्पनियों ने अपने परिणाम सार्वजनिक कर दिए हैं। ये परिणाम भी रिसेशन की ओर ही इशारा कर रहे हैं। शेयर बाज़ार में विदेशी संस्थागत निवेशकों की हिस्सेदारी सबसे अधिक है और उनके पास बेहतर अनुसंधान भी उपलब्ध हैं। डेटा से साफ हो चला है कि विदेशी निवेशक भारतीय शेयर बाज़ार से भारी मात्रा में पैसे निकाल रहे हैं। शेयर बाज़ार रिसेशन से तुरंत पहले तक नहीं गिरता पर पिछली तिमाही में भारतीय बाजारों ने लगातार गिरावट दर्ज की है और कई लाख करोड़ की पूंजी डूब चुकी है। मिड कैप, स्माल कैप, मेटल, पावर, आयल-गैस, मैनुफैक्चरिंग, आटोमोबाइल, बैंक, एनबीएफसी समेत चौतरफा कमज़ोरी आयी है। केवल पिछ्ले एक साल को ही देखें तो में मार्केट कैप में आया बदलाव डरा देने वाला है।
रिसेशन (मंदी) किसी अर्थव्यवस्था में वह दौर होता है जब अर्थव्यवस्था के प्रमुख अंगों में आर्थिक क्रियाकलाप कम होने लगते हैं। यह दौर कुछ महीनों से लेकर वर्षों तक चल सकता है और इसके विस्तार के अनुरूप इसका असर जीडीपी, आय, रोज़गार, औद्योगिक उत्पादन और थोक-खुदरा बिक्री में प्रत्यक्ष दिखता है। इस दौर में अर्थव्यवस्था का बढ़ना बंद हो जाता है या वह सिकुड़ने लगती है। जीडीपी का लगातार दो तिमाही तक कम होना, बेरोज़गारी का बढ़ना और घर की कीमतों में गिरावट आना भी मंदी का संकेत है।
जीडीपी बढ़ने की दर
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भारत की जीडीपी लगातार वित्त के जानकारों के लिए कौतूहल का विषय बनी हुई है। जीडीपी की गणना के आधार को मौजूदा सरकार ने बदल दिया था जिसके चलते यूपीए शासन के मुकाबले वह बेहतर दिखने लगी थी। उक्त विषय पर पूर्व वित्तीय सलाहकार द्वारा एक रिसर्च पेपर प्रकाशित किया गया है जिसमें उन्होंने सरकारी आंकड़ों का अध्ययन किया है। उनके पेपर के मुताबिक असल जीडीपी 4.5 फीसदी के आसपास है जिसे सरकार आंकड़ों के खेल से 7 फीसदी बता रही है।
अनुमानित फिस्कल डेफिसिट पहले ही चिंता का विषय था। वित्तीय विश्लेषक लगातार इस बात पर लिखते रहे हैं। देश का डेफिसिट पहले दो महीनो में ही सालाना अनुमान के आधे से ऊपर जा पहुंचा है इसलिए इस सरकारी अनुमान को और बढा दिया गया है। पर अब भी संदेह है कि वास्तविक फिस्कल डेफिसिट इस नये अनुमान से भी कहीं ज़्यादा होगा।
फिस्कल डेफिसिट
एनएसएसओ और सीएमआईई, दोनों के डेटा के मुताबिक बेरोज़गारी अब 45 वर्षों के उच्चतम स्तर पर है। बेरोज़गारों में पढे लिखे युवाओं की संख्या सबसे ज़्यादा है। देश में लगभग 4 करोड़ रजिस्टर्ड बेरोज़गार हैं।
मंदी के विस्तार के साथ 2018 में एक करोड़ लोगों की नौकरी चली गई है, साथ ही 2019 में अभी तक पचास लाख लोग अपनी नौकरियां गंवा चुके हैं। यह आंकड़े प्रत्यक्ष रूप से गंवाई गई नौकरियों के हैं। अप्रत्यक्ष रूप से नुकसान कहीं ज़्यादा है।
बेरोज़गारी दर
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युवा बेरोज़गारी दर
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तनख्वाह और दैनिक मज़दूरी में गिरावट दर्ज़ की गई है। इसमें भी अनस्किल्ड मज़दूरों पर सबसे ज़्यादा असर हुआ है।
मजदूरी दर – कम कुशल मजदूर
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विदेशी कर्ज़ लगातार बढ रहा है।
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एनपीए से लदे हुए सरकारी बैंकों ने- जो सबसे ज़्यादा लोगों को सेवाएं देते हैं- लोन देना कम कर दिया है। कुछ को तो आरबीआइ ने ही लोन न देने के आदेश दिए हैं। पूरा एनपीए प्रकरण अपने आप में एक घोटाला है जिस पर मेरा विस्तृत लेख यहां पढ़ा जा सकता है।
ऋण वृद्धि
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बैलेंस आफ ट्रेड वह आंकड़ा होता है जो किसी देश के आयात और निर्यात के अनुपात को दिखलाता है। चूंकि औद्योगिक उत्पादन में भारी कमी आयी है इसलिए निर्यात भी घटा है जिसका प्रमाण घटते बैलेंस आफ ट्रेड में दिख रहा है।
व्यापार संतुलन
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भारत के उत्पादों की लागत लगातार बढ़ी है जिस वजह से देश अब भारत से आगे निकल चुके हैं। मिसाल के तौर पर टेक्सटाइल उद्योग में भारत का निर्यात इस वर्ष 30 फीसदी तक कम हुआ है, वहीं वियतनाम और बांग्लादेश जैसे कई छोटे देशों का निर्यात लगातार बढ़ रहा है।
औद्योगिक उत्पादन
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सरकार के लाख दावों के बावजूद एफडीआई में लगातार आ रही गिरावट अब भी जारी है। ध्यान देने वाली बात यह है की एफडीआई के डेटा में वे लोन भी शामिल हैं जो विदेशी कम्पनियों ने देश के बैंकों से लिये थे।
एफडीआई (Inflow) – जीडीपी के प्रतिशत में
इन सब आंकड़ों के साथ घरेलू खर्च भी कम हो रहा है। हालिया रिपोर्ट के मुताबिक भारतीय पुरुषों नें अंतःवस्त्र खरीदना कम कर दिया है। भले ही इस खबर को हंसी-मज़ाक में लिया गया हो पर सभी को पता है कि अंतःवस्त्र मूल आवश्यकताओं जैसे ही हैं। उनकी बिक्री में कमी आना गम्भीर वित्तीय संकट की ओर इशारा करता है। इससे यह भी साफ होता है की घरेलू खर्च में कमी आयी है और लोग सिर्फ बेहद ज़रूरी चीज़ों पर ही खर्च कर रहे हैं। यही हाल सरकारी खर्च का भी है। सरकारी खर्च और जीडीपी के अनुपात में भारी कमी आयी है।
सरकारी खर्च – जीडीपी के प्रतिशत में
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रिसेशन की वजह से ज़्यादातर उद्योगों का काम ठप हो जाता है। अगर कोई औद्योगिक इकाई बंद न हो तो उस उपक्रम को संसाधनों का पुन: आवंटन करना पड़ता है । इसमें प्रोडक्शन कम करना, कर्मचारियों की छंटनी करना, तनख्वाह या इंसेंटिव न देना आदि प्रमुख हैं। व्यापारिक त्रुटियों का एक साथ महसूस किया जाना और उन्हें कैसे टाला जा सकता है, इस पर अर्थशास्त्रियों ने कई अलग-अलग सिद्धांतों की पेशकश की है। ये आर्थिक सिद्धांत यह समझाने का प्रयास करते हैं कि अर्थव्यवस्था क्यों और कैसे अपने विकास की प्रवृत्ति को छोड़, अस्थायी तौर पर, मंदी में आ सकती है। इन सिद्धांतों को मोटे तौर पर आर्थिक कारकों, वित्तीय कारकों या मनोवैज्ञानिक कारकों के आधार पर वर्गीकृत किया जा सकता है।
उदाहरण के लिए, किसी भू-राजनीतिक संकट के कारण कच्चे तेल की कीमतों में अचानक आया उछाल एक साथ कई उद्योगों में लागत बढ़ा सकता है या फिर एक क्रांतिकारी नई तकनीक तेजी से किसी उद्योग को अप्रचलित कर सकती है। ये दोनों घटनाएं व्यापक रिसेशन को ट्रिगर कर सकती हैं। “रियल बिज़्नेस साइकिल थियरी” इन सिद्धांतों का सबसे अच्छा और आधुनिक उदाहरण है।
मुद्रास्फीति
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रिसेशन के अन्य प्रमुख कारणों में से एक है तेज़ी से बढ़ती महंगाई दर, जिसे मुद्रास्फीति या इनफ्लेशन कहा जाता है। मुद्रास्फीति का तात्पर्य किसी समय अवधि में वस्तुओं और सेवाओं की कीमतों में आयी वृद्धि से है। मुद्रास्फीति की दर जितनी अधिक होगी, हम पहले की तुलना में उतनी ही कम वस्तुओं और सेवाओं को खरीद पाएंगे। बढ़ती मुद्रास्फीति के माहौल में लोग खर्च में कटौती करते हैं और अधिक बचत करने लगते हैं। जीडीपी में गिरावट आती है और बेरोजगारी की दर बढ़ जाती है क्योंकि कंपनियां लागत कम करने के लिए श्रमिकों को काम देना बंद कर देती हैं (मुद्रास्फीति के आकलन के कई तरीके हैं पर सभी एक ही तरह का बदलाव दिखाते हैं)।
इसे समग्र रूप से समझने के लिये रेपो रेट के साथ महंगाई दर को भी देखना ज़रूरी है। जहां कम होती महंगाई दर को आम जनता के द्वारा सराहा जाता है वहीं मुद्रास्फीति का एक निश्चित स्तर के ऊपर रहना स्वस्थ आर्थिक व्यवस्था का सूचक है। यह संकेत होता है कि बाज़ार में माल की खपत आपूर्ति से ज्यादा है और ऊपरी तौर पर यह इस ओर भी इशारा करता है कि लोगों के पास खर्च करने के लिये पर्याप्त लिक्विडिटी है।
अब यह भी समझें कि भारत की मुद्रास्फीति लगातार कम हो रही है। शुरुआत में तो सरकार ने महंगाई कम करने के लिए खूब तालियां बटोरीं पर धीरे-धीरे यह साफ हो रहा है की महंगाई दर में आयी कमी दरअसल गहराते रिसेशन और कम होती मांग की वजह से है।
रिसेशन के कई अन्य कारण हो सकते हैं और यह भी सम्भव है कि बहुत सारे कारण एक साथ मौजूद हों। रिसेशन के कई प्रकारों में से एक, साइक्लिकल रिसेशन या चक्रीय मंदी है जिसकी वजह से लगभग हर दस साल में एक बार वैश्विक अर्थव्यवस्था बुरी तरह चरमरा जाती है। साइक्लिकल रिसेशन का असर सबसे ज्यादा विकसित अर्थव्यवस्थाओं पर दिखता है, पर बाकी देशों पर भी इसकी आंच तो आती ही है। ध्यान देने वाली बात यह कि इस बार की मंदी में ऐसा कोई कारण प्रत्यक्ष नहीं है। इसके विपरीत भारतीय रिजर्व बैंक चार बार लगातार रेपो रेट कम कर चुका है। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि अर्थव्यवस्था में तेज़ी आएगी पर रेपो रेट अत्यधिक कम करने से मुद्रास्फीति अचानक बढ़ भी सकती है। ओइसीडी के डेटा में ऐसा ही दिख रहा है।
मुद्रास्फीति बढने की दर – सीपीआइ
भारत की अर्थव्यवस्था में आये रिसेशन की वजह मुख्य तौर से सरकार की नीतियां हैं जिनसे सम्पूर्ण उद्योग जगत त्रस्त है। फिर चाहे वह जीएसटी का हड़बड़ी में लागू किया जाना हो या उसे लागू करने के बाद उसमें एक-एक कर किये गये सैकड़ों बदलाव। अभी देश नोटबंदी से उबरने के कगार पर ही था कि जीएसटी लागू कर दिया गया। इस बेतुके निर्णय से उपजे परिणाम को अब पूरा देश भुगत रहा है। दिये गये डेटा से यह साफ होता है कि जटिल प्रक्रियाओं के कारण कई लोग अपना जीएसटी सरेंडर कर चुके है और कई इस प्रक्रिया में हैं। दो साल पहले जमा किए गये बिलों की जांच नहीं हो पायी है जिससे धांधली और धोखाधड़ी की सम्भावना तो है ही, साथ ही सरकार का अब यह प्रयास है कि इनकम टैक्स विभाग के अधिकारियों को और अधिकार दिए जाएं। यह एक नए प्रकार के संकट, टैक्स टेररिज़म, की ओर इशारा करता है।
सरकार कई प्रमुख विषयों पर गौण दिखाई देती है, वहीं दूसरे विषयों पर दो खास उद्योगपतियों की पैरोकार के रूप में कार्य करती हुई दिखती है। ऐसे में उद्योग जगत में हाहाकार मचा हुआ है। लगभग 2000 करोड़पति पिछले पांच वर्षों में भारत से पलायन कर चुके हैं और सैकड़ों अन्य उसी राह पर दिख रहे है।
रिसेशन के जाने-माने उदाहरणों में संयुक्त राज्य अमेरिका का 2008 में उत्पन्न वित्तीय संकट है और 1930 का ग्रेट डिप्रेशन (महामंदी) है। इन दोनों मंदियों की वजह से वैश्विक रिसेशन के हालात उत्पन्न हो गए थे पर 1930 का रिसेशन 2008 वाले से कहीं बड़ा था। डिप्रेशन एक गहरा और लंबे समय तक चलने वाला रिसेशन है, हालांकि डिप्रेशन घोषित करने के लिए कोई विशिष्ट मानदंड मौजूद नहीं है पर ग्रेट डिप्रेशन की अनूठी विशेषताओं में जीडीपी में आई 10 फीसदी से अधिक की गिरावट और 25 फीसदी तक पहुंची बेरोजगारी की दर शामिल हैं।
विश्व भर में ये कयास लगाये जा रहे हैं कि इस बार की मंदी न केवल वैश्विक है बल्कि उससे उत्पन्न हालात 1930 के ग्रेट डिप्रेशन से भी खतरनाक होंगे। इसलिए इस बार की मंदी रिसेशन नहीं असल डिप्रेशन है!
मंदी तो दो साल से है, सरकार ने छुपाये रखा था!
हाल में ही आयी एक खबर से अमेरिकी शेयर बाज़ार में गिरावट दर्ज़ हुई। अमेरिकी ट्रेजरी का यील्ड कर्व अस्थायी रूप से बुधवार, 14 अगस्त को उलट गया। इस घटना को यील्ड कर्व इनवर्जन कहा जाता है। यह जून 2007 के बाद से पहली बार हुआ है और निवेशक इसे लेकर बहुत चिंतित हैं।
उलटा यील्ड कर्व एक ऐसे वातावरण को दिखाता है जिसमें कर्ज के दीर्घकालिक उपकरण (लंबी अवधि के बॉन्ड), उसी क्रेडिट गुणवत्ता वाले अल्पकालिक उपकरण (शार्ट टर्म बॉन्ड) की तुलना में कम रिटर्न देने लगते हैं। मौजूदा यील्ड कर्व इनवर्जन की वजह से दो वर्ष वाले बॉन्ड 10 वर्ष वाले बॉन्ड के मुकाबले ज़्यादा रिटर्न देने लगे। यील्ड कर्व इनवर्जन के तीन मुख्य प्रकारों में यह कर्व सबसे दुर्लभ है और इसे आर्थिक मंदी (रिसेशन) का पूर्वसूचक माना जाता है।
अमेरिकी यील्ड कर्व पिछले 50 वर्षों में हर बार रिसेशन से पहले उलट गया था। यील्ड कर्व उलटने के बाद अधिकतम दो वर्षों के भीतर अमरीकी अर्थव्यवस्था में रिसेशन आने का इतिहास रहा है और यह संकेत 10 में से 9 बार रिसेशन के संकेत के रूप में सही सिद्ध हुआ है। इसलिये निवेशक यह मान रहे हैं कि अमेरिका में जल्द हीं मंदी आने वाली है। इंटरनेशनल बिज़नेस मीडिया में भी यही खबर चल रही है कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था रिसेशन की ओर बढ़ रही है।
इस ऐतिहासिक सह-संबंध के कारण, यील्ड कर्व को अकसर आर्थिक चक्र में आने वाले परिवर्तन के सटीक पूर्वानुमान के रूप में देखा जाता है। उदाहरण के लिए, ज्यादा पीछे जाने की भी ज़रूरत नहीं है। अमेरिकी ट्रेजरी यील्ड कर्व पिछली बार 2007 में उलटा हो गया था जिसके ठीक बाद अमेरिकी इक्विटी बाजारों में भारी गिरावट आयी थी और अमेरिका मंदी की चपेट में आ गया था।
ऐसे में पूछा जाना चाहिए कि इस घटना के साथ भारत की अर्थव्यवस्था का क्या सम्बंध हो सकता है?
अमरीकी यील्ड कर्व उलटने से भारत की अर्थव्यवस्था का रिश्ता
अमरीकी ट्रेजरी यील्ड के सदृश भारत की आर्थिक प्रणाली में भारत सरकार के बॉन्ड हैं जो अलग-अलग अवधि की मैच्योरिटी वाले होते हैं और जीओआइ बॉन्ड के नाम से बिकते हैं। ध्यान रहे कि ये भारत सरकार के सेविंग बॉन्ड से भिन्न है। सेविंग बॉन्ड की ब्याज दर पूर्व-निर्धारित होती है। अब अगर जीओआइ बॉन्ड के ऐतिहासिक डेटा को देखें तो यह साफ हो जाता है कि भारत में यील्ड कर्व इंवर्जन पहले ही हो चुका है!! इस घटना को दो वर्ष से ज़्यादा बीत चुके हैं। इसलिए यह कहना कि हम मंदी की ओर जा रहे हैं सरासर बेईमानी है। कटु सत्य यही है कि हम मंदी में आ चुके हैं!
अब अगर आंकड़ों को फिर से देखें तो यह सभी इस बात की पुष्टि कर रहे हैं। भारत की इकॉनमी में रिसेशन आ चुका है और सबसे खतरनाक बात यह है कि मंदी का दौर भारत से शुरु हो रहा है।
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यील्ड कर्व इंवर्जन की परिघटना दरअसल भविष्य में कम ब्याज दरों की भविष्यवाणी भी है क्योंकि लंबी अवधि के उपकरणों का रिटर्न कम होने की वजह से उनकी मांग घट जाती है। अब ध्यान दें तो भारतीय रिजर्व बैंक लगातार रेपो रेट कम कर रहा है। इसके पीछे तर्क यह दिया जा रहा है कि लोग पैसा बैंक में डालने के बजाय बाज़ार में लगाएंगे और पूंजी कम ब्याज पर उपलब्ध होगी जिसके फलस्वरूप अर्थव्यवस्था में तेज़ी आएगी। रेपो रेट कम करने से मुद्रास्फीति कुछ समय के लिए बढी थी पर अब वह वापस कम होने लगी है। तो यह भी साफ हो चला है कि केवल रेपो रेट में कमी करने से इस भारी समस्या का समाधान नहीं होने वाला। साथ ही यह भी, कि सरकार को बखूबी पता है कि अर्थव्यवस्था में क्या हो रहा है।
दुनिया भर का हाल
प्रमुख एशियाई ऋण बाजारों में तो हमेशा से अमरीकी ट्रेजरी की चालों को प्रतिबिंबित करने का इतिहास रहा है इसलिए प्राथमिक रूप में यह आशंका भी है कि विश्व अर्थव्यवस्था मंदी के कगार पर है। मौजूदा वक्त में एशियाई बाजार यूएस और यूके के रुख पर नज़र रख रहे हैं क्योंकि निवेशक चीन और अमेरिका के व्यापार युद्ध से हो रहे नुकसान से बुरी तरह प्रभावित हैं। जहां जर्मनी का जीडीपी कमज़ोर हुआ है वहीं चीन का औद्योगिक उत्पादन भी निराशाजनक रहा है जो वैश्विक अर्थव्यवस्था की कमजोरी को प्रबलता से रेखांकित कर रहा है। निवेशक लंबे अवधि वाले सिक्योरिटीज़ की लगातार छंटनी कर रहे हैं क्योंकि ब्याज दरों में गिरावट जारी रहने का अनुमान है।
दुनिया की सबसे खुली अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में स्थापित सिंगापुर भी वैश्विक व्यापार की मंदी महसूस कर रहा है। सिंगापुर में दो और 10 साल की यील्ड के बीच का अंतर पिछले सप्ताह से कम हो गया है, जो नवंबर 2006 के बाद सबसे छोटा अंतर है। यानी वहां कभी भी यील्ड कर्व इंवर्जन हो सकता है। सिंगापुर की जीडीपी में पिछली तिमाही में 3.3 प्रतिशत की कमी आई, जो नरम होती मांग और इलेक्ट्रॉनिक्स क्षेत्र में मंदी की वजह से है।
मलेशिया में तीन साल के नोट की तुलना में 10 साल के नोट की यील्ड में गिरावट है। हालांकि बॉन्ड में किये गए निवेश ने मुद्रास्फीति में हालिया उतार-चढ़ाव को कम कर दिया है पर उम्मीद की है कि आने वाले महीनों में खपत कर में बदलाव के कारण कीमतों पर दबाव बढ़ेगा।
ऑस्ट्रेलिया का यील्ड कर्व सपाट रहा है, साथ ही स्थानीय यील्ड दबाव में हैं। जापान में, 1990 के दशक में देश के आर्थिक बुलबुले के फूटने के बाद पहली बार यील्ड कर्व उलटा हो रहा है। वहां के केंद्रीय बैंक की “यील्ड कर्व कंट्रोल पालिसी” बाजार की चाल को प्रभावित करने में एक बड़ी भूमिका निभाती है लेकिन तब भी स्थानीय नीति वैश्विक बदलावों से प्रतिरक्षा नहीं देती। इस संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता कि जापान भी जल्द ही कर्व इंवर्जन का शिकार होने वाला है।
हमारी उदासीनता और सरकार की लापरवाही
ऊपर दी गई जानकारियों से यह साफ है कि एक बहुत बड़ा पतन हो रहा है। भारतवासियों को ध्यान देने की ज़रूरत है क्योंकि आम जनता की आर्थिक मामलों के प्रति उदासीनता का पूरी तरह से फायदा उठाते हुए सरकार देश की अवाम को धोखा देने का काम कर रही है। हम इस वैश्विक पतन के ठीक बीचोबीच मौजूद हैं पर जहां दुनिया भर की सरकारें अपने देश को इस मंदी से प्रतिरक्षा देने के प्रतिबद्ध दिखाई देती हैं वहीं हमारी सरकार इस मामले में पूरी तरह लापरवाह दिख रही है। वर्ल्ड गोल्ड काउन्सिल दुनिया भर के सोने के कारोबार पर नज़र रखती है। उसके डेटा के मुताबिक रूस और चीन आने वाले मंदी के दौर के लिये स्वर्ण भंडार बढा रहे हैं, वहीं भारत सरकार देश के पैसे से विदेशी खज़ाना भर रही है।
अब एक और आंकड़े पर नज़र डाली जाए। ज़्यादातर देशों के केंद्रीय बैंकों में आयात के छह महीने के मूल्य के बराबर विदेशी मुद्रा भंडार रखने की प्रवृत्ति होती है क्योंकि विदेशी मुद्रा भंडार केवल चालू खाते के घाटे को पूरा करने के लिए आवश्यक है न कि पूरे आयात के लिए। इसमें भी हालांकि कई मत हैं क्योंकि यह निर्णय किसी अर्थव्यवस्था की मौजूदा स्थिति के आधार पर लिया जाता है। इस मापदंड के मद्देनजर भारत का विदेशी मुद्रा भंडार बहुत ही बड़ा है। अगर हम चालू खाते का घाटा जीडीपी के 7.5% भी पर मानें (जो कि बहुत अधिक है), तो लगभग 85 बिलियन डॉलर के विदेशी मुद्रा भंडार की आवश्यकता है जबकि भारत का वास्तविक भंडार 400 बिलियन डॉलर से ज़्यादा है। विदेशी मुद्रा भंडार भारत के कुल बाहरी ऋण के 80% के बराबर है। यह भी एक बहुत बड़ा अनुपात है।
जब रुपया डॉलर के मुकाबले अस्थिर होने लगता है तो विदेशी मुद्रा भंडार एक इंश्योरेंस के रूप में कार्य करता है पर भंडार को बनाये रखने की लागत बहुत ज्यादा है। जब आरबीआइ “स्पॉट” में (तुरंत डेलिवरी के लिये) डॉलर खरीदता है तो इससे भारतीय व्यवस्था में पैसा आता है और पैसा आने से महंगाई बढ़ती है। आरबीआइ नहीं चाहता कि महंगाई बढ़े इसलिए वह “स्पॉट” खरीद को “फॉरवर्ड” (देरी से डेलिवरी लेने का कांट्रेक्ट) में परिवर्तित करता है, पर फॉरवर्ड कांट्रेक्ट पर प्रीमियम का भुगतान करना होता है जो कि एक प्रत्यक्ष लागत है।
विदेशी मुद्रा भंडार के अन्य स्रोतों में फेडरल रिजर्व के उपकरण हैं जिनमें भारत का भारी निवेश है। ऊपर के ग्राफ से साफ है कि उस निवेश से जो रिटर्न मिलता है वह नगण्य है। विशेषज्ञों का कहना है कि आरबीआइ का काम सिस्टम में स्थिरता बनाये रखना है न कि निवेश प्रबंधन करना। अब सोचने लायक बात यह कि जो सेंट्रल बैंक 400 बिलियन के मुद्रा भंडार का प्रबंधन करता है वह उसके निवेश का प्रबंधन क्यों नहीं करता? भारत के सर्वोच्च वित्तीय संस्थान से ज्यादा कुशलता से यह काम कौन कर सकता है?
पूर्व आरबीआई प्रमुख और अर्थशास्त्री रघुराम राजन के शब्दों में – “हम अपने पास मौजूद विदेशी भंडार के लिए कुछ भी नहीं करते। हम दूसरे देश को वित्तपोषण कर रहे हैं जबकि हमें हीं वित्तपोषण की आवश्यकता है”।
ऊपर दिया गया आंकड़ा भारत के विदेशी कर्ज़े का संयोजन बताता है। वर्ल्ड बैंक के इस डेटा के मुताबिक भारत के विदेशी मुद्रा भंडार का 84% हिस्सा डालर में है। इसमें सिर्फ डालर करेंसी की बात नहीं हो रही बल्कि डालर से जुडे हुए अन्य निवेश भी हैं। तब भी यह एक गम्भीर समस्या है। किसी कारणवश अगर डालर के मूल्य में गिरावट आती है तो भारत का विदेशी मुद्रा भंडार भी भरभरा कर गिर जाएगा। सबसे बुरी खबर यह है कि इस तरह की घटना और इसके नतीजे कितने बड़े पैमाने पर तबाही ला सकते हैं, यह जानने के बावजूद विदेशी मुद्रा भंडार में डालर का अनुपात लगातार बढ़ रहा है।
मुद्रा के रूप में डालर के ध्वस्त होने की भी बहुत चर्चा है और काफी समय से है पर विश्व की अर्थव्यवस्था में भारी अमरीकी दखल से लोग इसकी सम्भावना को कम ही मानते रहे हैं। यह स्थिति अब तेज़ी से बदली है। लगभग सभी अमरीकी उद्योग अब अपने कारखाने चीन में लगा रहे हैं। चीन लगातार इसमें उनकी मदद कर रहा है और वहां लागत भी कम है।
यह किसी से छुपा हुआ नहीं है कि घटती आर्थिक ताकत की वजह से अमरीका अब कहीं से भी दुनिया का नेतृत्व करने में सक्षम नहीं है। वहीं चीन नये ग्लोबल लीडर के तौर पर उभरा है। यही कारण है कि मंदी के दौर में भी चीन अमरीका के आर्थिक प्रतिबंधों का मज़बूती से जवाब देने में सक्षम है। अगर कोई गूगल पर “डालर कोलैप्स” सर्च करे तो उसे वास्तविकता नज़र आ जाएगी।
तो अब ठंडे दिमाग से इन सारी जानकारियों को आत्मसात करें।
बागों में बहार ‘नहीं’ है!
इकॉनमी ढलान पर है, बैंक डूब रहे हैं, सरकारी उपक्रम खस्ताहाल हैं जिन्हें बेदर्दी से औने-पौने दाम में बेचा जा रहा है, आरबीआइ का निवेश मूल्यविहीन संपत्तियों पर है और रोज़गार खतम हो चला है। जो उम्रदराज पाठक ये सोच रहे हैं की उनका जीवन तो पेंशन से सुरक्षित है उन्हें चेता देना उचित है कि सरकार उनके पीएफ और पेंशन का भुगतान करने में भी असमर्थ होती जा रही है। इसलिए सेवानिवृत्ति की उम्र बढ़ायी जा रही है। अभी सब सुहाना लग रहा है पर 62 की उम्र में पता चले कि पेंशन नहीं मिलेगी तो क्या करेंगे, यह विचारणीय है।
एक बार इस महामंदी को एनपीए फ्राड से जोड़ कर देखें तो समझ जाएंगे कि आने वाले परिणाम अत्यंत घातक हो सकते हैं, इतने घातक कि अनुमान लगाना भी कठिन है। हो सकता है हमारी सम्पूर्ण वित्तीय प्रणाली का ही पतन हो जाए या फिर हमारी पहले से ही कमज़ोर मुद्रा हाइपर-इनफ्लेशन में चली जाए!
इनमें से कुछ या ये सभी घटनाएं वैश्विक पूंजीवादी व्यवस्था के ”निष्कर्ष” के तौर पर देखी जानी चाहिए। निष्कर्ष यह है की पूंजीवादी व्यवस्था का पतन अब बहुत निकट आ चला है। जितना आप और हम सोच रहे हैं उससे कहीं निकट। केवल एक बात है जो हम नहीं जानते। वह है ट्रिगर इवेंट। वह क्या होगा या उसकी समयावधि क्या है जो वैश्विक दहशत का कारण बन सकता है? वह द्विपक्षीय तनाव भी हो सकता है जिसकी पर्याप्त सम्भावनाएं भारत-पाक, भारत-चीन, चीन-अमरीका, अमरीका-रूस के बीच देखी जा सकती हैं। वह ब्रेगज़िट या कोई अन्य घटना से भी हो सकता है। लेकिन यह निश्चित हो चला है कि अब इसे टाला नहीं जा सकता।